श्री रामायण के उत्तरकाण्ड में भगवान् श्री रामचन्द्र जी महाराज काकभुशुँडि जी को सम्बोधित करते हुए फरमाते हैं किः-
एक पिता के विपुल कुमारा।होहिं पृथक गुन सील अचारा।।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।
कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई । सब पर पितहि प्रीति सम होई।।
कोउ पितु भगत वचन मन कर्मा।सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।यद्यपि सो सब भांति अयाना।।
अर्थः-""एक पिता के कई पुत्र पृथक-पृथक् गुण, स्वभाव तथा आचरण वाले होते हैं। कोई विद्वान होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानवान, कोई धनवान्,कोई शूरवीर,कोई दानी,कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का उन सभी पर प्रेम होता है। किन्तु उनमें से यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का आज्ञाकारी और सेवक होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता तो वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्यारा होता है चाहे वह सब प्रकार से अंजान ही हो।'' इसी पर एक कथा हैः-
एक सेठ बड़ा ही भक्तिमान, सत्संगी और विचारवान था। उसके चार पुत्र थे। सबसे बड़े लड़के को पुस्तकें पढ़ने का बड़ा शौक था, इसलिए वह सदैव नई से नई पुस्तकें खरीदता रहता और उन्हें पढ़कर अलमारी में रख देता। इस प्रकार उसके पास पुस्तकों की अनेकों अलमारियां भरी पड़ी थीं। नई-नई पुस्तकों की खोज में वह प्रायः पुस्तकों की दुकानों के चक्कर काटता रहता और जैसे ही कोई दुकानदार उसे किसी नई पुस्तक के आने की सूचना देता, तो पुस्तक चाहे कितनी ही कीमत की क्यों न हो, वह तुरन्त खरीदकर उसे घर ले आता और तब तक पुस्तक को न छोड़ता जब तक उसे समाप्त न कर लेता। सेठ जब कभी उससे कहता कि बेटा! थोड़ा भजन-पूजन किया करो और काम-धन्धे की ओर भी ध्यान दिया करो और कामकाज में मेरा हाथ बँटाया करो तो वह पिता के वचनों को बिल्कुल ही अनसुना कर देता। पुस्तकों पर चूंकि वह अनाप-शनाप पैसे खर्च करता था, अतः सेठ ने जब दो-तीन बार उसको ऐसा करने से मना किया, तब भी उसने पिता की बात की ओर ध्यान न दिया।
सेठ का जो दूसरा लड़का था, उसको व्यायाम करने का और शरीर को ह्मष्ट-पुष्ट बनाने का बड़ा शौक था। सुबह उठकर वह अखाड़े में चला जाता, वहाँ सैंकड़ों डंड-बैठक लगाता और फिर कुश्ती लड़ता। वहां से घर वापस आता तो खूब डटकर खाता-पीता और सो रहता। घर में जो भोजन बनता, उस भोजन के अतिरिक्त ढेर सारे सूखे मेवे और मौसम के ताज़ाफल वह डकार जाता। बाज़ार जाता तो वहाँ भी हलवाई की दुकान पर जाकर जलेबी, समोसे, कचौड़ी आदि खूब डटकर खाता। सायंकाल फिर अखाड़े में जाकर कुश्ती का अभ्यास करता और फिर घर वापस आकर खूब डटकर खाना खाता और सो रहता। बस! यही उसकी दिनचर्या थी। काम-धन्धे की ओर वह तनिक भी ध्यान नहीं देता था। जब कभी सेठ उसको कामकाज की ओर ध्यान देने के लिए तथा भगवान के भजन-पूजन के लिए कहता तो वह अपने बड़े भाई की तरह पिता के वचनों को अनसुना कर देता था।
