Thursday, January 7, 2016

नेत्रहीन कौन?



लगभग दो सौ वर्ष पहले की बात है, बिहार प्रान्त के पटना नगर में ब्राहृदत्त नाम के एक बड़े ही विद्वान पण्डित रहते थे, जो वेदों-शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित थे। पुरोहिताई उनका पारिवारिक व्यवसाय था। ज्योतिष विद्या भी भलीभाँति जानते थे। धार्मिक तथा सामाजिक सभाओं में भी वे प्रायः व्याख्यान देने के लिये जाते रहते थे। इन सब साधनों से उनका नाम तो होता ही था, काफी धन-सम्पत्ति भी उन्होंने अर्जित कर ली थी। घर में "यथा नाम तथा गुण' वाली पत्नी थी-सुशीला, जो पति की आज्ञाकारिणी थी और हर तरह से पंडित जी की सुख-सुविधा का ध्यान रखती थी। माता-पिता परलोक सिधार चुके थे, घर में ये दो ही प्राणी थे। इस प्रकार ब्राहृदत्त जी का जीवन बड़ी सुख-शान्ति से व्यतीत हो रहा था।
     उनकी आयु लगभग पचास वर्ष की हो चुकी थी, परन्तु अभी तक उन्होंने सन्तान का मुख न देखा था। सन्तान का अभाव उनके दिल में कांटे की तरह खटकने लगा और वे हर समय उदास चित्त रहने लगे। संसार की खुशियां उन्हें फीकी लगने लगी थीं। यद्यपि सुशीला उन्हें हर तरह से समझाती कि भगवान की इच्छा में मनुष्य को सदा प्रसन्न रहना चाहिए, जब हमारे भाग्य में सन्तान नहीं है तो फिर दुःखी होने से फायदा, परन्तु पण्डित जी पर उसकी बातों का कुछ भी प्रभाव न पड़ता।
     सन्त महापुरुष फरमाते हैं कि मनुष्य की इच्छाओं का यद्यपि कोई अन्त नहीं है, परन्तु आम संसारी मनुष्य के ह्मदय में मुख्यतः तीन इच्छायें ही विद्यमान रहती हैं। वे हैं-पुत्रेष्णा, वित्तेषणा और लोकेषणा अर्थात् पुत्र की इच्छा, धन की इच्छा और सांसारिक मान-बड़ाई की इच्छा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में मानसरोगों का वर्णन करते हुए इन्हीं तीन इच्छाओं को त्रिविध ईषणा का नाम दिया है।
तृष्णा उदरवृद्धि अति भारी। त्रिविध ईषणा तरुण तिजारी।।
अर्थः-तृष्णा भारी जलोदर रोग है और तीन प्रकार की इच्छायें तीक्ष्ण तिजारी हैं।
     पण्डित ब्राहृदत्त के पास धन-सम्पदा तथा शारीरिक सुख सुविधा के सामानों की कोई कमी न थी। इसके अतिरिक्त नगर में उनका मान-सम्मान भी बहुत था। यद्यपि ये इच्छायें कभी पूर्ण नहीं होतीं चाहे मनुष्य कितना भी धन एकत्र क्यों न कर ले और कितने ही ऊँचे पद पर क्यों न पहुँच जाए; उसके दिल में और अधिक धन प्राप्त करने की तथा और ऊँचा पद तथा अधिक मान-सम्मान प्राप्त करने की इच्छा बनी रहती है। परन्तु पण्डित ब्राहृदत्त जी के ह्मदय में इस समय केवल तीसरी अर्थात् पुत्र प्राप्ति की इच्छा प्रबलरुप धारण किए हुए थी। इसके मुख्यतः तीन कारण थेः-
1. उन्हें इस बात की चिंता थी कि उनके बाद उनका वंश समाप्त हो जाएगा।
2. उनके बाद उनके द्वारा संचित धन-सम्पत्ति को कौन संभालेगा।
3. मरणोपरांत उनकी सद्गति कैसे होगी? क्योेंकि उन्होंने तो यही पढ़ा था कि केवल पुत्रवान मनुष्य ही सद्गति को प्राप्त होता है। जिनके पुत्र नहीं होता उनकी सद्गति नहीं होती।
