Thursday, January 7, 2016

भक्त गदाधर जी भट्ट



प्रभु भक्तों केलक्षणों का वर्णन करते हुए देवर्षि नारद जी कथन करते हैं किः-
प्रशान्तचित्ताः सर्वेषां सौम्याः कामजितेन्द्रियाः।
कर्मणा  मनसा   वाचा  परद्रोहमनिच्छवः ।।
गुणेषु  परकार्येषु  पक्षपातमुदान्विताः ।
सदाचारावदाताश्च परोत्सवनिजोत्सवाः।।
               पश्यन्तः सर्वभूतस्यं वासुदेवममत्सराः। दीनानुकम्पिनो नित्यं भृशं परहितैषिणः।।
(स्कन्द पुराण)
भक्त वस्तुतः कौन है? नारद जी कथन करते हैं कि जिनका चित्त अति शान्त है, जो सबके प्रति कोमल भाव रखते हैं, जिन्होंने कामनाओं तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो मन,वचन तथा कर्म से कभी दूसरों से द्रोह करने की इच्छा नहीं रखते, जो सद्गुणों के पक्षपाती हैं और सदा दूसरों के गुण ही देखते हैं, जो दूसरों के कार्य-साधन में प्रसन्नतापूर्वक संलग्न रहते हैं, सदाचार से जिनका जीवन सदा उज्जवल बना रहता है, जो दूसरों की खुशी को अपनी खुशी मानते हैं, सब प्राणियों के भीतर परमात्मा को विराजमान देखकर जो कभी किसी से ईष्र्या-द्वेष नहीं करते, दीनों पर दया करना जिनका स्वभाव बन गया है और जो सदा दूसरों के हित की इच्छा रखते हैं, वही वास्तविक अर्थों में सच्चे भक्त हैं।
     ऐसे ही सद्गुणों से युक्त थे भक्त गदाधर जी भट्ट। बाल्यकाल में ही उनके ह्मदय में उपरोक्त सद्गुणों का प्रवेश हो गया था और होता भी क्यों न? जिस ह्मदय में भगवान के प्रति निश्छल एवं अनन्य प्रेम हो, वहाँ पर ये शुभ गुण तो सहज स्वभाव ही निवास करने लगते हैं। विशुद्ध अनुराग के पाश में बँधकर जिनके ह्मदय-मन्दिर में सर्वगुण सम्पन्न प्रभु स्वयं निवास करें, वहाँ दुर्गुण तथा असद्वृत्तियां भला टिक ही कहाँ सकते हैं? वहाँ तो केवल शुभ गुण ही ठहर सकते हैं। भक्त गदाधर जी का भी प्रभु चरणों में अनन्य प्रेम था,अचल निष्ठा और आस्था थी और उन्होंने अपने ह्मदय-मन्दिर में अपने इष्ट्देव को विराजमान कर रखा था, अतएव उनके ह्मदय में शुभ गुणों का होना स्वाभाविक ही था।
     भक्त गदाधर जी अत्यन्त प्रतिभावान थे। भगवान के प्रेम के रंग में रंगकर वे नये-नये पदों की रचना किया करते। उनका कण्ठ भी बड़ा मधुर और सुरीला था, अतः अपने रचे हुए पद जब वे प्रेम-विभोर होकर गाते, तो सुनने वाले प्रेम की मस्ती में झूमने लगते और उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगते। अनेक लोगों ने उनके पद कण्ठस्थ कर लिए और कथा-कीर्तन आदि में गाने लगे।
     एक बार उनके गाँव के कुछ प्रेमी तीर्थ-यात्रा करते हुए वृन्दावन पहुँचे। वहाँ एक भक्त ने श्री गदाधर जी का यह पद गायाः-                   सखी! हौं स्याम रंग रंगी।
