उन्नीसवीं शताब्दी में जब कि भारत अनेकों छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था, मध्य भारत में पन्ना भी एक अलग राज्य था। पन्ना नगर ही इसकी राजधानी थी। इसी पन्ना नगर से लगभग पांच कोस दूर एक गाँव है बरायछ, इसी ग्राम में भक्त हिम्मतदास जी का जन्म हुआ था। जिस परिवार में इनका जन्म हुआ, वह कई पुश्तों से भगवद्भक्त एवं साधु-सेवी चला आ रहा था। इनके माता-पिता बड़े ही भगवद्भक्त एवं साधु-सेवी थे। साधु-सेवी होने के कारण साधु-सन्तों का इस घर में हमेशा आना-जाना बना रहता था। सन्तों का सत्संग, जो जीव के लिए परम मंगलकारी कहा गया है, बाल्यकाल से ही इनको हरिचर्चा, प्रेमी-भक्तों की कथायें सुनने तथा कीर्तन का विशेष लाभ मिला। साधु-सेवा का भी अलभ्य लाभ प्राप्त हुआ भगवद्भक्तों के घर में जन्म मिल जाना बड़े ही सौभाग्य की निशानी होती है। हिम्मतदास जी घर में आने वाले साधु-सन्तों की वे बड़ी ही श्रद्धा तथा लगन से सेवा करते और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते, परिणामस्वरुप उनके ह्मदय में भक्ति दिन प्रतिदिन दृढ़ से दृढ़तर होती गई।
इसी वातावरण में पलते हुए भक्त हिम्मतदास जी ने धीरे-धीरे युवावस्था में प्रवेश किया। युवावस्था में पदार्पण करने पर इनके माता-पिता ने इनका विवाह कर दिया। इनकी धर्मपत्नी "सुशीला' भी अत्यन्त भक्ति-भाव सम्पन्न, साधु-सेवी तथा स्वभाव से अत्यन्त सुशील थी। फल यह हुआ कि दोनों पर भक्ति का रंग दिन प्रतिदिन गहरा होने लगा। दोनों ही अपना अधिकतर समय भगवान के सुमिरण, साधु-सेवा और सत्संग में व्यतीत करते। एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम इन्होंने दयाराम रखा। दयाराम पर भी माता-पिता के भक्तिपूर्ण विचारों का बड़ा प्रभाव पड़ा और उसने भी प्रभु-भक्ति का मार्ग अपना कर अपना जन्म सफल किया।
भक्त हिम्मतदास जी को प्रभु के गुणों का बखान करते हुए कीर्तन करने में विशेष आनन्द आता था। झांझ बजाते हुए कीर्तन करते करते वे भाव-विह्वल हो जाया करते थे। पन्ना नगर में एक बड़ा प्रसिद्ध एवं प्राचीन मन्दिर है जो "श्री युगल किशोर' जी के मन्दिर के नाम से विख्यात है। उन दिनों वहाँ के पुजारी थे-महन्त गोबिन्द जी दीक्षित। वे भी बड़े भक्ति-भावसम्पन्न थे। भक्त हिम्मतदास जी का यह नियम था कि वे नित्यप्रति सायंकाल झांझ बजाते और कीर्तन करते हुए बरायछ से पन्ना श्री युगल किशोर जी के दर्शन के लिए जाया करते थे। उन दिनों बरायछ और पन्ना के बीच में एक जंगल पड़ता था। एक दिन जब वे कीर्तन करते और झांझ बजाते हुए पन्ना जा रहे थे, तब जंगल में उन्हें लुटेरों ने घेर लिया। एक लुटेरे ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा-बाबा, शोर मत मचाओ। चुपचाप रुक जाओ और जो कुछ तुम्हारे पास हो, सब कुछ हमारे हवाले कर दो।
परन्तु हिम्मतदास जी तो अपनी मस्ती में मस्त थे। उन्हें लुटेरों की आवाज़ भला क्या सुनाई देती। वे तो उसी तरह कीर्तन करते आगे बढ़ते जा रहे थे। यह देखकर लुटोरों को क्रोध आ गया। एक लुटेरे ने आगे बढ़कर उनकी झांझ छीन ली। इससे उनके कीर्तन में विघ्न पड़ा। उन्होने सचेत होने पर देखा कि कुछ लोग लाठियां आदि लिए उनके आस-पास खड़े हैं। भक्त हिम्मतदास जी ने उनसे पूछा-आप लोग कौन हैं और मुझसे क्या चाहते हैं?
