Thursday, January 7, 2016

भक्त तुलाधार



     जिन भक्त तुलाधार की गाथा यहाँ दी जा रही है,ये भक्त तुलाधार वैश्य से भिन्न हैं। भक्त तुलाधार वैश्य तो भारत की प्रसिद्ध नगरी काशी जी में रहते थे और व्यापार करते थे, परन्तु हमारे ये भक्त तुलाधार छोटे-से गाँव में रहते थे। थे तो निर्धन, परन्तु थे बड़े वैराग्यवान, सन्तोषी तथा अनन्य भक्ति भाव सम्पन्न। माता-पिता ने विवाह बाल्यकाल में ही कर दिया था और कुछ ही दिनों के उपरांत परलोक सिधार गए थे। अतएव घर में पति-पत्नी-दो ही प्राणी रह गये थे। पत्नी भी बड़ी वैराग्यवान एवं सन्तोषी थी। दोनों ही हर समय भगवान के भजन-ध्यान में मग्न रहते थे। शिलोञ्छवृत्ति से जीवन-निर्वाह करते थे अर्थात् खेतों में फसल कट जाने पर और हाट उठ जाने पर गिरे हुए अन्न के दाने बीनकर एकत्र कर लेते थे और उसी से उदरपूर्ति करते थे। अन्न के दाने बीनते समय भी नाम सुमिरण का क्रम जारी रहता था। वस्त्रों की आवश्यकता होती तो वन से लकड़ी काटकर वस्त्र विक्रेता के पास चले जाते और लकड़ी के बदले वस्त्र ले लेते। ऐसा भी वे तब करते जब वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो जाते। यद्यपि उन्हें कभी भी भरपेट अन्न तथा पहनने को पूरे वस्त्र नहीं मिलते थे। परन्तु फिर भी उनके मन में इस बात के लिए कभी क्षोभ उत्पन्न नहीं होता था। दोनों निष्कामभाव से हर समय भजन-भक्ति में लीन रहते थे। दोनों ही सन्तोषी थे। इनकी भक्तिभावना तथा सन्तोषवृत्ति की चर्चा यद्यपि आसपास गाँव में भी फैल गई थी, परन्तु भगवान अपने भक्तों की महिमा को जगत में उजागर करने के लिए अनेक प्रकार की लीलायें करते रहते हैं। लीलाधारी भगवान ने भक्त तुलाधार की परीक्षा लेने हेतु एक लीला रची। भक्त तुलाधार के पास वस्त्रों के नाम पर एक धोती और एक गमछा था, जो जगह-जगह पर फट रहे थे। वे नदी पर स्नान करने जाया करते थे, जो गाँव से कुछ दूरी पर बहती थी। एक दिन जब वे स्नान करके नदी से बाहर निकले तो क्या देखते हैं कि उनकी फटी हुई धोती के पास ही नई धोती, कुर्ता और गमछा रखा है। नये वस्त्रों को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने नदी की ओर देखा कि शायद वहाँ कोई दूसरा व्यक्ति स्नान कर रहा हो, परन्तु वहाँ किसी को न देखकर उन्होने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। पर वहाँ कोई हो तो दिखाई दे? वे सोचने लगे कि पता नहीं यह वस्त्र कौन यहाँ छोड़ गया है? परन्तु कोई भी हो, मुझे इससे क्या प्रयोजन? जो छोड़ गया है, वह ले भी जायेगा। यह विचार करके वह घर लौट आये।
     दूसरे दिन जब वे फिर नदी पर स्नान करने गए तो स्नान के बाद बाहर निकलने पर क्या देखते हैं कि उनकी धोती के पास एक गागर रखी हुई है। निकट जाकर जब उन्होंने गागर में झाँका तो क्या देखा कि उसमें सोने की मुद्रायें भरी हुई हैं। सोने की मुद्राओं से भरी गागर वहाँ देखकर वे चौंक उठे। उन्होंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, परन्तु वहाँ दूर-दूर तक कोई न था। आज का भौतिकवादी मनुष्य होता तो गागर को उठाने में एक पल भी न लगाता, परन्तु भक्त तुलाधार भगवान के सच्चे निष्काम भक्त थे। वे सोचने लगे कि धन तो अनेक अनर्थों की जड़ है। इसको पाकर मनुष्य में लोभ की प्रवृत्ति बढ़ती है। लोभ ने एक बार ह्मदय में प्रवेश किया नहीं कि मनुष्य निन्यानवे के चक्कर में पड़ जाता है, फिर उसे कभी शान्ति नसीब नहीं होती। अधिक धन-प्राप्ति के चक्कर में मनुष्य पाप कर्म करने से भी नहीं डरता,इसीलिए लोभ को नरक का द्वार कहा गया है। इसके अतिरिक्त और भी अनेकों दुर्गुण मनुष्य में आ जाते हैं जिससे वह अन्ततः अधोगति को प्राप्त होता है। श्री मद्भागवत में तो स्पष्ट लिखा है किः-