देखि  बिकाइ  गई वह  मूरति  सूरति माहिं  पगी।।
संग  हुतो  अपनौ  सपनौ-सौ सोइ  रही  रस खोइ।
जागेहूँ  आगे  दृष्टि  परै  सखि नेकु न  न्यारौ होइ।
एक जु  मेरी अंखयिन में निसिद्यास  रह्रौ करि मौन।
गाय चरावत जात सुन्यौ सखी सो धौं कन्हैया कौन।।
कासौं   कहौं  कौन  पतियावे  कौन  करै  बकवाद।
कैसे  के  कहि  जात  गदाधर  गूँगे  को गुड़ स्वाद।।
अर्थः- यह पद सखी भाव से लिखा गया है। एक सखी दूसरी सखी को सम्बोधित करते हुए कहती है कि मैं तो श्याम के रंग में पूरी तरह रंग गई हूँ। उसकी मोहिनी मूर्ति देखकर मैं बिक गई हूँ अर्थात् अपना सर्वस्व उस पर निछावर कर बैठी हूँ। अब तो मेरी सुरति उसके स्वरुप में हर समय लीन रहती है। अब वह सपनों की तरह सदा मेरे संग रहता है और मैं निद्रा में भी दर्शन का रस पीकर खोई रहती हूँ। और सखी! जब मैं जागती हूँ तब भी वह सामने ही दिखलाई देता है, मुझसे तनिक-सी देर भी विलग नहीं होता। हे सखी! एक श्याम तो वह है जो मेरी आँखों में दिन-रात विराजमान रहता है, फिर मैने जो यह सुना है कि श्याम गउएँ चराने गया है, तो वह श्याम कौन सा है? अब यह बात मैं किससे कहूँ और कौन मुझे समझाये? फिर इन व्यर्थ की बातों में पड़े कौन? गदाधर जी कहते हैं कि प्रेम का रस तो गूंगे के गुड़ जैसा है। जिस प्रकार एक गूँगा व्यक्ति गुड़ के स्वाद का अनुभव तो कर सकता है, परन्तु उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता, उसी तरह प्रभु-प्रेम के रस का भी वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके आनन्द को वे ही जानते हैं, जिन्होंने यह रस चखा है।
     यह पद श्रीजीव गोस्वामी जी ने भी सुना। सुनते ही वे भाव-विह्वल हो गये। रत्न का पारखी ही रत्न को पहचान सकता है, साधारण मनुष्य भला रत्न की पहचान क्योंकर कर सकता है? श्री जीव गोस्वामी जी ने, जो कि उच्चकोटि के सन्त थे, मन में विचार किया कि यह पद किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा विरचित नहीं है जो मात्र काल्पनिक उड़ाने भरने वाला कवि हो, अपितु यह उस व्यक्ति द्वारा विरचित है जिस पर प्रेमस्वरुपा भक्ति का रंग चढ़ा हुआ है। उन्होंने उस भक्त को बुलवाया, जिसने उपरलिखित पद गाया था और उससे श्री गदाधर जी के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त की। तदुपरान्त उन्होंने श्री गदाधर जी के नाम एक पत्र लिखा और अपने दो शिष्यों को बुलाकर उन्हें वह पत्र देते हुए तुरन्त गदाधर जी के पास जाने के लिए कहा। श्री जीव गोस्वामी जी ने गदाधर जी को सम्बोधित करके केवल इतने ही शब्द पत्र में लिखे थे-मुझे बड़ा आश्चर्य है कि बिना रंगसाज़ के ही आप पर भक्ति का रंग कैसे चढ़ गया?
