Thursday, January 7, 2016

भक्त पद्मसेन


शास्त्रकारों का कथन है किः-
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
            नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्म संग्रहः।। (सुक्तावलि)
अर्थात् सब शरीर अनित्य हैं, वैभव भी सदा रहने वाला नहीं है, मृत्यु भी नित्य निकट आ रही है, इसलिए धर्म का संग्रह करना ही कर्तव्य है। अतएव मनुष्य को सदैव धर्म-मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिये और धर्म पर सदा दृढ़ रहना चाहिये, उससे कभी भी, किसी भी परिस्थिति नें विचलित न होना चाहिये। शास्त्रकारों का कथन है किः-
सपदि विलयमेतु राजलक्ष्मी रुपरि पतन्त्वथवा कृपाणधाराः।
अपहरतुतरां शिरः कृतान्तो मम तु मतिर्न मनागुपैतु धर्मात्।।
अर्थः-""राजलक्ष्मी चाहे आज ही चली जाए, मुझ पर तेज़धार वाली तलवार चाहे आज ही गिर पड़े, यमराज चाहे आज ही मेरा सिर काट ले, परन्तु मेरी बुद्धि धर्म से ज़रा भी विचलित न हो।''
     और जो सदा धर्म-मार्ग पर चलता है, धर्म का आचरण करता है, इस मार्ग से कभी विचलित नहीं होता, वह सदा ही सुख-सम्पत्ति से भरपूर रहता है जैसा कि वर्णन हैः-
जिमि  सरिता  सागर  महँ जाहीं । यद्यपि  ताहि  कामना नाहिं।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाए। धरमशील पहिं जाहिं सुभाए।।
(श्री रामचरित मानस, उत्तरकाण्ड)
अर्थः-""जिस प्रकार नदियाँ आप से आप समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को उनकी कोई कामना नहीं होती, वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मशील पुरुष के पास जाती हैं।'' इसी पर एक कथा हैः-
     प्राचीन समय की बात है, अवन्तीपुर के नरेश पद्मसेन बड़े ही धर्मशील, भक्तिभावसम्पन्न और प्रजा-पालक थे। अपनी प्रजा को वे अपनी सन्तान के तुल्य समझते थे और प्रजा सदा सुखी रहे, इसके लिए वे सतत् प्रयत्नशील रहते थे। जिस प्रकार पिता अपनी सन्तान को दुःखी नहीं देख सकता, उसी प्रकार महाराजा पद्मसेन भी प्रजा को दुःखी नहीं देख सकते थे। उन्होंने अपने गुप्तचर छोड़ रखे थे जो यह पता लगाते रहते थे कि किसी को कोई दुःख,कोई कष्ट तो नहीं है। जैसे ही गुप्तचरों को इस बात का पता चलता, वे तुरन्त इसकी सूचना महाराज को देते और महाराज पद्मसेन उस व्यक्ति की यथा-सम्भव सहायता कर उसका दुःख-दर्द दूर करते। इस प्रकार उनका यश चहुँ ओर फैला हुआ था।
     उनके राज्य के एक छोटे-से गाँव में एक पुरुष और स्त्री रहते थे, जो अत्यन्त दरिद्रता में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। पति-पत्नी दोनों ही धातु की मूर्तियां बनाते थे जो उनका पैतृक व्यवसाय था। अन्य कोई काम-धन्धा न तो उन्हें आता ही था और न ही उनके पास इतना धन था कि कोई काम-धन्धा शुरु कर सकें। आसपास के क्षेत्र में मूर्तियां खरीदने वाले भी बहुत कम थे, अतः बड़ी ही निर्धनता में वे अपने दिन काट रहे थे।
