Thursday, January 7, 2016

सच्चा धन



किसी नगर में एक ब्रााहृण रहता था, जो अति गरीब और कंगाल था। उसके परिवार में और कोई नहीं था। उसके माता-पिता उसके बचपन में ही उसे अनाथ छोड़कर मर चुके थे। जायदाद या विरासत के नाम पर उन्होने सिवाये एक मामूली से झोंपड़े के और कुछ नहीं छोड़ा था। दूर तथा निकट के सम्बन्धियों तक में भी कोई और सहारा देनेवाला नहीं था। ऐसी दशा में बेचारा रोटियों का मुहताज़ बनकर दर-दर की ठोकरें खाने के सिवाये और कर ही क्या सकता था? ज्यों-त्यों भीख माँगकर गुज़ारा चलाने लगा। कभी किसी ने कुछ दे दिया, तो पेट भर लिया,अन्यथा उपवास होता। इस प्रकार वह ब्रााहृण-कुमार युवावस्था को पहुँचा। मामूली सी शास्त्रों की विद्या भी उसने किसी दयालु पण्डित की कृपा से प्राप्त कर ली थी। विवाह का प्रश्न उसके लिये असम्भव से कम नहीं था। जब पास में फूटी कौड़ी ही नहीं थी, तो विवाह कहां से करता? लेकिन अब चूँकि वह काफी समझदार हो चुका था, वह इस बात को अच्छी तरह समझने लगा था कि धन के बिना इस दुनियाँ में कुछ नहीं हो सकता। चुनांचे अब वह धन प्राप्त करने के लिये कोई उपाय सोचने में लगा रहता।
     उसने अपने पण्डित से धर्मःशास्त्र में पढ़ा था कि देवता लोग अपनी पूजा करने वालों की सब मनोकामनायें पूर्ण कर देते हैं। उसे कई देवताओं की पूजा की विधि और उनके रिझाने के मन्त्र खूब याद थे, जो उसने उन्हीं पण्डित जी से सीखे थे। उसने दिल में सोचा कि क्यों न मैं विधि अनुसार देवताओं की पूजा करके उनसे धन प्राप्ति का वरदान पा लूँ। इस विचार को मन में दृढ़ करके उसने देवताओं की पूजा करना और उनके लिये कई प्रकार के व्रत रखना आरम्भ कर दिये। लेकिन आदमी धैर्यहीन था। कुछ दिनों तक वह किसी एक देवता की विधि अनुसार पूजा करता, मगर जब देखता कि बहुत दिनों तक पूजा करने पर भी न तो देवता के दर्शन हुये और न ही कोई वरदान मिला, तो वह उसे छोड़कर दूसरे देवता की पूजा करनें में लग जाता। इस प्रकार उसने अनेक देवताओं की कई कई बार पूजा की। परन्तु उससे लाभ कुछ भी न हुआ।
     जब उस ब्रााहृण को देवताओं की पूजा करते बहुत दिन बीत गये, किन्तु उसका मनोरथ पूर्ण न हो सका, तो उसे देवताओं की तरफ से कुछ सहायता मिल सकने में निराशा होने लगी। लेकिन उसका धन दौलत को पाने का ख्याल ज़बरदस्त था। क्योंकि उसका ऐसा विश्वास था कि धन ही संसार में सब प्रकार के सुखों का मूल कारण है तथा वह केवल सुखी होने की इच्छा से ही धन की कामना करता था। वैसे भी आमतौर पर दुनियाँ में यही ख्याल ज़्यादा पाया जाता है तथा लोग अधिकतर दौलत को ही सुख और खुशी का ख़ज़ाना मानते हैं। एवं यह कहते सुने जाते हैं कि "भाई! धन के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। मनुष्य के पास यदि धन न हो, तो उसे कोई पूछता तक नहीं। खाने-पीने, रहने-सहने और दुनियाँ में अच्छा दर्ज़ा हासिल करने के लिये बस धन ही एक ज़रिया है। धनहीन का जीवन नीरस होता है-इत्यादि इत्यादि। लेकिन यही ख्याल हर हालत में ठीक नहीं है। माना कि पैसे का अपना