Thursday, January 7, 2016

मुद्गल ऋषि और स्वर्ग

मुद्गल ऋषि और स्वर्ग

     प्रायः यही देखने में आता है कि संसार में वास्तविकता के ज्ञाता बहुत कम हैं किसलिये मनुष्य जन्म की प्राप्ति हुई है, इस जीवन में यथार्थ में क्या करना है और इस जीवन का परम लाभ क्या है, कुछ एक परमार्थी जीवों को छोड़कर प्रायः संसार इस बात से अनभिज्ञ है। यह बात नहीं कि संसार में धार्मिक वृत्ति के और शुभ कर्म करने वाले लोगों की कमी है। नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है। इस प्रकृति के लोग तो संसार में बहुत मिलेंगे, परन्तु उन्हें वास्तविकता का ज्ञान नहीं। वे केवल इतना ही जानते हैं किः-
यादृशं  वपते  बीजं  क्षेत्रमासाद्य कर्षकः।
सुकृते दुष्कृते वापि तादृशं लभते फळ्म्।।
(महाभारत, अनुशानपर्व 6/6)
अर्थः किसान खेत में जाकर जैसा बीज बोता है, उसी के अनुसार उसको फल की प्राप्त होती है। इसी प्रकार पुण्य अथवा पाप, जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल  प्राप्त होता है। इसलिये उनकी जितनी भी कार्यवाही होती है, वे जो भी शुभ कर्म-दान, यज्ञ, व्रत, जप, तप आदि करते हैं, उनके पीछे उनकी यही भावना होती है कि इन शुभ कर्मों के फलस्वरुप उनका इहलौकिक जीवन सुखी हो। उन्हें इस जीवन में अधिक से अधिक शारीरिक सुविधाओं, ऐन्द्रिक रस भोगों एवं मान-प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो अर्थात् उनका जीवन हर प्रकार से सुखी हो और उन्हें किसी दुःख, किसी अभाव का मुख न देखना पड़े। उनकी बुद्धि, उनके विचार केवल इस जीवन तक ही सीमित हैं। न उन्हें परलोक का ज्ञान है और न ही उसकी चिंता। उन्हें तो केवल इस जीवन से काम है, इसी को ही वे महत्त्व देते हैं और इसमें अधिक से अधिक सुखभोगों की प्राप्ति के लिये ही उनके सब कर्म-धर्म होते हैं।
     कुछ लोग जो ज़रा इनसे श्रेष्ठ विचारों के हैं और जो परलोक के विषय में सोचते और उसे संवारने के लिये शुभकर्म करते हैं, उनकी दौड़ भी अधिक से अधिक स्वर्ग तक होती है। स्वर्ग की प्राप्ति को ही वे अपना चरम लक्ष्य और स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति को ही वे लोग जीवन का परमलाभ समझते हैं। उन्होंने प्रायः यही पढ़ा-सुना होता है कि मरणोपरान्त जीव को अपने कर्मानुसार स्वर्ग अथवा नरक की प्राप्ति होती है। शुभकर्म करके जीव स्वर्ग में जाता है जहां सब प्रकार के सुखभोग उपलब्ध हैं और जीव आनन्दपूर्वक अपना पारलौकिक जीवन व्यतीत करता है जबकि अशुभ अथवा पापकर्मों के फलस्वरुप नरक की प्राप्ति होती है जहां जीवात्मा को अनेक प्रकार के कष्ट एवं यातनायें भोगनी पड़ती हैं। इसलिये स्वर्गीय सुखों के लोभ और नारकीय यातनाओं के भय से ही वे सब शुभकर्म करते हैं। उनकी दृष्टि में शुभकर्मों का अधिक से अधिक लाभ स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति ही है।
     ऐसा क्यों है? इसका एक कारण तो यह है कि उन्हें अब तक सन्तों सत्पुरुषों की शुभ संगति प्राप्त नहीं हुई जिस कारण वे अब तक न केवल मनुष्य जन्म के वास्तविक मूल्य से अनभिज्ञ हैं प्रत्युत अपने उद्देश्य से भी अचेत हैं। उन्हें इस बात का ज्ञान ही नहीं कि मनुष्य-तन इतना अधिक मूल्यवान है कि इसके द्वारा स्वर्ग से भी अधिक उच्चतम लोक अर्थात मालिक के धाम की प्राप्ति की जा सकती है।
