Thursday, January 7, 2016

त्यागी भक्त रघुनाथदास



     ऐसे लोग संसार में बहुत मिल जायेंगे जो त्याग और वैराग्य की बातें करते रहते हैं कि यह संसार असार एवं नश्वर है, इसमें सार तो एकमात्र भगवान ही हैं, परन्तु उनमें से कितने लोग ऐसे हैं जो संसार को असार, असत् एवं मिथ्या जानकर उसका त्याग करते हैं? कहने को तो वे बेशक कहते रहते हैं कि ब्राहृ सत्य है और जगत मिथ्या है, परन्तु स्थिति उनकी यह है कि वे असत् संसार को सत् समझकर दृढ़ता से पकड़े रहते हैं, उसे छोड़ना नहीं चाहते।
     कहते हैं कि एक बार कोई प्रेमी परमसन्त श्री कबीर साहिब जी के दर्शन करने उनके घर पहुंचा। उस समय श्री कबीर साहिब घर पर नहीं थे। उस प्रेमी के द्वार खटखटाने पर जब माता लोई ने दरवाज़ा खोला, तो उस प्रेमी ने कहा-मैं श्री कबीर साहिब जी के दर्शन की अभिलाषा लेकर आया हूँ। माता लोई ने कहा-वे इस समय बाहर गये हुए हैं, थोड़ी देर बाद वापस आयेंगे। आप तब तक बैठिये। उस प्रेमी ने कहा-मुझे शीघ्र अपने गाँव वापस जाना है, इसलिए मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता। किन्तु मुझे उनके दर्शन भी अवश्य करने हैं। आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वे कहाँ गए हुये हैं, मैं वहीं उनके दर्शन कर लूँगा।
     माता लोई ने उत्तर दिया-आज पड़ौस में एक व्यक्ति शरीर छोड़ गया था वे उसकी अरथी में गए हैं। लोग कुछ देर पहले ही अरथी लेकर गए हैं; अभी थोड़ी दूर ही होंगे। प्रेमी बोला-अरथी के साथ तो बहुत से लोग होंगे और मैने श्री कबीर साहिब जी के पहले कभी दर्शन नहीं किये। मैं कैसे पहचानूंगा कि श्री कबीर साहिब कौन हैं? आप मुझे उनका कोई पहचान बतलाइये। माता लोई ने कहा-जिसकी टोपी में कलगी चमक रही हो, समझ लेना कि वही श्री कबीर साहिब हैं।
     माता लोई को प्रणाम कर वह व्यक्ति श्मशान भूमि की ओर तीव्रगति से चल दिया। कुछ दूर जाने पर उसने देखा कि एक अरथी के साथ बहुत-से लोग जा रहे हैं, परन्तु सबके सिर पर कलगी है। यह देखकर वह बड़ा चकित हुआ। उसकी समझ में न आया कि इनमें से श्री कबीर साहिब कौन हैं। वह पुनः श्री कबीर साहिब के घर गया और माता लोई को सम्पूर्ण वृत्तांत सुनाया। सुनकर माता लोई ने कहा-यह कलगी वैराग्य की निशानी है। इस समय सभी के दिल में यह भावना है कि यह संसार असार, असत् एवं नाशवन्त है। यहाँ की हर वस्तु एक दिन नष्ट हो जानी है। यहाँ सत् एवं शाश्वत तो केवल परमेश्वर का नाम है। वैराग्य की इस भावना के कारण सभी के सिर पर कलगी दिखाई दे रही है। अब तुम ऐसा करो कि जब सभी लोग श्मशान भूमि से वापस आने लगें तब देखना कि उनमें से किसके सिर पर कलगी है। उस समय जिसके सिर पर कलगी हो, तो समझ लेना कि वही श्री कबीर साहिब जी हैं।
     उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया। जब सब लोग मृत-देह का अन्तिम संस्कार कर वापस लौटे, तो उस व्यक्ति ने देखा कि अब उन सबमें केवल एक व्यक्ति ही ऐसा है जिसके सिर पर कलगी है। वह समझ गया कि वही श्री कबीर साहिब जी हैं। वह उनके निकट गया और उन्हें प्रणाम करके सम्पूर्ण घटना कह सुनाई औैर फिर पूछा-अब सबके सिर पर कलगी क्यों नहीं है? श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-जब ये लोग अरथी के साथ जा रहे थे तब इन सबके दिल में वैराग्य की भावना थी और ये सब त्याग और वैराग्य की बातें कर रहे थे, परन्तु अब ये लोग कैसी बातें कर रहे हैं, तुम स्वयं ही सुन लो।