तीसरे लड़के को अपने शरीर के बनाव-ऋंगार का सदा ख्याल रहता था। नये-नये फैशन के कपड़े सिलवाकर पहनना, नये से नये फैशन के जूते बनवाना और पाउडर, क्रीम तथा सुगन्धित तेलों का इस्तेमाल करना-यह उसका शौक था। इन पर वह महीने में हज़ारों रुपये खर्च कर देता था। कितनी कितनी देर वह आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर अपने को सजाता-संवारता रहता। माता-पिता के साथ उसका व्यवहार भी बिल्कुल इसी तरह का था जैसा उसके दोनों बड़े भाईयों का।
किन्तु सेठ का चौथा और सबसे छोटा लड़का माता-पिता का बड़ा ही आज्ञाकारी और सेवाकारी था। माता-पिता जो कुछ भी उसको कहते, वह प्राणपण से उसका पालन करता। कामकाज में वह पिता का पूरा-पूरा हाथ तो बँटाता ही था, भगवान के भजन-पूजन में भी माता-पिता का कहना मानकर समय देता। इस तरह वह माता-पिता को अत्यन्त ही प्रिय था।
इस संसार में सदैव तो कोई रहने नहीं पाता। जो भी इस संसार में आया है, उसने एक दिन अवश्य ही यहाँ से जाना है, यह प्रकृति का एक अटल विधान है। प्रकृति के इस नियम के अनुसार पहले सेठ की पत्नी का और फिर कुछ दिनों के उपरांत स्वयं सेठ का परलोक-गमन हो गया। सेठ के शरीरान्त के पश्चात् जब क्रियाकर्म से सब निवृत्त हुए तो सेठ के तीनों बड़े लड़कों ने सम्पत्ति के बँटवारे के लिए आवाज़ उठाई। उनका एक सम्बन्धी वकील था। उसने उन्हें समझाने-बुझाने का बहुत प्रयत्न किया कि सम्पत्ति का बँटवारा मत करो, बल्कि मिलजुल कर रहो और मिलजुल कर ही व्यापार भी संभालो, इसी में तुम लोगों का भला है, परन्तु तीनों बड़े लड़कों के कान पर जूँ तक न रेंगी। वे तो उलटा लड़-झगड़कर सम्पत्ति बाँटने पर उतारु हो गये। वह देखकर उस वकील ने कहा-""तुम लोग झगड़ा मत करो। तुम्हारे पिता इस संसार से जाने के पूर्व एक वसीयत लिखवा गए हैं जो मेरे पास रखी है। तुम लोग कोई दिन निश्चित कर लो, उस दिन अपने सभी रिश्तेदार-सम्बन्धियों को, जो नगर में रहते हैं, यहाँ तुम लोगों की कोठी पर बुलवा लिया जायेगा। उनके सामने यह वसीयत तुम सबको दिखा भी दी जायेगी, पढ़कर सुना भी दी जायेगी। और आप चारों भाइयों में सम्पत्ति का बँटवारा भी कर दिया जायेगा।'' निश्चित दिन में सभी लोग एकत्र हो गए। वकील भी कुछ मज़दूरों को साथ लेकर आ गया जिनके कन्धों पर फावड़े, गैंती, तसले आदि रखे हुए थे। सेठ के बड़े लड़के ने वकील से पूछा-""इन मज़दूरों को आप किसलिए लाये हैं?''
