Wednesday, January 6, 2016

उपनिषद कथा (ब्राहृर्षि रैक्व)



प्राचीन काल में एक राजा था, जिसका नाम था-जानश्रुति। वह बड़ा ही धर्मात्मा था और दान, व्रत, यज्ञ आदि अनेक प्रकार के धार्मिक कृत्य किया करता था। उसका राजप्रासाद अतिथियों के लिये हर समय खुला रहता था और उनके लिये राजा जानश्रुति की ओर से भोजनादि का पूरा प्रबन्ध था। वह प्रतिदिन ऋषियों, मुनियों ब्रााहृणों तथा सत्पात्रों को दान-दक्षिणा भी देता था। इसके अतिरिक्त उसने स्थान-स्थान पर धर्मशालाओं का निर्माण करवा रखा था, जहां यत्रियों के ठहरने और भोजनादि का बड़ा सुन्दर प्रबन्ध था। निर्धनों के लिये उसने अनेक स्थानों पर अन्न-सत्र भी खुलवा रखे थे, जहां से उन्हें अन्न-वस्त्र मुफ़्त मिलते थे। इस प्रकार के धार्मिक कृत्यों के कारण राजा का यश चहुँ ओर फैला हुआ था।
     राजा जानश्रुति के इन कार्यों से यद्यपि प्रजा सन्तुष्ट थी, परन्तु ऋषियों को यह सोचकर दुःख भी होता था कि इतने धर्म-कर्म करने पर भी राजा जानश्रुति अभी तक आत्म-ज्ञान से कोरा है, जिसके बिना मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं होता। अन्ततः उसे सही मार्ग पर लगाने तथा आत्मिक सुख की उपलब्धि कराने के लिये ऋषियों ने एक युक्ति सोची। एक दिन कुछ ऋषियों ने हंसों का रुप धारण कर लिया और उड़ते हुए ऐसे समय राजप्रासाद के ऊपर से निकले, जबकि राजा जानश्रुति राजप्रासाद की छत पर विश्राम कर रहा था। वहाँ पहुँचकर एक हंस ने अपने से आगे उड़नेवाले हंस से कहा-""राजा जानश्रुति का यश सूर्य के तेज के समान सब जगह फैल रहा है।''
     आगे वाला हंस बोला-""भाई! तुम बैलगाड़ी वाले ब्राहृर्षि रैक्व के तेज को नहीं जानते, इसीलिए तुम इस राजा जानश्रुति के तेज की इतनी प्रशंसा कर रहे हो। ब्राहृर्षि रैक्व की तुलना में तो इसका तेज़ कुछ भी नहीं है।'' पहले वाले हंस ने कहा-""वह बैलगाड़ी वाला ब्राहृर्षि रैक्व कौन है और कैसा, सो बताओ।''
     आगेवाला हंस बोला-""भाई! ब्राहृर्षि रैक्व की महिमा का क्या बखान किया जाय? वह उस जानने योग्य वस्तु को जानता है, जिसके जानने के उपरान्त और कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता। उस तत्त्व को जो भी जान लेता है, उसके समान तेज भी भला किसी का हो सकता है? ब्राहृर्षि रैक्व ब्राहृवेत्ता है, इसीलिए मैं उसके विषय में ऐसा कह रहा हूँ; क्योंकि ब्राहृ का ज्ञान हो जाने के बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता। वह मुक्त हो जाता है। राजा जानश्रुति को चूँकि अभी आत्म-ज्ञान (अथवा ब्राहृज्ञान) की प्राप्ति नहीं हुई, इसलिये धार्मिक कृत्यों के कारण केवल उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाएगी, जहाँ वह स्वर्गीय सुख भोगेगा, परन्तु जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति उसकी नहीं होगी और वह मोक्ष-सुख की प्राप्ति न कर सकेगा।'' परमसन्त श्री कबीर साहिब जी इस आत्म-ज्ञान के विषय में फरमाते हैं किः-
