श्री रामचरितमानस के बालकाण्ड में तुलसीदास जी कथन करते हैंः-
चहुं जुग चहूँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ।।
अर्थः-""यूं तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में तो विशेषरुप से है। इसमें तो नाम को छोड़कर संसार-सागर से तरने का दूसरा कोई उपाय ही नहीं है।'' यह प्रभु नाम की महिमा और उसका प्रताप है कि इसके सुमिरण करने से जीव नीच से उच्च बन जाता है, उसे अचल धाम की प्राप्ति होती है और वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। इसलिये सौभाग्यशाली है वह मनुष्य जो प्रभु-नाम का सुमिरण करता है। ऐसे ही भाग्यशाली थे-भक्त गणेश दास जी।
भक्त गणेशदास जी का जन्म मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के एक गाँव में हुआ था। उनका जन्म एक ऐसे घर में हुआ था जो भक्तिभाव सम्पन्न और साधु-सेवी था। उनके माता-पिता जगत् की चर्चाओं में अपना समय व्यर्थ न करके भगवान के नाम-सुमिरण तथा भगवान के गुणानुवाद गायन करने तथा सुनने में ही अपना अधिक से अधिक समय व्यतीत करते थे जिससे गणेंशदास जी के दिल में बाल्यकाल से ही नाम एवं भक्ति की लगन लग गई। ऐसे परिवार में जन्म होना जहाँ प्रारम्भ से ही मनुष्य को भक्ति का वातावरण मिले, पूर्व जन्मों की कमाई का ही परिणाम होता है। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी महाराज से भक्त अर्जुन ने अपना संशय व्यक्त किया था किः-
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गतिं कृष्ण गच्छति।। 6/ 37
अर्थः-""हे कृष्ण!जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, परन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात् भगवद् साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।'' अर्जुन का संशय निवारण करते हुए भगवान ने फरमायाः-
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टो ऽ भिजायते। 6/40
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।।6/43
अर्थः- ""योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्री मान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है।''
""वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धिसंयोग को अर्थात् समबुद्धिरुप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरुप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।''
भक्त गणेशदास जी को भी अपने पूर्व संस्कारों के अनुरुप भक्ति की कमाई पूरी करने और जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ऐसे ही भक्ति-प्रेम के विमल विचारों से भरपूर घर में जन्म मिला। माता-पिता साधु-सेवी थे, अतः साधु-महात्मा प्रायः उनके घर आते ही रहते थे जिससे सत्संग और कथा-कीर्तन की मन्दाकिनी सदा ही उस घर में प्रवाहित होती रहती थी। इसके साथ-साथ माता-पिता जब प्रभु-नाम का सुमिरण करते तो भक्त गणेशदास जी भी उनके साथ-साथ प्रभु-नाम का उच्चारण करने का प्रयत्न करते। माता उन्हें प्रोत्साहित करती और वे तुतलाते हुए प्रभु-नाम का उच्चारण करते हुए नाचने लगते। यह देखकर माता का ह्मदय गद्गद हो जाता। पिता भी उन्हें वैराग्यवान भक्तों की कथायें सुनाते, जीवन के परमलक्ष्य का उन्हें बोध कराते और भगवान के गुणों का उनके सम्मुख वर्णन करते जिससे आयु बढ़ने के साथ-साथ गणेशदास जी के दिल में संसार के प्रति विरक्ति और उपरामता दृढ़ से दृढ़तर होती गई और संसार के भोग उन्हें नीरस दिखने लगे। धन्य हैं ऐसे माता-पिता जो अपनी सन्तान को विष के समान विषयभोगों में प्रवृत्त न करके उसे भगवान की भक्ति की ओर प्रवृत्त करते हैं। गुरुवाणी का वाक है किः-