एक लुटरे ने कहा-हमें नहीं पहचानता? हम लुटेरे हैं। यदि कुशल चाहते हो, तो जो कुछ भी तुम्हारे पास हो, चुपचाप हमारे हवाले कर दो। भक्त हिम्मतदास जी बोले-भाई। मेरे पास तो बस यह झांझ ही है। इनको बजाकर मैं प्रभु के गुण गाता हूँ। इसके अतिरिक्त तो मेरे पास कुछ भी नहीं है। एक लुटेरे ने उनकी तलाशी ली। जब कुछ न मिला, तो उस लुटेरे ने अपने साथियों से कहा-चलो यहाँ से, कोई और शिकार खोजें।
झांझ छिन जाने से कीर्तन में बाधा पड़ी जिससे भक्त जी को दुःख तो बहुत हुआ, परन्तु फिर वे इसको भी प्रभु की मौज समझकर पन्ना की तरफ चल दिए। अभी वे कुछ पग ही चले थे कि उन्हें लुटेरों की आवाज़ सुनाई दी। चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें बुला रहे थे। हुआ यह कि जब लुटेरे झांझ छीनकर चले तो कुछ पग चलने पर उन्हें दिखाई देना बन्द हो गया। एक लुटेरे ने दूसरे लुटेरे से कहा कि मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, दूसरे ने भी यही बात कही, फिर तीसरे ने भी। सबने जान लिया कि हम सभी अन्धे हो गये हैं। एक लुटेरा कहने लगा- उन्हीं बाबा जी को आवाज़ दो, जिनकी हमने झांझ छीनी है। वे कोई करनी वाले बाबा लगते हैं। उसकी यह बात सबको सही लगी और सभी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे-ओ बाबा! हमें दिखाई देना बन्द हो गया है। हम पर दया करो। ये अपनी झांझ ले लो और हमारी आँखें अच्छी कर दो।
झांझ छिन जाने का भक्त हिम्मतदास जी को बहुत दुःख था, परन्तु अब उन्होने जब लुटेरों की यह बात सुनी कि अपनी झांझ वापस ले लो, तो वे भागे-भागे लुटेरों के पास जा पहुँचे। लुटेरों ने उन्हें झांझ वापस देते हुए कहा-लो बाबा! झांझ पकड़ लो। हम लोगों से बड़ी भूल हुई जो हमने तुम्हारी झांझ छीन ली। हम लोगों को दिखाई देना बन्द हो गया है। लगता है बाबा कि तुमने हम लोगों को शाप दे दिया है। हमें क्षमा करो बाबा। अपनी झांझ वापस ले लो और कृपा करके हमारी आँखें अच्छी कर दो।
भक्त जी ने झांझ वापस लेते हुए कहा-भैया! मैने न तो तुम लोगों को शाप दिया है और न ही मैं कोई जादू टोना जानता हूँ जिससे तुम लोगों की यह दशा हुई है। हाँ! एक बात अवश्य है कि मैने ऐसा सुना है कि प्रभु अपने प्रति किया गया अपराध तो क्षमा कर देते हैं, परन्तु अपने भक्त के प्रति किया गया अपराध क्षमा नहीं करते जैसा कि श्री रामचरितमानस में वर्णन हैः-
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।
जो अपराध भगत कर करई । राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।
अर्थः-""देवताओं के गुरु बृहस्पति जी देवराज इन्द्र के प्रति कथन करते हैं कि हे इन्द्र! भगवान का स्वभाव सुनो। वे अपने प्रति किए हुए अपराध से तो कभी रुष्ट नहीं होते, परन्तु जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह भगवान की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद-दोनों में यह इतिहास प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासा जी भलीभाँति जानते हैं।''
यह कहकर भक्त जी कुछ पल उनकी ओर देखते रहे, फिर बोले-तुम लोगों ने दुर्वासा जी और भक्त अम्बरीष की यह कथा सुनी है? लुटेरों ने कहा-नहीं बाबा! हमने तो यह कथा नहीं सुनी। भक्त हिम्मतदास जी ने कहा- तो सुनो।
भक्तराज अम्बरीष
जिनका भगवान के चरणों में अटूट और अविचल प्रेम है, जो हर समय उनके सुमिरण-ध्यान में संलग्न रहते हैं तथा जो भगवान को ही अपना परम आश्रय, परमगति और प्रेमास्पद मानते हैं, भगवान उनकी रक्षा का भार अपने ज़िम्मे ले लेते हैं। इस बात की पुष्टि करते हुये भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज अर्जुन के प्रति कथन करते हैं किः-
अनन्य भक्त प्रेमी जो केवल , मेरे आश्रय रहते हैं ।
निष्काम भाव से नित्य निरन्तर, सदा ही मुझे सुमिरते हैं।
ऐसे अनन्य प्रेमी भक्तों का , ध्यान सदा मैं रखता हूँ।
उनकी रक्षा और सहायता अर्र्जुन स्वयं मैं करता हूँ।।
अर्थः-जो अनन्य प्रेमी मुझ परमेश्वर को नित्य-निरन्तर स्मरण करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण-भजन करने वाले प्रेमी भक्तों की सहायता और रक्षा का दायित्व मैं स्वयं वहन करता हूँ। ऐसे ही वचन श्रीरामायण में भगवान श्रीरामचन्द्र जी महाराज ने भी नारद जी के प्रति फरमाये हैंः-
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी । जिमि बालक राखइ महतारी।।
अर्थः-हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हे सत्य संकल्प कर कहता हूँ कि जो सकल आश्रय और भरोसे छोड़कर मेरा भजन-सुमिरण करते हैं, मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ जैसे माता बालक की रक्षा करती है।