एक महत्त्व है और इसी कारण उसकी विशेषता है तथा जीवन-निर्वाह के हेतु उसकी आवश्यकता भी है। लेकिन यह ख्याल तो कतई गलत है कि पैसा ही परमेश्वर और परमात्मा है अथवा पैसे पर ही मनुष्य के भाग्य का बनना निर्भर करता है। धन के लोभ को तो सन्तों ने पाप का भी बाप बतलाया है। क्योंकि धन के लोभ में पड़कर ही बहुधा मनुष्य गुमराही और बुराई के शिकार होते हैं तथा बुराई के जाल में फँसकर नरकों के अधिकारी बनते हैं। धन तो वह सफल है जो भलाई, उपकार और परमार्थ के मार्ग में काम आवे तथा  जिससे जीव का कल्याण भी होवे। यदि ऐसी सूरत है, तब तो धन बेशक सार्थक है। अन्यथा दूसरी सूरत में तो आमतौर पर लोग धन के अभिमान में पड़कर गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं और अपना पराया नुकसान कर बैठते हैं। ऐसी हालतों से बचना चाहिये।
     ब्रााहृण के ह्मदय में धन और ऐश्वर्य को पाकर सुखी बनने की अभिलाषा प्रबल थी। उसने सोचा कि मेरा इतने देवताओं की पूजा करना यों ही गया और मेरा मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ, तो इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिये। सोचते-सोचते उसे ख्याल आया कि अब मैं इन सबको छोड़कर उस देवता की पूजा करुँ, जिसका आराधन आज तक किसी भी मनुष्य ने न किया हो। ऐसा करने से आशा पूरी होने की सम्भावना है। इस ख्याल के आते ही वह विचारने लगा कि ऐसा कौन सा देवता है, जिसकी पूजा आज तक किसी ने न की हो। ब्रााहृण इन्हीं विचारों में खोया हुआ था कि उसे आकाश में कुण्डधार नामक मेघों के देवता का साक्षात् दर्शन हुआ। दर्शन पाकर उसे ख्याल आया कि इनकी पूजा, उपासना और आराधना आज तक  किसी भी मनुष्य ने नहीं की होगी। बस, मैं आज से इन्हीं की ही उपासना क्यों न करुँ। ये अवश्य ही मुझ पर प्रसन्न होकर धन बख्शेंगे। उस दिन से उस ब्रााहृण ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति-पूर्वक कुण्डधार की उपासना आरम्भ कर दी।
     ब्रााहृण की अनन्य निष्ठा और श्रद्धापूर्वक पूजा से कुछ समय बाद कुण्डधार उस पर प्रसन्न हुये। उन्होंने ब्रााहृण से उसकी इच्छा के बारे में पूछा, तो ब्रााहृण ने बतलाया कि वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अभिलाषी है, परन्तु धनहीन और दरिद्र होने से वह अपने जीवन को सुखी नहीं बना सकता। धन के बिना उसे हर तरफ दुःख ही दुःख मिलता है, इसलिये वह धन और ऐश्वर्य चाहता है, जिससे कि उसका जीवन भी सुखरुप बन सके।
     कुण्डधार मेघों के देवता हैं। उनका अधिकार केवल मेघों पर ही है। वे यदि किसी को देना भी चाहें, तो जल के सिवाये और कुछ भी नहीं दे सकते। ब्रााहृण की इच्छा को जानकर उन्होंने उसके लिये दूसरे ऐश्वर्यवान देवताओं की स्तुति की। देवताओं ने कुण्डधार की स्तुति पर ध्यान देकर अपने एक शक्तिशाली दूत को जिसका नाम मणिभद्र था तथा जो यक्ष जाती का था, कुण्डधार के पास भेजा कि वे जो कुछ चाहें, उसे पूरा कर दो। देवताओं की प्रेरणा से मणिभद्र कुण्डधार के निकट पहुँचे और पूछा,""आप क्या चाहते हैं?''
