Thursday, January 7, 2016

त्यागी भक्त विट्ठलदास



     सत्ययुग की बात है, महाराज ऋषभदेव ने अपना राज्य अपने दोनों पुत्रों-भरत और बाहुबलि में विभाजित कर दिया था ताकि उनमें कोई कलह न हो। भरत ज्येष्ठ थे और बाहुबलि छोटे। दोनों ही वीर, साहसी और पराक्रमी थे, परन्तु दोनों के विचारों में महान अन्तर था। भरत महत्त्वाकांक्षी थे जबकि बाहुबलि भक्तिमान् एवं सन्तोषप्रिय थे। भरत के मन में चक्रवर्ती सम्राट बनने की इच्छा थी। अपने पराक्रम तथा शक्तिशाली सेना के बल पर एक-एक करके वे सभी राज्यों को अपने अधीन कर चुके थे। दिग्विजयी बनने के लिए अब केवल एक राज्य शेष रह गया था जिस पर उन्होंने विजय प्राप्त करनी थी और वह था उनके लघु भ्राता बाहूबलि का राज्य। यदि सम्राट भरत अपने छोटे भाई बाहुबलि को बुलाकर यह कहते कि चूंकि उन्होने भारत के सभी राज्यों पर विजय प्राप्त कर ली है अतः वे अब चक्रवर्ती सम्राट हैं और इस उपलक्ष्य में उनका विचार एक महान यज्ञ करने का है, तो बाहुबलि को शायद इसमें कोई आपत्ति न होती, क्योंकि वे भरत का बहुत आदर करते थे। परन्तु हुआ यह कि विजय-मद में आकर भरत ने दूत द्वारा बाहुबलि को सन्देश भिजवा दिया कि या तो मेरी अधीनता स्वीकार कर लो अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।
     भरत द्वारा दूत का भेजा जाना और इस प्रकार की धमकी देना बाहुबलि को बहुत बुरा लगा। फिर भी उसने अपने को संयत कर दूत द्वारा वापस सन्देश भिजवाया-""यह राज्य मुझे अपने पिता महाराज ऋषभदेव से प्राप्त हुआ है। आप मेरे ज्येष्ठ भ्राता हैं, इस नाते मैं आपका सम्मान करता हूँ, परन्तु आप इस राज्य पर कुदृष्टि न डालें।'' सम्राट भरत के मन में तो चक्रवर्ती बनने की महत्त्वकांक्षा थी और साथ ही गर्व था इस बात का कि सम्पूर्ण भारत को वे अपने अधीन कर चुके हैं, अतः लघु भ्राता बाहुबलि का उत्तर सुनकर वे क्रोध से भड़क उठे। उन्होंने बाहुबलि के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी; फलस्वरुप दोनों ओर की सेनायें आमने-सामने डट गर्इं।
     दोनों भाइयों को युद्ध के लिए तत्पर देखकर भरत का एक वयोवृद्ध मंत्री चिन्तित हो उठा और इस संघर्ष को टालने की युक्ति सोचने लगा। अन्ततः उसे एक युक्ति सूझ ही गई। उसने अन्य मंत्रियों के साथ विचार-विमर्श किया फिर उन सबके साथ युद्धभूमि में जा पहुंचा और भरत तथा बाहुबलि से बोला-""युद्ध करके व्यर्थ की सहरुाों मनुष्यों का रक्त बहाने से आपको क्या लाभ होगा? क्यों नहीं आप दोनों भाई परस्पर युद्ध करके जय-पराजय का निर्णय कर लेते?'' भरत और बाहुबलि-दोनों को यह बात पसन्द आई, अतएव दोनों मल्लयुद्ध के लिये अखाड़े में उतरे। चूँूकि दोनों ही वीर एवं पराक्रमी थे अतः बड़ी देर तक दोनों एक-दूसरे से जूझते रहे, परन्तु शनैः शनैः भरत के पैर उखड़ने लगे। बाहुबलि की बाहें बड़ी विशाल और शक्तिशाली थीं, इसी कारण उसका नाम बाहुबलि प्रसिद्ध हुआ था। भरत ने जब अपनी हार निकट देखी तो आक्रोश में आकर बाहुबलि पर "चक्ररत्न' नामक अमोघ अस्त्र का प्रयोग किया। यह अस्त्र उन्हें अपने पिता महाराज ऋषभदेव से प्राप्त हुआ था, परन्तुु वह अस्त्र अपने कुटुम्बियों पर प्रभावकारी नहीं होता था। भरत क्रोध में यह बात पूरी तरह भूल गये थे, परन्तु उन्हें तुरन्त अपनी भूल का पता लग गया, क्योंकि "चक्ररत्न' बाहुबलि के निकट पहुँच कर वापस लौट आया।