जो  यह  एकै  जानिया , तौ  जानौ  सब  जान।
जो यह एक न जानिया, तौ सबही जान अजान।।
जो  यह  एक न जानिया , तौ बहु जाने का होय।
एकै  तें  सब  होत  हैं , सब  तें  एक  न होय।।
हंसों की ये बातें राजा जानश्रुति ने भी सुनीं और अपने सेवकों को बुलाकर कहा-""तुम लोग बैलगाड़ी वाले ब्राहृर्षि रैक्व के पास जाओ और उनसे कहो कि राजा जानश्रुति आपसे मिलना चाहता है।'' सेवकों ने पूछा-""हे राजन्! वे गाड़ी वाले रैक्व कौन हैं और कहाँ रहते हैं, सो बताओ।''
    तब राजा जानश्रुति ने हंसों के मध्य हुई सम्पूर्ण वात्र्ता उन्हें सुना दी। सुनकर सेवक ब्राहृर्षि रैक्व को ढूँढने के लिए निकल पड़े। उन्होंने अनेकों नगरों एवं ग्रामों में ब्राहृर्षि रैक्व की खोज की, परन्तु उन्हें इस कार्य में सफलता न मिली। ब्राहृर्षि रैक्व के विषय में उहें कुछ भी पता न चला। हार कर वे वापस लौट आए और सब समाचार राजा के चरणों में निवेदन किया। राजा जानश्रुति ने विचार किया कि इन लोगों ने ब्रााहृर्षि रैक्व को नगरों और ग्रामों में ही खोजा है। भला ब्राहृवेत्ता महापुरुष भीड़भाड़ वाले नगरों और ग्रामों में कहाँ रहते हैं? वे तो किसी एकान्त स्थान पर रहते होंगे। यह सोचकर उसने सेवकों से कहा-""पुनः जाओ और ब्राहृवेत्ता पुरुषों के रहने के स्थान अर्थात् किसी एकान्त स्थान में उनकी खोज करो।'' राजा का आदेश पाकर सेवक फिर ब्राहृर्षि रैक्व को ढूँढने के लिए निकले। एक दिन उन्होंने एक एकान्त स्थान पर एक ऋषि को एक बैलगाड़ी के नीचे बैठे हुए देखा। सेवकों ने उनके पास जाकर विनयपूर्वक पूछा-"'हे ऋषिदेव! क्या आपका नाम ही रैक्व है?''
     ऋषि ने उत्तर दिया-""हाँ, मैं ही रैक्व हूँ।''
     ब्राहृर्षि रैक्व का पता लग जाने से राजकर्मचारियों को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वे तुरन्त राजा के पास लौट आए और यह शुभ समाचार सुनाते हुए बोले-""राजन्! हमने रैक्व ऋषि का पता लगा लिया है। अमुक स्थान पर बैलगाड़ी के नीचे बैठे हुए हमने उन्हें देखा है।'' यह सुनकर राजा जानश्रुति बहुत प्रसन्न हुआ। दूसरे दिन वह छः सौ गउएँ, एक मूल्यवान कण्ठहार तथा घोड़ों से जुता हुआ एक रथ लेकर ब्राहृर्षि रैक्व के पास गया और हाथ जोड़कर बोला-""ऋषिश्रेष्ठ! छः सौ गउएँ, सोने का यह हार और रथ-ये सब मैं आपके लिये लाया हूँ। कृपा करके आप इन्हें स्वीकार कीजिये और मुझे ब्राहृज्ञान का उपदेश दीजिये।''