     अन्ततः पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से उन्होंने ब्राहृा जी की उपासना करने का निश्चय किया और लगभग छः मास तक कठिन साधना करके ब्राहृा जी को प्रसन्न किया। उनकी पूजा-आराधना से प्रसन्न होकर एक दिन ब्राहृा जी उनके सामने प्रकट हुए और बोले-हम तुम्हारी सेवा-पूजा से अति प्रसन्न हैं। हमसे कोई उचित वर माँग लो। पण्डित ब्राहृदत्त ने इसीलिये ही तो ब्राहृा जी की आराधना की थी, अतएव ब्राहृाजी के यह शब्द कहते ही पण्डित जी तत्काल बोल उठे-भगवन्! आप तो जानते ही हैं कि मेरे कोई पुत्र नहीं है, अतः मुझे यही वरदान दीजिये कि मैं पुत्र का मुख देख सकूँ।
     ब्राहृा जी ने कहा-ब्राहृदत्त! तुम तो विद्वान हो, बुद्धिमान हो, फिर यह क्या माँग रहे हो? मांगना है तो वह नित्य एवं स्थायी वस्तु मांगो जिससे तुम्हें जीवन में भी शाश्वत सुख-शान्ति प्राप्त हो और तुम्हारा परलोक भी संवर जाये। ऐसी वस्तु मांगो जो लोक-परलोक में सदा संग-साथ रहे और जो आत्मा का कल्याण करे। जो सदा-सर्वदा के लिए तुम्हें आवागमन के चक्र से मुक्ति दिला दे। तुम्हारे अन्दर जो इस समय पुत्र प्राप्ति की कामना समायी हुई है, यह तुम्हारे मोह का प्रतीक है। तुम तो शास्त्रों के ज्ञाता हो, स्वयं विचार करो कि इस जगत में कौन किसका पुत्र है और कौन किसका पिता? ये सब सम्बन्ध तो अस्थायी हैं।
मन तू क्यों भूला रे भाई, तेरी सुधि बुधि कहाँ हिराई।।टेक।।
                          जैसे पंछी रैन बसेरा, बसै बृच्छ  में आई।
        भोर भये सब आपु आपु को, जहाँ तहाँ उड़ि जाई।।1।।
 मातु पिता बंधू सुत तिरिया, न कोई सगो संगाई।
       ये तो हैं कुछ पल के संगी, आँख खुले सुधि पाई।।2।।
(परमसन्त श्री कबीर साहिब जी)
      ब्राहृदत्त! ये रिश्ते-नाते तो तुमको पहले भी चौरासी लाख योनियो में भटकते हुए हर जन्म में मिलते ही रहे हैं तथा मिलकर बिछुड़ते भी रहे हैं और अब भी बिछुड़ जायेंगे, फिर इनके मोह में फँसना क्या अज्ञानता नहीं? तुम्हे तो भगवान का आभार मानना चाहिए कि उन्होने तुम्हें सन्तान की मोहरुप रज्जु से मुक्त कर रखा है। स्वयं को सौभाग्यशाली समझकर तुम्हें तो चाहिए कि अपना समय भजन-भक्ति मेे लगाकर इसी जन्म में ही अपनी आत्मा का कल्याण कर लो और जन्म मरण के बन्धन से छुटकारा प्राप्त कर लो।
     किन्तु इस मोह-ममता की बलिहारी है जिसने सारे संसार को अन्धा बना रखा है। पण्डित जी विद्वान थे, शास्त्रों के ज्ञाता थे, परन्तु पुत्र प्राप्ति की इच्छा और उसका मोह इस कदर उनके मन-मस्तिष्क पर छाया हुआ था कि उसने पण्डित जी की बुद्धि पूरी तरह आच्छादित कर रखी थी, फलस्वरुप ब्राहृा जी के उपेदश का उन पर ज़रा-सा भी प्रभाव न पड़ा। उन्होंने विनय की-भगवन्! आप सत्य कहते हैं, परन्तु मेरे बाद मेरी इस अपार धन सम्पत्ति का क्या होगा, जो मैने संचित कर रखी है। उसे कौन संभालेगा?
