Thursday, January 7, 2016

भक्तिमती रबिया



     भक्तिमती रबिया का जन्म आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व तुर्किस्तान के बसरा नामक नगर में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। रबिया की तीन बहनें और थीं। चारों बहनों में रबिया सबसे छोटी थी। रबिया अभी बच्ची ही थी कि उसकी माता का देहावसान हो गया। उसके पिता प्रातः होते ही काम पर निकल जाते और जब वापस आते तो चारों ओर अन्धकार फैल चुका होता। दिन भर के थके-मांदे तो होते ही, अतः खा-पी कर चारपाई पर ढेर हो जाते। उन्हें अपने कामकाज से इतना अवकाश ही कहां था कि वे बच्चों का ख्याल करते। फलस्वरुप रबिया का बचपन माता पिता के प्यार से वंचित ही रहा। माता पिता का प्यार न मिलने से रबिया सदा उदास रहती। उसके घर के निकट ही एक उच्चकोटि के सन्त रहते थे। लोगों की उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा थी, अतः काफी संख्या में लोग उनकी संगति का लाभ उठाने के लिये उनकी कुटिया पर आया करते थे। कभी कभी वहां सत्संग भी होता था। अपनी उदासी दूर करने के लिये रबिया भी कभी कभी वहां चली जाया करती थी। वहां जाने पर उसके मन को बड़ी शान्ति मिलती थी। ईश्वर की महिमा करते हुये वे सन्त प्रायः ये शब्द कहा करते थे कि ईश्वर अत्यन्त कृपालु हैं।
     एक दिन लोगों के चले जाने के बाद भी रबिया वहीं बैठी रही। उसकी आँखों से अश्रु बह रहे थे। सन्त जी ने उसे अपने निकट बुलाकर उससे रोने का कारण पूछा। रबिया ने कहा-आप तो सदा यही कहते हैं कि ईश्वर अत्यन्त कृपालु हैं, फिर वे मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करते? सन्त जी रबिया के घर की परिस्थिति से भलीभाँति परिचित थे। उन्होने उसके सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते हुए कहा-वे तुम्हारे ऊपर भी अवश्य कृपा करेंगे। जब वे सभी पर कृपा करते हैं, तो फिर तुम्हारे ऊपर कृपा क्यों नहीं करेंगे? किन्तु इसके लिये तुम्हे एक काम करना होगा। रबिया ने पूछा-मुझे क्या करना होगा? ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं सब खुछ करने को तैयार हूँ।
     सन्त जी ने फरमाया-तुम हर समय उन्हें याद किया करो और ह्मदय में यह समझा करो कि ईश्वर के प्रत्येक कार्य में कृपा ही कृपा भरी हुई है। यदि तुम ऐसा समझोगी तो फिर तुम ईश्वर की कृपा प्राप्त करने में अवश्य ही सफल होगी। वे अपने भक्तों पर सदा ही कृपा करते हैं। उनके वचनों की गहनता तो वह बच्ची भला क्या समझती, परन्तु उन वचनों पर विश्वास कर रबिया हर समय ईश्वर को याद करने लगी। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, उसकी सुरति संसार की कामनाओं से हटती गई और ईश्वर के सुमिरण भजन में अधिकाधिक लगती गई। ईश्वर के सुमिरण भजन से न केवल उसके व्याकुल मन को शान्ति ही मिलती, प्रत्युत उसे अपने अंदर एक अनोखेआनन्द का अनुभव होता।