वकील महोदय ने कहा-""जब वसीयत पढ़ी जायेगी तो आप सबको विदित हो जायेगा कि इन मज़दूरों को मैं क्यों लाया हूँ। इनकी अभी आवश्यकता पड़ेगी।'' तदुपरान्त सभी लोग एक कमरे में बैठ गए। तब वकील महोदय ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा-""आप सभी को आज इसलिए यहाँ बुलाया गया है कि सेठ जी के तीनों बड़े लड़के सम्पत्ति का बंटवारा करना चाहते हैं। मैने इन्हें ऐसा न करने के लिए बहुत समझाया, परन्तु ये किसी तरह भी मानने को तैयार नहीं हुए। इस बारे में छोटे भाई की प्रार्थना को भी इन्होंने अस्वीकार कर दिया। सेठ जो इन तीनों के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे, अतः उन्होंने पहले से ही वसीयत लिखवाकर मेरे पास रख दी थी। आप सब लोग वसीयत पर सेठ जी के हस्ताक्षर देखकर तसल्ली कर लें, तब मैं वसीयत सबके सामने पढ़कर सुनाऊँगा।''
यह कहकर उसने फाईल में से वसीयतनामा निकाला और सेठ जी के बड़े लड़के के हाथ में देते हुए कहा-""इस वसीयत के अन्त में तथा प्रत्येक पृष्ठ पर तुम्हारे पिता जी के हस्ताक्षर हैं। देखकर तसल्ली करो और फिर बताओ कि हस्ताक्षर तुम्हारे पिता जी के ही हैं ना?'' बड़े लड़के ने वसीयतनामा ले लिया और उसके प्रत्येक पृष्ठ पर पिता जी के हस्ताक्षर बड़े गौर से देखे, फिर वसीयतनामा वकील महोदय को लौटाते हुए कहा-"'ठीक है, मुझे तसल्ली है। ये हस्ताक्षर पिता जी के ही हैं।''
वकील महोदय ने तब वसीयतनामा बारी-बारी से दूसरे और तीसरे लड़के को भी दिया। उन्होने भी हस्ताक्षर अच्छी तरह देखकर जब अपनी तसल्ली कर ली तो फिर वकील महोदय सबसे छोटे लड़के की ओर घूमे। छोटे लड़के ने कहा-""वकील साहिब! वसीयत देखकर मैं क्या करुँगा? पिता जी वसीयत लिखवा गए हैं, तभी तो वह आपके पास मौजूद है। फिर भाइयों ने तसल्ली कर ही ली है। यदि पिता जी वसीयत नहीं भी कर जाते तो आप लोग बड़े-बुज़ुर्ग हैं, आप सब जो भी फैसला करते, मैं खुशी-खुशी उसे स्वीकार करता। मैं तो सम्पत्ति के बंटवारे के लिए झगड़ा करना भी कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं समझता।'' उस लड़के के ऐसे विचार सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। वकील महोदय भी उसकी बात सुनकर मुसकरा दिये। तब वहाँ उपस्थित सभी लोगों को भी वकील महोदय ने वह वसीयतनामा दिखाया, जिन्होंने इस बात की पुष्टि कर दी कि हस्ताक्षर सेठ जी के ही हैं।
तदुपरान्त वकील महोदय ने वसीयतनामा पढ़ना शुरु किया। सबसे पहले उसमें काम धन्धे के विषय में लिखा हुआ था कि व्यापार के लेन-देन और स्टाक के चार भाग कर दिये जायें और उनकी पर्चियाँ बनाकर डाल दी जायें और किसी बालक के द्वारा, जो चारों भाइयों को स्वीकार्य हो, पर्चियाँ उठवाई जायें। जिस कोठी में इस समय व्यापार का सारा कामकाज हो रहा है, वह कोठी छोटे लड़के पास रहेगी, क्योंकि वह पहले से ही वहाँ सारा कामकाज संभाल रहा है।