     ब्राहृा जी ने कहा-तुम फिर गलती कर रहे हो, जो धन सम्पत्ति को अपना कह रहे हो। धन-सम्पत्ति अथवा माया तो चलती फिरती छाया है जो कभी एक स्थान पर नहीं ठहरती और न ही किसी की बनती है। यह आज एक के पास है तो कल दूसरे के पास। तुम्हीं बताओ! इसे आज तक कोई अपना बना सका है? बड़े-बड़े राजा महाराजा जिन्होंने इस माया को एकत्र करने के लिये अनेकों युद्ध किए और निर्दोषों का रक्त बहाया, वे भी इसे अपना न बना सके और न ही यहाँ से जाते समय एक पाई साथ ले जा सके। तुमने भी इसमें से एक कौड़ी साथ नहीं ले जानी। हाँ! यदि तुम इसे परमार्थ एवं परोपकार में व्यय करो, तो वह कमाई अवश्य तुम्हारे साथ जाएगी। इसलिये तुम्हारे बाद कौन इसे संभालेगा, इस बात की चिंता करने की अपेक्षा क्यों नहीं तुम इस धन-सम्पदा को परमार्थ में व्यय करके अपना परलोक सँवारते? यदि तुम ऐसा नहीं करना चाहते तो इसके संभालने की चिंता भी तुम्हें नहीं करनी चाहिये, क्योंकि तुम्हारे बाद इसे संभालने वाले बहुत मिल जायेंगे और नहीं तो तुम्हारे रिश्तेदार तो हैं ही। यदि तुम्हारे दिल में यह भावना है कि तुम्हारा अपना पुत्र ही इसे संभाले, तो हम फिर अपनी बात दोहरायेंगे कि संसार में कौन किसी का पुत्र है और कौन किसी का पिता? ये सब सम्बन्ध तो अस्थायी और कुछ दिनों के हैं। मान लो यदि तुम्हारे घर पुत्र हो भी जाये तो यह सम्बन्ध कितने दिन बना रहेगा? तुम्हारे शरीर त्यागने पर तो यह सम्बन्ध अपने आप ही टूट जायेगा, फिर कौन पुत्र और कौन पिता? इसलिये हमारी बात मानो और पुत्र की इच्छा न करके स्थायी एवं नित्य वस्तु माँगो, वह वस्तु माँगो जो सदा साथ रहने वाली और कल्याण करने वाली है। पुत्र के मोह में फँसकर अपना अहित क्यों कर रहे हो?
     ब्राहृदत्त ने कहा-यह आप क्या कह रहे हैैं? पुत्र से अहित कैसा? उससे तो सदा हित ही होता है, क्योंकि शास्त्रकारों के अनुसार पुत्रवान मनुष्य ही सद्गति को प्राप्त होता है, पुत्रहीन मनुष्य को तो नरकों और प्रेतयोनि में जाना पड़ता है, क्योंकि उसका पिंड-तर्पण करने वाला कोई नही होता। ब्राहृा जी बोले-अहित की बात हमने इसलिए कही कि पुत्र में सुरति आसक्त होने से मनुष्य को नीच योनियों का शिकार होना पड़ता है जैसा कि सन्तों का कथन हैः-
जा की रहै पुत्र में आसा। सूअर जन्म नीच घर बासा।।
(सन्त सहजो बाई जी)
इसलिए पुत्र के मोह में फँसना और उसमें सुरति अटकाना मानों स्वयं ही अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारना है। शेष रही सद्गति की बात, सो विद्वान होकर भी तुम्हें ऐसी बातें करते देखकर हमें खेद होता है। यदि पुत्र होने से ही मनुष्य की सद्गति होती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि पुत्रवान मनुष्य चाहे सम्पूर्ण आयु अनुचित कर्म करता रहे और पापकर्म कमाता रहे, तो भी उसकी सद्गति निश्चित है। तुम तो शास्त्रों के ज्ञाता हो, क्या तुम्हारा दिल इस बात को मानता है? क्या ऐसे मनुष्य की सद्गति होना सम्भव है? कदापि नहीं। इसके विपरीत जो जीवन पर्यन्त शुभकर्म करे और भगवान के भजन-सुमिरण में समय व्यतीत करे, उसके यदि पुत्र नहीं है, तो क्या उसकी सद्गति नहीं होगी? यदि तुम्हारा ऐसा विचार है तो तुम गलती पर हो। ऐसा मनुष्य तो निश्चित रुप से ही परमगति को प्राप्त करता है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी महाराज इस बात की पुष्टि करते हुए फरमाते हैं किः-