     उस व्यक्ति ने जब लोगों की बातें सुनीं तो वास्तविकता उसकी समझ में आ गई। वही लोग जो कुछ देर पहले कह रहे थे कि राम-नाम सत् है, यह संसार मिथ्या और नाशवान् है, यहाँ किसी को सदा नहीं रहना है, वही सब लोग अब सांसारिक बातें कर रहे थे। कोई व्यापार सम्बन्धी बातें कर रहा था, कोई परिवार सम्बन्धी।
कोई किसी के विवाह की बातें कर रहा था और कोई किसी की निंदा कर रहा था।
     श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-ये सब अब भूल गये हैं कि संसार असत् और नाशवान् है। ये अब उसे सत् समझकर उससे चिपक गए हैं। किन्तु हम इस बात को सदैव याद रखते हैं, एक पल के लिए भी इस बात को नहीं भूलते कि यह संसार असार, असत और नाशवन्त है। सत् एवं अनश्वर तो केवल परमेश्वर की ज़ात और परमेश्वर का नाम है।
     आम संसारी लोगों की यही दशा है कि वे असार एवं असत् संसार तथा संसार के पदार्थों को तो सार एवं सत् समझ कर उनमें आसक्त रहते हैं और भगवान का नाम और उनकी भक्ति जो सार एवं सत् है, उसे विस्मृत किये बैठे हैं। कोई विरले ही भाग्यवान होते हैं, सत्पुरुषों की संगति के प्रताप से जिन्हें सद्बुद्धि प्राप्त हो जाती है और जिनके दिल में वैराग्य की भावना उत्पन्न होती है। भक्त रघुनाथदास ऐसे ही संस्कारी एवं सौभाग्वान पुरुष थे। उनका जन्म एक धनाढ्य परिवार में हुआ था, परन्तु संसार के असत् धन-वैभव तथा झूठे सुख भोगों को ठोकर मारकर उन्होने परमात्म-प्रप्ति के मार्ग पर पग बढ़ाया और अपना नाम सदा के लिए अमर कर गए।
     लगभग सौ वर्ष पूर्व बंगाल में सप्तग्राम नामक एक प्रसिद्ध नगर था। यह उन दिनों की बात है जब सैयद हुसैनशाह बंगाल का शासक था। सप्तग्राम में हिरण्यदास और गोवद्र्धनदास नाम के दो धनी महाजन रहते थे जो भाई-भाई थे। ये दोनों भाई सैयद हुसैनशाह के लिए ठेके पर लगान वसूल किया करते थे। साल में बारह लाख रुपये लगान केरुप में सैयद हुसैनशाह को देने के बाद इनके पास लगभग आठ लाख रुपये बच जाया करते थे। उन दिनों केआठ लाख आज के कितने लाख के बराबर होंगे, पाठक स्वयं ही इस बात का अनुमान लगायें। इतनी वार्षिक आय कम नहीं होती। हिरण्यदास और गोवद्र्धनदास राजाओं जैसा जीवन व्यतीत करते थे और उस क्षेत्र के लोग इन्हें राजा साहिब कहकर ही बुलाया भी करते थे। ऐसे वैभव-सम्पन्न और धनी परिवार में भक्त रघुनाथदास का जन्म हुआ था। वे गोवद्र्धनदास के इकलौते पुत्र थे, उनकी अन्य कोई सन्तान नहीं थी। हिरण्यदास सन्तानहीन थे। इस प्रकार दोनों परिवारों की आँखों के तारे भक्त रघुनाथदास ही थे।
     भक्त रघुनाथ का एक राजकुमार की तरह बड़े ही प्यार-दुलार के साथ लालन-पालन हुआ। पाँच वर्ष की आयु होने पर विद्याभ्यास के लिए उन्हें कुल पुरोहित श्री बलराम आचार्य के यहाँ भेजा जाने लगा। रघुनाथदास ने बड़ी लगन और चाव के साथ संस्कृत का अध्ययन किया। कुशाग्रबद्धि तो थे ही, लगन और चाव भी था, अतः कुछ ही वर्षों में वे संस्कृत भाषा में पारंगत हो गए। शास्त्रों की वे ऐसी व्याख्या करते कि बड़े-बड़े विद्वान चकित रह जाते।