     कुण्डधार ने उत्तर दिया,""यक्षराज! मुझे अपने लिये तो कुछ भी नहीं चाहिये। लेकिन हाँ! इस ब्रााहृण ने बड़ी श्रद्धा-सहित मेरी पूजा और उपासना की है। यदि देवता लोग मुझपर प्रसन्न हुये हैं तो उनसे कहो कि वे इस ब्रााहृण की मनोकामना पूर्ण कर दें।''
    मणिभद्र यक्ष बोले,""आपका यह भक्त ब्रााहृण तो धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये ही इतनी तपस्या और आराधना कर रहा है। यदि इसे धन की ही कामना है, तो मिल सकता है। आप इससे पूछें कि इसे कितना धन चाहिये। यह जितना भी माँगेगा, मैं इसे अवश्य दूँगा।''
     कुण्डधार बोले,""किन्तु यक्षराज! यह धन और ऐश्वर्य के दुर्गुणों को नहीं जानता। यह अज्ञान का मारा है। यह केवल सुख चाहता है। लेकिन गलती से ऐसा विश्वास रखता है कि सुख की प्राप्ति केवल धन और ऐश्वर्य के मिल जाने से ही हो सकती है। इसी मिथ्या भ्रम में पड़कर ही यह धन की कामना को दिल में बसाये हुये है। परन्तु मैं इसके लिये धन की प्रार्थना नहीं करुँगा। क्योंकि विचारवान का यह धर्म है कि वह जान-बूझकर अनर्थ न होने दे। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि धन-ऐश्वर्य को पाकर यह अज्ञान और मोह के कारण अभिमानी बन जायेगा तथा पाप-कर्म में इसकी प्रवृति होगी। ऐसा करना तो भारी अनर्थ का मूल होगा। इस भक्त ने श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना की है, तो मैं इसे ऐसा कोई वरदान नहीं दूँगा, जिसके कारण यह नरकगामी होकर जन्मों तक दुःखी होता फिरे। यह सुख का अभिलाषी है। इसलिये मेरा यही कत्र्तव्य है कि इसे सच्चे सुख के मार्ग पर डाल दूँ। यह धन ही चाहता है, तो झूठे मायावी धन के बदले क्यों न इसे सत्-धन की प्राप्ति करा दूँ। चुनाँचे ऐ यक्षराज! मैं यही चाहूँगा कि देवताओं की कृपा से इसके मन पर पड़े हुये मोह-ममता और अज्ञान के परदे हट जावें, संसार की मिथ्या आसक्ति इसके चित्त से दूर होवे, इसके ह्मदय में सत्-असत् का विवेक उत्पन्न हो, धर्म और सच्चाई में इसकी बुद्धि प्रवृत्त हो, जिससे कि यह सच्चे सुख को प्राप्त करे।''
     मणिभद्र ने कुण्डधार की ये ज्ञानभरी बातें सुनीं, तो वे अति प्रसन्न हुये और बोले, ""कुण्डधार! आप सच्चे उपकारी हैं। आपने अपने भक्त की भलाई की कामना की है। यह सच्ची दया है, जो बड़ों को छोटों पर और विचारवानों को अज्ञानियों पर हमेशा करनी चाहिये। आप धन्य हैं। आपकी इच्छा पूर्ण होगी। आज से आपकी इच्छानुसार इस ब्रााहृण की बुद्धि धर्म-सच्चाई और भक्ति में प्रवृत्त होगी। हमारे आशीर्वाद से इसके मन में संसार के मिथ्या पदार्थों से सच्चा वैराग्य उत्पन्न होगा, तथा यह आपका भक्त सांसारिक सुखों का लोभी न रहकर सच्चा धर्मपरायण और भक्तिवान होगा।'' इतना कहकर मणिभद्र अन्तर्धान हो गया।