अपि  चेतसुदुराचारो  भजते   मामनन्यभाक्।
साधुरेव स  मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शाश्वच्छाÏन्त निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न में भक्तः प्रणश्यति।।
9/30-31
अर्थः-""यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।''
     ""वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परमशान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।'' ब्राहृदत्त! शुभगति तो उनको प्राप्त नहीं होती और वही नरकाग्नि में जलते हैं, जो भगवान का भजन-सुमिरण नहीं करते। उनके एक क्या, दस पुत्र भी हो जायें तो क्या? इसलिये यह निश्चितरुप से जान लो कि सद्गति अपने ही शुभकर्मों के फलस्वरुप होती है न कि पुत्र के पिंड-तर्पणादि से। इसलिये यदि तुम्हारे मन में शुभगति प्राप्त करने की चिंता है, तो फिर चित्त से अन्य विचार हटाकर एकाग्रचित्त होकर भगवान का भजन-सुमिरण करो।
     किन्तु जैसे चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता, वैसे ही ब्राहृदत्त के ह्मदय में ब्राहृा जी का उपदेश न ठहर सका। उसने विनय की-प्रभो! आपका कथन सब सत्य है, परन्तु मैं क्या करुँ? मैं विवश हूँ। मेरे ह्मदय में पुत्र का मुख देखने की प्रबल इच्छा है। इसलिए यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वरदान दीजिए; मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
     ब्राहृा जी ने कहा-ब्राहृदत्त तुम पुत्र की इच्छा न करते तो अच्छा था, परन्तु जब तुम इसके लिए इतने व्याकुल हो, तो फिर तुम्हारे घर पुत्र होगा, परन्तु---------।
     ब्राहृदत्त ने उत्सुकता से पूछा--परन्तु क्या?
     ब्राहृाजी ने कहा-परन्तु यह कि तुम्हारे घर जो पुत्र होगा वह नयनहीन होगा। यदि तुम्हें यह स्वीकार हो, तो तुम्हें पुत्र की प्राप्ति हो सकती है। ब्राहृदत्त ने सोचा कि पुत्र के होने से घर का सूनापन तो मिटेगा, चलो नयनहीन ही सही। उन्होंने ब्राहृा जी की शर्त मान ली। तब ""भगवान तुम्हारा कल्याण करें।'' ये शब्द कहते हुए ब्राहृा जी अन्तर्धान हो गये।
     ब्राहृदत्त खुशी खुशी घर आये समय पर उनके घर पुत्र का जन्म हुआ, जो कि सूरदास था। पुत्र के जन्म पर उन्होंने धूमधाम से जन्मोत्सव मनाया और बिरादरी को भोज दिया। अब ब्राहृदत्त तथा उनकी पत्नी का अधिकतर समय पुत्र के लालन पालन तथा प्यार दुलार में व्यतीत होने लगा। जब लड़के की आयु पाँच वर्ष की हुई, तो उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया और उसी दिन उसका नाम विद्यासागर रखा गया। किन्तु इसके साथ ही ब्राहृदत्त के सम्मुख एक समस्या खड़ी हुई। वह यह कि विद्यासागर को विद्याध्ययन के लिये पाठशाला कैसे भेजा जाए? उसकी आँखें तो हैं नहीं, फिर वह पढ़ेगा कैसे? वे सोचने लगे कि क्या मुझ जैसे विद्वान का पुत्र जीवनपर्यन्त अज्ञानी ही रहेगा? यह सोचकर उनका सब हर्षोल्लास शोक में बदल गया।
     सुशीला ने जब उन्हें कई दिन तक उदास देखा, तो एक दिन इस उदासी का कारण पूछा। ब्राहृदत्त ने जब उसे कारण बतलाया, तो सुशीला ने कहा-यह ठीक है कि अध्ययन करने यह पाठशाला नहीं जा सकता। किन्तु आप विद्वान हैं, इसे शास्त्र कण्ठस्थ करा दीजिये और उनका खूब विस्तार से अर्थ भी समझा दीजिये, लिखना चाहे इसे न आए, परन्तु शास्त्रों का ज्ञान तो इसे हो ही जायेगा। ब्राहृदत्त को यह बात पसन्द आई। उन्होने उसी दिन से विद्यासागर को शिक्षा देनी आरम्भ कर दी। विद्यासागर कुशाग्र बुद्धि था, अतः यौवन में पदार्पण करते करते उसने वेद पुराण आदि के अतिरिक्त श्रीमद्भगवद्गीता, श्री रामायण तथा अनेकों सन्तों महापुरुषों की वाणियां कण्ठस्थ कर लीं। ब्राहृदत्त के अतिरिक्त अन्य लोग भी उसकी स्मरण शक्ति देखकर चकित रह जाते, क्योंकि जो श्लोक अथवा वाणी वह एक बार सुन लेता, उसे तुरन्त याद हो जाती।