     भरत द्वारा अमोघ अस्त्र का प्रयोेग करने पर बाहुबालि क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने अपनी शक्तिशाली भुजाओं द्वारा भरत को अपने सिर से भी ऊपर उठा लिया। वे अपनी पूरी शक्ति से भरत को पृथ्वी पर फेंकने ही वाले थे कि उनका विवेक जाग उठा। उन्होंने धीरे-धीरे अपने ज्येष्ठ भ्राता को पृथ्वी पर खड़ा किया और बोले-"धिक्कार है पृथ्वी के इस छोटे-से टुकड़े पर जिसके लिये आप अपने छोटे भाई को और मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता को मारने को उद्यत हो गया। क्या यह पृथ्वी, यह राज्य अधिकार, यह धन-वैभव परलोक में हमारे साथ जायेगा? संभालिये यह राज्य! मुझे ऐसा राज्य वैभव नहीं चाहिये जिसके लोभ में अन्धा होकर मनुष्य अपना विवेक-विचार सब खो बैठता है और कुछ भी करने को तत्पर हो जाता है।''
     बाहुबलि ने केवल राज्य का ही नहीं, संसार का भी त्याग कर दिया और सद्गुरु के शरणागत होकर तथा उनसे दीक्षित होकर भक्ति-मार्ग पर चल पड़े। किन्तु ऐसा विवेक क्या प्रत्येक व्यक्ति को होता है? नहीं कदापि नहीं। ऐसा विवेक तो प्रभु की असीम कृपा से और पूर्बले शुभ संस्कारों के फलस्वरुप किसी विरले सौभाग्यशाली मनुष्य को ही होता है, अन्यथा आम संसारी मनुष्य तो धन-जायदाद के लिए निकटतम सम्बन्धी तक का खून बहाने से भी नहीं हिचकिचाते। समाचार पत्रों में प्रायः इस प्रकार के समाचार पढ़ने को मिलते रहते हैं कि सम्पत्ति पर अधिकार करने के सिलसिले में भाई-भाई में झगड़ा हो गया। धन-सम्पत्ति के लोभ में लोग इस तथ्य को पूरी तरह भूल जाते हैं कि हम इस संसार में मात्र कुछ दिनों के मेहमान हैं। काल ने जब झपट्टा मारा तो पलक झपकते ही सब कुछ पराया हो जाएगा। यहाँ से जाते समय तो कुछ भी साथ न जाएगा। इसीलिये सत्पुरुष हर समय मनुष्य को सावधान करते रहते और उपदेश करते रहते हैं किः-
हम  जानै  थे  खायेंगे , बहु ज़मीन  बहु  माल।
ज्यों का त्यों ही रह गया, पकरि लै गया काल।।
जात  सबन  कहँ  देखिया, कहै  कबीर  पुकार।
चेता  होहु  तो चेति ल्यो , रैन दिवस चलै धार।
कबीर सो धन संचिये, जो आगे को होय।
सीस उठाये  गाठरी, जात न देखा कोय।।
अर्थः-परमसन्त श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि आम संसारी मनुष्य तो यही समझते हैं कि हम अधिक से अधिक भूमि पर अधिकार करेंगे और अधिक से अधिक पदार्थों का उपभोग करेंगे, परन्तु वो यह बात भूल जाते हैं कि जब काल पकड़कर ले गया तो सब कुछ ज्यों का त्यों धरा रह जायेगा, तब कुछ भी साथ न जायेगा।
     पुनः फरमाते हैं कि सभी यहां से जाते ही दिखाई पड़ रहे हैं। काल की तेज़ धार रात-दिन चल रही है, इसलिए समझदारी इसी में है कि अभी से चेत लो।
     पुनः फरमाते हैं कि यदि धन-सम्पदा एकत्र करनी ही है तो वह धन-सम्पदा एकत्र करो जो परलोक में साथ जाये। सांसारिक धन-सम्पदा एकत्र करने से क्या लाभ? क्योंकि सांसारिक धन की गठरी बाँधकर अपने साथ ले जाते हमने आज तक किसी को नहीं देखा।
     वह धन कौन सा है जो साथ जाता और परलोक में काम आता है? वह है प्रभु-नाम और प्रभु-भक्ति का धन। किन्तु ऐसा विवेक रखनेवाले और इस सच्चे धन के चाहनेवाले कोई विरले संस्कारी जीव ही होते हैं। ऐसी ही संस्कारी आत्मा थे। त्यागी भक्त विट्ठलदास, जिनकी कथा यहां दी जा रही है।