     इधर तो यह सब हो रहा था और उधर उस ब्रााहृण भक्त की दशा कुछ और थी। वह अभी तक उसी प्रकार श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक मेघों के देवता कुण्डधार की पूजा-उपासना और आराधना में लगा हुआ था। इसके साथ ही वह लगातार काफी समय से प्रतीक्षा कर रहा था कि कब उसके आराध्य कुण्डधार उस पर प्रसन्न हों और उसका मनोरथ पूर्ण होवे। वह हर समय यही सोचा करता कि कब उसके घर में दौलत का मेंह बरसे और ऐश्वर्य का समुद्र चारों तरफ से उमंड़कर उसे अपने घेरे में ले ले। लेकिन जब अति दीर्घ-काल तक कुण्डधार की पूजा-उपासना से भी उसे कुछ फल निकलता मालूम न हुआ, तो वह कुछ कुछ निराश अवश्य हो चला था। क्योंकि पहले भी वह काफी समय तक अनेक देवताओं की उपासना कर चुका था, जिसका कुछ भी वांछित फल नहीं निकला था। यहाँ भी वही निराशा उसके आड़े आ रही थी। फिर भी वह उसी प्रकार कुण्डधारी की उपासना और पूजा में लगा रहा। अर्थात् अब उसकी हालत कुछ डगमग सी थी। वह कुण्डधार की पूजा-आराधना भी करता था, मगर साथ ही निराशा उसके मन पर न चाहते हुए भी छाई जा रही थी।
     ऐसी अवस्था में ब्रााहृण का समय बीत रहा था। जिस समय यक्षराज मणिभद्र मेघों के देवता कुण्डधार को उनका वांछित वरदान देकर अन्तर्धान हुये। उसी समय ब्रााहृण ने सोते हुये स्वप्न देखा कि उसके चारों तरफ कफन पड़ा हुआ है-वह मर चुका है तथा उसकी अर्थी निकाली जा रही है। जागने पर जब ब्रााहृण को इस स्वप्न की याद आई, तो उसके चित्त में वैराग्य का अंकुर फूट निकला। उसने सोचा,""अब मेरी आयु समाप्त होने वाली है। मैने अपना सारा जीवन योंही गँवा दिया। मैने सुख-प्राप्ति की इच्छा से धन-ऐश्वर्य की कामना की, तथा इस कामना के वशीभूत होकर मैंने देवताओं की पूजा-उपासना करने में अपने जीवन का  मूल्यवान समय नष्ट कर दिया। मगर देवताओं में से किसी ने भी मुझ पर दया नहीं की। अन्त में थककर मैने कुण्डधार मेघ-देवता की आराधना में इतना समय बिता दिया, परन्तु उन्होंने भी मेरी दशा पर तरस न खाया। हाय! मैं भी कितना अज्ञान के चक्र में पड़ा रहा हूँ। धन और ऐश्वर्य की कामना में ही मैंने सारी आयु अकारथ खो दी तथा अपना परलोक सुधारने की मैने कुछ भी चिन्ता नहीं की। अब भी समय है यदि मैं इन व्यर्थ की चिन्ताओं का त्याग करके अपना परलोक सुधारने के यत्न में लग जाऊँ, तो कल्याण हो सकता है।''
     इनसान आखिर इनसान ही तो है, जिसे गलती और भूल का पुतला कहा जाता है। यदि वह भूल-भ्रम का शिकार होकर गलत रास्ते पर पड़ जाता है, यदि वह अज्ञान के फंदे में फँसकर सत् और असत् का विवेक खो बैठता है तथा यदि वह संसार की मोहिनी माया के धोखे में आकर उसे सुख-रुप मानता हुआ उसकी कामना करता है, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। अज्ञान, मोह-ममता और भ्रम का तो काम ही  यही है कि वे संसारी जीवों को सत्मार्ग से भटकाकर असत मार्ग में प्रवृत्त कर दें, तथा यह भी यथार्थ है कि आमतौर पर दुनियाँ मोह अज्ञान और भ्रम के फंदे में आकर असलियत को भूल जाती है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि इनसान हमेशा अज्ञानता और मोह का शिकार बना रहेगा और उसका सुधार नहीं हो सकता। भूल का सुधार हो सकता है और अवश्य हो सकता है। इनसान ज़रा सा विवेक और बुद्धि से काम ले एवं सत्पुरुषों के उपदेशों पर ध्यान धरे, संसार और संसार के दृष्टमान पदार्थों की असलियत पर कुछ विचार करे, तो निश्चय ही इस भारी भूल का सुधार हो सकता है। जब भी इनसान सन्तों के उपदेश द्वारा जागकर अपनी भलाई-बुराई और नफा-नुकसान का विचार करे, तभी उसकी बिगड़ी दशा सँवर सकती है।
जब चेतै जब ही भला, मोह नींद सूँ जाग।
