Thursday, January 7, 2016

अमानत में ख्यानत



     बहुत समय पहले की बात है, मालवा के राजसिंहासन पर राजा शक्तिसिंह का शासन था। अपने नाम के ही अनुरुप वह अत्यन्त शक्तिशाली था और आसपास के सभी राजा उसकी शक्ति का लोहा मानते थे। शक्तिशाली होने के कारण उसमें अहंकार का आ जाना एक स्वाभाविक बात थी। एक दिन राजा शक्तिसिंह के मन में शिकार खेलने की इच्छा हुई। इच्छा उठने की देर थी कि सारथि को आदेश हुआ कि रथ तैयार करो, राजा साहिब शिकार पर जायेंगे। सारथि ने तत्काल शिकार के लिए आवश्यक सामान रथ में रखकर घोड़े जोते। राजा शक्तिसिंह ने रथ में बैठकर वन की ओर प्रस्थान किया। जैसे ही उसने वन में प्रवेश किया, एक अति सुन्दर हरिण छलांगें मारता हुआ रथ के आगे से निकला। राजा ने तुरन्त सारथि से कहा-""कितना सुन्दर हरिण है। इसको जीवित पकड़ना है, रथ इसके पीछे लगा दो।''
     सारथि ने रथ हरिण के पीछे लगा दिया। यह देखकर हरिण तेज़ी से भागा। राजा ने सारथि से कहा-""रथ तेज़ करो, शिकार हाथ से जाने न पाये।'' सारथि ने घोड़ों को सरपट दौड़ाया, परन्तु हरिण तो अपने प्राण बचाने के लिए उस समय घोड़ों से भी तेज़ दौड़ रहा था। यह देखकर राजा ने पुनः कहा-""घोड़े और तेज़ करो।'' सारथि ने घोड़े और तेज़ किये, परन्तु हरिण अब भी बहुत आगे था। शक्तिसिंह सारथि पर नाराज़ होने लगा। तब सारथि बोला-""राजन्! घोड़े तो अपनी शक्ति के अनुसार पूरे वेग से भाग रहे हैं, अब इससे तेज़ भागने की इनमें सामथ्र्य नहीं है। हाँ! यदि इस समय वामी घोड़े होते तो फिर शिकार निश्चय ही आपके हाथ में था।''
     सारथि से वामी घोड़ों का नाम सुनकर शक्तिसिंह हैरान हुआ। उसकी अश्वशाला में एक से बढ़कर एक घोड़े मौजूद थे, परन्तु वामी घोड़ों का नाम तो उसने आज तक न सुना था। यह नाम उसके लिए बिल्कुल नया था। उसने सारथि को रथ रोक देने का आदेश दिया। जब रथ रुक गया तो राजा ने सारथि से पूछा-"" वामी घोड़ों से तुम्हारा क्या अभिप्राय है? हमने तो आज तक इन घोड़ों के बारे में नहीं सुना।'' सारथि ने उत्तर दिया-""राजन्! इसी वन के दूसरे छोर पर महर्षि वामदेव जी का आश्रम है। उनके पास दो ऐसे घोड़े हैं जो हवा से बातें करते हैं। चूँकि वे घोड़े महर्षि वामदेव जी के पास हैं, इसलिये लोग उन्हें वामी घोड़े कहते हैं।''
     राजा ने कहा-""तो फिर अपना रथ महर्षि जी के आश्रम की ओर मोड़ दो। हम वे घोड़े देखना चाहते हैं।'' सारथि ने रथ का रुख मोड़ दिया। कुछ ही देर बाद रथ महर्षि जी के आश्रम पर पहुँच गया। महर्षि वामदेव जी ने राजा का स्वागत-सत्कार कर कुशल-क्षेम पूछा और फिर आश्रम पर आने का कारण। राजा ने हाथ जोड़कर कहा-""आपकी कृपा से सब कुशल-मंगल है। आज हम इधर शिकार के लिए आए थे कि एक हरिण हमारे रथ के आगे से निकला। हरिण बहुत सुन्दर था। हम उसे जीवित पकड़ना चाहते थे, परन्तु उसकी गति के समक्ष हमारे घोड़े पिछड़ गए। उस समय सारथि से हमें ज्ञात हुआ कि आपके पास हवा से बातें करने वाले दो घोड़े हैं। आप वे घोड़े हमें कुछ समय के लिए दे दें। शाम को वे घोड़े हम आपको वापस कर देंगे।''
     महर्षि वामदेव जी बोले-""राजन्! मेरे पास जो घोड़े हैं, वे वरुण देवता के हैं। आप चूँकि स्वयं चलकर यहाँ आए हैं, इसलिए हम आपको इनकार नहीं करते, परन्तु ये घोड़े शाम को हर हालत में यहाँ पहुँच जाने ज़रूरी हैं।'' राजा ने शाम को घोड़े पहुँचा देने का वादा किया और महर्षि जी से घोड़े लेकर शिकार के लिए चला गया। शाम हुई, परन्तु तब तक राजा का मन बेईमान हो चुका था, अतः उसने सारथि से कहा-""घोड़े महल की ओर ले चलो।''
     सारथि ने घूमकर राजा की ओर देखा, परन्तु कुछ बोला नहीं। उसने रथ महल की ओर मोड़ दिया। जब