     जैसे भरत और बाहुबलि थोड़े से राज्य के लिए एक दूसरे के शत्रु बन गये थे, इसी प्रकार भक्त विट्ठल जी के पिता और चाचा भी थोड़े से धन के लिये एक दूसरे के शत्रु बन गये थे। उच्च ब्रााहृणकुल था, दोनों भाई प्रकाण्ड पण्डित थे और दक्षिण भारत की एक रियासत में राजपुरोहित थे, फलस्वरुप घर में धन-सम्पदा बहुत थी। किन्तु जैसा कि शास्त्रकारों का कथन है कि धन बुराइयों की जड़ है, इसका नाम ""अर्थ''अवश्य है, परन्तु है यह""अनर्थ'' का मूल, जो अपनों को भी बेगाना बना देता है। धन के कारण दोनों भाइयों में मनमुटाव हो गया। धीरे-धीरे स्थिति यहाँ तक जा पहुंची कि दोनों ने अलग-अलग रहने का निश्चय कर लिया। जब बँटवारे का समय आया तो दोनों में झगड़ा खड़ा हो गया, क्योंकि दोनों ही चाहते थे कि उन्हें अधिक भाग मिले। लोभ ने उन्हें अन्धा कर दिया, परिणाम यह हुआ कि अधिक धन-सम्पत्ति हथियाने के चक्कर में दोनों ने चोरी-छिपे एक-दूसरे को विष दे दिया। जिससे दोनों ही परलोक सिधार गए। धन-सम्पत्ति दोनों में से किसी की भी न बनी। जिसके लिए उन्होंने एक-दूसरे के प्राण लिये, वह धन-सम्पदा दोनों में से किसी के भी साथ न गई।
     दोनो भाई अभी युवा थे और दोनों ही विवाहित थे। एक के कोई सन्तान नहीं थी, पर दूसरे भाई के घर एक पुत्र था, जिसका नाम विट्ठलदास था। जिस समय उपरोक्त घटना घटी उस समय विट्ठलदास लगभग पाँच छः वर्ष के थे। अब दोनों विधवाओं का सहारा चूँकि वही थे, इसलिये दोनों का ही बालक विट्ठलदास पर अत्यधिक स्नेह था। धन-सम्पत्ति की तो घर में कमी थी नहीं और माता तथा चाची का पूर्ण स्नेह भी उन पर था, इसलिये दोनों ही उनकी प्रत्येक इच्छा पूर्ण करने का प्रयत्न करती थीं जिससे कि वे पिता के प्यार का अभाव अनुभव न करें। धन-सम्पत्ति तथा लाड-प्यार की अधिकता जहाँ हो, वहाँ प्रायः बालक बिगड़ जाया करते हैं, परन्तु विट्ठलदास के साथ ऐसा नहीं हुआ। वे संस्कारी बालक थे। उनकी माता अत्यन्त भक्तिभाव सम्पन्न थी और उन्हें सन्तों भक्तों की कथाएँ सुनाया करती थी जिससे उनके ह्मदय में बाल्यकाल से ही भक्ति के विचारों का बीजारोपण हो गया था। अन्य बालकों की तरह खेल कूद में समय न गँवाकर वे भगवान का भजन-समिरण और उनकी सेवा पूजा करने में अपना समय व्यतीत करते थे। उन्हें भजन ध्यान में मग्न देखकर माता को बहुत प्रसन्नता होती थी।
बड़े होने पर जब वे कुछ समझने सोचने के योग्य हुए और उन्हें यह पता चला कि धन ही उनके पिता और चाचा की मृत्यु का कारण है, तो उन्हें यह सोच कर धन से घृणा हो गई कि संसार में सभी अनर्थों एवं उत्पातों की जड़ यह धन ही है, अतः इससे दूर रहने में ही भलाई है। इसके अतिरिक्त संसार के सभी भोगपदार्थ तथा सुख सुविधा के सामान भी चूंकि धन के द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं, इसलिये सभी प्रकार के भोगों आदि से भी उनका चित्त हट गया। इस प्रकार सब ओर से चित्त हटा कर उन्होने अपनी सुरति को भजन-ध्यान में केन्द्रित कर दिया।
     उन्हीं दिनों एक उच्चकोटि के सन्त अपने कुछ शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुये उस ओर आ निकले। उनकी शुभ संगति ने सोने पर सुहागे का काम किया और विट्ठलदास जी के वैराग्य में सुदृढ़ता तथा भजन भक्ति की लगन में और भी अधिक-निखार आ गया। अब वे अपना अधिकतर समय साधु सन्तों की संगति में व्यतीत करने लगे। जब माता ने उन्हें घर तथा संसार से इस प्रकार उदासीन देखा तो वह चिंतित हो उठी। उसे भय हुआ कि उसका पुत्र कहीं घर बार त्यागकर संन्यासी न हो जाये। उसने अपने भाइयों तथा अन्य सम्बन्धियों से विचार विमर्श करके विट्ठलदास जी की इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह कर दिया। यद्यपि विट्ठलदास जी ने विवाह करने से बार बार मना किया, परन्तु माता के हठ के आगे उनकी एक न चली।