धनु जननी जिनि जाइआ धंनु पिता परधानु।।
अर्थात् वह जननी धन्य है जो भक्तिमान पुरुष को जन्म देती है और वह पिता भी धन्य और श्रेष्ठ है जो उसे भक्ति की ओर प्रेरित करता है। भक्त गणेशदास जी की आयु ज्यों-ज्यों बढ़ती गई, उनके अन्दर नाम एवं भक्ति की लगन भी बढ़ती गई। अभी उन्होने यौवनावस्था में पग रखा ही था कि पहले उनकी माता और फिर उनके पिता प्रभु को प्यारे हो गए। संसार में आमतौर पर देखा जाता है कि पिता अपनी सन्तान के लिए धन, ज़मीन,ज़ायदाद आदि छोड़ जाता है, परन्तु गणेशदास जी को पैतृक सम्पत्ति के रुप में मिला सच्चा और शाश्वत धन-प्रभु चरणों में प्रेम, प्रभु-नाम की लगन और संसार के प्रति विरक्ति।
माता-पिता के परलोक-गमन के उपरांत घर में रह गए अकेले भक्त गणेशदास जी। अब उनका यह नित्यप्रति का नियम बन गया कि वे प्रातः होते ही स्नानादि से निवृत्त होकर निकट के वन में चले जाते और एकान्त में प्रभु-नाम का सुमिरण करते। यदि मन कुछ चलायमान होता तो उच्च सवर से नाम उच्चारण करते। कभी-कभी नामोच्चारण करते हुए इतने मस्त हो जाते कि मस्ती में नाचने लग जाते। जब भूख बहुत सताती तो कन्द-मूल अथवा जंगली फल खाकर क्षुधा मिटा लेते। रात्रि हो जाने पर घर वापस आ जाते और गाँव के लोगों को एकत्र कर भगवान और भगवान के भक्तों की कथायें सुनाते। सम्बन्धियों ने विवाह करने के लिए उन पर बहुत ज़ोर डाला, गृहस्थ आश्रम की अनिवार्यता जतलाते हुए अनेक प्रकार के प्रमाण देकर उन्हें समझाने का प्रयत्न भी किया, कई तरह के प्रलोभन भी दिए, परन्तु कामिनी-कांचन का माया-जाल उनके चित्त को अपनी ओर आकर्षित न कर सका। जिसने नाम के सच्चे रस का पान कर लिया हो, संसार के विषय-रस उसे भला कहां आकर्षित कर सकते हैं? सच हैः-
इह रस छाडे उह रसु आवा। उह रसु पीआ इह रसु नहीं भावा।।
श्री कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि जिसने ये रस (माया के रस अथवा विषय-रस) छोड़ दिए हैं, उसे ही उस रस (प्रभु-नाम के रस) का आनन्द प्राप्त होता है और जिसने उस रस का अर्थात् नाम-रस का पान कर लिया है, उसे माया के झूठे रस तनिक भी नहीं भाते।
जब निकटवर्ती सम्बन्धियों ने विवाह के लिये अत्यधिक ज़ोर देना शुरु किया तो भक्त गणेशदास जी ने गाँव छोड़ने का मन ही मन निर्णय कर लिया और वे एक रात को चुपचाप गाँव छोड़कर पण्ढरपुर चले गये। वहाँ वे सारा-सारा दिन प्रभु-नाम के सुमिरण में व्यतीत करते और रात को कीर्तन में सम्मिलित होते। धीरे-धीरे वे भजन बोलने लगे। उनके गले में मधुरता थी और चित्त में वैराग्य, इसलिये जब वे भजन गाते तो एक अनोखा समय बँध जाता। कीर्तन करते-करते कभी-कभी वे एकदम उठ खड़े होते और नाचने लगते और प्रभु-प्रेम में अपनी सुध-बुध भूल जाते। धीरे-धीरे उनकी ख़्याति बढ़ती गई और उनके कीर्तन में प्रेमी-भक्तों की अपार भीड़ इकट्ठी होने लगी।
