भक्त शंकर पण्डित अत्यन्त भक्तिभावसम्पन्न ब्रााहृण थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिन सद्गुणों का वर्णन किया है वे सभी उनमें विद्यमान थे, तथापि यहाँ हम उस गुण का वर्णन करना चाहेंगे जिसको अपनाना जीवन में सबसे कठिन होता है और वह है-"रिपु सों बैर बिहाउ' अर्थात् शत्रु के साथ भी वैर-विरोध न करना। परन्तु शंकर पण्डित में यह गुण भी कूट-कूट कर भरा हुआ था जैसा कि उनके जीवन-चरित्र से प्रकट होता है।
भक्त शंकरपण्डित गण्डकी नदी के तट पर स्थित एक गाँव में रहते थे। वे सुबह मुंह-अन्धेरे ही उठकर नदी-तट पर चले जाते और स्नानादि से निवृत्त होकर गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में जाकर भगवान की पूजा तथा स्मरण-ध्यान करते। भगवान का यह भजन-पूजन लगभग नौ बजे तक चलता। तत्पश्चात् वे घर आकर भोजन करते और फिर गाँव की संस्कृत पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने पहुँच जाते। उस गाँव के ज़मींदार ठाकुर जगपाल बड़े ही धार्मिक विचारों के थे और इस पाठशाला की स्थापना उन्होंने ही की थी, जहाँ विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ दोपहर का भोजन भी मिलता था। गाँव की पाठशाला थी, इसलिए थोड़े से ही विद्यार्थी थे। भक्त शंकर पण्डित को वेतन ठाकुर जगपाल की ओर से ही मिलता था। वेतन यद्यपि बहुत अधिक नहीं था, परन्तु शंकर पण्डित की तरह चूंकि उनकी धर्मपत्नी भी भक्तिभावसम्पन्न एवं सन्तोषी थी, इसलिए जीवन-निर्वाह सुगमता से हो जाता था।
ठाकुर जगपाल को एक रात्रि स्वप्न में अज्ञात निर्देश हुआ कि अमुक स्थान पर पन्द्रह लाख स्वर्ण-मुद्राएं गड़ी पड़ी हैं, वह निकलवा लो। ठाकुर जगपाल ने उस जगह खुदाई करवाई तो सचमुच ही उसे पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुर्इं। उसने निश्चय किया कि इनमें से दस लाख स्वर्ण मुद्रायें खर्च करके भगवान का एक भव्य मन्दिर बनवाऊँगा और शेष पाँच लाख मुद्रायें अपने चारों पुत्रों को दे दूँगा। उसने अपना यह निश्चय अपने चारों लड़कों को बतलाते हुए कहा कि यह मन्दिर शंकर पंडित की देख-रेख में बनेगा, क्योंकि वे भगवान के सच्चे भक्त हैं और कर्तव्य-परायण, सन्तोषी, निर्लोभी तथा ईमानदार हैं। मैने इस विषय में उनसे परामर्श कर लिया है।
परन्तु भगवान को कुछ और ही अभीष्ट था। मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ करवाने से पूर्व ही ठाकुर जगपाल का देहान्त हो गया और उसके स्थान पर उसका बड़ा लड़का कुशलपाल ठाकुर बना। वह स्वभाव से बड़ा दुराचारी, विलासी और अधार्मिक था। शंकर पंडित से तो उसे बहुत ही चिढ़ थी। जब ठाकुर जगपाल बड़े आदर और विनम्रता से झुककर उन्हें प्रणाम करता था, तो यह देखकर कुशलपाल को आग लग जाती थी कि एक निर्धन ब्रााहृण के आगे उसका पिता इतना झुक रहा है। ठाकुर बनने के बाद उसने एक-दो बार पाठशाला बन्द कर देने का विचार किया, परन्तु कुछ तो लोक-लाज के कारण तथा कुछ माता के भय से पिता द्वारा स्थापित पाठशाला बन्द करने की उसकी हिम्मत न हुई। यद्यपि ठाकुर जगपाल की पत्नी और तीनों छोटे लड़के शंकर पंडित का बड़ा आदर करते थे, परन्तु कुशलपाल जब भी उन्हें देखता उसकी भृकुटि चढ़ जाती, अतएव शंकर पंडित ने ठाकुर की हवेली में जाना छोड़ दिया। वैसे भी उनकी संसार के प्रति कोई रुचि नहीं थी, वे तो भगवान के भजन-पूजन में ही आनन्द मानते थे और इसी को जीवन का सच्चा लाभ समझते थे। अब उन्होंने यह नियम बना लिया कि पाठशाला से छुट्टी मिलते ही वे सीधे घर चले जाते और थोड़ा-सा भोजन करके फिर गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में जाकर भजन-पूजन में लीन हो जाते और सूर्यास्त के बाद ही घर वापस आते।