     विट्ठलदास जी का विवाह हो गया, परन्तु इससे उनके जीवन में कोई अन्तर न पड़ा। उनके ह्मदय में संसार के प्रति सच्चा वैराग्य था और भगवान के चरणों में अनन्य अनुराग। भगवान के भजन-सुमिरण में जो अलौकिक रस एवं दिव्य सुख है, उसकी अनुभूति वे कर चुके थे, फिर भला वे विषयों की गंदगी की ओर क्योंकर आकर्षित हो सकते थे? संयोग से उनकी पत्नी भी वैराग्यवान, भक्तिमति, सन्तोषप्रिय तथा साधु-सेवी थी। फिर क्या था। विट्ठलदास जी का मार्ग और भी सरल हो गया। विट्ठलदास जी का जो यह विचार था कि विवाह से उनके भक्ति-भजन के कार्य में विघ्न पड़ेगा, पत्नी उन्हें संसार में फँसाने का यत्न करेगी, वह भय कुछ ही दिनों में दूर हो गया, क्योंकि उनकी पत्नी विघ्नकारक न बनकर उनकी सहायक सिद्ध हुई। वह भजन-भक्ति के इस पावन कार्य में हर प्रकार से उनकी सहायता करती। पहले पुष्पादि उन्हें स्वयं चुनने पड़ते थे और माला भी स्वयं तैयार करनी पड़ती थी, अब ये सब काम उनकी पत्नी करती। इसका फल यह हुआ कि वे अब अपना एक एक क्षण भगवान के भजन-सुमिरण में बिताने लगे। शनैः शनैः भक्ति का नशा गहरा होता गया। भगवान का भजन-पूजन करते समय कभी कभी तो वे इतने  प्रेमावेश में आ जाते कि हाथों में करताल लेकर उच्च स्वर से भगवान की महिमा गायन करने लगते। कीर्तन करते हुए वे प्रायः मूर्छित हो जाते और दो दो तीन-तीन घंटे बेसुध पड़े रहते। धीरे-धीरे उनकी भक्ति की महिमा चारों ओर फैलने लगी। राजा ने जब यह समाचार सुना कि उनके पहले राजपुरोहित का पुत्र भगवान का अनन्य भक्त है और हर समय भजन-कीर्तन में लीन रहता है, तो उसे अत्यन्त  प्रसन्नता हुई। दोनों राजपुरोहित भाइयों ने जब धन के कारण एक-दूसरे की हत्या की थी, तो राजा को बड़ा खेद हुआ था कि इतने विद्वान तथा शास्त्रों के ज्ञाता होकर भी उन्होंने धन के लोभ में ऐसा कुकृत्य किया, परन्तु अब यह सुनकर कि भक्त विट्ठलदास जी अत्यन्त भक्तिमान और वैराग्यवान हैं, राजा ने उन्हें अपना राजपुरोहित बनाने का विचार किया। उसने अपने एक मंत्री के हाथ बहुत-सी स्वर्ण-मुद्राएँ, मूल्यवान रेशमी वस्त्र तथा अन्य पदार्थ स्वर्ण-निर्मित थालों में भक्त विट्ठलदास जी के पास इस सन्देश के साथ भिजवाये कि आपके पिता इस राज्य के राजपुरोहित थे, वह स्थान आपके लिए खाली है, इस पद को स्वीकार करें।
     किन्तु विट्ठलदास जी को न तो वे धन-पदार्थ ही लुभा सके और न ही राजपुरोहित का पद विचलित कर सका। उन्होंने धन-पदार्थ लेने से इनकार करते हुए मंत्री से कहा-मंत्रिवर! आप मेरी ओर से राजा से क्षमा माँग लें और उनसे निवेदन करेें कि राजपुरोहित का पद स्वीकार करने में मैं असमर्थ हूँ। भगवान का सुमिरण-भजन छोड़कर मैं संसार के झंझटों में नहीं फंसना चाहता। मंत्री वापस लौट गया और विट्ठलदास जी का सन्देश राजा को सुनाया। उनका ऐसा त्याग तथ वैराग्य देखकर राजा की श्रद्धा उनके प्रति और भी बढ़ गई। उनसे कुछ विशिष्ट सभासदों द्वारा विट्ठलदास जी के पास यह विनय भेजी-मैं आपके दर्शन करना चाहता हूँ। कृपया राजमहल में पधारकर मुझे मेरे कुटुम्ब सहित कृतार्थ करें। मैने सुना है कि आपके कीर्तन में बड़ा माधुर्य है। हमें भी इस मधुररस के पान करने का सौभाग्य प्रदान कीजिए। आशा है आप मेरी विनय अवश्य स्वीकार करेंगे।