     पत्र लेकर दोनों शिष्य, जो कि साधु-वेष में थे, चल पड़े। उन दिनों आज की तरह यातायात के साधन तो थे नहीं, अतः पैदल चलते हुए कई दिनों के उपरान्त सूर्यास्त के बाद उस गाँव के निकट जा पहुँचे यहाँ गदाधर जी रहते थे। गाँव से लगभग एक फरलांग की दूरी पर एक शिवालय था। उन दोनों ने यह परामर्श करके कि अब इस समय गाँव में जाकर गदाधर जी से भेंट करना ठीक नहीं, प्रातः होने पर उनसे भेंट करेंगे, रात्रि उस शिवालय में ही व्यतीत की।
     दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही वे दोनों गाँव में प्रविष्ट हुये। गदाधर जी अपने मकान के बाहर चबूतरे पर बैठे हुए दातौन कर रहे थे। दोनों उनकेनिकट जाकर बोले-जय हरि बोलो।
     गदाधर जी ने दृष्टि उठाई। साधुओं को सामने देखकर गदाधर जी का ह्मदय गद्गद हो गया। वे अपने स्थान से एकदम उठ खड़े हुए, दातौन फेंक दी और उन्हें प्रणाम करते हुए बोले-धन्य है आज का दिन जो इस दास को प्रातःकाल ही सन्तों के दर्शन हुए। अन्दर पधारिये और दास का गृह पवित्र कीजिए।
     साधुओं ने कहा-इस समय हमें शीघ्रातिशीघ्र भक्त गदाधर जी से मिलना है, अतः इस समय आप हमें मत रोकिये। बस! इतना बतला दीजिये कि भक्त गदाधर जी का मकान कौन सा है? यह सुनकर कि ये साधु उन्हीं के पास आये हैं, भक्त गदाधर जी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा-आज मेरे बड़े अहोभाग्य हैं। आईये! अन्दर कृपा कीजिए। आप लोग कहाँ से आ रहे हैं?
     साधु बोले-हम लोग श्री जीव गोस्वामी जी के शिष्य हैं और वृन्दावन से आ रहे हैं।
     वृन्दावन का शब्द कानों में पड़ते ही भक्त गदाधर जी अपनी सुधबुध भूल गये। शरीर संज्ञाहीन हो गया और नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। कुछ क्षण तो उनकी यह स्थिति बनी रही, तदुपरांत वे मूÐच्छत होकर गिर पड़े। साधुओं ने तत्काल उन्हें सँभाला। तब तक गाँव के कुछ लोग भी वहाँ पहुँच गए थे। साधुओं ने जब गाँववालों को सारी बात बतलाई तो उन्होंने कहा-जिन भक्त गदाधर जी से आप मिलना चाहते हैं, वे तो यही हैं।
     यह सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने भक्त गदाधर जी के मुख पर जल के छींटे मारे और उनके कान में उच्च स्वर से कहा-हम वृन्दावन से श्री जीव गोस्वामी जी का आपके नाम पत्र लाए हैं। उठिये और अपना पत्र संभालिये। इन शब्दों ने जादू का सा काम किया। पत्र का शब्द कानों में पड़ते ही भक्त गदाधर जी ऐसे उठ बैठे मानों उनके प्राण इस पत्र की ही प्रतीक्षा कर रहे हों। उठते ही वे बोले-कहाँ है पत्र?