    सुशीला भक्तिमती थी और घर के कामकाज से समय निकाल कर प्रायः सत्संग श्रवण करने जाया करती थी। वह विद्यासागर को भी अपने साथ ले जाया करती जिससे उसे बाल्यकाल से ही सन्तों महापुरुषों की शुभ संगति का सौभाग्य प्राप्त हो गया। ज्यों ज्यों उसकी आयु बढ़ती गई, वह सत्संग में अधिक से अधिक समय देने लगा और एक उच्चकोटि के सन्तों से पटना में ही गंगा के किनारे जिनका आश्रम था, गुरु-दीक्षा लेकर वह गुरु-शब्द की कमाई करने लगा। सत्संग के प्रताप से उसके विवेकचक्षु खुल गए थे और वह इस तथ्य को भली भांति समझ गया था कि जीवन का सच्चा लाभ नाम-भक्ति की कमाई करने में ही है।
     पण्डित ब्राहृदत्त धीरे धीरे वृद्धावस्था की ओर पग बढ़ा रहे थे, इसलिये वे चाहते थे कि विद्यासागर पुरोहिताई का काम संभाल ले और उनके साथ यजमानों के घर आना जाना आरम्भ करे। इसके अतिरिक्त उनकी यह भी इच्छा थी कि वह धार्मिक सभाओं आदि में जाकर व्याख्यान दिया करे। वे उसका विवाह भी कर देना चाहते थे। किन्तु विद्यासागर को तो नाम-सुमिरण से एक अलौकिक आनन्द की रसानुभूति होने लग गई थी, अतः न तो पुरोहित बनने में उसकी कोई रुचि थी और न ही वह विवाह करने को राजी था। ब्राहृदत्त जब भी इस विषय में बात करते, वह टाल जाता। उसके बार-बार मना करने पर एक दिन ब्राहृदत्त को क्रोध आ गया और वे सुशीला को सुना कर बोले-मैं चाहता था कि मेरे बाद विद्यासागर मेरा नाम रोशन करे। मैने कितना परिश्रम करके इसे सद्शास्त्र कण्ठस्थ कराये जिससे कि यह अपनी विद्वता से विद्वानों में शोभा पाए, परन्तु इसे द्वार बन्द करके अन्धेरे कमरे में बैठने में न जाने क्या मिलता है? मैं सोचता था कि जब यह विद्वानों की सभा में बैठकर व्याख्यान देगा और यजमानों के धार्मिक कृत्य करेगा, तो लोग इसका मान-सम्मान करेंगे और इसकी विद्वता से प्रभावित होकर कोई इसे अन्धा नहीं कहेगा। किन्तु जब यह स्वयं ही अन्धा बना रहना चाहता है तो फिर संसार इसे अन्धा क्यों न कहेगा? मैं तो इसे समझा समझा कर थक गया, अब तुम्हीं इस अन्धे को समझाओ।
     ब्राहृदत्त की बातें सुनकर सुशीला तो मौन रही, परन्तु विद्यासागर चुप न रहा। उसने पिता को सम्बोधित करके कहा-पिता जी! यदि आप रुष्ट न हों तो एक बात पूँछू?
     ब्राहृदत्त ने क्रोध करते हुए पूछा-पूछो, क्या पूछते हो?
     विद्यासागर ने पूछा-मैं जन्म से ही अन्धा हूँ और भगवान ने मुझे अन्धा पैदा किया है, इसलिये यदि लोग मुझे अन्धा कहें तो मैं इसका बुरा नहीं मानता किन्तु आप तो शास्त्रों के ज्ञाता हैं और ज्योतषाचार्य भी हैं; क्या आप बता सकते हैं कि मैं अन्धा क्यों पैदा हुआ? मेरे अन्धे होने का क्या कारण है?
ब्राहृदत्त--शास्त्रों का ज्ञान तो तुम्हें भी है, फिर मुझसे क्यों पूछते हो?
विद्यासागर-मैं आपके मुख से जानना चाहता हूँ।
ब्राहृदत्त-यह तो स्पष्ट ही है कि यह तुम्हारे किसी पूर्व जन्म के पापकर्म का फल है।
विद्यासागर-आपका विचार भी सत्य हो सकता है,परन्तु मेरे विचार में मेरे अन्धे होने की वजह कुछ और है।
ब्राहृदत्त-वह क्या?