     भक्त विट्ठलदास जी को जब यह सन्देश मिला कि राजा कीर्तन श्रवण करना चाहते हैं, तो वे राजा के आग्रह को टाल न सके। उन्होंने राजमहल में जाना स्वीकार कर लिया। भगवान की महिमा गाने के सुअवसर को भला वे कैसे छोड़ सकते थे? वे उसी समय कीर्तन करते हुए राजमहल की ओर चल दिए। मार्ग में अनेकों लोग उनके साथ हो गए। इस प्रकार कीर्तन करते हुए वे राजमहल जा पहुँचे। राजा ने सुना तो उसने स्वयं द्वार पर आकर भक्त जी का स्वागत-सम्मान किया और उन्हें राजमहल में ले जाकर एक उच्च और सुन्दर आसन पर बैठाया।
     स्वाभाविक ही संसार में जहाँ सज्जन पुरुष विद्यमान हैं, जो सदा दूसरों की भलाई चाहते तथा परोपकार में संलग्न रहते हैं, वहाँ बिना किसी कारण के ईष्र्या-द्वेष, वैर विरोध तथा शत्रुता करने वाले असज्जन व्यक्ति भी संसार में विद्यमान हैं। आसुरीवृत्ति के लोग सदा से अकारण ही सन्तों भक्तों से द्वेष करते आए हैं। वे सदैव इस अवसर की खोज में रहते हैं कि कैसे उन्हें हानि पहुँचाई जाए। राजा का एक मंत्री भी विट्ठलदास जी से अकारण ही ईष्र्या द्वेष करता था। नगरवासियों द्वारा उनकी भक्ति की महिमा करने पर वह बहुत जलता था। अब राजा द्वारा उनका ऐसा आदर-सत्कार देखकर वह मन ही मन जल-भुन गया। उसने अपने आदमियों से कहकर कीर्तन का प्रबन्ध महल की छत पर किया। पूरी छत पर दरियाँ बिछा दी गर्इं। महल की छत पर मुँडेर नहीं थी। उसने जानबूझ कर विट्ठलदास जी का आसन छत के एक किनारे पर लगवाया। उसने सोचा कि विट्ठलदास जी प्रेमावेश में जब नृत्य करेंगे, तो ज़रा सा पाँव छत के उधर होने पर सीधे नीचे जा गिरेंगे और सदा के लिए कहानी समाप्त हो जाएगी। देखता हूँ आज ये कैसे बचते हैं? वह दुष्ट भूल गया था किः-
जाको  राखे  साइया ं, मार सकै न  कोय।
बाल न बाँका कर सकै, जे जग वैरी होय।।
गुरुवाणी में भी वाक हैः-
जिस का सासु न काठत आपि।। ता कउ राखत दे करि हाथ।।
मानस  जतन  करत  बहु भाति। तिस के तरब विरथे जाति।।
मारै  न  राखै अवरु  न कोइ । सरब  जीआ का राखा सोइ।।
सत्पुरुष फरमाते हैं कि जिस जीव का श्वास परमात्मा आप नहीं निकालता, उसे हाथ देकर रखता है। मनुष्य अनेक प्रकार के यत्न किसी को मारने के करता है, परन्तु परमात्मा यदि उसे जीवित रखना चाहता है तो मनुष्य के सभी यत्न व्यर्थ चले जाते हैं; क्योंकि सभी जीवों को मारने वाला और उनकी रक्षा करने वाला तो परमात्मा स्वयं है, कोई दूसरा नहीं है।
     अस्तु इस बात को पूर्णतया भूलकर कि जीवन मरण मनुष्य के हाथ में नहीं, परमात्मा के हाथ में है, उस दुष्ट मंत्री ने अपनी ओर से भक्त विट्ठलदास जी की हत्या करने की योजना बनाई और उसे कार्यान्वित करने का पूर्ण प्रबन्ध करके वह राजा के पास गया और निवेदन किया-राजन्! भक्त जी का कीत्र्तन श्रवण करने के लिये सभी अधीर हैं, इसलिए मेरा विचार है कि ऐसे शुभ कार्य में अब देर नहीं होनी चाहिए। राजा ने कहा-मंत्री जी! आपने हमारे दिल की बात कह दी। हम भी कीत्र्तन का आनन्द लेने को व्याकुल हैं। भक्त जी जलपान कर लें, तब तक कीत्र्तन के लिए आप प्रबन्ध करें। मंत्री ने पुनः निवेदन किया-कीत्र्तन के लिये मैने सब तैयारी करवी दी है। कीत्र्तन के लिये खुली और एकान्त जगह अच्छी होती है, इसलिये मैने महल की छत पर प्रबन्ध करवा दिया है। आगे आप अथवा भक्त जी जहाँ उचित समझें, वहाँ व्यवस्था कर दी जाए।