     दूसरा कारण जिसलिये आम संसारी मनुष्य स्वर्ग की आकांक्षा करते हैं, यह है कि उनको स्वर्ग के विषय में बहुत कम जानकारी है। यदि उनको स्वर्ग के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाये और उनके सम्मुख स्वर्ग का वास्तविक चित्र खींचा जाये तो हमारे विचार में वह स्वर्ग की कामना कदापि न करेंगे। स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा मनुष्य के मन में इसीलिये रहती है कि उसे स्वर्ग के विषय में सही जानकारी नहीं है। इसी विषय को उजागर करने के लिये और स्वर्ग के गुण-दोषों के विचारार्थ हम यहां मुद्गल ऋषि की कथा दे रहे हैं जिन्होंने स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति होने पर भी स्वर्ग जाने से इनकार कर दिया।
     प्राचीन समय की बात है कि कुरुक्षेत्र में मुद्गल नामक एक ऋषि रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, सत्यभाषी और तपस्वी थे। वे किसी की निन्दा नहीं करते थे और न ही उनके ह्मदय में किसी के प्रति ईष्र्या-द्वेष था। वे भिक्षा न मांग कर शिल एवं उञ्छवृत्ति से ही अपना जीवन-निर्वाह करते थे। किसान खेत काट कर जब अन्न घर ले जाये, तब खेत में पड़ी हुई अन्न की बालियों को बीन कर जीवन-निर्वाह करना शिल कहलाता है। इसी प्रकार बाज़ार उठ जाने पर अथवा खेत कट जाने पर वहां बिखरे हुये अन्न के दाने बीन कर जीवन-निर्वाह करना उञ्छ कहलाता है। वे निरन्तर पन्द्रह दिनों तक एक-एक दाना बीनकर अन्न का संग्रह करते और उससे यज्ञ का अनुष्ठान करते, तत्पश्चात् भोजन करते। इस प्रकार पन्द्रह दिनों के पश्चात् उन्हें भोजन प्राप्त होता। इतने पर भी यदि उस समय उनके द्वार पर कोई अतिथि आ जाता, तो वे प्रसन्नतापूर्वक उसका स्वागत करते और उसे भोजन करवाते। कभी-कभी अधिक अतिथियों के आ जाने पर उन्हें भूखा ही रहना पड़ता, किन्तु वे धैर्यपूर्वक अपना व्रत पालन करते। इस प्रकार कठिन तपश्चर्या में रत मुद्गल ऋषि की महिमा चारों ओर फैलने लगी। कुटिया पर साधु-सन्तों का अतिथिरुप में आगमन होने से मुद्गल ऋषि को उन्हें भोजन करवाने का पुण्य लाभ तो प्राप्त होता ही, भगवच्चर्चा एवं सम्भाषण का भी सुअवसर प्राप्त होता।
     ऋषि मुद्गल का नाम अन्ततः महर्षि दुर्वासा जी के कानों तक भी जा पहुँचा। उनकी ख्याति सुनकर उनकी परीक्षा हेतु वे मुद्गल ऋषि की कुटिया पर आ  पहुँचे और भोजन की इच्छा प्रकट की। मुद्गल ऋषि ने उनका यथोचित आदर-सत्कार कर उनको भोजन अर्पित किया। महर्षि दुर्वासा जब परोसा हुआ सभी भोजन खा गये तब मुद्गल ऋषि ने उन्हें और भोजन दिया। धीरे-धीरे वे सारा भोजन उदरस्थ कर गये, यहां तक कि बची-खुची जूठन भी उन्होंने अपने अंगों पर मल ली। इस प्रकार सारा भोजन समाप्त कर महर्षि दुर्वासा वहां से चलते बने। मुद्गल ऋषि को उस दिन रत्ती भर भोजन भी प्राप्त न हुआ।