     साधुओं ने पत्र उनके हाथ में थमा दिया। उन्होंने पत्र पहले अपने मस्तक से, फिर नेत्रों से और फिर ह्मदय से लगाया। तत्पश्चात् पत्र को खोल कर पढ़ा। एक बार नहीं, दो बार नहीं, वे उसे बार-बार पढ़ते रहे और प्रेमाश्रु बहाते रहे। उनके प्रेम-भक्त से भरपूर ऐसी उच्चकोटि की भावना देखकर साधुओं का ह्मदय भर आया। वे उनके प्रेम की भूरि भूरि प्रसंसा करने लगे। उन के नेत्रों से भी प्रेमाश्रु प्रवाहित होने लगे। कुछ देर तक यही स्थिति बनी रही। अन्ततः लोगों के चिताने पर तीनों को चेत हुआ। भक्त गदाधर जी साधुओं को घर के अन्दर ले गए और उनका यथायोग्य आदर-सत्कार किया। भक्त जी के माता-पिता परलोक सिधार चुके थे, भाई-बहन कोई था नहीं और विवाह के सम्बन्ध में वे अभी तक फँसे न थे, अतएव उन्होंने अपना सर्वस्व दीन-दुखियों को बांट दिया और स्वयं उन साधुओं के साथ वृन्दावन की ओर चल दिये।
     वृन्दावन पहुँचकर वे श्री जीव गोस्वामी जी के चरणों में उपस्थित हुए और उनके शिष्य हो गए। प्रभु-भक्ति का रंग तो उनपर पहले से चढ़ा ही हुआ था परन्तु वह रंग कच्चा था। अब श्री जीव गोस्वामी जी जैसे असाधारण और उच्चकोटि के रंगसाज के मिल जाने यह रंग पक्का और गाढ़ा हो गया और उसमें निखार भी आ गया। एक बात जो ऊपर के प्रसंग से स्पष्ट होती है और जो पाठको को समझ लेनी ज़रुरी है, वह यह है कि बिना सतगुरु की कृपा के भक्ति का गूढ़ा रंग नहीं चढ़ता। इसीलिए सभी सन्तों महापुरुषों ने सद्गुरु की महिमा मुक्त कंठ से गायन की है। परमसन्त श्री कबीर साहिब जी के वचन हैंः-
।।शबद।।
    सतगुरु हैं रंगरेज़, चुनर  मोरी  रंगि डारी।।टेक।।
स्याही  रंग  छुड़ाइ  के रे , दियो मजीठा रंग।
 धोये से छूटै नहीं रे, दिन दिन होत सुरंग।।1।।
भाव के कुँड नेह के जल में, प्रेम रंग दइ बोर।
     चसकी चास लगाइ के रे, खूब रंगी झकझोर।।2।।
सतगुरु ने चुनरी रंगी रे, सतगुरु चतुर सुजान।
         सब कुछ उन पर वार दूँ रे, तन मन धन औ प्रान।।3।।
कहै कबीर रंगरेज़ गुरु रे, मुझ पर हुए दयाल।
       सीतल चुनरी ओढ़ि के रे, भइ हौं भकत निहाल।।4।।
     भक्त गदाधर जी स्थायीरुप से वृन्दावन में ही रहने लगे। भक्त गदाधर जी के पद प्रेमियों को अब उन्हीं के मुख से नित्य प्रति सुनने को मिलने लगे। उन्होंेंने नये-नये पदों की रचना की। शनैः शनैः उनकी ख्याति आसपास के क्षेत्रों में भी फैल गई। भगवत्प्रेमी उनके भजनों को सुनने के लिए लालायित रहते। भावपूर्ण ह्मदय, लोगों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करने वाला मधुर कंठ, फिर भी लेशमात्र अहंकार नहीं था उनमें। विनम्रता, दीनता, दया, प्रेम, सद्भाव, सदाचार आदि सभी शुभ गुणों से सम्पन्न थे वे, अतएव जो भी उनके
सम्पर्क में आता, प्रभावित हुए बिना न रहता। साक्षीस्वरुप कुछ प्रमाण यहाँ दिये जाते हैैं।