विद्यासागर-कारण के गुण कार्य में भी आ जाते हैं,यह तो आप जानते ही हैं। इसलिए मेरे विचार में मेरे अन्धे होने की यह वजह है।
ब्राहृदत्त-क्या मतलब? तुम कहना क्या चाहते हो?
विद्यासागर-मेरा अभिप्राय स्पष्ट है। चूँकि आप अन्धे हैं, इसी से मैं भी अन्धा हूँ।
उसके ये शब्द सुनते ही ब्राहृदत्त का क्रोध सीमा पार कर गया। उसने क्रोधावेश में कहा-अरे मूर्ख! मैं अन्धा कैसे हूँ? मेरी तो दोनों आँखें हैं।
विद्यासागर ने शान्तभाव से कहा-नहीं,पिता जी! आपकी आँखें नहीं हैं। आप वास्तव में ही अन्धे हैं। यदि आपकी आँखें होती तो फिर आप सही मार्ग का परित्याग कर गलत मार्ग क्यों अपनाते? सुनिये, सत्पुरुषों की वाणी क्या कहती है?
होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ पाइ।।
अर्थः-सत्पुरुष श्री गुरुनानक साहिब फरमाते हैं कि जो सुजाखा अर्थात् आँखोंवाला है, वह गलत मार्ग पर क्यों जायेगा?
ब्राहृदत्त-मैने गलतमार्ग कब अपनाया? कौन सा गलत काम करते तुमने मुझे देखा है?
विद्यासागर-पिताजी! आपने छः मास तक ब्राहृा जी को प्रसन्न करने के लिये कठिन साधना की और उनके प्रसन्न होने पर उनसे क्या माँगा-पुत्र? आपने जिस पुत्र की कामना से ब्राहृा जी की उपासना की, ऐसे अनेक पुत्र तो मनुष्येतर योनियों को अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। आपने अपने अमूल्य जीवन के छःमास मात्र इसी चीज़ को प्राप्त करने की कामना से नष्ट कर दिये। क्या यह आपकी भूल एवं अज्ञानता नहीं थी? पुत्र प्राप्त करके आपने अपने अनमोल जीवन से क्या लाभ उठाया? क्या यह जीवन इन्हीं कामों के लिये मिला है? नहीं पिता जी! यह जीवन तो आपको इसलिये मिला था कि आप इसमें परमात्मा की भजन-भक्ति करके मोक्ष प्राप्त करने का यत्न करते। आपने चूँकि ब्राहृा जी की आराधना करके उनको प्रसन्न किया था, इसलिए वे आपका कल्याण चाहते थे। आपके हित एवं कल्याण को दृष्टिगत रखकर उन्होने आपको कितना समझाया कि इस झूठी कामना को त्यागकर सत्य एवं नित्य वस्तु वरदान में माँगो। उस समय आपको चाहिए था कि आप उनसे यही वरदान माँगते कि भगवान के चरणों में मेरा अचल अनुराग हो, अनन्य भक्ति हो ताकि भक्ति के प्रताप से आपका जन्म-मरण का बन्धन कट जाता और आप मोक्षपद के अधिकारी बन जाते। किन्तु जैसा कि सत्पुरुषों ने फरमाया हैः-
अंधे अकली बाहरे किआ तिन सिउ कहीऐ।।
अर्थात् जिनको मोह-माया ने अन्धा कर रखा है और उन्हें बुद्धिहीन बना दिया है, उनसे क्या कहा जाए? क्योंकि उन्हें समझाने से कोई लाभ नहीं। सो ब्राहृा जी ने आपको समझाने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु उनके हितोपदेश का आप पर ज़रा भी असर न हुआ, फलस्वरुप आपने उनसे क्या माँगा-पुत्र? मैं इसीलिए आपको अन्धा कहता हूँ, क्योंकि परमात्मा की अनन्य भक्ति न चाह कर जो आपको परमात्मा के निकट ले जाती, आपने माया के मोह में अन्धे होकर उस मार्ग का चयन किया जो मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाता है। सत्पुरुषों ने तो स्पष्ट फरमाया हैः-
अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहिं।
अंधे सेइ नानका खसमहु घुथे जाहिं।। (गुरुवाणी)
सत्पुरुष श्री गुरुनानक साहिब फरमाते हैं कि अन्धा उनको नहीं कहना चाहिये जिनके चेहरे पर आँखें नहीं हैं अर्थात् जो बाह्र नेत्रों से हीन हैं, अपितु अन्धे वे हैं जो परमेश्वर पति की प्राप्ति के मार्ग को त्याग कर माया के उस मार्ग पर चलते हैं जो उन्हें परमात्मा से दूर ले जाता है।
     श्री रामायण का स्वाध्याय तो आपने किया ही है काकभुशुष्डि जी पर जब भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज प्रसन्न हुये तो उन्होंने फरमाया, हे काकभुशुण्डि! तू मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँ, दूसरी ऋद्धियाँ तथा सम्पूर्ण सुखों की खान मोक्ष, ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान (तत्त्व-ज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत में मुनियों के लिए भी दुर्लभ हैं, ये सब मैं आज तुझे दूँगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं। इसलिए जो तेरे मन भावे, सो माँग ले। तब काकभुशुण्डि जी ने क्या किया?