कुछ दिन के पश्चात् कुशलपाल की माता का भी देहान्त हो गया। अब तो कुशलपाल पूर्णतः निरंकुश
हो गया। अब तो रात-दिन हवेली में महफिलें जमने लगीं और वह विलासिता में गहरा डूबता चला गया और पानी की तरह पैसा बहाने लगा। कुछ ही दिनों में उसने पिता से प्राप्त अपने हिस्से का सारा धन फूँक डाला। तब उसकी नज़र पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राओं के भण्डार पर गई और उसने उस धन को हड़पने का विचार किया। अपने भाइयों को वह अच्छी तरह जानता था और उसे मालूम था कि वे उसका विरोध करेंगे, अतएव कुशलपाल ने एक जाली दस्तावेज़ तैयार किया और उस पर अपने पिता के हस्ताक्षर की हूबहू नकल कर दी। उस दस्तावेज़ में यह लिखा हुआ था कि उन पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राओं में से एक-एक लाख मुद्रा तीनों छोटे लड़कों को दे दी जाए और बाकी सब अर्थात् बाहर लाख मुद्राएं बड़े लड़के कुशलपाल को मिलें। वह जिस प्रकार चाहे इनको उपयोग में लाये। दस्तावेज़ तैयार हो जाने पर उसने अपने भाइयों को बुलाया और दस्तावेज़ दिखाते हुए बोला- पिता जी का विचार यद्यपि पहले मन्दिर बनवाने का था, परन्तु मरते समय उनका यह विचार बदल गया था और तभी यह दस्तावेज़ लिखा गया था।
यह कहकर उसने भाइयों की ओर देखा जिनके चेहरे से अविश्वास स्पष्ट झलक रहा था। यह देखकर कुशलपाल घबरा गया और घबराहट में प्रभु-प्रेरणा से उसके मुख से निकल गया कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पण्डित की उपस्थिति में किये थे। तीनों भाई कुशलपाल के स्वभाव से भी और शंकर पंडित के स्वभाव से भी भलीभाँति परिचित थे। शंकर पंडित पर उनकी श्रद्धा भी थी। जब कुशलपाल ने ये शब्द कहे कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पंडित की उपस्थिति में किये हैं, तो वे बोले-यदि पंडित जी कह देंगे कि पिता जी ने उनके सामने इस पर हस्ताक्षर किये हैं, तो हम लोग इस दस्तावेज़ को मान लेंगे। यह कहकर तीनों भाई वहाँ से चले गये। कुशलपाल ने उनके सम्मुख कह तो दिया कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पंडित की उपस्थिति में किये थे, परन्तु अब उसको यह सोचकर भय लगने लगा कि शंकर पंडित ने यदि यह बात न मानी तो क्या होगा? परन्तु फिर उसने सोचा-""मानेगा कैसे नहीं। मुझे मिलने वाले धन में से मैं आधा उसको दे दूँगा। धन तो बड़ों-बड़ों को झुका देता है, फिर वह तो कंगाल है। इतना धन देखकर तो वह कुछ भी कहने को तैयार हो जायेगा।'' परन्तु थोड़ी देर बाद ही उसके मन में पुनः यह विचार उठ खड़ा हुआ-""इस क्षेत्र के सभी लोगों का यह कहना है कि वह बड़ा निर्लोभी, ईमानदार और सत्यवादी है। यदि वह प्रलोभन में न आया और उसने मेरी बात मानने से इनकार कर दिया तो?''