     मुद्गल ऋषि भूखे रहकर धैर्य और शान्तिपूर्वक पन्द्रह दिन तक खेतों पर जाकर अन्न के दाने बीनते रहे। पन्द्रह दिन बीतने पर महर्षि दुर्वासा फिर उनके द्वार पर आ धमके और पूर्व की भांति सभी अन्न उदरस्थ कर गये। मुद्गल ऋषि को फिर निराहार रहना पड़ा और निराहार रहकर उन्होंने फिर दाने बीनने प्रारम्भ कर दिये। महर्षि दुर्वासा ने यह निश्चय करके कि मुद्गल ऋषि को धैर्यच्युत करके इनका व्रत भंग करना है, लगातार छःबार अपनी क्रिया दोेहराई अर्थात् नब्बे दिन तक मुद्गल ऋषि को अन्न का एक दाना भी ग्रहण न करने दिया। मुद्गल ऋषि का शरीर इन नब्बे दिनों में अन्न के बिना अत्यन्त दुर्बल हो गया था, उनके अंग-प्रत्यंग शिथिल पड़ गये थे, उनमें चलने-फिरने की भी शक्ति न रही, तथापि उन्होंने न तो अपना धैर्य ही छोड़ा और न ही उनके मन में केई विकार ही उत्पन्न हुआ। छठी बार भी जब उन्होंने उसी प्रकार शुद्ध ह्मदय से महर्षि दुर्वासा जी का आदर-सत्कार किया, तब महर्षि दुर्वासा जी प्रसन्न होकर बोले-ऋषे! भोजन से ही शरीर की रक्षा होती है। कुछ ही दिन भूखे रहने से मनुष्य का धैर्य छूट जाता है और धर्म, ज्ञान, कत्र्तव्य आदि सब कुछ भूल जाता है। किन्तु नब्बे दिन तक भूखे रहने के उपरान्त भी आप व्रत-पालन में तत्पर रहे; आपने अपना धैर्य नहीं छोड़ा। हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! आप में अतिथि सत्कार, इन्द्रियसंयम, धैर्य, शम, दम आदि सभी सद्गुण विद्यमान हैं। आप सदेह स्वर्गलोक को जायेंगे। महर्षि दुर्वासा अभी ये शब्द कह ही रहे थे कि एक देवदूत अति सुसज्जित विमान लेकर मुद्गल ऋषि की कुटिया के सम्मुख आन पहुंचा। देवदूत ने अत्यन्त आदरपूर्वक मुद्गल ऋषि जी को प्रणाम करते हुये निवेदन किया-महर्षे! आप अपने शुभकर्मों के फलस्वरुप स्वर्ग जाने के अधिकारी हुये हैं। पुण्य आत्माओं को ही स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। मैं यह विमान लेकर
आपको लेने के लिये ही आया हूँ, इस पर विराजिये।
     देवदूत के ये शब्द सुनकर मुद्गल ऋषि ने उससे कहा, हे देवदूत! स्वर्ग जाने से पहले मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ। पहले मुझे यह बताओ कि स्वर्ग में कौन-कौन से गुण हैं और कौन-कौन से दोष? स्वर्गवासी कैसे विचार रखते हैं, कैसे विचरण करते हैं, कौन-कौन से कर्म करते हैं और क्या सुख भोगते हैं और क्या ये सुख अक्षय हैं?
     इसके उत्तर में देवदूत ने जो कुछ कहा, वह पाठकों के ध्यान पूर्वक पढ़ने और मनन करने का विषय है। देवदूत बोला-मुने! जो लोग सत्कर्म करते हैं, केवल उन्हें ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है। उन्हें देवदूत सम्मानपूर्वक अत्यन्त सुन्दर विमान में बिठलाकर स्वर्गलोक ले जाते हैं। वहां तक जाने का मार्ग भी अत्यन्त सुन्दर एवं मनमोहक है और मनुष्य को स्वर्गलोक तक अत्यन्त सुखपूर्वक ले जाया जाता है। स्वर्ग में सभी प्रकार के ऐश्वर्यभोग उपलब्ध हैं। वहां अति सुन्दर रत्नमंडित भवन हैं जो हर प्रकार की सुख-सुविधाओं से सुसज्जित हैं। प्रत्येक स्वर्गवासी के पास विचरण करने के लिये अपना-अपना विमान होता है। वहंा चारों ओर मनोहर उद्यान हैं जिसमें नाना प्रकार के पुष्प विकसित हैं जो अपनी मनोरम और भीनी-भीनी सुगन्ध से मनुष्य का चित्त हर लेते हैं। ये दिव्य पुष्प हैं जो कुम्हलाते नहीं। स्वर्ग के निवासी इनकी मालायें धारण किये रहते हैं। उद्यानों में फलों से लदे हुये अनेक वृक्ष हैं। ये फल