     राजा को क्या पता था कि उसका मंत्री भक्त विट्ठलदास जी से मन ही मन जलता है और इसने भक्त जी की हत्या करने का षडयंत्र रचा हुआ है। उसने मंत्री से कहा-आप सबको बैठाइये, भक्त जी आ रहे हैं। राज परिवार के लोग, मंत्रिगण, सभासद तथा अन्य उपस्थित सभी लोग छत पर चले गए। कुछ देर बाद राजा भी भक्त जी के साथ वहाँ पहुंच गया। कीर्तन आरम्भ हुआ। प्रभु नाम में वैसे ही एक अलौकिक मधुरता है, फिर यदि गाने वाले के कण्ठ में भी माधुर्य हो तो क्या कहना? विट्ठलदास जी का कण्ठ भी बड़ा मधुर था, अतः वहाँ कीर्तन का ऐसा समाँ बंधा कि सभी श्रोता अनन्दमग्न हो गये।
     कुछ देर बाद जैसा कि विट्ठलदास जी का स्वभाव था, वे खड़े हो गए और नृत्य करते हुए गाने लगे। राजासहित सभी श्रोता मंत्रमुग्ध होकर झूम रहे थे। इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि विट्ठलदास जी छत के बिल्कुल किनारे पर खड़े होकर नृत्य कर रहे हैं और उनके नीचे गिर जाने की सम्भावना है। सभी उस समय अलौकिक रस का पान करने में मग्न थे। उस सभा में एकमात्र वह दुष्ट मंत्री ही ऐसा था जिसे कीर्तन में कोई आनन्द नहीं आ रहा था। उसकी आँखें लगातार विट्ठलदास जी के पैरों की गति पर टिकी हुर्इं थीं और वह अत्यन्त व्याकुलता से अपनी योजना के सफल होने की प्रतीक्षा कर रहा था। एकाएक उसकी आँखें चमक उठीं। हुआ यह कि नृत्य करते-करते एकाएक विट्ठलदास जी का पैर छत के पार शून्य में चला गया और वे धड़ाम से निचे जा गिरे। उनके नीचे गिरते ही वहाँ उपस्थित सभी लोग चिल्ला उठे और नीचे की ओर भागे। राजा भी दौड़ा-दौड़ा नीचे गया। भक्त जी को उठाकर अन्दर ले जाया गया। वैद्यराज बुलाए गए। उन्होंने नाड़ी आदि की परीक्षा करके कहा-इनके ह्मदय की धड़कन बन्द हो चुकी है। ये शब्द सुनते ही वहाँ शोक छा गया। राजा तो बहुत ही दुःखी हुआ, क्योंकि उसी के कहने पर कीत्र्तन की यह सभा आयोजित हुई थी। यह देखकर एक वृद्ध मंत्री ने उसे सांत्वना देते हुए कहा-राजन्! इसमें आपका क्या दोष है? यह तो होनी थी। होनी को कौन टाल सकता है? वह तो होकर ही रहती है। श्री रामचरितमानस में कथन भी हैः-
कह मुनीस हिमवंत सुनु, जो विधि लिखा लिलार।
देव  दनुज  नर  नाग  मुनि , कोउ न मेटनिहार।।
     मुनीश्वर नारद जी पर्वतराज के प्रति कथन करते हैं कि हे हिमवान्, सुनो! विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि- कोई भी नहीं मिटा सकते।
     राजा ने कहा-मंत्री जी! आपका कहना सत्य है कि होनी को कोई नहीं मेट सकता, परन्तु मुझे दुःख इस बात का है कि यह घटना महल में हुई। लोग न जाने मेरे विषय में क्या-क्या सोचेंगे। अब ऐसा कीजिए कि भक्त जी की मृतदेह को उनके घर पहुँचाने का प्रबन्ध कीजिए। मंत्री ने विट्ठलदास जी के शरीर को उनके घर भिजवाने की तुरन्त व्यवस्था की और स्वयं घर तक साथ गया। माता का तो उनकी मृत्यु का समाचार सुनते ही बुरा हाल हो गया था, अब शरीर आने पर तो उसके ह्मदय का बाँध टूट गया और वह विलाप करने लगी। कुछ देर बाद जब उसका आवेश कुछ कम हुआ तो विट्ठलदास जी की धर्मपत्नी ने उससे कहा-पहले भी तो ये ऐसे ही मूÐच्छत हो जाया करते हैं। हो सकता है अब भी ऐसा ही हुआ हो। इसलिए आप धीरज धरें और इस प्रकार व्याकुल न हों। यह सुनकर माता के ह्मदय में आशा की किरण जगमगा उठी। वह सोचने लगी कि हो सकता है ये केवल मूÐच्छत हों और वैद्यराज को धोखा हुआ हो। पहले भी जब कभी ये बेसुध हुए हैं, तब भी तो इनकी नाड़ी का पता नहीं चलता था, सम्भव है अब भी ऐसा ही हुआ है। यह सोचकर मन को कुछ सांत्वना हुई।