""तो फिर मैं उसे जीवित नहीं छोड़ूँगा।'' यह सोचकर उसका मुख कठोर हो गया।
दूसरे दिन कुशलपाल उस समय भक्त शंकर पंडित के घर जा पहुँचा, जब वे भोजन करके पाठशाला जाने के लिये तैयार थे। कुशलपाल ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम किया। यह देखकर शंकर पंडित को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कुशलपाल को एक चारपाई पर बैठने के लिए कहा, तत्पश्चात् पूछा-ठाकुर साहिब! सब कुशलमंगल है?
कुशलपाल ने उत्तर दिया-जी हाँ! सब कुशल है। मैं आपके पास एक खास काम से आया हूँ। तत्पश्चात् उसने दस्तावेज़ के विषय में सारी बात बतलाकर दस्तावेज़ उनके हाथों में थमा दिया। शंकर पंडित ने ध्यानपूर्वक दस्तावेज़ पढ़ा और बड़े ही ध्यान से हस्ताक्षर देखे, फिर बोले-ठाकुर जगपाल जी के हस्ताक्षरों जैसे हस्ताक्षर बनाने की पूरी कोशिश की गई है, परन्तु ये हस्ताक्षर उनके कदापि नहीं है। मैं उनकी लिखावट अच्छी तरह पहचानता हूँ। यह दस्तावेज़ जाली है।
कुशलपाल ने कहा-पंडित जी! यह आप कैसी बातें कर रहे हैं? दस्तावेज़ मेरे पक्ष में है, यदि आपकी दृष्टि में यह जाली है तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैने जानबूझ कर यह जाली दस्तावेज़ तैयार करवाया है। शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! दस्तावेज़ किसी ने भी तैयार किया हो, परन्तु यह बात मैं निश्चित रुप से कह सकता हूँ कि हस्ताक्षर जाली है। यह सुनकर कुशलपाल का चेहरा उतर गया। शंकर पंडित ने उसे समझाते हुए कहा-ठाकुर साहिब! पाप से प्राप्त धन अनर्थ का मूल है। इससे मनुष्य में काम,क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार तो ज़ोर पकड़ ही जाते हैं, असत्य भाषण, हिंसा, वैर, लम्पटता, इन्द्रिय-लोलुपता, जुआ खेलना तथा मदिरा-पान आदि अनेकों दुर्गुण भी मनुष्य के अन्दर प्रविष्ट हो जाते हैं और मनुष्य पूरी तरह अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है जिससे जीवन में उसे कभी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं होती। इन पाप कर्मों के फलस्वरुप वह संसार में अपयश का भागी तो बनता ही है, परलोक में भी नरकों की यातनाएँ झेलता है। इसलिए आप इस पाप से बचिये और पिता जी की इच्छा को पूरा कीजिए ताकि संसार में आपका यश हो।
कुशलपाल की बुद्धि तो लोभ ने हर ली थी, अतः उसे शंकर पंडित का यह उपदेश तनिक न भाया। तब उसने दूसरा पासा फेंका और कहने लगा-पंडित जी! मैं आपका बहुत आदर करता हूँ और आपको निर्धन देखकर मुझे बहुत कष्ट होता है। यदि आप केवल एक बार सबके सामने कह दें कि यह हस्ताक्षर पिता जी के हैं तो मैं अपने हिस्से में से आधा धन आपको दे दूँगा। तब आपको जीवन में कोई अभाव नहीं रहेगा और आप निश्चिन्त होकर भगवान की सेवा पूजा और भजन-ध्यान कर सकेंगे।