     राजा जानश्रुति की बात सुनकर ब्राहृर्षि रैक्व ने कहा-""अरे अज्ञानी! मुझे यह सब कुछ नही चाहिये। ये गउएँ, स्वर्ण माला और रथ अपने पास रख और यहां से चला जा।'' राजा निराश होकर वापस लौट गया और विचार करने लगा कि मैं जबकि ब्राहृज्ञान की जिज्ञासा से ऋषि की सेवा में उपस्थित हुआ था, फिर भी उन्होंने मुझे अज्ञानी कहकर क्यों सम्बोधित किया और मुझे चले जाने को क्यों कहा? कदाचित् इसलिये कि मैं बहुत थोड़े धन के बदले ज्ञान जैसी उत्तम वस्तु प्राप्त करने गया था! किन्तु बिना ज्ञान प्राप्त किये मेरा शोक दूर नहीं होगा, इसलिये मुझे ब्राहृर्षि रैक्व को प्रसन्न करने के लिये पुनः उनके पास जाना चाहिए। मन में यह विचार करके राजा जानश्रुति इस बार और भी अधिक धन-पदार्थ लेकर ब्राहृर्षि रैक्व के पास गया और हाथ जोड़कर बोला-""हे ऋषिवर! ये सब मैं आपके लिये ही लाया हूँ; आप इन्हें स्वीकार कीजिए। इसके अतिरिक्त आप जहां रहते हैं, इस गांव की सारी भूमि भी मैं आपकी भेंट करता हूँ,आप इसे भी स्वीकार कीजिए और मुझे उपदेश कीजिए।''
     ब्राहृर्षि रैक्व बोले-""अरे अज्ञानी! तू फिर यह सब कुछ ले आया। तुझे इन धन-पदार्थों का बड़ा अहंकार है। किन्तु बता! क्या इन सबसे ब्राहृज्ञान खरीदा जा सकता है?'' ब्राहृर्षि के वचन सुनकर राजा जानश्रुति की आँखें खुलीं और उसे अपनी भूल का पता चला। उसने अपने सब सेवकों को वापस भेज दिया, तत्पश्चात् धन के अभिमान से रहित होकर वह अत्यन्त नम्रता एवं दीनतापूर्वक ब्राहृर्षि रैक्व के चरणों में उपस्थित हुआ और उनके चरणों में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हुए विनयपूर्वक बोला-""प्रभो! मैं जानश्रुति आपके चरणों में ब्राहृविद्या का उपदेश ग्रहण करने के लिये उपस्थित हुआ हूँ। मुझ पर अनुग्रह कीजिए और मुझे अपने शिष्यत्व में लीजिए।'' तब ब्राहृर्षि रैक्व ने अधिकारी जानकर उसे ज्ञान-उपदेश किया, जिसे प्राप्त करके राजा जानश्रुति का जीवन धन्य हो गया।
      उपनिषद की यह कथा बड़ी ही शिक्षाप्रद है। भक्ति-पथ पर चलने के इच्छुक जिज्ञासुओं के लिए इसमें विचार करने और आचरण करने योग्य कई बातें मौजूद हैं। पहली बात जो विचारणीय है, वह यह है कि मनुष्य दान, यज्ञ, जप आदि चाहे जितने भी शुभकर्म कर ले, इन शुभकर्मों के करने से उसे वास्तविक ज्ञान अर्थात् ब्राहृज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती और बिना ब्राहृज्ञान के आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना असम्भव है। इन शुभकर्मों के करने में चूँकि मनमति सम्मिलित रहती है अर्थात मन के कहने पर चलकर मनुष्य ये सब शुभकर्म करता है, इसलिए मनुष्य के मनमें स्वाभाविक ही अहंकार की उत्पत्ति हो जाती है। राजा जानश्रुति यद्यपि शुभकर्म करता था, परन्तु उसके मन में इन शुभकर्मों का अभिमान भी था और राजा होने का अभिमान भी मौजूद था। मन में अभिमान रखकर शुभ-कर्म करना वैसा ही है जैसे स्नान करके अपने ऊपर धूल डाल लेना। गुरुवाणी का वाक हैः-
तीरथ  बरत अरु दान  करि मन मैं धरै गुमानु।
नानक निहफल जात तिहि जिउ कुंचर इसनानु।।
अर्थः-तीर्थ, व्रत और दानादि करके जो मनुष्य मन में इनका अभिमान करता है, श्री गुरुनानक साहिब फरमाते हैं कि उसके द्वारा किये हुए वे सब कर्म उसके लिये उसी प्रकार निष्फल हो जाते हैं जिस प्रकार हाथी द्वारा किया हुआ स्नान। हाथी का यह स्वभाव है कि वह स्नान करने के उपरांत सूंड से अपने शरीर के ऊपर धूल डाल लेता है।