यशो  यशस्विनां  शुद्धं  शलाघ्या ये गुणिनां गुणः।
लोभः स्वल्पऽपितान् हन्ति शिवत्रो रुपमिवप्सितम्।।
अर्थस्य  साधने   सिद्धै     उत्कर्षे  रक्षणे  व्यये ।
नाशोपभोग  आयासस्त्रासश्चिन्ता  भ्रमो नृणाम्।।
स्तेयं  हिंसानृतं  दम्भः  काः  क्रोधः  स्मयो मदः।
भेदो   वैरमविश्वासः   संस्पर्धा  व्यसनानि  च।।
एते  पञ्चदशानर्था    ह्रर्थमूला   मता  नृणाम्।
तस्मादनर्थमर्थारव्यं      श्रेयोऽर्थी  दूरतस्त्यजेत्।
भिद्यन्ते   भ्रातरो  दाराः   पितरः   सुह्यदस्तथा।
एकास्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः।
अर्थेनाल्पीयसा    ह्रेते  संरब्धाः   दीप्तमन्यवः।
               त्यजन्त्याशु स्पृधो ध्नन्ति सहसोत्सृज्य सौह्यदम।। 11/23/16-21
अर्थः- ""जैसे थोड़ा-सा भी कोढ़ सर्वांगसुन्दर स्वरुप को बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियों के शुद्ध यश और गुणियों के प्रशंसनीय गुणों पर पानी फेर देता है। धन कमाने में, धन कमा लेने पर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोग में-जहाँ देखो वहीं निरंतर परिश्रण, भय, चिन्ता और भ्रम का ही सामना करना पड़ता है। चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जूआ और शराब-ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं। इसलिए कल्याण के अभिलाषी पुरुष को चाहिए कि परमार्थ के विरोधी अर्थनामधारी अनर्थ को दूर से ही छोड़ दे। भाई-बन्धु, स्त्री, पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी-सबके सब धन के कारण इतने फट जाते हैं कि एक-दूसरे के शत्रु बन जाते हैं। ये लोग थोड़े-से धन के लिए भी क्षुब्ध एवं क्रुद्ध हो जाते हैं। बात की बात में सौहार्द-सम्बन्ध तोड़ देते हैं, लाग-डाँट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देने पर उतारु हो जाते हैं, यहाँ तक कि एक-दूसरे का सर्वनाश कर डालते हैं।'' आगे फिर कथन करते हैंः-
स्वर्गपवर्गयोद्र्वारं   प्राप्य   लोकमिमं पुमान्।
द्रविणे कोज्ञनुषज्येत मत्र्योऽनर्थस्य धामनि।।
अर्थः-""यह मनुष्य शरीर स्वर्ग और मोक्ष का द्वार है। इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य है जो अनर्थों के धाम धन के चक्कर में फँसे।''
     यह सब सोचकर भक्त तुलाधार स्वर्ण-मुद्राओं से भरी गागर वहीं छोड़कर घर चले आये। इधर भगवान ने क्या किया कि एक ज्योतिषी पंडित का रुप धार कर और पोथी-पतरा बगल में दबाकर गाँव में जा पहुँचे और लोगों का हाथ देखने लगे। पहले वे लोगों को भूतकाल की बाते बताते जो उनके जीवन में घट चुकी हैं ताकि उन्हें पूर्ण विश्वास हो जाए, उसके बाद भविष्य के विषय में बतलाते। चूँकि वे किसी से बदले में कुछ ले नहीं रहे थे, इसलिए वहाँ सहज ही ग्रामवासियों की भीड़ लग गई। भक्त तुलाधार की स्त्री ने भी ज्योतिषी के विषय में सुना कि वह हाथ देखकर सबको सच्ची बातें बताता है,अतः कौतुहलवश वह भी वहाँ चली गई। ज्योतिषी रुपी भगवान तो उसकी प्रतीक्षा मे थे, अतः तुरन्त उसका हाथ देखने लगे। कुछ देर हाथ की रेखाओं को देखने के बाद भगवान बोले-तुम्हारे भाग्य में तो दरिद्रता ही लिखी है, क्योंकि तुम्हारा पति बहुत ही नासमझ है जो घर आई लक्ष्मी को भी ठुकरा देता है। आज सवेरे जब वह स्नान करने गया था तो सौभाग्य से उसे धन मिल रहा था, परन्तु वह उसे वहीं छोड़कर चला आया। घर जाकर ज़रा अपने पति से पूछो तो सही कि उसने ऐसा क्यों किया?