वसीयत का इतना भाग पढ़कर वकील महोदय ने सेठ जी के तीनों बड़े लड़कों की ओर देखा, व्यापार वाली कोठी के विषय में सुनकर जिनके चेहरों पर क्रोध के भाव प्रकट हो गए थे। कुछ पल तो वकील महोदय उनकी ओर बड़े ध्यानपूर्वक देखते रहे, फिर बोलेे-"'अब मैं वसीयत का दूसरा हिस्सा पढ़ता हूँ, जो इस रहने वाली कोठी के बारे में है।''
वकील ने पढ़ना शुरु किया-जो कोठी निवास के लिये बनवाई गई है, वह पहले से ही इस प्रकार की बनवाई गई है कि उसमें भगवान का मन्दिर कोठी के एक तरफ है। चारदीवारी बनाकर जिसकी सीमा पहले से ही निर्धारित कर दी गई है। बाकी कोठी के चार पोरशन हैं। पर्ची डालकर एक-एक पोरशन चारों लड़कों को दे दिया जाए। सभी रिश्तेदार आपस में परामर्श करके मन्दिर किसी धार्मिक ट्रस्ट को सौंप दिया जाए। किन्तु मन्दिर ट्रस्ट को सौंपने से पहले उसके प्रांगण में जो बकसे ज़मीन में मैने गड़वा रखे हैं, वे नीचे लिखे अनुसार दे दिए जायें, परन्तु देने से पहले सब सम्बन्धियों के सामने खोलकर उसमें रखा सामान सबको दिखा दिया जाए। मन्दिर के आगे जो प्रांगण है, उसमें चारों कोनों पर और प्रांगण के बीचों बीच फर्श पर पाँच फूल बने हुए हैं। उन फूलों की जगह को एक-एक करके खोदा जाए। सबसे पहले पूर्व दिशा के कोने में खोदा जाए और वहां से जो बकसा निकले, वह सब से बड़े लड़के को दे दिया जाए। पश्चिम दिशा के कोने से जो बकसा निकले वह दूसरे लड़के को, उत्तर दिशा वाला बकसा तीसरे लड़के को, दक्षिण दिशा वाला सबसे छोटे लड़के को और बीचों बीच वाले फूल के नीचे से जो बकसा निकले, वह मन्दिर की देखभाल और विस्तार के लिए धार्मिक ट्रस्ट को दे दिया जाये। इतना पढ़कर वकील महोदय ने सेठ के बड़े लड़के से कहा-""तुमने मुझसे पूछा था कि मज़दूरों को लाने की क्या आवश्यकता थी? सो मज़दूर फर्श खोदने के लिए ही मैं साथ लाया था।''
तदुपरान्त वकील ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों से मन्दिर के प्रांगण में चलने का अनुरोध किया। सभी लोग बड़ी उत्सुकता से मन्दिर की ओर चल दिए कि देखें! किस भाई के हिस्से में क्या आता है। सभी लोग मन्दिर के प्रांगण में पहुँचे। वहां वसीयत के लिखे अनुसार फर्श पर पाँच फूल बने हुए थे। वकील महोदय ने पूर्व दिशा के फूल की ओर संकेत करते हुए मज़दूरों से कहा-""यहाँ खोदो!''
मज़दूर खुदाई में लग गए। लगभग दो फीट खोदने पर उसमें एक बकसा निकला। बकसे को देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने यही समझा कि इसमें खूब माल भरा होगा, परन्तु जब बकसा खोला गया तो उसमें केवल पुरानी पुस्तकें भरी हुई थीं, जिनमें बुरी तरह से दीमक लगी हुई थी। यह देखकर चारों ओर शोर मच गया। वकील महोदय ने हाथ के संकेत से सबको चुप करने के लिए कहा। जब सब चुप हो गए तो वकील ने कहा-""बकसे में से जो कुछ निकला, उसे देखकर आप सभी अत्यन्त चकित हो रहे होंगे। सेठ जी ने अपनी वसीयत में इसका कारण यूँ लिखा है कि यह लड़का सदैव पुस्तकों का कीड़ा बना रहा और पुस्तकों पर हर महीने हज़ारों रुपये खर्च करता रहा। मेरे कई बार