भगवान किस प्रकार अपने प्रेमी भक्तों की रक्षा करते हैं, इस विषय में सद्ग्रन्थों में अनेकों कथायें भरी पड़ी हैं। प्रमाण-स्वरुप यहां हम भक्त अम्बरीष की कथा दे रहे हैं, जिसका वर्णन सन्त पलटूदास जी ने अपनी वाणी में भी किया हैः-
।।कुण्डलिया।।
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय।
जन की सही न जाय दुर्वासा की क्या गत कीन्हा।।
भुवन चतुर्दश फिरै सभै दरियाय जो दीन्हा।
पाहि पाहि करि परै जबै हरि चरनन जाई।
तब हरि दीन्ह जवाब मोर बस नाहिं गुसार्इं।।
मोर द्रोह करि बचै करौं जन द्रोहक नासा।
माफ करै अंबरीक बचौगे तब दुर्वासा ।।
पलटू द्रोही सन्त कर तिन्है सुदर्सन खाय।
हरि अपनो अपमान सह जन की सही न जाय।।
अर्थः-यदि कोई भगवान का अनादर करे तो वे अपना अनादर तो सहन कर लेते हैं, परन्तु अपने भक्तों का अनादर कभी सहन नहीं करते। प्रमाण देते हैं कि ऋषि दुर्वासा ने जब भक्त अम्बरीष पर क्रोध किया तो भगवान ने दुर्वासा की क्या दशा की? दुर्वासा जी चौदह भुवनों में घूमते फिरे, परन्तु जहां-जहां भी वे गये, सभी ने उन्हें दूसरा द्वार दिखा दिया। अन्ततः पाहि-पाहि (अर्थात् रक्षा करो-रक्षा करो) कहते हुये जब वे भगवान के चरणों में जाकर गिरे, तब भगवान ने उन्हें उत्तर दिया कि हे मुनि जी! इस विषय में मैं कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि मेरा यह प्रण है कि मैं अपने द्रोही को तो क्षमा कर सकता हूँ, परन्तु जो मेरे भक्त के साथ द्रोह करता है, उसको मैं क्षमा नहीं करता। हाँ! यदि भक्त अम्बरीष आपको क्षमा कर दें तो आप बच सकते हैं, अन्यथा नहीं। सन्त पलटूदास जी कथन करते हैं कि जो भगवान के प्यारे का अनादर करता है, उसे सुदर्शन चक्र नष्ट कर देता है।
राजर्षि अम्बरीष मनु के प्रपौत्र और नाभाग के पुत्र थे। पृथ्वी के सातों द्वीपों पर उनका एकछत्र राज्य था; फलस्वरुप वे अतुल सम्पत्ति और ऐश्वर्य के स्वामी थे। संसार की ऐसी कोई वस्तु न थी जो उन्हें उपलब्ध न हो। किन्तु हर प्रकार के भोगैश्वर्य तथा धन-वैभव प्राप्त होते हुये भी वे उन्हें नगण्य समझते हुए मिट्टी के ढेले से अधिक महत्त्व नहीं देते थे और उनसे उपराम रहते हुए सदा वैराग्यपूर्ण और अभिमान रहित जीवन व्यतीत करते थे, क्योंकि वे यह बात भलीभाँति जानते थे कि धन-वैभव तथा भोगैश्वर्य आदि असत्, मिथ्या, नाशवान और अविश्सनीय हैं, सत्य तो केवल परमात्मा का नाम है।
यदि कोई मनुष्य निर्बल और कमज़ोर होते हुये किसी को क्षमा करे तो उसे वास्तव में क्षमावन्त नहीं कहा
जा सकता। क्षमावन्त तो वास्तव में वह है जो बलवान और शक्तिशाली होते हुये भी दूसरे को क्षमा करता है। ठीक इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास न धन-सम्पदा है और न रहने का ठिकाना, ऐसा दरिद्र व्यक्ति यदि त्यागी और वैरागी होने की बात कहे, तो उसे किसी भी दशा में वैरागी नहीं कहा जा सकता। त्यागीऔर वैरागी तो वास्तव में वह है जो धन-वैभव, पद-प्रतिष्ठा तथा सब प्रकार के ऐश्वर्य भोग उपलब्ध होते हुये भी उन्हें असत् एवं अनित्य जानकर उन्हें तृणवत् समझे और ऐसा समझ कर वह उनमें प्रवृत्त न हो। भक्त अम्बरीष वास्तविक अर्थों में वैराग्यवान थे। क्योंकि हर प्रकार के सुख वैभव उपलब्ध होने पर भी वे उनसे उपराम रहते हुए सर्वदा भगवान की भक्ति और सन्तों सत्पुरुषों की पावन संगति में प्रवृत्त रहते थे। उन्होंने अपने मन को भगवान के श्री पावन चरण-कमलों में, वाणी को भगवान की गुण-स्तुति गायन करने में, हाथों को भगवान की सेवा-पूजा में, कानों को भगवान की मंगलमय लीलाओं तथा सत्संग के श्रवण करने में, नेत्रों को भगवान तथा सन्तों के दर्शन करने में, नासिका को भगवान के चरणकमलों में अर्पित पुष्पों की सुगन्धि लेने में, रसना को प्रभु-प्रसाद का रस लेने में और पाँवों को तीर्थ-स्थलियों के दर्शन करने में संलग्न रहकर वे अपना प्रत्येक अंग सफल कर रहे थे। वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य-शरीर की सफलता भी तभी है जब शरीर का प्रत्येक अंग भगवान की सेवा-भक्ति में तल्लीन रहे। जो अँग भगवान की सेवा भक्ति में तल्लीन नहीं, वह किस काम का? उसका तो होना न होना एक बराबर है। श्री रामायण में भगवान शिवजी पार्वती जी के प्रति फरमाते हैंः-
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवण रंध्र अहि-भवन समाना।।
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोर पंख कर लेखा।।
ते सिर कटु तुँबरि सम तूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला।।
जिन्ह हरि भगति ह्मदय नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी।।
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना।।