भक्त शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! अब आप यहाँ से पधारने की कृपा करें। धन का लोभ देकर आप मुझसे झूठ बुलवाना चाहते हैं। ऐसा कदापि नहीं हो सकता। मैं निर्धन अवश्य हूं, परन्तु लोभी नहीं हूँ। मेरे भगवान पाप का धन खाने वाले का भजन-पूजन और सेवा स्वीकार नहीं करते, न ही पाप का यह धन बच्चों को खिलाकर मैं उन्हें अधर्मी एवं दुराचारी बनाना चाहता हूँ। मेहनत और ईमानदारी से कमाई हुई रुखी-सूखी खाकर ही हम प्रसन्न हैं। हमें पाप का धन नहीं चाहिए। अब आप जा सकते हैं। शंकर पंडित के ये वचन सुनकर कुशलपाल जल उठा और क्रोध पूर्वक बोला-कंगाल को इतना अभिमान? आपको पिता जी ने बहुत सिर चढ़ा रखा था, इसीलिए आपने ऐसी धृष्टता करने का साहस किया है। किन्तु याद रखियेगा, मेरा नाम कुशलपाल है। मेरे आदेश का पालन करने में ही आपकी कुशल है। मेरी अवज्ञा करके आप जीवित नहीं रह सकते। शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! मैं निर्धन अवश्य हूँ, परन्तु आपकी तरह धन के बदले धर्म का त्याग करने वाला नहीं हूँ। शेष रही आपकी धमकी की बात तो जीवित रखना और मारना भगवान के हाथ में है।
जाको राखे साइयां मार सके न कोय। बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय।
भगवान की इच्छा के विरुद्ध आप मेरा कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकते। हाँ! यदि भगवान ने आपके हाथों ही मेरी मृत्यु लिखी है, तो फिर भगवान की इच्छा पूरी होनी ही चाहिए। परन्तु मैं अब भी आपको यही सत्परामर्श दूँगा कि आप इस पापमय विचार को अपने मन से निकाल दें। भगवान आपको सद्बुद्धि दें और आपका कल्याण करें। कुशलपाल क्रोध में बोला-आपके आशीर्वाद की मुझे आवश्यकता नहीं है। आप मेरे लिए नहीं, अपने लिये भगवान से प्रार्थना करें। यह कहकर वह पैर पटकता हुआ वहाँ से चला गया। उसने शंकर पंडित का वध करने का मन ही मन निश्चय कर लिया।
पहले लिखा जा चुका है कि शंकर पंडित पाठशाला में छुट्टी होने पर सीधे घर आते थे और हल्का-सा भोजन करके गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में चले जाते थे, जहां वे भगवान का भजन-पूजन तथा सुमिरण-ध्यान करते थे। सूर्यास्त होने के लगभग एक-डेढ़ घंटे बाद ही वे घर लौटते थे। मन्दिर और गाँव के बीच में बिल्कुल सुनसान जगह थी। सायंकाल होते ही कुशलपाल छिपते-छिपाते वहां जा पहुंचा और एक वृक्ष की आड़ में खड़ा हो गया। उसने हाथ में एक तेज़ धार वाला छुरा पकड़ रखा था। सूर्यास्त हुआ और धीरे-धीरे अन्धकार ने धरती पर अपना अधिकार जमा लिया। उस अन्धकार में भक्त शंकर पंडित भगवान्नाम का जाप करते हुये गाँव की ओर चले आ रहे थे। जैसे ही वे उस वृक्ष के निकट पहुँचे, कुशलपाल ने छुरे से उनकी छाती पर वार किया और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। छुरा लगते ही शंकर पंडित बड़ा ज़ोर से चिल्लाये और फिर मूर्छित हो गये।
शंकर पंडित ने मूÐच्छत होने पर एक अनोखा ही दृश्य देखा। क्या देखते हैं कि एक बड़ा ही सुन्दर स्थान है जहाँ भगवान हीरे-मोती जड़ित स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं और मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसे आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं। कुछ देर तक तो वे भगवान के दर्शन करते रहे, फिर भगवान अलोप हो गये। भगवान के अलोप होते ही शंकर पंडित छटपटाने लगे और उनकी मूचर््छा टूट गई। होश आने पर उन्होंने देखा कि उनके हाथ पर छुरे का जख्म है। हुआ वास्तव में यह कि कुशलपाल ने तो अपनी तरफ से छुरा शंकर पंडित की छाती