सुमधुर और सरस होते हैं। इन वृक्षों पर भांति-भांति के सुन्दर पक्षी चहचहाते रहते हैं। स्थान-स्थान पर निर्मल और शुद्ध जल से पूर्ण सुन्दर सरोवर हैं। वहां चारों ओर मन को हरने वाली संगीत-लहरी गूँजती रहती है जो कानों को अतिप्रिय लगती है। स्वर्गवासी सुन्दर वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित रहते हैं। ये वस्त्र कभी मलीन नहीं होते। स्वर्गवासी न कभी रोगी होते हैं, न उन्हें कभी बुढ़ापा सताता है। इस प्रकार वहां वे हर प्रकार के ऐश्वर्य भोग भोगते हुये आराम से रहते हैैं। हे श्रेष्ठ पुरुष! आप अपने शुभकर्मों के प्रभाव से यह स्वर्गीय सुख-सम्पत्ति प्राप्त कर लेने के अधिकारी हुये हैं, अतएव शीघ्र चलकर अपने पुष्यकर्मों द्वारा प्राप्त हुये इस स्वर्गीय वैभव का उपभोग कीजिये।
     देवदूत के इतना कहने पर मुद्गल ऋषि ने कहा-हे देवदूत! आपने स्वर्ग के उज्जवल एवं गुणयुक्त पक्ष का जो सुन्दर विवरण प्रस्तुत किया है, उसने मुझे बहुत ही प्रभावित किया है। अब आप केवल इतना और बताने का कष्ट करें कि क्या स्वर्ग दोषों से सर्वथा रहित है? आपके उत्तर के पश्चात ही मैं कुछ निर्णय करुंगा।
     ऋषि के मुख से ये वचन सुनकर देवदूत ने कहा-ऋषे! स्वर्ग दोषों से रहित नहीं है। उसमें अनेक दोष हैं। अब मैं आपको उनके विषय में बतलाता हूँ। हे मुने! स्वर्ग में अनेक लोक हैं। वहां पर जो लोग नीचे के स्थानों में स्थित हैं, उन्हें अपने से ऊपर के लोकों के उत्तम सुखभोग देखकर असन्तोष और सन्ताप होता है, अतएव उनके ह्मदय में उच्चलोक वासियों के प्रति स्वाभाविक ही ईष्र्या-द्वेष होता है। इसी प्रकार उच्च लोकों के वासी नीचे के लोकों के वासियों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। इसके अतिरिक्त जो सबसे बड़ा दोष स्वर्ग में मुझे जान पड़ता है वह यह है कि अपने सत्कर्मों का फल ही वहां भोगा जाता है; वहां कोई नवीन कर्म नहीं किया जाता। इस प्रकार स्वर्ग कर्म भूमि नहीं, भोगभूमि ही है। चूंकि वहां कोई नया कर्म नहीं किया जाता, इसलिये धीरे-धीरे जीव के पुण्य कर्म क्षीण होते जाते हैं और कर्मों का भोग समाप्त होने पर एक दिन जीव का स्वर्ग से पतन हो जाता है। पतन होने से पूर्व उनके गले में पड़ी कुसमों की मालायें कुम्हला जाती हैं, जिससे उनको अपने पतन की पूर्व सूचना मिल जाती है। उस समय एकाएक सुखभोग छिन जाने के विचार से ही उनका मन दुःख एवं विषाद से भर जाता है। उस समय उनकी जो दशा होती है, उसका वर्णन करना अत्यन्त कठिन है। पुण्यकर्मों के क्षीण हो जाने के कारण जीव को फिर से चौरासी के चक्र में भटकना पड़ता है। हे ऋषे! ब्राहृा जी के लोक तक जितने भी लोक हैं, उन सबमें ये दोष पाये जाते हैं। यह सुनकर मुद्गल ऋषि बोले- हे देवदूत! यदि कोई लोक इन दोषों से सर्वथा रहित हो तो मुझसे उसके विषय में कुछ कहिये।
     तब देवदूतने कहा-ब्राहृा जी के लोक से भी ऊपर परब्राहृ परमात्मा का धाम है। वह शुद्ध ज्योतिर्मय लोक है। वहां जाकर जीव को शाश्वत और अक्षय सुख-आनन्द की प्राप्ति होती है। उस लोक की प्राप्ति हो जाने पर जीव के पुण्य क्षीण नहीं होते और न ही उसका वहां से पतन होता है। वह अविचल पद है, परन्तु वहां केवल वे जन ही जा सकते हैं जो मोह,ममता अहंकार आदि को त्यागकर और सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से ऊपर उठकर हर समय निष्काम भाव से मालिक के सुमिरण-ध्यान में लीन रहते हैं।