     उनके प्रेमी श्रोताओं और श्रद्धालु थे-कल्याण सिंह राजपूत, जो वृन्दावन से कुछ ही दूरी पर स्थित धौरहरा ग्राम के निवासी थे। भक्त गदाधर जी भट्ट की निरन्तर संगति से उनपर भी भक्ति-प्रेम का रंग चढ़ने लगा। और यह तो सुनिश्चित ही है कि परमात्मा की प्रेम-स्वरुपा भक्ति का अमिय रस जब मनुष्य पान करने लगता है, तब संसार के विषयरस उसे सारहीन और निरस प्रतीत होने लगते हैं। फिर विषयरस उसे लुभा नहीं सकते; जैसा कि श्री रामायण में कथन हैः-
राम चरण पंकज प्रिय जिनहीं। विषयभोग वस करहिं कि तिनहीं।।
अर्थः-जिनको श्री प्रभु के चरणकमल प्यारे हैं अर्थात् जिनकी भगवान के चरणों में प्रीति है, उन्हें क्या विषयभोग वश में कर सकते हैं? कदापि नहीं।
     कल्याणसिंह जी को भी विषयों से विरक्ति हो गई। वे गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए भी संयमी जीवन व्यतीत करने लगे। किन्तु उनकी पत्नी सांसारिक विचारों की एक सामान्य स्त्री थी। उसकी विषयों के प्रति आसक्ति बनी हुई थी, अतः पति की अपने प्रति उदासीनता उसे अच्छी न लगी। इसका कारण गदाधर जी को जानकर वह उनसे द्वेष करने लगी। किसी विषयी मनुष्य की इच्छापूर्ति में जब विघ्न पड़ता है, तो स्वाभाविक ही उसमें क्रोध की उत्पत्ति हो जाती है जिससे उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है, जिसका परिणाम यह होता है कि उचित-अनुचित का उसे कुछ ज्ञान नहीं रहता और वह अनुचित कर्म करने पर भी उतारू हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी इस विषय में फरमाते हैंः-
ध्यायतो  विषयान्   पुँसः  संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
           स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 2/62-63
अर्थः-विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् विवेक शक्ति का नाश हो जाता है और विवेक शक्ति का नाश हो जाने से मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है।
     भगवान ने कामवासना अथवा विषयवासना को मनुष्य का सबसे महान् शत्रु बतलाया है, क्योंकि इसके अधीन होकर मनुष्य पापकर्मों की ओर प्रवृत हो जाता है। कल्याणसिंह की पत्नी केसाथ भी यही हुआ। काम-वासना के अधीन होकर वह भी विवेक-शून्य हो गई और अनुचित कर्म करने को तत्पर हो गई। उसने मन ही मन विचार किया कि यदि गदाधर जी को किसी प्रकार कलंकित किया जा सके, तो फिर मेरे पति को न केवल उनमें, प्रत्युत सभी सन्तों-भक्तो में अश्रद्धा हो जाएगी, परिणामस्वरुप वे फिर से गृहस्थी मेें अनुरक्त हो जायेंगे। उसने एक भिखारिन को, जिसका लगभग डेढ़ वर्ष का एक बच्चा था, रुपयों का प्रलोभन दिया और उसे सिखा पढ़ाकर उस समय वहाँ भेजा जबकि भक्त गदाधर जी भगवान की लीलायें सुना रहे थे और भगवत्प्रेमी तन्मयता से भगवद्-लीलामृत का पान कर रहे थे। भिखारिन ने वहाँ पहुँचते ही पहले तो ज़ोर-ज़ोर से रोना आरम्भ कर दिया, फिर गदाधर जी पर लांछन लगाते हुए कहने लगी-आप तो यहँा मज़े उड़ा रहे हैं और मैं इस बच्चे को उठाये जगह-जगह भटकती फिरती हूँ। कम से कम मेरे रहने तथा भोजनादि की व्यवस्था तो कर दीजिये। इस बच्चे को लेकर मैं कहाँ-कहाँ भटकती फिरूँ?