     श्री बलराम आचार्य बड़े ही भगवद्भक्त, सदाचारी और सत्संगी पुरुष थे। उनके यहां साधु-सन्त प्रायः आते ही रहते थे और सत्संग का प्रवाह चलता ही रहता था, परन्तु जिन दिनों रघुनाथदास उनके घर विद्याध्ययन के लिए जाते थे, तब उनके घर पर श्री चैतन्य महाप्रभु के परमप्रिय शिष्य श्री हरिदास जी ठहरे हुए थे और सत्संग द्वारा जीवों को मोह-निद्रा से जगाने के साथ-साथ नाम एवं भक्ति का अमृतरस पान भी करवा रहे थे। सत्संग से रघुनाथदास के संस्कार जाग उठे और उन्हें भी नाम-भक्ति के अमृतरस का पान करने का सुअवसर मिला। ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती गई, वे इस रस में डूबते चले गए। युवा होते-होते उनकी यह दशा हो गई कि इस रस के समक्ष संसार के सभी रस उन्हें नीरस लगने लगे। सत्पुरुषों ने सत्य ही कहा है किः-
रारा रसु निरस करि जानिआ।। होइ निरस सु रसु पहिचानिआ।।
इह रस छाडे उह रसु आवा।। उह रसु पीआ इह रसु नहीं भावा।।
(गुरवाणी)
सत्पुरुष श्री कबीर साहिब फरमाते हैं कि जिस सौभाग्यशाली मनुष्य ने संसार के रसों को नीरस अर्थात् फीका समझ लिया, उसने ही उन स्वादों का त्याग करके प्रभु-नाम के सच्चे रस का पान किया। संसार के झूठे रसों को छोड़ने से ही प्रभु-नाम के रस का मनुष्य आस्वादन कर पाता है और जब प्रभु-नाम का रस वह एक बार पी लेता है, तो फिर उसे संसार के झूठे रस कदापि अच्छे नहीं लगते।
     गन्दगी का कीड़ा चाहे गन्दगी में मस्त रहे, परन्तु भ्रमर, जिसने पुष्पों का मधुर रस का आस्वादन किया है, वह तो गन्दगी से कोसों दूर भागता है। इसी प्रकार जिसने नाम एवं भक्ति के अलौकिक रस का आस्वादन कर लिया, विषयों की मलिनता से वह भी उसी प्रकार दूर भागता है जैसे गन्दगी से भ्रमर।
जिनि पीआ सार रसु तजे आन रस होइ रस मगन डारे बिखु खोइ।।
(गुरुवाणी)
सन्त रविदास जी कथन करते हैं कि जिन्होने प्रभु-नाम का सार रस पी लिया है, वे अन्य सभी रसों को तज देते हैं। उस रस में मग्न रहकर वे विषय-वासना रुपी विष को त्याग देते हैं।
     भक्त रघुनाथ जी की भी अब यही दशा थी। वे नाम-भक्ति के अलौकिक रस का आस्वादन कर चुके थे, अतएव धन-वैभव तथा शरीर-इन्द्रियों के सुख-भोग अब उन्हें तुच्छातितुच्छ प्रतीत होते थे। वे तो अब हर समय नाम की मस्ती में लीन रहते थे। एक दिन सप्तग्राम के प्रेमियों को यह समाचार मिला कि श्री चैतन्य महाप्रभु शान्तिपुर में आये हुए हैं और श्री अद्वैताचार्य जी के घर विराजमान हैं। समाचार पाकर प्रेमीजन उनके दर्शनों को उमड़ पड़े। समाचार रघुनाथदास जी ने भी सुना। सुनते ही उनका दिल महाप्रभु के श्री दर्शन करने के लिए छटपटा उठा। उन्होंने शान्तिपुर जाने के लिए पिता से आज्ञा माँगी। गोवद्र्धनदास एक आम संसारी व्यक्ति थे। उन्होनें रघुनाथदास से कहा-साधु सन्तों के पास जाकर तुमने क्या लेना है? तुम अब जवान हो, कामकाज की ओर ध्यान दो ताकि मेरा बोझ हल्का हो।
     किन्तु जब रघुनाथ ने दो-तीन बार आग्रह किया और पिता ने उनके चेहरे पर कुछ बेचैनी देखी, तो यह सोचकर कि कहीं पुत्र रुष्ट न हो जाए, उन्हें जाने की आज्ञा दे दी, परन्तु गोवद्र्धनदास ने उन्हें पैदल नहीं जाने दिया। उन्हें सुन्दर पालकी में बिठाकर, दस-बारह नौकरों के दल के साथ भेजा। शान्तिपुर पहुँचकर रघुनाथदास सीधे श्री अद्वैताचार्य जी के घर गए और श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों में भेंट की सब वस्तुयें रखकर उन्होने महाप्रभु के चरणों में अपना शीश रख दिया और अश्रुओं से उन्हें पखारने लगे। महाप्रभु श्री चैतन्य देव समय के पूर्ण पुरुष थे। वे रघुनाथदास को देखते ही भांप गए कि यह उच्च संस्कारी जीव है। यह संसार में फँसने नहीं आया, अपितु अनेक ग्रन्थों की रचना करके इसने लोगों में भक्तिभाव दृढ़ करना है। किन्तु अभी इसका समय नहीं आया।