     देवदूत के चुप होने पर मुद्गल ऋषि ने विचार किया कि मनुष्य पुण्यकर्म इसीलिये करता है कि उसे अक्षय सुख और शाश्वत आनन्द की प्राप्ति हो। उसे वह अविचल पदवी प्राप्त हो जिससे उसका पतन न हो और उसे पुनः चौरासी लाख योनियों का चक्र न काटना पड़े। मनुष्य को पुण्यकर्मों के फलस्वरुप यदि स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति हो भी जाये तो उससे उसे क्या लाभ? पुण्य क्षीण हो जाने पर तो उसे फिर से चौरासी के चक्र में जाना ही पड़ेगा। अल्प समय के स्वर्गीय सुखों के पश्चात उसे फिर से नीच योनियों के दारुण कष्ट भोगने पड़ेंगे। इसलिये अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरुप स्वर्गीय सुखों की कामना करना तो अज्ञानता ही है और अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। देवदूत के अनुसार स्वर्ग में केवल मनुष्य जन्म में किये हुये पुण्यकर्मों का फल ही भोगा जाता है, वहां कोई नवीन कर्म नहीं किया जाता, तब फिर कर्मयोनि तो केवल मनुष्य योनि ही है। इस दृष्टि से तो मनुष्य देवताओं से भी अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि वह इसमें पुण्यकर्मों के द्वारा परमलाभ अर्थात् मालिक की प्राप्ति कर सकता है, तब फिर स्वर्ग की कामना करना तो हीरा त्याग कर कांच की कामना करना ही है। यह विचार कर उन्होने देवदूत से कहा-ः
देवदूत  नमस्ते ऽ स्तु गच्छ तात यथासुखम्।
महारोषेण मे  कार्यं  न स्वर्गेण सुखेन वा।।
पतनान्ते  महद्  दुःखं  परितापः  सुदारुणः।
स्वर्गभाजश्चरन्तीह  तस्मात् स्वर्गं न कामये।।
यत्र गत्वा न शोचन्ति न व्यथन्ति चलन्ति वा।
तदहं  स्थानमत्यन्तं  मार्गयिष्यामि  केवलम्।।
(महाभारत,वनपर्व)
अर्थः-देवदूत! तुम्हें नमस्कार है। तात! तुम सुखपूर्वक पधारो। स्वर्ग अथवा वहां का सुख महान दोष से युक्त है, इसलिये मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है। ओह! पतन के पश्चात् स्वर्गवासी जीवों को महान दुःख एवं अनुताप होता है और वे पुनः इसी लोक में विचरते हैं, इसलिये मुझे स्वर्ग में जाने की तनिक भी इच्छा नहीं है। जहां जाकर मनुष्य कभी शोक नहीं करते, व्यथित नहीं होते तथा जहां से विचलित नहीं होते, केवल उसी अक्षयधाम की प्राप्ति का मैं यत्न करुँगा। इस प्रकार मुद्गल ऋषि ने जाने से इनकार कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने अपनी सम्पूर्ण चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके मालिक के सुमिरण-ध्यान में लगा दिया और अन्त में मालिक के अक्षयधाम में स्थान प्राप्त करके शाश्वत सुख-आनन्द की प्राप्ति की और अपने मनुष्य जन्म को सार्थक किया।
     हमारा भी कत्र्तव्य है कि सत्पुरुषों की शुभ संगति ग्रहण करके और उनसे मालिक के सच्चे नाम की दीक्षा लेकर उसकी कमाई करें और स्वर्गीय सुखभोगों की कामना त्यागकर मालिक के धाम में अविचल स्थान प्राप्त करने का यत्न करके अपना जीवन सफल करें।

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