कुलिस कठोर निठर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती।।
अर्थः-जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र सांप के बिल के समान हैं। जिन्होने अपने नेत्रों से सन्तों के दर्शन नहीं किये, उनके वे नेत्र मोर के पँखों पर दीखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के सदृश हैं, जो भगवान तथा गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते। जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने ह्मदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुये भी मुर्दे के समान हैं। जो जीभ भगवान के गुणों का गान नहीं करती, वह मेढक की जीभ के समान है। वह ह्मदय वज्र के समान कठोर और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता।
भक्त अम्बरीष भगवान की सेवा, पूजा और भक्ति में तत्पर रह कर अपना प्रत्येक अंग सफल कर रहे थे। जहां आम संसारी मनुष्य की सभी चेष्टायें धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य-भोगों के लिये ही होती है, वहां भक्त अम्बरीष की सभी चेष्टायें भगवान की सेवा-भक्ति हेतु ही थीं। वे मन-वचन और कर्म से हर समय भगवान की सेवा-भक्ति में तल्लीन रहते थे। यद्यपि राजा होने के कारण राज्य का कार्यभार उन्हीं के कन्धों पर था, परन्तु इस कत्र्तव्य को करते हुये भी वे कमल के पत्ते की तरह उससे सर्वथा निर्लिप्त रहते थे।
भक्त अम्बरीष ने अनेकों यज्ञ किये और मुक्तहस्त से दान-पुण्य किया। वास्तविकता तो यह है कि उनका सम्पूर्ण जीवन ही यज्ञमय था, क्योंकि उनका प्रत्येक कर्म भगवान की प्रेमस्वरुपा भक्ति से ओतप्रोत था। वह जो कुछ भी करते थे भगवान की सेवा समझकर निष्कामभाव से करते थे। उनके ह्मदय में एकमात्र भगवान का ही निवास था। कुटुम्ब-परिवार तथा धन-सम्पत्ति आदि में उनकी तनिक भी आसक्ति न थी। भक्त अम्बरीष जी की अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया, जो
विरोधियों को भयभीत करने वाला तथा भगवद्भक्तों की रक्षा करने वाला है।
भक्त अम्बरीष की तरह ही उनकी पत्नी भी पूर्ण वैराग्यवान धर्मशील और भक्तिमति थी। एक बार भक्त अम्बरीष ने अपनी अद्र्धांगिनी सहित एक वर्ष तक एकादशी व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर उन्होंने तीन दिन का उपवास किया, फिर नदी में स्नान कर भगवान की विधिवत् पूजा-आराधना की, तत्पश्चात् ऋषियों, मुनियों तथा ब्रााहृणों को भोजन कराकर मुक्तहस्त से दान-पुण्य किया। इन शुभ कार्यों से निवृत्त होकर राजा अम्बरीष ने उनसे व्रत खोलने की आज्ञा ली। वे पारण (किसी व्रत अथवा उपवास के बाद का पहला भोजन) करने जा रहे थे कि उसी समय महर्षि दुर्वासा शिष्यों सहित अतिथि रुप में उनके यहां पधारे। राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही तत्काल उठ खड़े हुये, दण्डवत् प्रणाम कर उनका यथायोग्य स्वागत किया, उन्हें उच्च आसन पर विराजमान कराया तथा विधिवत् उनकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्होने भोजन के लिये उनके चरणों में विनय की। महर्षि दुर्वासा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये कहा-हम स्नानादि से निवृत्त होकर आते हैं, तब तक आप तैयारी करें। यह कहकर वे शिष्यों सहित नदी पर स्नान करने चले गये। और बहुत देर तक न लौटे। इधर पारण का समय बीता जा रहा था। समय रहते पारण न करने से व्रत भंग हो जाता, अतः महर्षि दुर्वासा के आने में देर होते देखकर भक्त अम्बरीष ने उपस्थित ऋषियों, मुनियों तथा ब्रााहृणों से निवेदन किया-अतिथि को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और समय से स्वयं पारण न करना-दोनों ही दोष हैं। इसलिए इस समय जैसा करने में मेरी भलाई हो, वैसा परामर्श मुझे दीजिए।
सभी ने परामर्श कर भक्त अम्बरीष से कहा-आप केवल जल से पारण कर लें। इससे आप का व्रत भी पूरा हो जायेगा तथा अतिथि को भोजन कराए बिना पारण करने का दोष भी नहीं लगेगा। उनकी सम्मति अनुसार भक्त अम्बरीष ने मन ही मन भगवान का सुमिरण-ध्यान करते हुए जल ग्रहण किया और महर्षि दुर्वासा के आने की प्रतीक्षा करने लगे। काफी देर बाद जब महर्षि दुर्वासा वापस लौटे तो राजा अम्बरीष ने आगे बढ़कर उनका अभिवादन किया। महर्षि दुर्वासा ने तपोबल से यह जान लिया कि राजा ने पारण कर लिया है, अतः वे क्रोध से भर उठे और सबके समक्ष उन्हें खोटी-खरी सुनाते हुए बोले-देखो! यह कैसा अभिमानी है। यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भक्ति का तो इसे पता ही नहीं, परन्तु आडम्बर इतना करता है मानो इस जैसा संसार में कोई भक्त है ही नहीं। मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ, इसने भोजन के लिए मुझे निमंत्रण भी दिया, परन्तु