     एक बार ऐसा हुआ कि तीन-चार दिन तक एक भी मूर्ति न बिकी जिससे उस निर्धन-दंपति को भूखों रहना पड़ा। यह समाचार गुप्तचरों द्वारा महाराजा पद्मसेन तक पहुंचा। पद्मसेन ने अपने मंत्री को बुलाया और उससे परामर्श कर उस निर्धन दंपति के लिए काफी धन अपने एक विश्वासपात्र राजसेवक द्वारा भिजवाया। जिससे कि उन दोनों का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो सके। किन्तु जब राजसेवक वहाँ पहुँचा और उन्हें धन देना चाहा तो उन्होने धन लेने से साफ इनकार कर दिया। राजसेवक ने उन्हें धन स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का हर सम्भव प्रयत्न किया, परन्तु वे किसी प्रकार भी राज़ी न हुए। राजसेवक ने वापस जाकर महाराजा पद्मसेन को सारी हकीकत बतलाई। सुनकर महाराज पद्मसेन सोच में पड़ गए। अन्त में अपने मंत्रियों से परामर्श कर उन्होने अपने सभी गुप्तचरों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि आज के बाद यदि किसी निर्धन व्यक्ति का कोई सामान हाट में सायंकाल तक नहीं बिकता तो उसका मूल्य चुका कर वह सामान खरीद लिया जाए और राज्य के कोशागार में जमा करवा दिया जाए। महाराजा पद्मसेन के आदेश के अनुसार उस दिन से पूरे राज्य में यह नियम लागू हो गया।
     इसके कुछ ही दिन बाद उस दंपति ने शनि देवता की एक बड़ी ही सुन्दर मूर्ति बनाई और उसे बेचने के लिए बाज़ार ले गए। बाज़ार में जो लोग भी सामान खरीदने के लिए आए, उस मूर्ति को देखकर सभी ने उनकी कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की, परन्तु उस मूर्ति को खरीदने के लिए किसी भी व्यक्ति ने उसका मुल्य तक न पूछा। शनिदेवता को आमतौर पर अनिष्टकारक माना जाता है, फिर भला शनिदेवता की मूर्ति खरीद कर कौन घर ले आए और मुसीबत मोल ले। इसी प्रकार सारा दिन बीत गया। सायंकाल को महाराजा पद्मसेन के आदेशानुसार एक गुप्तचर उस दंपति के पास पहुंचा और मूर्ति की प्रशंसा करते हुए उनसे उसके दाम पूछे और मूल्य चुकाकर वह मूर्ति खरीद ली और महाराजा पद्मसेन के दरबार में लाए और फिर उनके आदेश से उसे राज्य के कोशागार में जमा करवा दिया।
     राजपुरोहित औैर राज-ज्योतिषी को जब इस विषय में पता चला तो वे तुरन्त महाराजा पद्मसेन के पास जा पहुँचे और उनसे निवेदन किया-""महाराज! आपके गुप्तचरों ने यह क्या किया कि शनि देवता की मूर्ति खरीद ली और आपने भी उसे कोशागार में रखवा दिया? यह तो अनर्थ कर डाला आपने। उस मूर्ति को तुरन्त वहां से निकलवाइये और किसी नदी में प्रवाहित कर दीजिये, अन्यथा सभी दैवी शक्तियाँ आपसे रुष्ट हो जायेंगी और शनि देवता की क्रूर दृष्टि से आपका तो अनिष्ट होगा ही, प्रजा का भी अनिष्ट होगा।''
     महाराजा पद्मसेन ने अत्यन्त धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी और बोले-""आपका कथन सत्य है, क्योंकि ज्योतिष विज्ञान के अनुसार शनि देवता अनिष्टमूलक माने जाते हैं, परन्तु फिर भी मैं वह मूर्ति अपने राज्य के कोशागार से निकालकर नदी में प्रवाहित नहीं कर सकता।'' राजपुरोहित ने प्रश्न किया-""क्या आपको अपने और राज्य के लोगों के अनिष्ट की भी चिंता नहीं।'' महाराजा पद्मसेन ने गम्भीरतापूर्वक कहा-""आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि राज्य के लोगों के अनिष्ट की बात मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता, क्योंकि मैं प्रजा को अपनी सन्तान की तरह मानता हूँ, परन्तु फिर भी मैं आपका कहना मानने में असमर्थ हूँ। वह मूर्ति कोशागार में जमा हो चुकी है और अब वहीं रहेगी। उसे मैं नदी में प्रवाहित नहीं कर सकता।''
      राजपुरोहित ने प्रश्न किया-""लेकिन क्यों? इसमें आपको क्या आपत्ति है?''