में भोंका था, परन्तु जैसे ही उसने छुरे का वार करने के लिए हाथ ऊपर उठाया, उसकी चमक शंकर पंडित की आँखों में कौन्ध गई और उन्होने वार से बचने के लिए हाथ आगे कर लिए थे। इसलिए छुरा छाती में न लगकर हाथ में लगा था। शंकर पंडित घर आये और कपड़ा गीला करके हाथ पर बाँध लिया। प्रातः लोगों के पूछने पर उन्होने कहा-रात को गिर गया था, थोड़ा घाव हो गया है, ठीक हो जायेगा। परन्तु ग्रामवासी उनका बड़ा आदर करते थे। वे उन्हें वैद्य के पास ले गये। वैद्य ने ज़ख़्म साफ करके पट्टी कर दी और सबको तसल्ली देते हुए कहा। घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ ही दिनों में घाव ठीक हो जायेगा।
उधर कुशलपाल के साथ क्या हुआ? छुरा घोंप कर जब वह भागा तो कुछ दूर जाकर ठोकर लगने से गिर पड़ा और मूÐच्छत हो गया। उस अवस्था में उसने क्या देखा कि कुछ भयानक आकृति वाले व्यक्तियों ने उसे पकड़ लिया है और यह कहते हुए डंडों से मार रहे हैं कि तूने भगवान के भक्त को जान से मारने की जो कोशिश की है, यह उस पाप का दण्ड है। वे बड़ी देर तक उसे मारते रहे और वह चिल्लाता रहा। अन्ततः उसे अधमरा करके वे चले गये। तभी वह होश में आ गया। उसका सारा शरीर एक-एक अंग सचमुच ही दुःख रहा था और उसमें उठने की भी शक्ति न थी। वह सारी रात दर्द से कराहता रहा। सूर्य उदय से पहले जैसे-तैसे वह उठा और हवेली में पहुँचा। उसके पूरे शरीर पर मार के नीले-नीले निशान थे। रह-रहकर उसे वे भयानक आकृतियाँ दिखाई पड़ती और वह भय से कांप उठता। वैद्य के कई दिन तक उपचार करने पर वह चलने और फिरने के योग्य हुआ।
शंकर पंडित के विषय में कुशलपाल को ज्ञात हो गया था कि छुरा उनकी छाती में न लगकर उनके हाथ पर लगा था और यह भी कि उन्होने यह बात किसी पर प्रकट नहीं की कि उन पर किसी ने छुरे से हमला किया था। यह सब सुनकर कुशलपाल को अपने किये पर बड़ी ग्लानि हुई और वह शंकर पंडित के घर जा पहुँचा और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर पश्चाताप करता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला-पंडित जी! मैं बड़ा अधम हूँ, बड़ा पापी हूँ जो मैने आप जैसे भगवान के सच्चे भक्त को दुःख दिया है। मैं आपसे बार-बार क्षमा मांगता हूँ। पंडित जी ने उसे उठाकर गले से लगाते हुए कहा-ठाकुर साहिब! आपने तो मेरा भला ही किया है, क्योंकि आपके इस कृत्य के कारण ही मुझे भगवान के दर्शन पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। भगवान आपका कल्याण करें। कुशलपाल का चित्त अब शुद्ध हो गया था और उसके स्वभाव में आमूल परिवर्तन हो गया था। अतएव भक्त शंकर पंडित के मार्गदर्शन में उसने भगवान का भव्य मन्दिर तो बनवाया ही, पूर्ण महापुरुषों की शरण ग्रहण कर उसने सच्चे नाम का उपदेश भी ले लिया। इस प्रकार भक्ति के मार्ग पर चलकर उसने लोगों से आदर-सम्मान तो पाया ही, अपना परलोक भी संवार लिया।
कथा का अभिप्राय यह है कि एक सच्चा भक्त अपने वैरी के साथ भी कभी वैर नहीं करता, अपितु सदा उसके कल्याण एवं हित की ही कामना करता है। इस प्रकार वह अपना कल्याण तो करता ही है, उसके
संसर्ग में आने वालों का जीवन भी सुधर एव सवंर जाता है।
No comments:
Post a Comment