     इसके अतिरिक्त ये सब शुभ कर्म चूँकि सकाम भावना से किये जाते हैं, अतः इनके फलस्वरुप मनुष्य को अधिक से अधिक स्वर्ग की ही प्राप्ति होती है, जहाँ बहुत समय तक स्वर्गीय सुखों को भोगने के उपरान्त उसे पुनः इस मत्र्यलोक में आना पड़ता और चौरासी के चक्र में घूमना पड़ता है। आवागमन के चक्र से उसकी मुक्ति नहीं होती। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण फरमाते हैंः-
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलेकं विशालं क्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति।
    एवं   त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना   गतागतं   कामकामा  लभन्ते ।। 9/21
खत्म हो जाता है जब ऐसे रियाज़ों का समर।
वासिलाने-ऐश का जन्नत से होता है सफर।।
पैरवाने-वेद  जिनका दिल है पुरअज़ मुद्दुआ।
जब्रा कुदरत से हैं यूँ आवागवन में मुबितला।।
अर्थः-वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्यक्षीण होने पर मृत्यु-लोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरुप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं अर्थात् पुण्यकर्मों के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।
     दूसरी बात जो उपरोक्त कथा में विचार करने योग्य है, वह यह है कि मनुष्य तीर्थ, व्रत, दान, यज्ञ आदि चाहे जितने भी साधन कर ले, आत्मज्ञान के बिना उसके ये सब कर्म-धर्म थोथे हैं और ब्राहृज्ञान की प्राप्ति मनुष्य को समय के पूर्ण ब्राहृनिष्ठ महापुरुषों की चरण-शरण में जाने पर ही होती है। पूर्ण सद्गुरु की चरण-शरण ग्रहण किये बिना मनुष्य का निस्तार नहीं हो सकता, इसीलिए सभी सन्तों एवं सद्ग्रन्थों ने समय के पूर्ण सन्त सद्गुरु की शरण ग्रहण करने पर अत्यधिक बल दिया है और इसे अनिवार्य बतलाया है। सन्तों का कथन है किः-
योग  यज्ञ  जप  तप  व्यवहारा। नेम  धर्म  संयम आचारा।।
वेद  पुराण  कहें  गोहराई । गुरु बिन सब निष्फल हैं भाई।।
गुरु  बिन  ह्मदय शुद्ध नहिं होई । कोटि उपाय करे जो कोई।।
गुरु बिन ज्ञान विचार न आवे। गुरु बिन कोई न मुक्ति पावे।।
(गुरु महिमा)
संसार में जितने भी ऋषि, मुनि, जती, तपी, सन्त, भक्त और अवतारी पुरुष हुए हैं, सभी ने समय के पूर्ण सद्गुरु की शरण में जाकर ही ज्ञान की प्राप्ति की है।
अखिल  विबुध जग में अधिकारी। व्यास वसिष्ठ महान आचारी।।
गौतम कपिल कणाद पातंजलि। जैमिनि बाल्मीकि चरणन बलि।।
ये  सब  गुरु  की  शरणहिं  आये ।  ताते  जग  में श्रेष्ठ कहाये।
(गुरुमहिमा)
कहने का तात्पर्य यह कि मुक्ति के अभिलाषी जिज्ञासु पुरुष के लिए समय के पूर्ण सद्गुरु की चरण-शरण ग्रहण करना नितान्त आवश्यक है। पूर्ण सद्गुरु ही ब्राहृज्ञान के ज्ञाता होते हैं और उनकी कृपा से अथवा उनके मार्गदर्शन में चलकर ही जिज्ञासु ब्राहृ-साक्षात्कार कर सकता है। बिना सद्गुरु की कृपा के ब्राहृज्ञान की प्राप्ति करना अथवा ब्राहृ-साक्षात्कार करना असम्भव है।