     जब रबिया की आयु लगभग बारह वर्ष की हुई, उसके पिता का भी देहान्त हो गया। रबिया तथा उसकी बहनों के सम्मुख अब जीवन-निर्वाह का प्रश्न उठ खड़ा हुआ, अतः सभी कोई न कोई काम करने लगीं। रबिया भी एक धनवान के घर कामकाज करने लगी। वहां से जो कुछ मिलता, उससे निर्वाह करती और शेष समय ईश्वर की याद में बिताती। इसी प्रकार दिन बीतते गए और इसके साथ ही रबिया के सुमिरण ध्यान और ईश्वर प्रेम में भी दृढ़ता आती गई। एक बार देश में भयानक अकाल पड़ा और लोग दाने-दाने को तरसने लगे। अकाल के फलस्वरुप रबिया और उसकी बहनों की नौकरी भी छूट गई। जहां अपने ही भोजन के लाले पड़े हों, वहांं दूसरे को कोई नौकरी क्या दे? लोग घर बार छोड़कर दूसरी जगह भागने लगे। चारों बहनें भी अन्यत्र जाने का निश्चय कर घर से निकल पड़ीं। मार्ग में पता नहीं किस तरह रबिया अपनी बहनों से विलग हो गई। उसने उन्हें खोजने का बहुत प्रयत्न किया। वे तो नहीं मिलीं, उलटा रबिया एक दुष्ट व्यक्ति के चक्र में फँस गई। वह व्यक्ति उससे यह वादा कर कि वह उसकी बहनों को ढूँढने में सहायता देगा, रबिया को फुसला कर दूसरी जगह ले गया और उसे एक धनी के हाथ गुलाम की तरह बेच दिया। वह धनी व्यक्ति अत्यन्त क्रोधी और निष्ठुर स्वभाव का था, अतएव रबिया के दुःखों कष्टों में और भी अधिक वृद्धि हो गई। उसे और भी अधिक कष्टों का सामना करना पड़ा। वह व्यक्ति गालियां तो बकता ही था, साधारण सी बात पर लातें और घूँसे भी बरसाने लगता। उस घर में रबिया को रात दिन कोल्हू के बैल की तरह जुतना पड़ता। वह बेचारी अबला भला कर भी क्या सकती थी? सब कुछ सहन करती हुई ईश्वर को याद करती और उसकी कृपा की याचना करती रही।
     मालिक का अत्याचार दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। रबिया उसके अत्याचार से तंग आकर उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये युक्ति सोचने लगी। एक रात अवसर पाकर वह मालिक की हवेली से भाग निकली। किन्तु ईश्वर की तो मौज कुछ और ही थी! हुआ यह कि वह अभी कुछ ही दूर गई थी कि अन्धकार में भागते हुए उसे ठोकर लगी जिससे वह गिर पड़ी और उसके दाहिने हाथ में सख्त चोट लगी। रबिया दर्द से व्याकुल होकर वहीं बैठ गई और ईश्वर के चरणों में प्रार्थना करने लगी- हे प्रभो! क्या तुम मेरी सुधि नहीं लोगे? क्या तुम मुझ पर कृपा नहीं करोगे? क्या मेरा जीवन यूंही कष्टों में ही व्यतीत होगा?