कहने पर भी इसने न तो कभी कामकाज की ओर ही ध्यान दिया, न ही कभी भजन-पूजन किया। इसके अतिरिक्त जीवन में इसने न तो कभी माता-पिता की आज्ञा मानी ओर न ही कभी सेवा की। मैं यह नही कहता कि जीवन में पढ़ना-लिखना बुरा है, परन्तु हर समय पुस्तकों का कीड़ा बने रहना और माता-पिता की प्रत्येक बात अनसुनी करते रहना, यह तो किसी तरह भी ठीक नहीं। चूंकि माता पिता की आज्ञा से अधिक यह सदा पुस्तकों को ही महत्त्व देता रहा है, इसलिए मैने इस बकसे में पुरानी पुस्तकें रखवायीं जिससे कि मेरे बाद इसको मेरी तरफ से पुस्तकों का यह तोहफा मिले।''
यह कहकर वकील महोदय जैसे ही चुप हुए, वहां उपस्थित सभी लोगों में कानाफूसी होने लगी। बड़े लड़के ने लज्जा से सिर झुका लिया। तत्पश्चात वकील महोदय ने प्रांगण के पश्चिमी कोने की ओर खोदने के लिए मज़दूरों को संकेत किया। खोदने पर वहाँ से भी एक बकसा निकला जो सभी के सामने खोला गया। उस बकसे में जो कुछ रखा हुआ था, उसे देखकर एक बार फिर शोर मच गया। उसमें क्या था? काजू, बादाम, अखरोट आदि के छिलके, जिनकी गिरियाँ कीड़े खा चुके थे और पशुओं की कुछ हड्डियाँ और सुखा हुआ चमड़ा। वकील ने पुनः वसीयतनामा पढ़ना शुरु किया जिसमें सेठ की ओर से लिखा था कि मेरा दूसरा लड़का अपने शरीर को ही ह्मष्ट-पुष्ट करने में सदा लगा रहता है। कुश्ती लड़ना, डंड-बैठक पेलना, डटकर खाना-पीना और सो रहना-बस! यही इसकी दिनचर्या है। यह भी महीने में हज़ारों रुपये खाने-पीने में उड़ा देता है। मैने जब भी इसे भगवान का भजन-पूजन करने के लिये अथवा अपने कामकाज में हाथ बंटाने के लिये कहा, इसने मेरी बात हमेशा अनसुनी कर दी। अगर एक दो बार इसने मेरी बात का उत्तर दिया भी तो यही कि घर में इतना पैसा है, यदि मैं काम-धन्धा नहीं करुँगा तो कौन सा फर्क पड़ जायेगा। शेष रही भजन-पूजन की बात, तो यह तो बुड्ढों का काम है। इसने न तो कभी माता-पिता की आज्ञा मानी, न ही कभी सेवा की। माता-पिता की आज्ञा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण इसकी दृष्टि मे था-खाना पीना और शरीर को ह्मष्ट-पुष्ट बनाना। इस बात को यह बिल्कुल भूल गया कि शरीर को चाहे जितना ह्मष्ट-पुष्ट कर लो, एक दिन तो यह खाक में मिल जाना है। पशुओं की हड्डियां और चमड़ा इसलिये बकसे में रखवाये गये हैं ताकि इसको यह समझ आ जाये कि पशुओं की हड्डियां और चमड़ा तो उनके मरने का बाद भी काम आ जाता है, जब कि मनुष्य के मरने के बाद उसके शरीर की कोई भी चीज़ काम नहीं आती चाहे उसका शरीर कितना ही ह्मष्ट-पुष्ट क्यों न हो।