     महाराजा पद्मसेन बोले-""आपको पता ही है कि मैंने यह व्रत धारण कर रखा है कि किसी भी परिस्थिति में धर्म के पथ से विचलित नहीं हूँगा।''
     जी हाँ! यह तो सबको विदित है।'' राजपुरोहित ने कहा।
     महाराजा पद्मसेन बोले-""आज से कुछ दिन पूर्व मैने गुप्तचरों को यह आदेश दिया था कि किसी निर्धन व्यक्ति का सामान यदि सायंकाल तक नहीं बिकता तो उसे खरीदकर राज्य के कोशागार में जमा करवा दिया जाए। शनि देवता की यह मूर्ति खरीदते समय उसी आदेश का गुप्तचरों ने पालन किया। मूर्ति सायंकाल तक बिकी नहीं थी, इसलिए उसे गुप्तचरों ने खरीद लिया और उसे कोशागार में जमा करवा दिया।''
     राजपुरोहित ने कहा-""महाराज! यह तो ठीक है कि गुप्तचरों ने आपके आदेश का पालन किया, परन्तु अब इसे नदी में प्रवाहित कर दिये जाने में आपको क्या आपत्ति है?'' महाराजा पद्मसेन ने उत्तर दिया-""किसी अनिष्ट की आशंका से अपने वचन से फिर जाना क्या धर्म से विचलित होना नहीं है? कोशागार में मूर्ति जमा हो जाने पर अब उस मूर्ति को निकालकर नदी में प्रवाहित करने में क्या मेरा वचन भंग नहीं होता? और यदि मैं अपना वचन भंग करुँ तो फिर मेरा अपने को धर्मनिष्ठ कहना किसी तरह भी उचित नहीं है। इसलिए मैं आप दोनों महानुभावों की बात मान कर अपने धर्म को कदापि नहीं छोड़ सकता, चाहे मेरा कितना ही अनिष्ट क्यों न हो जाए? हाँ! कुछ दिनों के पश्चात यदि आप उसे जल में प्रवाहित करने को कहेंगे तो मैं आपकी बात मान लूँगा।''
     अभी महाराजा पद्मसेन ने ये शब्द कहे ही थे कि उनके अन्दर से एक तेज़ निकला और साकार रुप से उनके सामने खड़ा हो गया। महाराजा पद्मसेन ने पूछा-""आप कौन हैं?'' उसने उत्तर दिया-""मैं सदाचार हूँ, मेरा और शनिदेवता का तनिक भी मेल नहीं है। मेरा और उसका एक स्थान पर रहना कठिन ही नहीं, असम्भव है। उसके होते हुए मैं एक क्षण भी यहाँ नहीं रुक सकता। इसलिए या तो आप अपने राजपुरोहित और राज-ज्योतिषी की बात मानकर शनिदेव को तुरन्त अपने कोशागार से निकाल बाहर करें और उसे इसी समय नदी में प्रवाहित कर दें, अन्यथा मैं आपको छोड़कर चला जाऊँगा।''
     सदाचार के ये शब्द सुनकर महाराजा पद्मसेन तनिक भी विचलित न हुए। उन्होंने कहा-""मैं अपने धर्मव्रत को किसी भी परिस्थिति नें नहीं छोड़ सकता। आप यदि मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं तो यह आपकी इच्छा।'' महाराजा पद्मसेन का यह उत्तर सुनकर सदाचार वहाँ से अदृश्य हो गया। तब एक और तेज़ महाराजा के अन्दर से निकल कर उनके सामने खड़ा हो गया। पद्मसेन ने कहा-""आप कौन हैं? उसने उत्तर दिया-""मैं सत्य हूँ। मैं सदा सदाचार के साथ रहता हूँ। सदाचार चूँकि आपका साथ छोड़ गया है, इसलिए मैं भी आपका साथ छोड़ रहा हूँ।'' पद्मसेन ने उत्तर दिया-""जैसी आपकी इच्छा।''
     उसके अदृश्य होते ही तीसरा तेज़ प्रकट हुआ। महाराजा ने पूछा-""आप कौन हैं?''