फिर भी बिना मुझे खिलाये स्वयं भोजन कर लिया। इस प्रकार इसने आज धर्म का उल्लंघन किया है। मैं अभी इसे इसका फल चखाता हूँ। ये कहते-कहते क्रोध से महर्षि दुर्वासा का मुख लाल हो गया। क्रोधावेश में उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे एक कृत्या उत्पन्न की। कृत्या एक प्रकार की शक्ति होती है जो अभिचार द्वारा किसी को मारने के लिये उत्पन्न की जाती है। वह कृत्या प्रलयकाल की अग्नि के समान दहक रही थी। वह हाथ में तलवार लेकर अम्बरीष को मारने के लिये बढ़ी। वह इतनी भयंकर थी कि उसके पैरों की धमक से पृथ्वी कांपने लगी। उस भयानक कृत्या को भक्त अम्बरीष की ओर बढ़ते देखकर वहां उपस्थित सभी लोग भय से थर्र-थर्र कांपने लगे, परन्तु भक्त अम्बरीष तनिक भी भयभीत न हुए। और होते भी क्यों? जिन्होंने अपना जीवन ही भगवान के चरणों में समर्पित कर रखा हो, उनके सामने यदि स्वयं काल भी आ खड़ा हो, तो भी वे भयभीत नहीं होते,क्योंकि उन्होंने अपने ह्मदय में यह भावना दृढ़ कर रखी होती है किः-
।।कुण्डलियां।।
मोर राम मैं राम का ता से रहौं निसंक।
ता से रहौं निसंक तनिक मोर बार न बांकै।।
जो कोइ मानै बैर हारि के आपुई थाकै।
दोऊ विधि से राम भार उनके सिर दीन्हा।
मो पर परै जो गाढ़ राम आपुइ पर लीन्हा।।
राम भरोसा पाय डरौ काहू से नाहीं ।
सम्मुख आवै मौत न राखूँ भय मन माहीं।।
पलटू सब के राम हैं क्या राजा क्या रंक।
मोर राम मैं राम का ता से रहौं निसंक।।
भगवान ने तो अपने प्रेमी भक्त की रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को पहले से ही नियुक्त कर रखा था। उसने जब कृत्या को भक्त अम्बरीष की ओेर बढ़ते देखा तो उसने तुरन्त जवाबी कार्यवाही की। जैसे क्रोध से फुफकारते हुये सर्प को अग्नि भस्म कर देती है, उसी प्रकार सुदर्शन चक्र ने महर्षि दुर्वासा की कृत्या को एक पल में जलाकर राख का ढेर कर दिया। कृत्या को जलाकर भी सुदर्शन चक्र शान्त नहीं हुआ। उसके बाद वह तेज़ी से कृत्या के रुाष्टा महर्षि दुर्वासा जी की ओर बढ़ा। सुदर्शन चक्र को अपनी ओर आते देखकर दुर्वासा जी के होश उड़ गये और वो अपने प्राण बचाने के लिये वहां से भागने लगे। चक्र भी उनके पीछे-पीछे चला। दुर्वासा जी सभी दिशाओं में भागे-भागे फिरे, वे आकाश, पाताल, समुद्र तथा स्वर्गादि तक में गये, परन्तु जहां-जहां भी वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्र तेज़ वाले सुदर्शन को अपने पीछे लगे देखा। जब उन्हें कहीं भी प्राण बचते दिखाई न दिये, तो हारकर वे ब्राहृा जी की शरण में गये और विनय की देवशिरोमणि! भगवान के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये।
ब्राहृा जी ने उत्तर दिया-भगवान के इस सुदर्शन चक्र से बचा पाने में मैं किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हूँ। ब्राहृा जी से निराशाजनक उत्तर पाकर वे शंकर जी की शरण गये। शंकर जी ने कहा-यह चक्र भगवान का शस्त्र है। इससे किसी को बचाना मेरी सामथ्र्य से बाहर है। आप भगवान की शरण में जाइये, वे ही आपका मंगल करेंगे। महर्षि दुर्वासा वहां से भागकर भगवान के परमधाम वैकुण्ठ में गये और कांपते हुये भगवान के चरणों में गिर पड़े और विनय की-प्रभो! मैं अपराधी हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। मैने आपके भक्तों की महिमा न जानकर आपके भक्त का अपराध किया है। मुझे इस चक्र से बचाइये।
भगवान ने कहा-दुर्वासा जी! मैं तो सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सरलस्वभाव भक्तों ने मुझे अपने वश में कर रखा है। उनका एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे प्यार करता हूँ। न वे मेरे सिवा किसी को चाहते हैं और न ही मैं उनके अतिरिक्त किसी को चाहता हूँ। मैं उनके ह्मदय में बसता हूँ और वे मेरे ह्मदय में बसते हैं। इसलिये मैं आपकी सहायता करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। हाँ! मैं आपको एक उपाय बता देता हूँ। जिसका अपराध करने के कारण आप पर यह विपदा आई है, आप उसी के पास जाइये और उससे क्षमा मांगिये। आपका कल्याण होगा। दुर्वासा जी! एक बात आप सदैव स्मरण रखिये कि निरपराध प्रेमी भक्तों के अनिष्ट की चेष्टा करने से अनिष्ट करने वाले का ही अमंगल होता है।
भगवान के ऐसा आदेश देने पर महर्षि दुर्वासा लौटकर भक्त अम्बरीष के पास आये और सुदर्शन चक्र से बचाने की प्रार्थना की। तब भक्त अम्बरीष ने अनेक प्रकार से सुदर्शन चक्र की स्तुति कर उन्हें शान्त किया। चक्र के शान्त हो जाने पर भक्त जी ने महर्षि दुर्वासा के चरण पकड़ कर कहा-मेरे कारण आपको इतना कष्ट हुआ, इसके लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। आप चलकर भोजन ग्रहण कीजिए। महर्षि दुर्वासा जी ने भोजन किया और भक्त अम्बरीष को शुभाशीर्वाद देते हुए कहा-आज मैने भगवान के अनन्य प्रेमी भक्तों की महिमा स्पष्ट देख ली। राजन्! यद्यपि मैने आपका अनिष्ट करने का प्रयत्न किया, परन्तु आपने मेरे उस अपराध को भुलाकर मेरे लिए मंगलकामना ही की और सुदर्शन चक्र से मेरी प्राण रक्षा की। आप भगवान के सच्चे भक्त