यह कहकर वकील महोदय चुप हो गये। वहां उपस्थित सभी लोग, जो अभी तक वकील महोदय की बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे, अब सेठ के दूसरे लड़के की ओर देखने लगे जिसने शर्म से अपनी नज़रें नीची कर रखी थीं। तदुपरान्त वकील महोदय ने मज़दूरों को उत्तर के कोने की ओर संकेत कर वहाँ खोदने के लिए कहा। वहाँ से भी एक बकसा निकला जो सबके सामने खोला गया। उसमें फटे-पुराने रेशमी, कपड़े, पुराने घिसे-पिटे जूते, क्रीम, सैंट, तेल आदि की कुछ खाली शीशियाँ भरी पड़ी थीं। सभी लोग वकील की तरफ देखने लगे। उसने फिर वसीयत पढ़नी आरम्भ की जिसमें सेठ की तरफ से लिखा हुआ था कि मेरा तीसरा लड़का बड़ा ही फैशनेबल है और महीने में हज़ारों रुपये नये-नये फैशन के कपड़े, नये-नये फैशन के जूते तथा सुगिन्धत तेलों, क्रीमों, पाउडरों आदि पर खर्च कर देता है और अपने बनाव-सिंगार में सारा समय नष्ट करता रहता है। इसने भी मेरी आज्ञा कभी नहीं मानी। मेरी हर बात को अनसुना कर दिया। अपने शरीर के बनाव-सिंगार को सदैव अधिक महत्त्व दिया। इसको जिन वस्तुओं का बहुत शौेक है और इसकी दृष्टि में जो माता-पिता की आज्ञा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, इसके द्वारा इस्तेमाल की हुई पुरानी वस्तुओं में कुछेक इस बकसे
में मैने रखवा दीं ताकि मेरे बाद मेरी तरफ से इसे तोहफे के तौर पर मिल सके।
यह सुनकर तीसरे लड़के ने भी शर्म से गर्दन झुका ली। तब वकील ने मज़दूरों से प्रांगण के दक्षिण दिशा वाले कोने में खोदने के लिए कहा। वहाँ से भी एक बकसा निकला जो पहले तीनों बकसों की तुलना में काफी छोटा था। सबके सामने जैसे ही उसे खोला गया, सभी की आँखें खुली की खुली रह गर्इं, क्योंकि वह बकसा हीरे-जवाहरात से भरा हुआ था। वकील महोदय ने पुनः वसीयत को पढ़ना शुरु किया जिसमें इस प्रकार लिखा था-""मेरा छोटा लड़का सदा ही मेरा प्रिय रहा है, इसने माता-पिता की आज्ञा को हमेशा महत्त्वपूर्ण समझा और उसको जीवन में प्रमुखता दी। यह ठीक है मेरे सबसे बड़े लड़के की तरह यह विद्वान नहीं, दूसरे लड़के की तरह ह्मष्ट-पुष्ट नहीं और तीसरे लड़के की तरह यह सुन्दर भी नहीं, परन्तु मैने इसको जो कुछ भी करने के लिए कहा, उसने बिना किसी मीन-मेख के उसका प्राणपण से पालन किया। मेरे कहे अनुसार यह सत्संग में, भगवान के भजन-पूजन में और काम-धन्धे में अपना पूरा-पूरा समय देता रहा। उसके इस गुण से मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ और ये हीरे-जवाहरात मैं इस छोटे लड़के को दे रहा हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि यह धन का सही उपयोग करेगा और अपना लोक-परलोक दोनों सुधारेगा।
यह कहकर वकील महोदय चुप हो गये। सभी लोग सेठ के छोटे लड़के की प्रशंसा करने लगे। अब सभी की आँखें प्राँगण के बीचों-बीच वाले फूल पर लगीं थीं। वकील महोदय का संकेत पाकर वह जगह भी खोदी गई तो वहाँ से भी एक छोटा बकसा निकला जिसमें सोने की मोहरें भरी हुई थीं, जो लाखों के मूल्य की थीं। इसके लिये वसीयत में निर्देश था कि जिस धार्मिक ट्रस्ट को यह मन्दिर सौंपा जाए, उसी को यह धन दिया जाए। वह ट्रस्ट इस धन का मन्दिर की देखभाल और इसके विस्तार में सदुपयोग करे। सब कार्य पूरा हो चुका था। सब लोग वहाँ से उठकर सेठ की कोठी में आए जहां उनके भोजनादि का प्रबन्ध था। भोजन उपरान्त सभी लोग अपने अपने घरों को चले गये।