      काकभुशुण्डि जी कथन करते हैं कि हे गरुड़ जी! भगवान के वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेम में भर गया। तब मन में अनुमान करने लगा कि भगवान ने सब सुखों के देने की बात कही, यह तो सत्य है, परन्तु अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही। भक्ति से रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही फीके हैं जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के भोजन के पदार्थ! भक्ति से रहित सुख किस काम का? हे गरुड़ जी! ऐसा विचार कर मैने कहा-हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझ पर कृपा और स्नेह करते हैं, तो हे स्वामी! मैं अपना मनभाया वर माँगता हूँ। आप उदार हैं और ह्मदय के भीतर की जानने वाले हैं। आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध भक्ति की श्रुति एवं पुराण महिमा गायन करते हैं, जिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभु की कृपा से कोई विरला ही जिसे पाता है, हे भक्तों के मन इच्छित फल देने वाले कल्पवृक्ष! हे शरणागत के हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधाम प्रभो! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए। काकभुशुण्डि की ऐसी भावना देखकर भगवान अति प्रसन्न हुए और फरमायाः-"एवमस्तु' (अर्थात् ऐसा ही हो) कहकर भगवान ने परम सुख देने वाले वचन बोले-हे काक सुन! तू स्वभाव से ही बुद्धिमान है, फिर ऐसा वरदान कैसे न माँगता? तूने सब सुखों की खान भक्ति माँग ली, संसार में तेरे समान सौभाग्यशाली कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और योग की अग्नि से शरीर जलाते रहते हैं, करोड़ों यत्न करके भी जिस भक्ति को प्राप्त नहीं कर पाते, वही भक्ति तूने माँगी। तेरी चतुराई अर्थात् बुद्धिमत्ता देखकर मैं रीझ गया। तेरी यह बुद्धिमत्ता मुझे
बहुत ही अच्छी लगी।
     विद्यासागर ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा-पिता जी! अब आप ही विचार कीजिये कि भगवान ने काकभुशुण्डि जी को क्या कुछ देने को नहीं कहा, परन्तु उन्होंने ऋद्धि, सिद्धि, ज्ञान,विज्ञान क्या मोक्ष की भी चाहना न करके केवल भगवान की भक्ति ही माँगी, क्योंकि वे ज्ञानवान थे, ज्ञानचक्षु रखने वाले थे और भलीभाँति जानते थे कि एक भक्ति की प्राप्ति से ये सब कुछ तो अपने आप ही प्राप्त हो जाता है। तभी तो भगवान ने उन्हें बुद्धिमान और सयाना कहा।
     किन्तु आपने अपनी बुद्धिमत्ता को तिलांजली देकर क्या माँगा? यही कि मुझे पुत्र की प्राप्ति हो जाए। फिर जब ब्राहृा जी ने आपको नयनहीन पुत्र देने की शर्त रखी तो वह भी आपने मान ली। आपकी बुद्धि में उस समय इतनी सी बात भी नहीं आई कि यदि ब्राहृा जी पुत्र दे सकते हैं, तो क्या वे उसे आँखें नहीं दे सकते? आपको अपने इष्ट पर इतना भी विश्वास नहीं हुआ। जिसे अपने इष्ट पर ही विश्वास नहीं, उसे किसी भी स्थिति में बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता। पिता जी! आप यद्यपि वेदों-शास्त्रों के ज्ञाता हैं, परन्तु आपने उनके तत्त्व को नहीं जाना; क्योंकि अभी तक आप इऩ्हीं वासनाओं में फँसे हुए हैं कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है। इन वासनाओं को जब तक आपने ह्मदय में बसा रखा है, तब तक आप चौरासी के चक्र से कदापि नहीं छूट सकते, क्योंकि वासनायें ही तो जन्म-मरण का बीज हैं। इन्हीं के कारण तो मनुष्य बार-बार शरीर धारण करता और चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। जब तक मनुष्य अज्ञान की अवस्था में रहता है, तभी तक वह इन वासनाओं को ह्मदय में स्थान देता है। चूँकि इन वासनाओं के कारण अज्ञानी मनुष्य स्वयं ही अपने को चैरासी के गहरे कूप में गिराता है, इसीलिए सन्त सत्पुरुष अज्ञानी मनुष्य को, बाहर की आँखें होने पर भी, अन्धा अर्थात् ज्ञानदृष्टि से हीन कहते हैं। सन्त सुन्दर दास जी के वचन हैंः-
बार बार कह्रो तोहि सावधान क्यूँ न होई,
ममता  की  पोट  सिर  काहे को धरतु है।
मेरो  धन  मेरो  धाम  मेरो सुत मेरो बाम,
मेरो  पसु  मेरो  ग्राम भूल्यो ही फिरतु है।।
तू तो  भयो बावरो  बिकाइ गई बुद्धि तेरी,
ऐसो  अंधकूप  गेह  ता  में  तू  परतु  है।
सुन्दर  कहत  तोहि  नेकहू  न  आवै लाज;
काज  को बिगार के अकाज क्यूं करतु है।।
     पुत्र की ऐसी विद्वतापूर्ण बातें सुनकर तथा उसके ज्ञान को देखकर ब्राहृदत्त चकित रह गये। उनकी समझ में न आया कि वे उसकी बातों का क्या उत्तर दें। कुछ देर तक तो वे पुत्र का मुँह ताकते रहे, फिर बोले-विद्यासागर! तुम सत्य कहते हो। मैने यद्यपि वेद, उपनिषद्, पुराण आदि सभी शास्त्र पढ़े हैं, परन्तु उनके तत्त्व को मैने नहीं समझा। मेरे बाह्रचक्षु अवश्य हैं, परन्तु ज्ञानचक्षु नहीं हैं, इसलिए तुम्हारा यह कहना यथार्थ है कि मैं अन्धा हूँ। आाज तुमने अपनी बातों से मेरी आँखें खोल दीं। अब मैं हर ओर से सुरति हटाकर भगवान के भजन ध्यान में चित्त को एकाग्र करुँगा और मोक्ष प्राप्ति का साधन करुँगा।
     विद्यासागर ने कहा-आप फिर गलती कर रहे हैं। सभी शास्त्र तथा सन्त महापुरुष इस बात की साक्षी देते हैं कि सद्गुरु ही मुक्ति के दाता हैं। सद्गुरु की शरण ग्रहण किये बिना और उनकी कृपा के अभाव में मनुष्य चाहे जितने साधन करे और चाहे जितना यत्न एवं पुरुषार्थ करे, वह मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता। सत्पुरुषों के वचन हैंः-
।।सोरठा।।
बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहि निस्तरे।
ब्राहृा बिस्नु महेस, और सकल जिव को गनै।।
श्री रामचरितमानस में भी वर्णन हैः-
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जौ विरंचि संकर सम होई।।
अर्थः-सद्गुरु की कृपा के बिना कोई संसार-सागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्राहृा जी और शंकर जी के समान ही क्यों न हो? इसलिये आप पूर्ण सद्गुरु की शरण ग्रहण कीजिए। उन्हीं से आपको मोक्ष प्राप्त करने की वास्तविक युक्ति और आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी।
     बात ब्राहृदत्त की समझ में आ गई। उन्होंने उसी दिन पूर्ण सद्गुरु की चरण-शरण ग्रहण की और वास्तविक अर्थो में नेत्रवान बनकर वे परमार्थ पथ पर अग्रसर हुए। सद्गुरु द्वारा बख्शे हुए नाम की युक्तिपूर्वक कमाई करके उन्होंने अपना लोक परलोक सफल किया।

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