     उसने उत्तर दिया-"" मैं न्याय हूँ जहाँ सत्य रहता है, मैं भी वहीं रहता हूँ, इसलिए मैं भी आपसे विदा लेता हूँ।'' तब एक और तेज़ प्रकट हुआ। पद्मसेन के पूछने पर उसने अपना परिचय देते हुए कहा-""मैं नीति हूँ और सदा न्याय के अंग-संग रहती हूँ। न्याय के साथ ही मैं भी आपसे विदा ले रही हूँ।''
     इस प्रकार एक-एक करके सभी दैवी गुण महाराजा पद्मसेन के सामने प्रकट होते गए और अपना परिचय देते हुए उनका साथ छोड़ते गए, यहाँ तक कि राजलक्ष्मी ने भी उनसे  विदाई ले ली। अन्ततः धर्म साकाररुप में उनके सामने प्रकट हुआ और बोला-""मैं धर्म हूँ। सभी दैवी गुण आपका साथ छोड़ गए हैं, इसलिए अब मैं भी यहाँ नहीं रह सकता। मैं भी आपको छोड़कर जा रहा हूँ।
     यह सुनकर महाराजा पद्मसेन बोले-""आप मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। मैने सदा धर्म-व्रत का पालन किया है और अब भी उसी व्रत का पालन कर रहा हूँ। आपके लिए तो मैने सबको छोड़ दिया है, फिर आप मुझे छोड़कर कैसे जा सकते हैं?'' यह सुनकर धर्म पुनः महाराज पद्मसेन के अन्दर प्रवेश कर गया। उसके ऐसा करते ही सभी दैवी गुण और श्री लक्ष्मी पुनः पद्मसेन के पास लौट आए।
     कहने का तात्पर्य यह कि जहाँ धर्म है, वहीं सब दैवी गुण हैं और वहीं श्री है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सदा धर्म का पालन करना चाहिये और उस पर सदा दृढ़ रहना चाहिये। यही आत्मिक उन्नति और आत्म-कल्याण का मार्ग है और इसी में लोक-परलोक सुखी और सफल होता है। महापुरुषों के वचन हैं किः-
धरमु भूमि सतु बीजु करि ऐसी किरस कमावहु।
तां वापारी जाणीअहु लाहा लै जावहु।।
गुरुवाणी
सत्पुरुष श्री गुरु नानकदेव जी महाराज फरमाते हैं कि धर्म को पृथ्वी बनाओ और उसमें सत्य आचरण का बीज बोओ। बस! ऐसी आत्मिक जीवन को विकसित करने वाली खेती-बाड़ी करो। यदि तुम ऐसी करनी करके आत्मिक जीवन का लाभ प्राप्त करके ले जाओगे तो प्रभु के दरबार में चतुर व्यापारी समझे जाओगे और तुम्हारी वहाँ शोभा होगी और मुख उज्जवल होगा। इसलिए शास्त्रकारों का उपदेश है किः-
                         धर्म  एव   हतो  हन्ति   धर्मो  रक्षति  रक्षितः ।
तस्माद धर्मोन हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
(मनुस्मृति 8/15)
भावार्थः- धर्म को यदि मार दिया जाए अर्थात् उसकी उपेक्षा कर दी जाए तो वह हमें भी नष्ट कर देता है। यदि धर्म की रक्षा करें अर्थात् उसका पालन करें तो वह भी हमारी रक्षा करता है। इसलिए धर्म को कभी न मारो अर्थात् उसको कभी न छोड़ो, क्योंकि ऐसा न हो कि मारा हुआ धर्म (अर्थात् उपेक्षित धर्म कहीं हमारा नाश कर दे। इसलिए मनुष्य को सदैव धर्म का पालन करना चाहिये और धर्म पथ पर दृढ़ रहना चाहिये। इसी में उसका कल्याण है।

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