उपरोक्त कथा से श्री रामचरितमानस की चौपाइयों पर, जो लेख के प्रारम्भ में दी गई है, बहुत अच्छी तरह प्रकाश पड़ता है कि माता-पिता को वही पुत्र अत्यन्त प्रिय होता है जो उनका आज्ञाकारी और सेवाकारी होता है। ठीक इसी प्रकार गुरुदेव को भी यद्यपि सब सेवक-शिष्य प्यारे होते हैं और वे सभी सेवकों का समानरुप से हित एवं कल्याण चाहते हैं, परन्तु जो सेवक मन,वचन और कर्म से गुरु-आज्ञा का पालन करने में तत्पर रहता है, वह तो स्वाभाविक ही गुरुदेव का अत्यन्त प्रियपात्र होता है और उनकी पूर्ण प्रसन्नता का अधिकारी होता है। अन्य शब्दों में गुरुदेव की कृपा एवं प्रसन्नता का पात्र बनने के लिए अन्य गुणों की अपेक्षा आज्ञा-पालन के गुण का सबसे अधिक महत्त्व है। जो शिष्य गुरुदेव की प्रत्येक आज्ञा को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य कर प्राणपण से उसका पालन करता है, गुरुदेव की कृपा से वह तो भक्ति-धन से मालामाल एवं निहाल हो जाता है जैसा कि कथन हैः-
गुरु अज्ञा दृढ़ करि गहै, गुरु मत सहजो चाल।
रोम रोम गुरु को रटै, सो सिष होय निहाल।।
भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज ने अयोध्यावासियों के प्रति कितने साफ साफ शब्दों में फरमाया है किः-
सोई सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुशासन मानै जोई।।
अर्थः-""वही मेरा सेवक है और वही मेरा अति प्रिय है जो मेरी आज्ञा मानता है।''
सभी सद्ग्रन्थ तथा सन्तजन इस बात पर एकमत हैं कि ज्ञान,भक्ति तथा मुक्ति के प्रदाता समय के पूर्ण सद्गुरुदेव ही होते हैं। अतएव शिष्य-सेवक को चाहिये कि सद्गुरु को प्रसन्न करने तथा उनकी कृपा का पात्र बनने का प्रयत्न करे और इसका एकमात्र उपाय है-सद्गुरु की प्रत्येक आज्ञा को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य कर उसका तन-प्राण से पालन करना। जिसने इस गुण को अपना लिया, वह निहाल हो गया, कृतार्थ हो गया, उसने जीवन्मुक्त पदवी को प्राप्त कर लिया। धन्य हैं वे भाग्यशाली जीव, अपने इष्टदेव की आज्ञा-मौज को श्रद्धापूर्वक ह्मदयंगम कर जो उसके अनुसार अपना जीवन ढाल लेते हैं और प्राणपण से आज्ञा-पालन में तत्पर रहते हैं। ऐसे सौभाग्यशाली गुरुमुख प्रेमी ही इष्टदेव की प्रसन्नता एवं कृपा के पात्र बनते हैं। उनका जीवन ही सराहनीय एवं अनुकरणीय है।
आपके इस व्याख्या में अन्तिम भाग में सेठ ने अपने कमाई का कुछ हिस्सा मंदिर में दान देने की बात कही है।जो की एक ट्रष्ट के रूप में है।।भाई साहब इतने ही से काम नहीं चलेगा।आप चौपाई का अर्थ ही अधूरा छोड़ दिए हैं।क्यों यह चौपाई मनुष्य शरीर के कर्मों पर आधारित है।और मानव जीवन का उद्देश्य बहुत बड़ा है जो कि मंदिर में धन दान देने मात्र से पूरा नहीं हो सकता है।। अतः निवेदन है कि आप इस चौपाई को और अधिक ढंग से समझाने का प्रयत्न करें।
ReplyDeleteJay sri ram
ReplyDeleteNowadays trusts are not trustworthy
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