     भक्त गदाधर जी को वृन्दावन में रहते हुए लगभग छः वर्ष हो गए थे और सभी वृन्दावन-निवासी उनके
सदाचारमय जीवन से भलीभाँति परिचित थे। भिखारिन की बात पर फिर वे कैसे विश्वास कर लेते? वे सभी क्रोधित होकर भिखारिन को मारने के लिए तत्पर हो गए। भक्त गदाधर जी ने उन्हें ऐसा करने से रोका। तत्पश्चात् उन्होंने उस भिखारिन को सम्बोधित कर अत्यन्त स्नेहपूर्वक कहा-अच्छा हुआ तुम यहाँ चली आर्इं। चिंता क्यों करती हो? निवास आदि का प्रबन्ध भी भगवान की कृपा से हो जायेगा। बैठोे, भगवान की लीलायें श्रवण करो।
     कल्याणसिंह जी तथा अन्य प्रेमी समझ गये कि गदाधर जी दयावश ही ऐसा कह रहे हैैं, क्योंकि वे उनके स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने उस स्त्री को एक ओर ले जाकर जब थोड़ा भय दिखाया, तो उसने सब कुछ सच-सच बतला दिया और गदाधर जी के चरणों पर गिर पड़ी। गदाधर जी ने प्रेमी श्रोताओं से कहा-इस बेचारी का इसमें कोई दोष नहीं है। दरिद्रता ने ही इसे ऐसा करने पर विवश किया है, अतः आप लोग मिलजुल कर इसके आवास आदि का प्रबन्ध कर देें।
     उनके सद्व्यवहार से उस स्त्री का ह्मदय ही बदल गया। उसने अश्रुपात करते हुए गदाधर जी से बार-बार क्षमा माँगी। गदाधर जी ने न केवल क्षमा ही कर दिया। अपितु उसके रहने और भोजन आदि का भी प्रेमियों के द्वारा प्रबन्ध करवा दिया। उस स्त्री ने अपना शेष जीवन भगवान् के चरणों में समर्पित कर दिया और अपना एक-एक पल भजन-सुमिरण में लगाया।
     इधर भिखारिन के मुख से अपनी पत्नी का नाम सुनकर कल्याण सिंह क्रोध से तिलमिला उठे। गदाधर जी ने समझा-बुझाकर उन्हें शान्त किया। भेद खुल जाने पर कल्याणसिंह की पत्नी भी गदाधर जी के चरणों में आ गिरी और अपने कुकृत्य के लिए क्षमायाचना करने लगी। गदाधर जी ने उसे क्षमा कर दिया। वह भी उस दिन से भगवद्भक्ति में लग गई।
       दूसरी घटना इस प्रकार है। एक बार रात्रि के समय एक चोर चोरी करने के विचार से उनकी कुटिया में घुसा। चोर को देखकर गदाधर जी ने जानबूझ कर चादर ओढ़ ली और चुपचाप पड़े रहे। चोर ने एक चादर बिछाई और सब सामान उस पर रखकर गठरी बाँधी। जब वह गठरी उठाने लगा तो भारी होने के कारण उससे गठरी न उठी। गदाधर जी लेटे-लेटे सब कुछ देख रहे थे। वे शीघ्रता से उठे और गठरी में हाथ लगाकर उसे उठवाने लगे। चोर गठरी छोड़कर भागने लगा। गदाधर जी ने उसे पकड़ते हुए कहा-मुझे तो यह सब सामान फिर मिल जायेगा, परन्तु तुम क्या करोगे? तुम्हारी तो आजीविका ही यही है। फिर क्या अब दूसरे घर में चोरी करने जाओगे। मैं इस बारे में किसी के नहीं बतलाऊँगा, तुम किसी प्रकार का भय मत करो।
     चोर फूट-फूट कर रोने लगा और उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। क्षमा तो मिली ही, साथ में भगवान की भक्ति का आशीर्वाद भी मिला। गदाधर जी की थोड़ी देर की संगति ने चोर की कायापलट कर दी। वह चोरी छोड़कर भगवान का भक्त बन गया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य ही लिखा हैः-
।।चौपाई।।
शठ सुधरहिं सत्संगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई।।
हमें भी चाहिये कि भक्त गदाधर जी के जीवन से शिक्षा ग्रहण करें और उन्हीं की तरह प्रेम, भक्ति, करुणा, दया, विनम्रता, विनयशीलता,क्षमा, अक्रोध आदि सद्गुणों को अपने ह्मदय में धारण करें तथा भक्ति-पथ पर अग्रसर होकर अपना भी कल्याण करें तथा दूसरों को भी भक्ति पथ पर लगाने का प्रयत्न करें।

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