     आग में तपाने पर ही सोने की सब खोट निकलती है और फिर वह कुन्दन बनकर  चमकता है। ठीक इसी प्रकार दुःखों-कष्टों की अग्नि में से निकलने के उपरान्त भक्तिमान् पुरुष भी विशुद्ध कंचन की तरह चमक उठता है। प्रार्थना करते हुये एकाएक रबिया के मन में विचार उठा-रबिया! क्या तुम्हें प्रभु की कृपा पर विश्वास नहीं? यदि नहीं, तो फिर क्यों उसके सामने आशा से दामन फैलाती है? और यदि तुम्हें उसकी कृपा पर पूर्ण विश्वास है और यह मानती है कि वह कृपालु हैं, तो फिर इन कष्टों से घबरा कर दुःखी क्यों होती है? क्या ये कष्ट भी उसी की दात नहीं हैं? यदि हैं तो फिर इनसे घबराना कैसा? प्रभु की दात समझ कर क्यों नहीं इन्हें सहर्ष स्वीकार करती? तू स्वार्थ से भरी है। तूने आज तक केवल दुःखों-कष्टों की निवृत्ति के लिये ही भगवान को स्मरण किया है, उसके प्यार के लिये कभी उसे स्मरण नहीं किया। रबिया! तू अत्यन्त स्वार्थी है।
     मन में ये विचार उठते ही वह अपने को इस बात के लिये धिक्कारने लगी कि वह सन्तों के इस कथन को क्यों भूल गई कि ""ईश्वर कृपालु हैं और अपने भक्तों पर सदा कृपा करते हैं। ईश्वर की प्रत्येक कार्यवाही में कृपा ही कृपा भरी हुई है।'' क्या यह ईश्वर की कृपा नहीं कि उन्होंने उसे संसार की विषय-विलासिता से निकालकर अपनी भक्ति में लगाया है। रबिया के विचारों में ईश्वर-कृपा से पूर्ण परिवर्तन हो गया। वह ईश्वर के चरणों में पुनः प्रार्थना करने लगी, परन्तु पहली प्रार्थनाओं और इस प्रार्थना में धरती-आकाश का अन्तर था। यह प्रार्थना कष्टों की निवृत्ति के लिये नहीं, अपितु ईश्वर की कृपाओं का गुणानुवाद गाने के लिये थी। वह प्रार्थना करने लगी-हे मेरे कृपालु प्रभो! मुझ पर यह तेरी महान कृपा है कि तुमने मुझे संसार की विषय-वासनाओं की ज्वाला से निकाल कर अपनी पावन भक्ति में लगाया। मेरा रोम-रोम तुम्हारा कृतज्ञ है।
     तभी उसके कानों में ये शब्द पड़े-रबिया! चिंता न कर। तेरे सब कष्ट शीघ्र ही दूर हो जायेंगे और तेरा यश चहुँ ओर फैल जायेगा। सब लोग तुझे आदर की दृष्टि से देखेंगे और तेरा सम्मान करेंगे। मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ। रबिया ने आँखें खोलकर चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, परन्तु उसे आस पास कोई दिखाई न दिया। इन शब्दों को प्रभु की कृपा समझकर वह वापस लौट पड़ी। उसने सोचा कि जब प्रभु मुझ पर प्रसन्न हैं, तो फिर कष्टों को सहन करना कौन-सा कठिन कार्य है? मेरे लिये तो वे कष्ट भी प्रभु का प्रसाद होने के कारण फूलों के सदृश हैं। रबिया मालिक के घर वापस लौट आई। उसके जीवन में आमूल परिवर्तन हो चुका था। वह हित्तचित्त से मालिक के घर का काम करने लगी, परन्तु कामकाज करते हुये भी उसकी वृत्ति हर समय ईश्वर के सुमिरण-ध्यान में ही लगी रहती थी। उस दिन से उसके मालिक के व्यवहार में भी बहुत परिवर्तन हो गया। रबिया के मुख पर उसे एक अनोखा तेज़ दिखाई देता था, अतएव मारना तो दूर उसका रबिया को कुछ कहने का भी साहस न होता था। इसी प्रकार कुछ दिन बीत गये। एक रोज़ आधी रात के समय जबकि चारों ओर नीरवता छाई थी, रबिया अपनी कोठरी में घुटनों के बल बैठी हुई ईश्वर