     महाप्रभु ने प्यार से रघुनाथदास के सिर पर हाथ फेरा। स्नेह पाकर नेत्र और भी वेग से प्रवाहित होने लगे मानो ह्मदय के धीरज का बाँध टूट गया हो। उन्होने श्री चैतन्यदेव के चरणों में विनय की-महाप्रभो! मुझ अनाथ को अपनी शरण में ठौर दीजिए। श्री चैतन्य महाप्रभु ने फरमाया-तुम अभी युवा हो और माता-पिता की एकमात्र सन्तान हो। तुम्हारे सिवा उनका कोई और सहारा नहीं है। इसलिए घर में रहकर ही भगवान का भजन-सुमिरण करते रहो। घर-गृहस्थी में अनासक्त भाव से रहकर भी भगवान को प्राप्त किया जा सकता है।
     इस प्रकार समझा-बुझाकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथदास को घर वापस भेज दिया। रघुनाथदास घर वापस लौटे, परन्तु शरीर से, मन से नहीं। मन तो उनका महाप्रभु के चरणों में समर्पित हो गया था। उनका दिल अब किसी काम में न लगता। वे हर समय अपने कमरे में चुपचाप पड़े रहते। न किसी से बात करते और न ही कमरे से बाहर निकलते। एकान्त में पड़े-पड़े अश्रुपूर्ण नेत्रों से हर समय चैतन्य महाप्रभु के चरणों में प्रार्थना करते रहते-महाप्रभो! इस संसार की गहरी दलदल से मेरा हाथ पकड़कर मुझे बाहर निकाल लो। ऐसा न हो कि मैं इस दलदल में डूब जाऊँ। पहले ही इस दलदल में डूबकर मैने अनेक योनियों के नारकीय क्लेश और दारूण दुःख सहे हैं। इन दुःखों-कष्टों से छुड़ाने में हे प्रभो! तुम्हीं समर्थ हो। हे नाथ! तुम्हारे बिना दूसरा कौन है जिसे मैं अपने मन की व्यथा सुनाऊँ? अन्य कौन मेरी व्यथा हरेगा? इसलिए अब इस अनाथ पर कृपा करो और शीघ्र ही अपनी शरण में बुला लो।
     उनके इस बदले हुए रंग-ढंग को देखकर उनके पिता और ताऊ-दोनों यह सोचकर पश्चात्ताप करने लगे कि उन्होंने रघुनाथदास को श्री चैतन्य महाप्रभु के पास क्यों जाने दिया? उन्हें ऐसा कदपि नहीं करना चाहिए था, खैर! जो कुछ हुआ सो हुआ, भविष्य में ऐसी भूल नहीं होनी चाहिए। सन्तों की संगति से कहीं ऐसा न हो कि लड़का हाथ से निकल जाए।
     ऐसा परामर्श करके पिता ने रघुनाथदास की कड़ी निगरानी शुरु कर दी। साधु-सन्तों की बात तो दूर, कथा-कीर्तन में भी उनका जाना बन्द कर दिया गया और गुप्तरुप में उनके चारों ओर पहरा लगा दिया गया। कहीं भी उन्हें अकेले न जाने दिया जाता। इसके अतिरिक्त माता-पिता ने यह सोचकर उनका एक अति रुपवती कन्या के साथ विवाह कर दिया कि स्त्री के रुप-जाल में फँसकर रघुनाथदास साधु-सन्तों की संगति में आना-जाना स्वयं ही छोड़ देगा। किन्तु उनकी यह धारणा सर्वथा निर्मूल सिद्ध हुई। विवाह के बाद तो रघुनाथदास की व्याकुलता और भी बढ़ गई और वे इस बन्धन को शीघ्रातिशीघ्र तोड़ने का यत्न करने लगे। उन्होंने एक दिन घर से भागने का प्रयत्न किया, परन्तु कड़ा पहरा होने से वे इसमें सफल न हो सके। बार-बार प्रयत्न करने पर एक दिन पहरेदारों की नज़र बचाकर वे निकलने में सफल भी हो गए, परन्तु पहरेदारों ने उनका पीछा करके उन्हें पकड़ लिया। उनके द्वारा भागने का बार-बार प्रयत्न करने पर उनके पिता परेशान हो गए और अऩ्ततः अन्य कोई उपाय समझ में न आने पर उन्होने रघुनाथदास को रस्सियों से बँधवा दिया। किन्तु बाद में रिश्तेदारों के समझाने-बुझाने पर कि इस प्रकार मामला अधिक बिगड़ सकता है, पिता ने बन्धन खुलवा दिये, परन्तु चौकसी पहले से भी अधिक बढ़ा दी।