     भक्त तुलाधार की स्त्री घर पहुँची और ज्योतिषी ने जो-जो बातें उससे कही थीं, सब बतला दीं। और धन के विषय में पूछा। भक्त तुलाधार अपनी पत्नी को साथ लेकर ज्योतिषी के पास पहुँचे और जाते ही उससे पूछा-आपको धन के मिलने की बात किसने बताई? ज्योतिषी रुप भगवान ने कहा-मैं ज्योतिषी हूँ, भूत एवं भविष्य की सब बातें बतला सकता हूँ। अभी भी वह गागर वहीं रखी है, चाहो तो जाकर ले आओ। भक्त तुलाधार ने कहा-धन की मेरे दिल में तनिक भी इच्छा नहीं है। मेरी तो बस एक ही इच्छा है कि भगवान की भक्ति मेरे ह्मदय में सदैव बनी रहे। धन तो मनुष्य को माया के फंदे में फँसाने वाला कठिन जाल है, जिसके फंदे में फँसा जीव सदा अशान्त एवं दुःखी  रहता है। धन से लोभ बढ़ता है जिसे नरक का द्वार कहा गया है। ज्योतिषी ने बीच में ही उसकी बात काटते हुए कहा-धन से संसार में सारे सुख प्राप्त होते हैं। जिसके पास धन है, वही संसार में गुणवान कहा जाता है। कथन है किः-
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः। स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः।
स एव वक्ता  स च  दर्शनीयः। सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति।।
अर्थः-""जिसके पास धन है, वही कुलीन, पण्डित शास्त्रज्ञ, वक्ता और दर्शनीय है। इससे सिद्ध हुआ कि सारे गुण धन में ही हैं।''
     जिसके पास धन है, उसके ही मित्र है, जिसके पास धन है उसी के बन्धु-बान्धव हैं, जिसके पास धन है, संसार में वही पुरुष है और जिसके पास धन है, वही पण्डित है। शूरवीर, रुपवान,सुन्दर, वाचाल, शस्त्र विद्या और शास्त्र विद्या जानने वाला मनुष्य भी इस लोक में धन बिना यश और मान नहीं पाता अर्थात् धनहीन में इन गुणों का होना न होने के ही समान है। धनवान यदि पूजा करने योग्य नहीं होता, तो भी लोग उसकी पूजा करते हैं, धनवान यदि पास जाने लायक भी नहीं होता तो भी लोग उसके पास जाते हैं और धनवान यदि प्रणाम करने योग्य नहीं होता, तो भी लोग उसे प्रणाम करते हैं यह सब धन का प्रभाव है। फिर धन से मनुष्य इस संसार के भोगपदार्थों को प्राप्त करके सुखपूर्वक जीवन तो व्यतीत कर ही सकता है, दानादि करके, मन्दिर ,कुआँ और तालाब आदि बनवाकर, यज्ञ-हवन करके इन शुभकर्मों के फलस्वरुप स्वर्ग की प्राप्ति भी कर सकता है।
     ज्योतिषी रुप भगवान ने यद्यपि भक्त तुलाधार और उसकी पत्नी की परीक्षा के लिए ही उपरोक्त वचन कहे थे, परन्तु भगवान के वचन सुनकर भी दोनों के मन में तनिक सा भी लोभ उत्पन्न न हुआ। भक्त तुलाधार ने नम्रतापूर्वक कहा-ज्योतिषी जी! चाहे यहाँ के भोग हों अथवा स्वर्ग भोग हो, दोनों ही अनित्य एवं दुःख के हेतु हैं। भगवान श्री कृष्ण जी के वचन हैंः-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तःकौन्तेय  न तेषु रमते बुधः।।
अर्थः-जो ये इऩ्िद्रय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषों को सुखरुप भासते हैं, तो भी दुःख के ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।
 इसके अतिरिक्त इस मानुष तन की प्राप्ति केवल स्वर्गीय सुखों को प्राप्त करने के लिए और विषयभोग भोगने के लिए ही नहीं हुई, अपितु मोक्षपद प्राप्त करने के लिए हुई है। भगवान श्री राम जी के वचन हैंः-
एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।।
नर तनु पाइ विषय मन देहीं । पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं।।
ताहि  कबहुँ भल कहइ न कोई। गुँजा ग्रहइ परस मनि खोई।।
अर्थः भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज अयोध्यावासियों के प्रति कथन करते हैं कि हे भाई! इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषयभोग कदापि नहीं है। इस संसार के भोगों की तो बात ही क्या, यदि जप-तप आदि साधन करके स्वर्ग के सुखभोग भी प्राप्त कर लिये जायें तो वे भी तुच्छ हैं, क्योंकि उनका परिणाम भी अन्ततः दुःखरुप ही है। स्वर्ग में अपने पुण्यकर्मों का फल भोगने के बाद जीव को फिर से चौरासी के चक्कर में जाना पड़ेगा और नीच योनियों में भ्रमण करते हुए अनन्त दुःख-कष्ट सहने पड़ेंगे। अतः जो लोग मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी भगवान का भजन-सुमिरण करने की अपेक्षा विषयों में अपना मन लगा देते हैं, वे अज्ञानी जीव मानो अमृत के बदले विष ग्रहण करते हैं। जो पारसमणि को छोड़कर कौड़ियाँ ग्रहण करे, उसे कभी कोई बुद्धिमान नहीं कहता।
     इस श्रेष्ठ मानुष-तन को पाकर भी जो मोक्षपद प्राप्त करने की अपेक्षा धन की इसलिए चाहना करता है कि धन से इस संसार के अथवा स्वर्ग के भोग प्राप्त किये जा सकते हैं। तो मेरी दृष्टि में उस जैसा नासमझ संसार में कोई नहीं है। आप पण्डित होकर भी मुझे उलटी शिक्षा दे रहे हैं और मुझे भक्ति पर दृढ़ करने की अपेक्षा धन का लोभ मेरे मन में उत्पन्न कर रहे हैं, इसलिए आपको मेरा दूर से ही प्रणाम है।
     यह कहकर भक्त तुलाधार वहाँ से चल पड़े। परन्तु अभी वे कुछ पग ही गए थे कि उनके ह्मदय में विचार उत्पन्न हुआ कि यह ज्योतिषी कौन है? पहले इसे कभी इस क्षेत्र में देखा भी नहीं। कितना सुन्दर रुप है उसका? कितनी मधुर आवाज़ है इसकी? और फिर मुझे यह स्वर्ण मुद्रांओं से भरी गागर क्यों लेने के लिए कह रहा है? फिर इसे कैसे पता कि वह गागर अभी भी वहीं रखी हुई है? हो न हो-मुझ दीन पर ऐसा अकारण कृपा करने वाले ये मेरे प्रभु ही हैं। ऐसा विचार मन में आते ही वे लौट पड़े। परन्तु क्या देखते हैं कि ज्योतिषी महोदय जल्दी-जल्दी डग भरते वहाँ से जा रहे हैं।भक्त तुलाधार ने अपनी पत्नी का हाथ पकड़ा और दोनों ज्योतिषी के पीछे-पीछे चल दिए। उनकी पत्नी की समझ में नहीं आ रहा था कि भक्त तुलाधार ज्योतिषी के पीछे-पीछे क्यों जा रहे हैं। जब ज्योतिषी महोदय गाँव के बाहर पहुँच गए तो भक्त तुलाधार भागकर ज्योतिषी के निकट पहुँचे और जाते ही उनके चरण पकड़ लिए। ज्योतिषी रुप भगवान बोले-अरे। यह क्या कर रहे हो! मेरे पैर छोड़ो।
     भक्त तुलाधार दृढ़ता पूर्वक उनके चरण पकड़ते हुए बोले-प्रभो! जब आप मुझ जैसे दीन पर कृपा करने आये ही हैं तो फिर यह ज्योतिषी का भेष क्यों? अब या तो अपने वास्तविक रुप में मुझे दर्शन दीजिए, अन्यथा मैं यहीं प्राण त्याग दूँगा। ऐसे प्रेमी भक्त से भला भगवान कब तक अपने को छिपाते? वे तुरन्त वहाँ अपने ज्योतिर्मय स्वरुप में प्रकट हो गए। भक्त तुलाधार और उनकी पत्नी-दोनों ही भगवान के दर्शन कर कृत-कृत्य हो गए।

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