के चरणों में प्रार्थना कर रही थी। ईश्वर की प्रेरणा से उसी समय रबिया के मालिक की नींद टूटी और रबिया की प्रार्थना के शब्द उसके कानों में पड़े। वह तुरन्त चारपाई से उठ खड़ा हुआ। कमरे के बाहर आकर वह आवाज़ सुनने लगा। आवाज़ रबिया की कोठरी की ओर से आ रही थी। वह आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखता हुआ वहां गया। कोठरी का द्वार खुला हुआ था। परदा हटाकर वह ज्यों ही कोठरी के अन्दर घुसने लगा कि अन्दर का दृश्य देखकर वहीं ठिठक गया। कोठरी एक अलौकिक प्रकाश से आलोकित थी और रबिया घुटनों के बल बैठी हाथ उठाये प्रार्थना कर रही थी। उसने रबिया के ये शब्द सुने-हे मेरे कृपालु प्रभो! मैं चाहती तो यह हूँ कि अपने जीवन का एक-एक पल तेरी याद में, तेरे सुमिरण-भजन में बिताऊँ, परन्तु क्या करूँ? जितना मैं चाहती हूँ उतना हो नहीं पाता, क्योंकि मैं किसी की गुलाम हूँ।अच्छा! जैसी तेरी मौज।
’""राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।''
रबिया के मालिक को तो वैसे ही कई दिनों से उसके आचार-व्यवहार में परिवर्तन दिखाई दे रहा था, आज का दृश्य देखकर तो उसे पूरा विश्वास हो गया कि रबिया कोई साधारण स्त्री नहीं अपितु कोई परम पुनीत आत्मा है जिस पर ईश्वर की विशेष कृपा है। रबिया के मुखमंडल पर एक अनोखी आभा देखकर उसके ह्मदय में श्रद्धा भी उत्पन्न हुई और भय भी। वह मन ही मन विचार करने लगा कि ऐसी पवित्र आत्मा को दासता में रखकर मैने बड़ा भारी पाप किया है। चाहिये तो यह था कि मैं इसकी सेवा करता, उलटा मैं इससे सेवा कराता रहा। केवल सेवा ही नहीं कराई, इस पर अत्याचार भी किया, इसे मारा पीटा भी। वह पश्चात्ताप करता हुआ रोने लगा। उसकी आवाज़ सुनकर रबिया का ध्यान टूटा। तब वह अत्यन्त विनीत भाव से बोला-देवी! मेरे अपराधों को क्षमा कर। मैने अब तक तुम्हें पहचाना नहीं था। आज ईश्वर की कृपा से मैने तेरा वास्तविक रुप देख लिया। आज से तुम्हें मेरी सेवा नहीं करनी पड़ेगी। तुम सुखपूर्वक इस घर में रहकर ईश्वर की भक्ति करो। आज से मैं तुम्हारी सेवा करुँगा।
     रबिया ने कहा-आपने इतने दिनों तक मुझे अपने घर में रखकर खाने-पहनने को दिया, यह आपका मुझ पर उपकार है। एक उपकार आप मुझ पर और कर दें, मुझे दूसरी जगह जाने की स्वतंत्रता दे दें। ताकि मैं अपना सारा समय ईश्वर की याद में बिता सकूँ। मालिक ने कहा- जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो। मेरी ओर से तुम पूरी तरह स्वतन्त्र हो। रबिया ने बसरा नगर से कुछ दूर एक एकान्त स्थान पर अपनी कुटिया बनाई और अपना शेष जीवन भगवान का सुमिरण भजन करते हुये व्यतीत किया। यहाँ हम उनके कुछ विचार और वचन दे रहे हैं जिससे कि उनके जीवन के विषय में पाठकों को और अधिक जानकारी हो कि उनका जीवन कितना उच्च और आदर्शमय था।
     एक बार रबिया उदास बैठी थी। उसी समय उनका एक श्रद्धालु उनके दर्शन के लिये आया। उन्हें उदास देखकर उसने पूछा-आज आप उदास क्यों हैं? रबिया ने उत्तर दिया-आज सवेरे मेरा पाजी मन ईश्वर का सुमिरण छोड़कर स्वर्ग की ओर चला गया था। मैं यही सोच कर उदास हूँ कि ईश्वर का सुमिरण-भजन छोड़कर मेरा मन स्वर्ग के सुखों की ओर क्यों गया?