     रिश्तेदारों ने इधर तो रघुनाथदास को प्रेम से समझाया कि ऐसा काम क्यों करते हो जिससे माता-पिता परेशान हों, उधर गोवर्धनदास को भी समझाया कि लड़का अब जवान और विवाहित है और जब लड़का जवान हो जाए तो फिर उसके साथ ऐसा सख्त व्यवहार करना किसी भी तरह उचित नहीं। विचारवानों का इस विषय में कथन है किः-
लालेयेत्पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु  षोडशे  वर्षे  पुत्रं मित्रवदाचरेत्।।
अर्थात् पुत्र के साथ पाँच वर्ष तक प्यार का बर्ताव करे, दश वर्ष तक आवश्यकतानुसार ताड़ना दे और जब पुत्र सोलह वर्ष का हो जाए तब उससे समानता का बर्ताव करना ही उचित है।
     इसलिए रघुनाथ पर सख्ती करने की अपेक्षा उसे प्रेम से समझाना ही उचित है। यदि वह सत्संग आदि में जाता है तो इसमें हानि ही क्या है? वह कोई बुरा काम तो नहीं करता जो उसे ऐसा करने से रोका जाए। रिश्तेदारों के समझाने पर गोवद्र्धनदास ने दिखावे के लिए रघुनाथदास पर रोक-टोक हटा दी, परन्तु गुप्तरुप से चौकसी पहले की तरह ही जारी रखी।
     उन दिनों बंगाल में श्री चैतन्य महाप्रभु की महिमा तो फैली ही हुई थी, श्री नित्यानन्द जी के नाम की भी धूम मची थी। संन्यास लेने के उपरांत अनेकों तीर्थों पर भ्रमण करके अन्ततः श्री नित्याननद जी ने श्रीचैतन्य महाप्रभु की चरण-शरण ग्रहण कर ली थी। बाद में महाप्रभु के आदेश से वे भगवन्नाम का प्रचार करने में लग गये। इस कार्य के लिये उन्होने पानीहाटी नामक गांव में अपना प्रधान केन्द्र स्थापित किया। यह गांव सप्तग्राम से थोड़ी ही दूरी पर था।
     श्री नित्यानन्द जी की महिमा भक्त रघुनाथदास ने भी सुनी। सत्संगति का लाभ प्राप्त करने तथा भगवन्नाम का अमृत रस पान करने के लिए वे अधीर हो उठे। उन्होंने पानीहाटी जाने के लिए पिता से आज्ञा माँगी। पिता ने भी रोक-टोक न की अपितु खुशी-खुशी वहाँ जाने की अनुमति दे दी। गोवर्धनदास ने अब अधिक सख्ती करने की बजाय "रस्सा ढील' नीति अपना ली थी। जैसे बिगड़े हुए घोेड़े के गले में लम्बी रस्सी बाँधकर और उसका दूसरा सिरा दृढ़ता से पकड़कर तथा यह सोचकर कि ""रस्सी का सिरा तो हाथ में है ही घोड़ा जाएगा कहाँ''- उसे खुला छोड़ दिया जाता है ताकि वह जितना जी चाहे उछलकूद ले, उसी प्रकार गोवर्धनदास ने भी देखभाल करने वालों को तो और भी अधिक सावधानी के साथ रघुनाथदास पर निगाह रखने के लिए सख्त ताकीद की, परन्तु ऊपर से यह प्रकट किया मानों उन्होंने रघुनाथदास पर से सभी प्रकार के प्रतिबन्ध हटा लिए हैं। किन्तु रघुनाथदास यह भलीभाँति समझ रहे थे कि गुप्तरुप से उनकी कड़ी निगरानी की जा रही है।
     पिता की अनुमति मिल जाने पर रघुनाथदास पानीहाटी गए और श्री नित्यानन्द जी के दर्शन तथा भगवन्नाम की ध्वनि से अपने तन-मन को पवित्र किया। वहाँ अनेकों महात्मा-भक्त एकत्र थे। रघुनाथदास ने उसदिन अपने खर्चे से सबके भोजन का प्रबन्ध किया। दूसरे दिन श्री नित्यानन्द जी की आज्ञा से वे घर लौट आए। किन्तु शरीर से, मन से नहीं। मन तो उनका अब पूरी तरह भगवान के चरणों में समर्पित हो चुका था।