सन्तन की संगति मिलै, सहजो ऊँचे भाग।।
     ब्रााहृण ने भी अपना सारा जीवन धन और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये अनथक  परिश्रम करने में बिता दिया, किन्तु फल कुछ भी न निकला। कारण यह कि वह गलत मार्ग पर पड़ गया था। उसने सांसारिक माया को ही सब कुछ मान लिया था। भ्रम का परदा उसके मन पर इतना गहरा छा गया था कि उसे असलियत नज़र ही नहीं आती थी। उसके आराध्य देवता ने देखा कि भक्त गलत रास्ते पर चलने लगा है। उन्हें उसकी इस हालत पर दया आ गई। उन्होने उसकी बुद्धि का काँटा ही बदल दिया। दूसरी कृपा उस ब्रााहृण पर एक महापुरुष की हुई। ब्रााहृण ने काफी समय तक शुभ-कर्म का अभ्यास किया था। उसके द्वारा की गई पूजा उपासना और आराधना का फल नष्ट तो हो ही नहीं सकता था। उसके शुभ कर्मों का फल उसे यह मिला कि एक पूर्ण सन्त जोकि रुहानियत की सभी मन्ज़िलों को पार कर चुके थे, दैवयोग से रमते-रमाते उधर आ निकले, जहाँ यह ब्रााहृण कुण्डधार देवता की आराधना में लगा हुआ था। इधर ब्रााहृण के मन में स्वप्न में देखे हुये दृश्य के कारण वैराग्य उत्पन्न हो चला था। ऐसी अवस्था में जब उसने एक तेजःस्वरुप सन्त का दर्शन पाया, तो वह उसके पवित्र चरणों में गिर पड़ा। सन्तों ने उसकी कुशल पूछी, तो ब्रााहृण ने सारा किस्सा ज्यों का त्यों कह सुनाया, तथा अन्त में यह भी कहा कि अब उसका मन सांसारिक सुखों और धन-ऐश्वर्य आदि की कामनाओं से उपराम हो चला है एवं अब वह परलोक-सुधार का मार्ग जानने का अभिलाषी है। सन्तों ने उसकी यह अवस्था देखी, तो बोले,"'भोले ब्रााहृण! तुम गलत रास्ते पर पड़ गये थे। धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति से ही इनसान को सच्चा सुख नहीं मिलता। यह तो महज़ माया का फ़रेब और धोखा है। जिसने तुम्हें असलियत से भुला दिया था। सच्चा सुख तो मालिक के अनुराग में है, जैसा कि सन्तों का कथन हैः-
तब लग  कुशल न जीव कहँ , सपनेहूँ मन बिरुााम।
जब लग भजत न राम कहँ, शोक धाम तजि काम।।
     अर्थात् जब तक कि मनुष्य सभी खाहिशों और कामनाओं को, जोकि शोक का घर हैं त्यागकर मालिक के भजन में नहीं लग जाता, तब तक उसके लिये किसी प्रकार की कुशल नहीं है तथा उसे स्वप्न में भी सुख और विश्राम की प्राप्ति नहीं हो सकती।
     ""ब्रााहृण! तुम्हारे भाग्य अच्छे हैं कि तुम समय पर ही चेत गये। तुम्हारे आराध्य-देवता ने तुम पर दया की। आम दुनियावी नज़र से यह अगरचे दया नहीं। आम दुनियां के ख़्याल से तो देवता की दया तुम पर यह होती कि वे तुम्हें अपार धन और ऐश्वर्य बख्श देते। मगर परमार्थ की दृष्टि से यह तुम पर दया नहीं, बल्कि अन्याय होता। क्योंकि धन और ऐश्वर्य को पाकर तुम सत्मार्ग से भटक जाते और पाप में प्रवृत्त हो जाते। लेकिन सच्ची दया यह है कि किसी भूले प्राणी को सतमार्ग पर लाया जाये। इसीलिये हमारा कहना है कि तुम्हारे उत्तम भाग्य हैं, जो समय पर ही चेत गये। यद्यपि इस बात का खेद भी है कि तुमने अपनी आयु का इतना बड़ा भाग गलत ख्वाहिशों में लगे हुये गुज़ार दिया। मगर अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। अब भी जीवन के इस बचे हुये समय में मालिक का भजन दिल लगाकर करो, तो सुधार हो सकता है।