शाम को घोड़े वापस न आये तो महर्षि वामदेव जी समझ गये कि राजा घोड़ों को अपने साथ ले गए होंगे। उन्होंने अपने एक शिष्य को राजा के पास भेजा, परन्तु राजा ने टालमटोल कर उसे वापस भेज दिया। तब महर्षि जी स्वयं राजा के पास गये। पहले तो राजा ने टालमटोल की कि घोड़े थके हुये हैं, आपको बाद में पहुँचा दिये जायेंगे, परन्तु जब महर्षि जी ने घोड़े तत्काल उनके हवाले कर देने के लिए ज़ोर दिया तो राजा शक्तिसिंह ने घोड़े वापस देने से साफ साफ इनकार करते हुए कहा-""ये घोड़े राजाओं के रखने योग्य हैं, आप ऋषियों का इनसे क्या काम?''
     महर्षि वामदेव जी ने कहा-""राजन्! यह तो अमानत में ख़्यानत है। यह ठीक नहीं है।''
     राजा ने अहंकार से कहा-""तो फिर आपसे जो हो सकता है कर लीजिये, ये घोड़े आपको किसी तरह भी नहीं मिलेंगे।''
     राजा का यह कोरा उत्तर सुनकर महर्षि वामदेव जी धरती की ओर देखने लगे। तत्काल ही एक कृत्या धरती फोड़कर बाहर आई। कृत्या उस शक्ति को कहते हैं जो मन्त्र के अनुष्ठान द्वारा उत्पन्न की जाती है। उस कृत्या ने पलक झपकते ही शक्तिसिंह का सिर धड़ से अलग किया और फिर धरती में समा गई। महर्षि जी घोड़े लेकर वापस अपने आश्रम चले गए। घोड़े भी हाथ से गए और अमानत में ख़्यानत करने का फल भी शक्तिसिंह ने पाया मृत्यु के रुप में।
     यह कथा है तो छोटी-सी, पर है बड़ी शिक्षाप्रद। यदि हम संसार की रचना को देखें तो संसार की सारी रचना काल की रचना है और संसार के सब पदार्थ काल की सम्पत्ति हैं जो जीव को थोड़े समय के लिए इस्तेमाल करने को मिले हैं। किन्तु काल की इस सम्पत्ति पर जब मनुष्य अपना अधिकार जमा बैठता है और उसे अपना समझने और कहने लगता है तो वह अमानत में ख़्यानत करने का भारी अपराध कर बैठता है। इसका फल यह होता है कि ये सब सामान तोे अन्ततः काल उससे छीन ही लेता है, काल के दण्ड का भागी भी मनुष्य बन जाता है। इन पदार्थों को अपना समझ बैठने और इनमें सुरति फँसाने के फलस्वरुप काल उसे चौरासी के चक्र में घसीट ले जाता है, जहाँ उसे बार-बार काल का ग्रास बनना पड़ता है।
     इसलिये महापुरुषों का उपदेश है कि संसार के इन सामानों को आवश्यकता के अनुसार बेशक उपयोग में लाओ, रिश्तेदारों और सम्बन्धियों से जीवन-निर्वाह करते हुए उचित व्यवहार भी करो परन्तु इन्हें अपना समझने और बनाने का यत्न कभी न करो। न ये सामान तुम्हारे हैं, न कभी तुम्हारे बन सकते हैं। तुम्हारी अपनी वस्तु तो केवल-केवल प्रभु का सच्चा नाम है जो पूर्ण सतगुरु से प्राप्त होता है। सत्पुरुषों के वचन हैं किः-
आपन  तनु नहीं जाको गरबा। राज मिलख नहीं आपन दरबा।।
आपन नहीं का कउ लपटाइओ। आपन नामु सतिगुर ते पाइओ।।
सुत  बनिता  आपन नहीं भाई।  इसट मीत आप  बापु न माई।।
सुइना  रुपा  फुनि  नहीं दाम।  हैवर  गैवर  आपन नहीं काम।।
(गुरुवाणी)
सत्पुरुष श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज फरमाते हैं कि ऐ मनुष्य! जिस शरीर का तुझे अभिमान है, वह तेरा अपना नहीं है। राज्य, भूमि और धन भी तेरा अपना नहीं है। पुत्र,स्त्री, भाई, मित्र, पिता और माता इनमें से भी सदा के लिए तेरा कोई अपना नहीं है। सोना, चांदी, दौलत, हाथी और घोड़े-ये भी तेरे अपने नहीं हैं और अन्त समय तेरे काम नहीं आ सकते। फिर तू इनसे क्यों लिपटा हुआ है अर्थात् इन्हें क्यों अपना समझ रहा और इमें सुरत फँसाये हुए हैं। तेरा अपना तो केवल "नाम' ही है जिसकी प्राप्त सद्गुरु से होती है। इसलिए नाम से अपनी सुरति जोड़ो और काल के फंदे से सदा के लिए आज़ाद हो जाओ।

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