     एक रात ऐसा संयोग हुआ अथवा यूँ कहा जाए कि भगवान की महामाया ने अपना काम किया कि रघुनाथदास की निगरानी करनेवाले तथा महल के अन्य सभी पहरेदार सबके सब गहरी नींद में सो गए। किन्तु रघुनाथदास सजग थे। वे इस अवसर से कब चूकनेवाले थे? वे तुरन्त घर से भाग निकले। प्रातः होने पर जब पता चला तो महल में कुहराम मच गया। गोवर्धनदास ने चारों ओर आदमी दौड़ाये, परन्तु रघुनाथदास का कुछ पता न लगा। उन दिनों हज़ारों तीर्थयात्री पुरी की ओर जा रहे थे, अतः यह सोचकर कि कहीं उस ओर न गया हो, गोवर्धनदास ने घुड़सवारों को पुरी के मार्ग पर खोज करने के लिये भेजा। घुड़सवारों ने काफी दूर तक उस मार्ग पर खोज की, अनेकों यात्रियों से जिनमें से अनेकों सप्तग्राम के आसपास के क्षेत्रों के थे, रघुनाथदास के विषय में पूछताछ की, परन्तु कुछ पता न चला। और पता चलता भी कैसे? तीर्थ यात्रियों के साथ सीधे मार्ग से रघुनाथदास जाते, तब तो घुड़सवारों को मिलते? वे तो किसी और ही मार्ग से पुरी जा रहे थे। हुआ यह कि घर से निकलने के उपरांत उनके मन में प्रभु प्रेरणा से यह विचार उठा कि सीधे रास्ते से पुरी जाना उचित नहीं है, क्योंकि अनेकों तीर्थयात्री पुरी जा रहे हैं। वे पूछेंगे कौन हो, कहाँ के रहनेवाले हो, तो उन्हें क्या उत्तर दूँगा? सत्य बतलाने से उन्हें यह ज्ञात हो जाएगा कि मैं कौन हूँ। हो सकता है कि पिता जी घुड़सवारों को मेरी खोज में इसी मार्ग पर भेज दें। यदि ऐसा हुआ तो फिर यात्रियों द्वारा उन्हें पता चल जाएगा और मुझे घर वापस जाना पड़ेगा। यह भी हो सकता है कि यात्रियों में कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जो मेरे विषय में जानता हो। मुझे देखकर वह घर सूचना दे सकता है। इसलिए सीधे मार्ग से जाना किसी भी तरह से ठीक नहीं है।
     मन में यह विचार करके सीधी सड़क पकड़ने की अपेक्षा उन्होंने मार्ग से काफी हटकर पगडंडी से जाना अधिक उपयुक्त समझा। घुड़सवारों के मन में यह विचार तक नहीं आया कि रघुनाथदास सीधा मार्ग छोड़कर ऊबड़-खाबड़ मार्ग से पुरी जायेंगे। फल यह हुआ कि सीधे मार्ग पर खोज करके वे निराश वापस लौट गए। महल में उदासी छाई हुई थी। सम्बन्धियों और नगरवासियों का ताँता लगा हुआ था। सब बारी-बारी से आते और रघुनाथदास के माता-पिता के प्रति संवेदना प्रकट करके चले जाते।
     एक राजकुमार जो जीवन में कभी एक पग भी बिना सवारी के न चला हो, वह पैदल ही पुरी की ओर
जा रहा था और वह भी सीधे मार्ग से नहीं, ऊबड़-खाबड़ मार्ग से। किन्तु मन में तीव्र वैराग्य था, अतः रघुनाथदास दिन भर चलते रहे और सायँकाल होते-होते लगभग पचास किलोमीटर निकल गये। वहाँ एक छोटा-सा गाँव देखकर उन्होंने रात्रि वहीं व्यतीत करने का निश्चय किया और एक ग्वाले के घर डेरा लगाया तथा उसके दिये हुये थोड़े-से दूध से ही क्षुधा मिटाई।
     पूर्व में अभी लालिमा छानी आरम्भ ही हुई थी कि रघुनाथदास उठ बैठे और ग्वाले से आज्ञा लेकर आगे चल दिये। इस प्रकार नित्यप्रति प्रातः से सायं तक पैदल चलकर वे बारहवें दिन ही पुरी जा पुहंचे जबकि आमतौर पर यात्री बंगाल से एक महीने में वहाँ पहुँचते थे। इन बारह दिनों में उन्होने केवल तीन बार भोजन किया। पुरी पहुँचते ही उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के निवास-स्थान का पता लगाया और शीघ्र ही निश्चित स्थान पर जा पुहँचे। श्री चैतन्य महाप्रभु उस समय एक उच्च आसन पर विराजमान थे और अनेकों भक्त उनके सम्मुख बैठे थे। श्री चैतन्य महाप्रभु उनके साथ भगवच्चर्चा कर रहे थे। महाप्रभु के दर्शन करते ही रघुनाथदास भाव-विह्वल हो गये और तन-बदन की सुधि भूल गए। कुछ पल बाद चेत होने पर वे महाप्रभु के निकट पहुँचे और उनके चरणों में जा गिरे। उन्हें देखते ही महाप्रभु प्रसन्न होकर बोले-वत्स रघुनाथ! कहो कुशल से तो हो? रघुनाथदास ने विनय की-हाँ प्रभो! अब कुशल से हूँ, क्योंकि अब आपके श्री चरणों की छत्रच्छाया में पहुँच गया हूँ।