सन्तों ने कहा हैः-
चूँ पंजाह सालत बिरुँ शुद ज़ि-दस्त।
ग़नीमत  शुमार पंजरुज़ा कि हस्त।।
(शेख सादी साहिब)
अर्थः-यदि जीवन के पच्चास वर्ष योंही हाथों से निकल गये हैं अर्थात् उन पच्चास वर्षों में रुहानी कमाई और मालिक के भजन से ग़ाफिल बने रहे, तो भी अब उनके लिये अफसोस मत करो। अफसोस करने से अब हासिल भी क्या होता है? लेकिन अब भी जो जीवन के पाँच ही दिन चाहे शेष रहे हों, इन्हीं को दुर्लभ जानो। और इन्हीं पाँच दिनों में भी यदि सच्चे दिल से मालिक का भजन करो, तो काम बना बनाया है।
     इतना प्रवचन कहकर सन्तों ने ब्रााहृण को सच्चे नाम का उपदेश दिया और वहाँ से चल दिये। सच्चे नाम का उपदेश पाकर ब्रााहृण कृत्कृत्य हो गया। अब वह अन्य सभी ख़्यालों को एक तरफ रखकर जी-जान से नाम की कमाई में लग गया। थोड़े समय तक ही लगकर नाम का अभ्यास करने से ब्रााहृण को सिद्धि-शक्ति प्राप्त हो गई। अब तक उसके ख़्यालों का रुख कतई पलट चुका था। अब उसने देखा कि मुझमें इतनी बड़ी शक्ति आ गई है कि जिस धन और ऐश्वर्य के लिये मैं इतना बेचैन और व्याकुल रहा करता था, वही मैं स्वयं अब दूसरों को बख्श सकता हूँ। अपनी सिद्धि-शक्ति के बल से मैं जिसे भी आशीर्वाद दे दूँ, उसी के घर में दौलत का मेंह बरसने लगे। जब उस ब्रााहृण ने ऐसी हालत को अपने में पैदा हुआ हुआ पाया, तो वह अपने किये पर पछताने लगा। वह मन में कहता-काश! मुझे मालूम होता कि मालिक के भजन में इतनी बड़ी शक्ति है कि सांसारिक माया उसकी दासी है, तो मैं धन और ऐश्वर्य को पाने के चक्कर में अपने जीवन का अमूल्य समय यों व्यर्थ न गँवाता। अब ही जाकर मुझे मालूम हुआ है कि मैं असलियत से किस कदर भूला हुआ था। ऐसा विचार कर वह ब्रााहृण अपने को धन्यभाग मानता हुआ उसी प्रकार मन लगाकर नाम-भजन में लगा रहा। धीरे-धीरे उसकी सुरति नाम में ऐसी लगी कि वह उसमें पूरी तरह लीन होकर पूर्णपद को जा प्राप्त हुआ।
     तब एक दिन मेघों के देवता कुण्डधार उस परमपद को प्राप्त हो चुके ब्रााहृण के दर्शन को आये। ब्रााहृण ने उनका विधिपूर्वक आदर सत्कार किया और उनके बैठने योग्य आसन देकर उनकी कुशल पूछी। तब उत्तर में कुण्डधार बोले,""महात्मन्! आप धन्य हैं कि मालिक के नाम का अभ्यास करके मालिक के रुप में समा गये हैं। संसारी जीव तो आमतौर पर धन और ऐश्वर्र्य को ही सुख के साधन मानकर दिनरात उन्हीं की प्राप्ति के लिये यत्न में लगे रहते हैं। लेकिन यह सासंारिक माया तो हरगिज़ किसी की नहीं बन सकती। यदि मैं उस समय आपको धन और ऐश्वर्य से मालामाल कर देता, तो यह कौन सी दया होती? सच्ची दया तो यह थी कि मैने आपकी बुद्धि को बदल देने की प्रार्थना की, ताकि आप सत्-असत् का विवेक करके सत्मार्ग को ग्रहण करें और असत् को ह्मदय से त्याग दें। उसके साथ ही आप पर सबसे बड़ी दया उन महापुरुष की हुई, जिन्होंने आपको सच्चे नाम में मन लगाने का उपदेश दिया। मैं तो केवल उसमें निमित्त मात्र था। अब तो आप स्वयं ही पूर्णपद को प्राप्त करके सच्चे सुख और सच्चे आनन्द के भण्डार बन चुके हैं। आपके चरणों में मेरा बारम्बार प्रणाम है।''
     इतना कहकर कुण्डधार अन्तर्धान हो गये।

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