     रिश्तेदार और अड़ोसी-पड़ोसी दाहकर्म की तैयारी कर रहे थे। यह देखकर विट्ठलदास जी की माता ने उन्हें स्पष्ट शब्दों में कहा-मैं आज किसी भी सूरत में विट्ठलदास का दाह नहीं करने दूँगी। मुझे विश्वास है कि मेरा पुत्र जीवित है। वह केवल मूÐच्छत हो गया है। लोगों ने उसे बहुत समझाया कि वैद्यराज ने इन्हें मृत घोषित कर दिया है, परन्तु उसने किसी की न मानी। हार कर लोग अपने अपने घरों को चले गए। माता ने एक चादर से उनका शरीर ढक दिया और विट्ठलदास जी की मूच्र्छा टूटने की प्रतीक्षा करने लगी। तीन दिन के बाद विट्ठलदास जी उस महामूच्र्छा से जागे। यह हर्ष समाचार कुछ ही पलों में सारे नगर में फैल गया। ठट के ठट लोग उनके घर के सामने एकत्र हो गए और प्रभु के गुणानवाद गाने लगे। राजा तो यह समाचार सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। भगवान की उनपर ऐसी कृपा देखकर वह समझ गया कि विट्ठलदास जी कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। उसकी श्रद्धा भक्त जी के प्रति अत्यधिक बढ़ गई। जागने पर विट्ठलदास जी ने चारों ओर दृष्टि डाली जैसे वे कुछ याद करने का प्रयत्न कर रहे हों। माता ने उन्हें घटना का स्मरण कराया कि राजा के महल में कीत्र्तन करते हुए वे तीन दिन पहले छत से गिर गए थे। माता ने कहा-भगवान की कृपा से ही आपके प्राण बचे हैं, अन्यथा इतनी ऊँचाई से गिरने पर प्राण बचने कहाँ सम्भव थे?
     विट्ठलदास जी को सारी घटना स्मरण हो आई। उन्होंने मन ही मन भगवान को कोटिशः धन्यवाद दिया। तत्पश्चात कीर्तन की आवाज़ सुनकर वे बाहर आए। इतनी भीड़ देखकर उन्होने मन में विचार किया-राजमहल की छत से गिरकर भी मैं बच गया हूँ, इस घटना को लोग चमत्कार समझकर मेरी पूजा-प्रतिष्ठा करने लग जाएँगे। यह तो ठीक नहीं है। इससे तो भजन-सुमिरण में विघ्न पड़ेगा। इसलिए अब इस नगर को छोड़ देने में ही भलाई है।
     उसी रात जबकि उनकी माता तथा धर्मपत्नी गहरी नींद में सो रही थीं, वे चुपचाप घर से निकल गए और मथुरा की ओर चल दिए। सवेरे, जागने पर जब उनकी माता और पत्नी ने उन्हें घर में न देखा, तो पहले तो उन्होंने यह समझा कि कहीं गए होंगे अभी आ जाएँगे, परन्तु जब सारा दिन वे घर वापस न आए तो वे रोने लगीं। विट्ठलदास जी के घर से चले जाने का समाचार राजा ने भी सुना। उसने खोज में चारों ओर घुड़सवार दौड़ाए, पर विट्ठलदास जी का कुछ भी पता न चला। माता अपने पुत्र के वियोग में दिन रात रोती रहती।
     कुछ दिनों के उपरांत उस नगर के कुछ भक्तजन, जो तीर्थ यात्रा पर गए हुए थ, उन्होंने वापस आ कर विट्ठलदास जी के मथुरा होने का समाचार दिया। यह सुनते ही उनकी माता पुत्र बधु को साथ लेकर नाना प्रकार के कष्ट सहती हुई मथुरा जा पहुँची। पहले तो विट्ठलदास जी उन्हें साथ रखने को तत्पर न हुए, परन्तु माता का आग्रह तथा दोनों में भजन भक्ति की लगन तथा वैराग्य की भावना देखकर भक्त जी ने उन्हें साथ रखना स्वीकार कर लिया। उनकी धर्मपत्नी के पास कुछ आभूषण थे, उन्हें बेचकर विट्ठलदास जी ने थोड़ी सी भूमि खरीद ली और तीनों वहाँ कुटिया बनाकर रहने तथा भजन-सुमिरण करने लगे। विट्ठलदास जी की धर्मपत्नी बड़ी सुशील एवं सेवाकारिणी थी। वह अपनी सास और पति की सब प्रकार से सेवा करती और शेष समय भजन सुमिरण में व्यतीत करती। इस प्रकार सन्तोषपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए तीनों प्राणी अपना एक एक स्वाँस सफल करने लगे।