     यहाँ हमें श्री रामायण का एक प्रसंग याद आ गया, जिसे पाठकों की रुचि तथा लाभ के लिये यहाँ लिख देना उचित मालूम होता है। जब भक्त विभीषण जी लंका त्यागकर भगवान श्री रामचन्द्र जी की शरण में पहुँचे तो भगवान ने भी भक्त विभीषण से उस समय यही प्रश्न पूछा था कि कहो, लंकेश! कुशल से तो हो? तब विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा थाः-
चौपाईः-           अब पद देखि कुसल रघुराया। जौ तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया।।
दोहाः-                  तब लगि कुसल न जीव कहूँ, सपनेहूँ  मन  बिश्राम।
 जब लगि भजन न राम कहूँ, सोक धाम तजि काम।।
।।चौपाई।।
तब लगि ह्मदय बसत खल नाना। लोभ मोह मत्सर मद नाना।।
जब  लगि उर न बसत रघुनाथा। धरे चाप सायक कटि भाथा।।
ममता  तरुन  तमी  अंधिआरी । राग  द्वेष  उलूक  सुखकारी।।
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रवि नाहीं।।
अब  मैं कुसल  मिटे भय भारे। देखि  राम पद कमल तुम्हारे।।
 तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न व्याप त्रिविध भव सूला।।
                                           सुन्दरकाण्ड
विभिषण ने कहा-हे रघुनाथ जी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है और अपने चरणों में बुलाया है। जीव की तब तक कुशल नहीं और न ही स्वप्न में उसके मन को शान्ति है, जब तक वह शोक के घर कामनाओं को छोड़कर भगवान का भजन नहीं करता। लोभ, मोह, मत्सर, मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक ह्मदय में बसते हैं, जब तक धनुष-बाण और कमर में तरकस लिए रघुनाथ जी ह्मदय में नहीं बसते।
     ममता पूर्ण अन्धेरी रात है, जो राग-द्वेष रुपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह ममता रुपी रात्रि तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु का प्रताप रुपी सूर्य उदय नहीं होता। हे प्रभो! आपके चरणारविन्दों के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूँ। मेरे भारी भय मिट गए हैं। हे कृपालु! तुम जिस पर अनुकूल अर्थात् प्रसन्न होते हो, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते।
     रघुनाथ ने भी महाप्रभु श्री चैतन्य से यही कहा कि अब आपके चरणों में पहुँचने पर कुशल से हूँ। महाप्रभु उनके भक्तिभाव पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और अपना कृपापूर्ण हाथ उनके सिर पर फेरने लगे। महाप्रभु के ऐसा करने पर रघुनाथदास के प्रेम का बाँध टूट पड़ा और उनकी आँखों में खुशी के आँसू छलकने लगे। कुछ देर बाद महाप्रभु ने अपने एक शिष्य स्वरुप दामोदर को अपने पास बुलाकर कहा-रघुनाथदास आज से तुम्हारे हवाले है। इसके खान-पान आदि का ध्यान तो तुमने रखना ही है, साधन-भजन की भी सारी व्यवस्था तुम्हारे ज़िम्मे है।