     एक बार रबिया बहुत बीमार थी। सूफियान नाम का एक साधक उसकी बीमारी के विषय में सुनकर उससे मिलने गया। रबिया की हालत देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने कुछ कहना चाहा, परन्तु कुछ सोचकर वह चुप हो गया। रबिया ने कहा-तुम कुछ कहते-कहते रुक क्यों गये? जो कुछ कहना चाहते हो निःसंकोच कहो। सूफियान ने कहा-देवी! आप ईश्वर से प्रार्थना क्यों नहीं करतीं? वे सर्वसमर्थ हैं; वे आपका रोग एक पल में मिटा सकते हैं। रबिया ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-सूफियान! क्या तुम इस बात से परिचित नहीं हो कि रोग किसकी इच्छा और संकेत से होता है? क्या इस रोग में भी मेरे ईश्वर का हाथ नहीं है? सूफि यान ने कहा-जो कुछ होता है उसकी इच्छा से ही होता है। उसकी इच्छा के बिना क्या होता है? रबिया बोली-जब सब कुछ उसकी इच्छा से ही होता है, तब तुम मुझसे यह कैसे आशा करते हो कि मैं उसकी इच्छा के विरुद्ध इस रोग से छुटकारा प्राप्त करने के लिये उससे प्रार्थना करूँ? ईश्वर का हर काम कृपा से भरा होता है, इसलिये उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करना क्या प्रेमी-भक्त के लिये उचित है? प्रेमी को तो उसकी इच्छा के सम्मुख नतमस्तक हो जाना चाहिये। और उसकी हर मौज को (सुख मिले या दुःख) उसका प्रसाद समझ कर अपनी झोली में डालना चाहियेे।
     रबिया ने अपना सब कुछ ईश्वर को अर्पण कर दिया था। एक प्रभु के सिवा उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जिसे वह अपनी समझती हो। एक बार बसरा के प्रसिद्ध सन्त हसन बसरी ने उससे पूछा-आपने ऐसी ऊँची स्थिति किस प्रकार प्राप्त की? रबिया ने उत्तर दिया-सब कुछ खोकर ही मैंने उसे पाया है। बिना खोए उसे पाना असम्भव है। किसी विचारवान ने सच ही कहा है-
उसी के वास्ते जग को भुलाया है मैंने।
सब कुछ खो कर ही उसे पाया है मैंने।।
रबिया सबके साथ प्रेम का व्यवहार करती थी, चाहे वह कोई पुण्यात्मा हो अथवा पापी। सबके साथ उसका दया का बर्ताव रहता था। एक दिन एक व्यक्ति ने रबिया से पूछा-पाप रुपी राक्षस को तो आप अपना शत्रु ही समझती हैं न? उससे तो आप घृणा करती हैं न? रबिया ने उत्तर दिया-
करुँ मैं दुश्मनी किससे अगर दुश्मन भी हो अपना।
मुहब्बत ने नहीं दिल में जगह छोड़ी अदावत की।।
ईश्वर के प्रेम में छकी रहने के कारण ह्मदय में किसी के प्रति घृणा रही ही नहीं, फिर भला कोई मेरा शत्रु कैसे हो सकता है?