हैं। आपकी कीर्ति संसार में सदा अमर रहेगी।
भगवान की अपने ऊपर इतनी अधिक कृपा देखकर भक्त अम्बरीष की भक्तिभावना में और भी अभिवृद्धि हो गई। राज्य के संचालन का दायित्व अपने पुत्रों को सौंपकर वे वन में चले गए और जीवन का एक-एक पल भगवान की सेवा-भक्ति और सुमिरण-ध्यान में लगाकर संसार से मुक्त हो गए और अपना नाम सदा के लिए अमर कर गये।
भक्त हिम्मतदास जी ने उपरोक्त कथा सुनाकर उन लुटेरों से कहा-मैने तो आप लोगों को कोई शाप आदि नहीं दिया, न ही मुझमें ऐसी शक्ति है। हाँ! एक बात अवश्य है कि मुझे इस झाँझ से बहुत प्यार है। क्योंकि इसे बजा-बजाकर मैं कीर्तन करता हूँ। झांझ के छिन जाने से मुझे बहुत दुःख हुआ था। और भगवान का चूँकि यह बिरद है कि ""दास दुःखी तो मैं दुखी,आदि अंत तिहुँ काल।'' इसलिये हो सकता है कि भगवान ने आप लोगों को यह दण्ड दिया हो। परन्तु भगवान तो अत्यन्त कृपालु हैं, यदि आप लोग सच्चे ह्मदय से अपनी पिछली करनी पर पश्चात्ताप करें और भविष्य में सन्मार्ग पर चलने की प्रतीज्ञा करें तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप लोगों की दृष्टि लौट आयेगी। उन लुटेरों ने ऐसा ही किया अर्थात् अपने पिछले अशुभ कर्मों पर पश्चात्ताप प्रकट किया और भविष्य में सन्मार्ग पर चलने का वचन दिया। ऐसा करते ही उन्हें पुनः दिखाई देने लगा। वे सब भक्त जी को प्रणाम कर और क्षमा माँग कर अपने अपने घरों को रवाना हो गए।
उन लोगों के जाने के बाद भक्त हिम्मतदास जी झांझ बजाते और कीर्तन करते हुए पुनः पन्ना की ओर चल पड़े। मार्ग में लुटेरों के मिल जाने के कारण चूँकि काफी समय वहाँ बीत गया था, अतएव जब वे मन्दिर पर पहुँचे, तब काफी देर हो चुकी थी। वहाँ संध्या की आरती के बाद भगवान को भोग लगवाकर शयन भी करवाया जा चुका था और मन्दिर के पट बन्द कर दिये गये थे। भक्त जी कई वर्षों से नित्यप्रति भगवान के दर्शन करने वहाँ आया करते थे, अतएव चौकीदार उन्हें अच्छी तरह पहचानता था। भक्त जी को देखते ही वह बोल उठा-आज तो आप बहुत देर से आये। अब तो मन्दिर के द्वार बन्द हो चुके हैं, अब तो दर्शन नहीं हो सकेंगे। परन्तु भक्त जी ने तो जैसे चौकीदार की बात सुनी ही न हो। वे तो मन्दिर के द्वार के बाहर खड़े होकर झांझ बजा-बजाकर प्रभु के गुण गाने लगे और प्रभु के चरणों में विनती करने लगे कि क्या आज मुझे प्रभु के दर्शन नहीं होंगे? क्या आज मेरा यह नियम पूरा नहीं होगा? कीर्तन करते हुए उनकी आँखों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो रहे थे। ऐसा करते हुए उन्हें कुछ ही देर बीती थी कि मन्दिर के द्वार अपने आप खुल गये। चौकीदार यह देखकर चकित रह गया। भक्त हिम्मतदास जी मन्दिर के अन्दर चले गये और प्रेम-विभोर होकर झांझ बजा-बजाकर नृत्य करते हुए कीर्तन करने लगे।
जब मन्दिर के पट अपने आप खुल गये तो चैकीदार ने महन्त गोबिन्द जी दीक्षित को इसकी सूचना देने का विचार किया। वह वहाँ से चलने लगा,परन्तु भगवान की उस पर कुछ ऐसी कृपा हुई कि वह उन्हें सूचित करने की बजाय भक्त जी के साथ मस्त होकर नाचने और ताली बजा-बजाकर कीर्तन करने लगा, यहाँ तक कि प्रातःकाल की श्री आरती का समय हो गया और महन्त गोबिन्द जी दीक्षित अन्य पुजारियों के साथ वहां आ पहुँचे। मन्दिर के द्वार की चाबी तो दीक्षित जी के पास होती थी और वही प्रातः आकर द्वार खोला करते थे। आज मन्दिर के द्वार खुले देखकर वह चौंक गए। जब अन्दर जाकर वहाँ का दृश्य देखा तो स्तब्ध रह गए। भक्त हिम्मतदास जी झांझ बजा-बजाकर झूम रहे थे और भगवान की गुण-स्तुति गा रहे थे और ताली बजा-बजाकर उनका साथ दे रहा था चौकीदार। महन्त जी ने धीरे से चौकीदार के कन्धे पर हाथ रखकर उसे सचेत किया, तत्पश्चात् उससे सारी बात मालूम की। दीक्षित जी वैसे तो पहले से ही भक्त जी की भक्ति से अत्यन्त प्रभावित थे, रात की घटना के विषय में जानकर और उनपर भगवान की इतनी कृपा देखकर तो उन्हें और भी भक्त जी के प्रति श्रद्धा हो गई। उन्होने भक्त जी के पास जाकर उन्हें सचेत करते हुए कहा-भक्त जी! सचेत होइए, प्रातःकाल की आरति का समय हो रहा है।
महन्त गोबिन्द जी दीक्षित के सचेत करने पर भक्त जी होश में आए। पन्ना के राजा भी अत्यन्त भक्तिभाव