     "सत्यवचन' कहते हुए स्वरुपदामोदर ने महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की और रघुनाथदास को अपनी कुटी में ले गए। स्नानादि से निवृत्त होने के उपरांत रघुनाथदास ने भोजन किया, जिसमें कई प्रकार के व्यंजन थे। किन्तु जब चार-पाँच दिन तक ऐसा ही भोजन उनके सामने परोसा गया तो उन्होंने सोचा कि स्वरुपदामोदर कदाचित अभी भी मुझे राजकुमार ही समझते हैं, इसीलिए तो ऐसा भोजन मुझे देते हैं, परन्तु इस प्रकार का भोजन करने से वैराग्य कैसे सधेगा? यह सोचकर उन्होंने वहाँ भोजन करना बन्द कर दिया और एक साधारण भिक्षुक के समान जगन्नाथ जी के मन्दिर के सिंह द्वार पर खड़े होकर वे भिक्षावृत्ति करने लगे। भिक्षा से प्राप्त प्रसाद ग्रहण कर वे हर समय प्रभु-चिंतन में लीन रहते। स्वरुपदामोदर ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणों में जब यह बात कही, तो सुनकर वे मौन ही रहे,उन्होने कोई उत्तर न दिया।
किन्तु धीरे-धीरे मन्दिर में सेवारत सेवकों को जब इस बात का पता चला कि रघुनाथदास बहुत ही धनाढ¬ परिवार से सम्बन्धित हैं, तो उनके व्यवहार में अन्तर आ गया और वे लोग अधिकाधिक मात्रा में अनेक प्रकार के पदार्थ उन्हें भिक्षा में देने लगे। रघुनाथदास ने इस बात को जानकर वहाँ भिक्षा माँगना भी छोड़ दिया। वे अब नगर के एक छोर पर स्थित एक अन्न क्षेत्र में जाते और रूखा-सूखा जो कुछ भी मिलता, उसे ग्रहण कर लेते। श्री चैतन्य महाप्रभु रघुनाथदास की प्रत्येक गति विधि पर दृष्टि रखे हुए थे। उनके बढ़ते हुए वैराग्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए। एक दिन उन्होने रघुनाथदास को अपने निकट बैठाकर कहा-रघुनाथदास! तुम्हारा भक्तिभाव देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता है। आज मैं तुम्हें सब शास्त्रों का सार बतलाता हूँ कि भगवान के नाम का सुमिरण और चिंतन ही संसार में आत्म-कल्याण का एक मात्र साधन है। किन्तु इस साधन की पात्रता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य निरन्तर सत्संगति करे, सासंारिक चर्चा से बचे, दूसरों की निंदा से कोसों दूर रहे, स्वयं निरभिमानी होकर दूसरों का मान करे, किसी का दिल न दुखाये और दूसरे के दुखाने पर दुःखी भी न हो, आत्म प्रतिष्ठा को विष्ठावत् समझे तथा सरल और सच्चरित्र होकर जीवन व्यतीत करे। रघुनाथ ने श्री चैतन्य महाप्रभु के इस उपदेश को न केवल श्रद्धापूर्वक ह्मदय में धारण किया, अपितु इसका पूरी तरह से पालन भी किया।
     इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपादृष्टि के पात्र बनकर रघुनाथदास ने सोलह वर्ष कठिन साधना की। महाप्रभु जब दिन-रात प्रभु-प्रेम में मग्न रहने लगे, तब वे छाया की तरह सदा उनके साथ रहने लगे। वे बड़ी ही श्रद्धा के साथ महाप्रभु की सेवा करते और उनके अमृतमय वचनों का पान करते। आगे चलकर जब महाप्रभु ब्राहृलीन हो गए, तो उनके शोक का पारावार न रहा और महाप्रभु के बाद जब श्री स्वरुपदामोदर भी इस असार संसार को छोड़कर परलोक गमन कर गए, तो रघुनाथदास पुरी छोड़कर वृन्दावन चले गए और कठोर साधना में लग गए। वे केवल छाछ पीकर जीवन-निर्वाह करते, रात को केवल डेढ़-दो घंटे सोते, शेष सारा समय भगवान के भजन-ध्यान में व्यतीत करते। वे त्याग एवं वैराग्य की मूर्ति थे, जिह्वा के आस्वादन से बहुत दूर थे और वस्त्र भी कम से कम पहनते थे। उनकी साधना से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिये।
     संस्कृत के वे अच्छे जानकार थे। अतः बाद में प्रभु-प्रेरणा से उन्होंने संस्कृत भाषा में कई ग्रथों की रचना की। इस प्रकार वैराग्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए तथा भगवद्भजन करते हुए पच्चासी वर्ष की अवस्था में इस पाँचभौतिक शरीर को त्यागकर प्रभु-चरणों में लीन हो गए।

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