     एक बार जब कुछ श्रद्धालु रबिया के दर्शन के लिये गये, तो रबिया ने एक व्यक्ति से पूछा-भाई! तुम किस प्रयोजन से ईश्वर का सुमिरण-भजन करते हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-नरक की भयानक यातनाओं से बचने के लिये। तब रबिया ने एक अन्य व्यक्ति से पूछा-और तुम किसलिये ईश्वर को याद करते हो? उसने कहा-मैने सुना है कि स्वर्ग अत्यन्त ही रमणीय स्थान है, वहां भाँति-भाँति के भोग और असीम सुख हैं। उसी स्वर्ग को पाने के लिये ही मैं भगवान की भक्ति करता हूँ।
     रबिया ने कहा-बेसमझ लोग ही भय अथवा लोभ के कारण भगवान की भक्ति किया करते हैं। भक्ति न करने से तो यह अच्छा ही है, परन्तु मान लो कि स्वर्ग या नरक-दोनों का ही अस्तित्व न होता, तो क्या फिर तुम लोग भगवान की भक्ति न करते? सच्चा भक्त ईश्वर की भक्ति लोक-परलोक की किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिये नहीं करता, अपितु ईश्वर को पाने के लिये ही करता है।
     रबिया इसीलिये प्रभु से प्रार्थना करती थी-हे मेरे प्रभो! तू ही मेरा सब कुछ है। मैं तेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहती। हे प्रभो! यदि मैं नरक के भय से तेरी पूजा करती हूँ, तो मुझे नरकाग्नि में भस्म कर दे, यदि मैं स्वर्ग के लोभ से तेरी भक्ति करती हूं, तो स्वर्ग का द्वार सदा-सर्वदा के लिये मेरे लिये बन्द कर दे और यदि मैं तेरे लिये  तेरा सुमिरण भजन करती हूँ, तो फिर अपना  प्रकाशमय सुन्दर रुप दिखलाकर मुझे कृतार्थ कर।
     एक बार एक धनी मनुष्य ने रबिया को फटे-पुराने कपड़े पहने देखकर कहा-यदि आपका आदेश हो तो आपकी इस दरिद्रता को दूर करने के लिये कुछ धन आपकी सेवा में भेंट करना चाहता हूँ। रबिया ने उत्तर दिया-सांसारिक दरिद्रता के लिये किसी से कुछ भी लेने में मुझे बड़ी लज्जा आती है। जब यह सम्पूर्ण जगत मेरे प्रभु का ही राज्य है, तब उसे छोड़कर मैं अन्य किसी से क्यों लूँ? मुझे आवश्यकता होगी तो मैं उससे ही माँग लूँगी।
     रबिया कभी-कभी प्रेमावेश में बड़े ज़ोर से चिल्ला उठती। एक बार लोगों ने उससे पूछा-आपको कोई रोग अथवा दुःख तो है नहीं, फिर आप किसलिये चिल्ला उठती हैं? रबिया ने उत्तर दिया-मुझे कोई बाहरी अथवा शारीरिक बीमारी नहीं है, जिसको संसार के लोग समझ सकें। मुझेे तो अन्तर का रोग है, जो किसी भी वैद्य अथवा हकीम के वश का नहीं है। मेरा यह रोग तो उसके दर्शन से ही जा सकता है।
     सच है-जिसे अन्तर का रोग हो, जिसके ह्मदय में प्रभु प्रेम की कसक हो, उसके रोग को भला वैद्य क्योंकर समझ सकता है? गुरुवाणी का वाक हैः-
बैदु बुलाइआ बैदगी पकड़ि  ढंढोले बांह।
भोला बैदु न जाणई करक कलेजे माहिं।।
अर्थः-वैद्य को उपचार के लिये बुलाया गया, तो वह बाँह पकड़ कर नब्ज़ देखता है। किन्तु भोला वैद्य क्या जाने कि यह रोग ह्मदय का है, कलेजे में कसक उठती है।
     एक बार पूर्णिमा की रात्रि को, जबकि चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से सारा वातावरण आलोकित था, रबिया अपनी कुटिया के अन्दर बैठी किसी दूसरी ही सृष्टि की ज्योत्स्ना का आनन्द लूट रही थी। तभी एक परिचित स्त्री ने आकर ध्यानमग्न रबिया को झिंझोड़ते हुये कहा-रबिया! बाहर चलकर देख, कैसी सुन्दर रात है। रबिया ने उत्तर दिया-तुम एक बार मेरे ह्मदय के अन्दर झाँक कर देखो, संसार के परे की कैसी अनोखी सुन्दरता है।
     ऐसा था भक्तिमति रबिया का जीवन। हमें भी चाहिये कि उसके जीवन से प्रेरणा लें और अपना पल-पल प्रभु के सुमिरण-भजन में लगाते हुये अपना जीवन सकारथ करें।

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