सम्पन्न थे। उनका यह नियम था कि वे श्री युगलकिशोर जी के मन्दिर में प्रातःकाल की आरति में सम्मिलित हुआ करते थे। वे भी वहाँ पहुँच गए। महन्त जी से रात की घटना के बारे में जब राजा को पता चला तो उन्होंने भक्त जी को बड़ी श्रद्धा से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर प्रार्थना की, कि-मुझे मालूम हुआ है कि आप बरायछ से यहाँ नित्यप्रति भगवान के दर्शन के लिए आते हैं। आपको यहाँ नित्यप्रति आने में बड़ा कष्ट होता होगा, क्योंकि मार्ग में जंगल पड़ता है। आज से आप यहीं निवास करें, राज्य की ओर से आपके निर्वाह की पूरी व्यवस्था कर दी जाएगी।
परन्तु भक्त जी ने बड़ी नम्रतापूर्वक उनका यह प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा कि मैं बरायछ में ही ठीक हूँ, मुझे वहीं रहने दीजिए। उनकी बात सुनकर राजा मौन हो गए। तत्पश्चात आरती प्रारम्भ हुई। आरती करने के बाद भक्त हिम्मतदास जी बरायछ लौट गए। मन्दिर वाली घटना के बाद भक्त हिम्मतदास जी की यह दशा हो गई कि अब वे भगवान के साक्षात् दर्शन करने के लिए अति व्याकुल होने लगे। इनकी ऐसी तड़प देखकर उधर भगवान भी अब उन्हें दर्शन देने के लिए अधीर हो गए।
भक्त जी के साधु-सेवी स्वभाव के कारण अक्सर साधु-सन्त इनके घर आकर ठहरा करते थे। धन की कमी के कारण इन्हें प्रायः गाँव के एक महाजन, जिसका नाम परमेश्वरी था, उससे खाने-पीने का सामान उधार लेना पड़ता था। मन्दिर वाली घटना के दो-चार दिन बाद ही साधुओं की एक टोली शाम के समय इनके घर आ पहुंची। भक्त जी ने आदरपूर्वक उनको ठहराया और भोजन की सामग्री लेने के लिए परमेश्वरी महाजन के घर गये। चूँकि पहले का उधार बहुत हो गया था, अतः परमेश्वरी ने बही निकालकर उन्हें पिछला हिसाब दिखाना शुरु किया। भक्त जी ने कहा-मैं सारा हिसाब चुकता कर दूँगा, अभी तो आप थोड़ा सामान दे दें। परमेश्वरी महाजन ने कहा-पिछला उधार बहुत अधिक हो गया है। जब तक आप वह चुकता नहीं करेंगे, मैं और उधार देने में असमर्थ हूँ।
भक्त हिम्म्तदास जी निराश होकर घर लौट आये। उनका उदास चेहरा और खाली हाथ देखकर उनकी धर्मपत्नी सुशीला सब कुछ समझ गई। उसके सारे आभूषण तो साधु-सेवा में पहले ही बिक चुके थे। केवल एक नथ ही शेष रह गई थी, उसने वह उतार कर भक्त जी के हाथ में देते हुए कहा-यह नथ देकर आप भोजन की सामग्री ले आवें। भक्त जी बड़े असमंजस में पड़ गये। उन्होने सुशीला से कहा-सारे आभूषण तो पहले ही बिक चुके हैं, अब यह एक नथ ही तो तुम्हारे पास बची है, यह कैसे बेच आऊँ? नहीं मैं यह नथ नहीं ले जाऊँगा।
सुशीला ने कहा-आप संकोच न करें और इस नथ को देकर शीघ्र ही सामग्री ले आयें। क्या आज ये साधु-महात्मा हमारे घर से भूखे जायेंगे? नथ तो फिर भी आ सकती है और नहीं भी आयेगी तो कोई बात नहीं, परन्तु साधु-सेवा का जो अलभ्य लाभ है, वह तो बड़े सौभाग्य से ही प्राप्त होता है। अतः आप देर न करें, शीघ्र महाजन के यहाँ जायें और भोजन-सामग्री ले आयें। भक्त हिम्मतदास जी मन ही मन सुशीला की भक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए नथ लेकर परमेश्वरी महाजन के पास गए और नथ गिरवी रखकर भोजन की सामग्री घर ले आये। सुशीला ने भोजन बनाया, तत्पश्चात् दोनों ने प्रेंमपूर्वक साधु-महात्माओं को भोजन कराया। रात्रि को विश्राम करके सवेरे साधु-जन दोनों को आशीर्वाद देकर विदा हो गए। साधुओं के जाने के बाद भक्त हिम्मतदास जी ने अपने वस्त्र और लोटा आदि उठाया और पत्नी से बोले-मैं नदी की तरफ जा रहा
हूँ, स्नानादि से निवृत्त होकर थोड़ी देर में आता हूँ।
यह कहकर भक्त जी तो नदी की तरफ गए, उधर भगवान ने एक अनोखी लीला रचाई। भक्त हिम्मतदास जी का रुप धारण करके भगवान जा पहुँचे परमेश्वरी महाजन के घर और जाते आवाज़ लगाई-महाजन जी, महाजन जी! आवाज़ सुनकर परमेश्वरी महाजन बाहर आये। क्या देखते हैं कि भक्त हिम्मतदास जी द्वार पर खड़े हैं। भक्त जी को देखकर महाजन ने कहा-अब फिर भोजन की सामग्री चाहिए। भक्तरुप में भगवान बोले-मुझे कहीं से रुपये मिल गये थे, सो आपका हिसाब चुकता करने आया हूँ। रकम ले लीजिए और नथ वापिस कर दीजिए।
परमेश्वरी ने बही-खाता खोलकर सब हिसाब गिनाया। भगवान ने उन्हें रुपये दिये, परमेश्वरी ने हिसाब चुकता लिखकर अपने हस्ताक्षर किए, फिर भगवान से हस्ताक्षर कराये, तत्पश्चात् तिजोरी से नथ निकाल कर भगवान के हवाले कर दी। नथ लेकर भगवान भक्त जी के रुप में सीधे हिम्मतदास जी के घर आये और सुशीला से बोले-लो, यह नथ ले लो और पहन लो। सुशीला उस समय गोबर से ठाकुर जी का चौका लीप रही थी, भक्त जी को देखकर आश्चर्य से बोली-अभी-अभी तो आप वस्त्रादि लेकर नदी की तरफ स्नानादि से निवृत्त होने के लिए गये थे, फिर महाजन के यहां कैसे पहुँच गए? फिर धन तो घर में था नहीं, यह नथ कहाँ से ले आये?