     एक दिन विट्ठलदास जी की पत्नी ने मिट्टी से कुटिया की दीवारें पोतने का विचार किया। मिट्टी के लिए उसने कुटिया के पीछे खाली जगह में गड्ढा खोदा। जब गड्ढा कुछ गहरा हो गया और वह हाथों से मिट्टी बाहर निकालने लगी, तो उसे वहाँ भगवान की एक सुन्दर मूर्ति मिली। मूर्ति के पास ही एक पीतल का कलश भी था, जिसका मुँह ढका हुआ था। ढक्कन उठाने पर उसने देखा कि उसकेअन्दर स्वर्णमुद्राएँ हैं। वह तुरन्त विट्ठलदास जी के पास गई और उन्हें मूर्ति तथा धन के विषय में बतलाया। विट्ठलदास जी ने कहा-धन को हाथ मत लगाना। उस पर हमारा कोई अधिकार नहीं। वह धन भूमि के पहले मालिक का है। हमने उससे केवल भूमि खरीदी है, उसके अन्दर दबा हुआ खज़ाना नहीं खरीदा। वे तुरन्त भूमि के पहले मालिक के पास गए और उसे धन के बारे में बतलाकर बोले-वह धन आपका है, इसलिए उसे चलकर संभाल लीजिए।
     भूमि का पहला मालिक भी अत्यन्त वैराग्यवान तथा भक्तिमान था। उसने कहा-जब मैने भूमि आपको बेच दी तो उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अब वहाँ जो कुछ है, वह सब आपका है, मेरा नहीं। यदि वह धन मेरे भाग्य का होता तो मुझे पहले ही मिल जाता। इसलिए वह धन आपका है, मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकता।
     कैसा त्याग है? आज के भौतिकवादी युग में जबकि आम संसारी मायासक्त मनुष्य धन-प्राप्ति के लिए झूठ, छल, कपट, धोखा, ठगी, चोरी आदि का सहारा लेते हैं और हर प्रकार के अनुचित कर्म करने को तत्पर हो जाते हैं, वहाँ भगवान के दो अनन्य प्रेमी भक्त धन का तिरस्कार कर रहे हैं और उसे लेने से इनकार कर रहे हैं। एक कहता है कि मैने आपसे केवल भूमि खरीदी है, यह धन नहीं खरीदा, इसलिए यह धन आपका है मेरा नहीं। दूसरा कहता है-जब मैने भूमि बेच दी तो अब उस भूमि से तथा उसके अन्दर गड़े धन से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। अब निर्णय करे तो कौन करे? झगड़ा पंचायत में पहुँचा। झगड़े का कारण सुनकर सभी लोग चकित रह गए और दोनों के त्याग तथा भक्ति भावना की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। पंच भी धर्मात्मा पुरुष थे। उन्होंने आपस में विचार-विमर्श करके निर्णय दिया-भूमि से जो धन प्राप्त हुआ, उस धन के साथ भगवान की मूर्ति भी मिली है। अतः विट्ठलदास जी को यदि मान्य हो तो हम पंचों का यह विचार है जिस स्थल पर भगवान की मूर्ति मिली है वहाँ पर इस प्राप्त धन से एक मन्दिर का निर्माण करा दिया जाये और भगवान की वह मूर्ति उस नव-निर्मित मन्दिर में विराजमान कर दी जाए। शेष बचे धन को भी मन्दिर की सेवा में लगा दिया जाये।
     दोनों पक्षों ने पंचों का यह निर्णय सहर्ष स्वीकार किया। उस स्थान पर एक मन्दिर बनवा दिया गया जो अभी भी वहां विद्यमान है। विट्ठलदास जी, उनकी माता तथा उनकी धर्मपत्नी तीनों ने वहीं रहकर भगवान का भजन-पूजन तथा सेवा करते हुए अपना शेष जीवन व्यतीत किया और अपना जन्म सफल किया।
     हमारा भी कत्र्तव्य है कि इस कथा से शिक्षा ग्रहण करें और माया तथा माया के पदार्थों की चाह न करे भगवान की भक्ति तथा भगवान के प्रेम को ह्मदय में बसाएँ। त्यागवृत्ति से संसार में रहे और नाम-भक्ति की कमाई करके जन्म सफल करें।

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