एक बार छत्रपति शिवाजी पण्ढरपुर गये। भक्त गणेशदास जी की ख़्याति सुनकर वे भी वहाँ जा पहुँचे जहाँ भक्त जी कीर्तन कर रहे थे। कीर्तन करते-करते भक्त जी एकाएक उठ खड़े हुए और भाव-विभोर होकर नाचने लगे तथा उच्च स्वर से प्रभु नाम का उच्चारण करने लगे। नामोच्चारण में भीड़ भी उनका साथ दे रही थी। इसी तरह आधी रात बीत गई, परन्तु गणेश दास जी अपनी सुधबुध खोये उसी प्रकार नामोच्चारण करते रहे। अन्ततः प्रेमियों के चिताने पर उन्हें होश आया। उनके प्रभु-प्रेम को देखकर शिवाजी बड़े प्रभावित हुए और उन्होने भक्त गणेशदास जी से विनय की कि वे उनके खेमे में रात्रि व्यतीत करें। भक्त जी ने इनकार कर दिया। दो-तीन बार विनय करने पर भी जब भक्त जी नहीं माने तो शिवाजी ने सिर से अपना मुकुट उतारा और उनके चरणों में रख दिया। यह देखकर भक्त जी ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया और उनके साथ चल पड़े। मार्ग में वे कंकड़ उठा-उठाकर अपने अंगोछे में बाँधने लगे। शिवाजी ने आश्चर्य से पूछा-"" ये कंकड़ आप क्यों उठा रहे हैं? इनका आप क्या करेंगे?'' भक्त गणेशदास जी ने उत्तर दिया-""ये कंकड़ मुझे भगवान का स्मरण कराते रहेंगे।''
अपने शिविर में पहुँचने पर शिवा जी ने भक्त जी के सत्कार के लिए हर प्रकार की उत्तम व्यवस्था की। शिवाजी ने सुगन्धित जल से उनके चरण धोये, फिर उन्हें एक आसन पर बिठलाया। उनके बैठते ही स्वर्ण-पात्रों में उनके सम्मुख भोजन परोस दिया गया जिसमें अनेकों प्रकार के व्यंजन थे। भक्त जी ने बड़े संकोच से थोड़ा-सा भोजन किया। तदुपरान्त शिवा जी ने उसने विनती की-""रात्रि अधिक हो चुकी है, आप विश्राम कर लें।''
यह कहकर वे उन्हें एक खेमें में ले गए, जहाँ पलंग के ऊपर मखमली गद्दे थे जिन पर फूल बिखरे हुए थे। यह देखकर भक्त जी सन्न रह गए। शिवाजी तो उनको छोड़कर बाहर आ गए, तब भक्त जी ने क्या किया कि जो कंकड़ बटोरकर वे अपने साथ लाए थे, उन कंकड़ों को पलंग पर रखकर उनपर बैठ गए और लगे रो-रोकर भगवान के चरणों में प्रार्थना करने कि हे प्रभो! आज आपने यह मुझे कहाँ फंसा दिया? हे दीनानाथ! मेरे कपटी मन में इन भोगों के प्रति कहीं न कहीं कुछ आसक्ति अवश्य रही होगी, तभी तो आप मुझे यहाँ ले आए हो। हे प्रभो! मुझे यह सब कुछ नहीं चाहिए। आपका स्मरण-ध्यान मैं पल-पल करता रहूँ, यही मेरी हार्दिक इच्छा है। इसी तरह रोते और प्रार्थना करते उनकी रात बीती। शिवाजी छिप कर रात भर यह सब कुछ देखते रहे। उनके दिल में भक्त जी के लिए अत्यधिक श्रद्धा हो गई। प्रातः होने पर शिवा जी खेमें के अन्दर गए और भक्त जी को प्रणाम करके पूछा,"" भक्त जी! रात को कोई कष्ट तो आपको नहीं हुआ। रात सुख से तो व्यतीत हुई?''
भक्त गणेशदास जी ने उत्तर दिया,""जो क्षण प्रभु के सुमिरण-ध्यान में बीते, वही क्षण सफल एवं सुखद है। आज की रात मेरी प्रभु की याद में व्यतीत हुई, इसलिए अत्यन्त सुखद रही।'' भक्त जी के ये वचन सुनकर शिवाजी के नेत्रों में जल भर आया। उन्होने भक्त जी से क्षमा माँगी और वापस उनके स्थान पर छोड़ आए।
इस घटना से भक्त गणेशदास जी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और लोग उन्हें परमभक्त मानने लगे और उनका अत्यधिक आदर-मान करने लगे। अब दूर-दूर से लोग उनके पास आने लगे जिससे उनके भजन-सुमिरण में विघ्न पड़ने लगा। भक्त जी सोचने लगे कि लोगों की अब यहाँ बहुत भीड़ इकट्ठी होने लग गई है और लोग मेरी बहुत मान-प्रतिष्ठा करने लग गए हैं जिससे नाम-सुमिरण में बड़ी बाधा पड़ने लग गई है। नाम से दूर करने वाली यह मान-प्रतिष्ठा तो पतन का कारण है। इसका शीघ्रातिशीघ्र त्याग कर देना चाहिए। परमसन्त श्री कबीर साहिब जी के वचन हैंः-
काला मुँह कर मान का, आदर लावौ आगि।
मान बड़ाई छाड़ि कै, रहौ नाम लौ लागि।।
मन में यह विचार करके भक्त जी एक दिन वन की ओर निकल गए और शेष जीवन एकान्त में रहकर प्रभु-नाम का सुमिरण करते हुए व्यतीत किया। इस प्रकार वे अपना जीवन सफल एवं सकारथ कर गए।
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