लीलाधारी भगवान ने कहा-यह सब मत पूछो, जल्दी से नथ पहन लो। सुशीला बोली-आप देख रहे हैं कि हाथ गोबर से सने हुए हैं, अतः आप नथ चबूतरे पर रख दीजिए, मैं हाथ धोकर पहन लूंगी। भगवान ने कहा-सोने का गहना धरती पर नहीं रखा जाता, इसलिए नथ ले लो और जल्दी से पहन लो। सुशीला तो भगवान को भक्त हिम्मतदास जी ही समझ रही थी। वह उठकर उनके पास आ गई और बोली-अभी हाथ धोऊँगी तो दोबारा फिर गोबर से सन जायेंगे, क्योंकि लीपने का काम अभी पूरा नहीं हुआ, अतः आप स्वयं ही पहना दो।
भगवान ने उसे नथ पहनाई, घर से बाहर आये और फिर अन्तर्धान हो गए। इधर भक्त हिम्मतदास जी स्नानादि से निवृत्त होकर घर वापस आये और सुशीला को नथ पहने देखकर हक्के-बक्के रह गए। कुछ देर बाद उन्होने अपने को संयत किया और बोले-यह नथ तुम्हारे पास कहाँ से आई?
सुशीला ने कहा-अब इस उम्र में हँसी ठट्ठा क्यों करते हैं? अभी आप स्वयं ही तो नथ लेकर आये थे। यह कहते हुए उसने सारी घटना सुना दी। सुनकर भक्त जी को अचंभा हुआ। सोचने लगे कि कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ। मैं तो नदी पर स्नान करके अभी आ रहा हूँ, फिर यह नथ कौन दे गया? सुशीला कभी झूठ भी नहीं बोलती। यही सब सोचते हुए वे सीधे परमेश्वरी महाजन के घर जा पहुँचे। आगे दुकान थी और पीछे उनका निवास। परमेश्वरी महाजन दुकान पर बैठे हुए थे। भक्त हिम्मतदास जी को देखकर वे बोले-आइये-आइये भक्त जी, विराजिये। क्या सेवा करुँ?
पत्नी की नाक में नथ कहाँ से आई, अभी वे इसी आश्चर्य में डूबे हुए थे, कि आज महाजन के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन देखकर भक्त जी को और भी अधिक आश्चर्य हुआ। उन्होने महाजन से पूछा-कल जो मैने नथ गिरवी रखी थी, वह आपने किसको बेची है? अब आश्चर्य करने की बारी परमेश्वरी महाजन की थी। उसने कहा-भक्त जी। यह आप क्या पूछ रहे हैं? अभी कुछ देर पहले ही तो आप यहाँ आए थे और सारा हिसाब चुकता करके नथ वापस ले गए थे। बही में मैने स्वयं हिसाब चुकता करके हस्ताक्षर किये थे और आपने भी उसमें हस्ताक्षर किये थे।
यह कहकर परमेश्वरी महाजन ने बही उठाई और वह पन्ना खोलकर भक्त जी के आगे रख दिया। भक्त जी ने देखा कि हिसाब चुकता है और महाजन के साथ-साथ उनके भी हस्ताक्षर उसमें मौजूद हैं। वे समझ गए कि भगवान ही मेरे रुप में आकर हिसाब चुकता कर गये हैं। अन्य कौन है जो ऐसा कर सके? उनके नेत्रों से अश्रुओं की झड़ी लग गई। वे महाजन से लिपट गये और बोले-महाजन जी। मेरे पास तो पैसे थे नहीं जो आपका हिसाब चुकता करता और न ही मैं कुछ देर पहले आपके यहाँ आया था। यह सब तो भगवान की अपनी ही लीला है। महाजन जी! आपका परमेश्वरी नाम आज सार्थक हो गया, क्योंकि आपको घर बैठे ही भगवान ने आज दर्शन दे दिए। मैने शायद कोई अपराध किया है अथवा मेरे मन में संसार की कोई लालसा शेष है, तभी भगवान ने मुझे दर्शनों के अयोग्य समझा।
यह कहकर वे घर आए। उनके नेत्रों से अश्रु अभी भी प्रवाहित हो रहे थे। उन्हें रोते देखकर सुशीला घबरा गई। भक्त जी ने निकट आकर कहा-सुशीला! सत्य जानना कि मैने यहाँ आकर तुम्हें नथ नहीं पहनाई थी। नथ तो परमेश्वरी महाजन के पास गिरवी रखी थी। महाजन का हिसाब चुकता करके और नथ छुड़वाकर तुम्हें पहनाने वाले भगवान के अतिरिक्त भला और कौन हो सकते हैं? तुम सचमुच ही सौभाग्यशालिनी हो। मैने न जाने कौन सा अपराध किया है, जो भगवान ने मुझे दर्शन नहीं दिए। अब तो भगवान के दर्शन होने पर ही मैं अन्न-जल ग्रहण करुँगा।
यह कहकर उन्होने झांझ उठाई और भगवान का गुणगान करने लगे। सुशीला भी उनके साथ कीर्तन में सम्मिलित हो गई। इसी तरह तीन दिन बीत गए, न दोनों ने कुछ खाया, न ही जल ग्रहण किया। भगवान भला ऐसे भक्त से कैसे अदृश्य रहते? वे उनके सामने प्रकट हो गए। भगवान के साक्षात् दर्शन कर उनका जीवन धन्य हो गया, उनका संसार में आना सफल हो गया।