     कथा में तीसरी विचारणीय बात यह है कि सद्गुरु की शरण में जिज्ञासु को अभिमानरहित होकर नम्रता एवं दीनता धारण करके जाना चाहिए। यदि ह्मदय में अभिमान भरा है, तो फिर वह राजा जानश्रुति की तरह खाली ही लौटेगा। इसलिए फकीरों का कथन हैः-
ज़ि दावा तिहि आ कि ता पुर शवी।
चूँ  पुर  आमदी  ज़ां तिही मे रवी।।
(हज़रत मौलाना रुम साहिब)
अर्थः-ऐ मनुष्य! सत्पुरुषों की चरण-शरण में सब प्रकार के दावे से खाली होकर आ ताकि तेरा ह्मदय उनकी कृपा से भरा जाए। यदि तेरा ह्मदय पहले ही अभिमान से भरा हुआ है तो फिर सत्पुरुषों के दरबार से तू खाली ही जायेगा। गुरुवाणी का वाक हैः-
होहु निमाणा सतिगुरु अगै मत किछु आपु लखावहे।।
     इसलिये जो आत्मज्ञान का अभिलाषी है, ऐसे जिज्ञासु पुरुष को उपरोक्त सभी तथ्यों पर विचार करके अभिमान रहित एवं अकिंचन बनकर समय के पूर्ण सद्गुरु की चरण-शरण में जाना चाहिये ताकि वह उनकी कृपा से वास्तविक ज्ञान से मालामाल हो सके और अपना जीवन सफल एवं सकारथ कर सके।

भक्त व्यासदेव जी



      लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व की बात है, बुन्देलखण्ड के ओड़छा राज्य पर राजा मधुकरशाह का शासन था। वे बड़े ही भक्तिभाव सम्पन्न और साधु-सेवी थे। उनके राजपुरोहित थे-पण्डित सुखोमनि शर्मा। वे विद्वान तो थे ही, भगवद्भक्त और साधु-सेवी भी थे। मार्गशीर्ष कृष्णा पंचमी सम्वत् 1567 को इनके घर एक बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम हरिराम रखा गया। हरिराम प्रारम्भ से ही बड़े मेधावी और प्रतिभाशाली थे। युवा होते होते वे प्रसिद्ध विद्वानों में गिने जाने लगे। पिता ने एक अच्छा घराना देखकर उनका विवाह भी कर दिया। कुछ दिन उपरांत जब उनके पिता शरीर त्याग गये तो ओड़छा नरेश मधुकरशाह ने उन्हें अपना राजपुरोहित नियुक्त कर दिया।
     पण्डित हरिराम जी विद्वान थे, वेदों-शास्त्रों के ज्ञाता थे, अतएव अनेक लोग उनसे शास्त्रों का मर्म समझने आने लगे। इससे उन्हें विद्या का अहंकार हो गया। वाद-विवाद करके अन्य विद्वानों तथा पण्डितों को पराजित करना-यह उनकी एक आदत हो गई। जहाँ कहीं किसी विद्वान का नाम सुनते, उससे शास्त्रार्थ करने के लिए वहीं पहुँच जाते और उन्हें हराकर खूब हर्षित होते। उनकी अवस्था कुछ इस प्रकार की थीः-
संस्कृतहिं  पंडित कहे, बहुत करै अभिमान।
भाषा  जानि तरक करै, ते नर मूढ़ अजान।।
पंडित  और  मसालची , दोनों  सूझै नाहिं।
औरन  को  करैं चाँदनी, आप अंधेरे माहिं।।
पढ़ पढ़ के  पंडित भये , कीरति भई संसार।
वस्तु की तो समुझ नहीं,ज्यूं खर चंदन भार।।
एक बार शास्त्रार्थ के लिए वे काशी गये, वहां के जाने-माने विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और उन्हें अपनी विद्वता से पराजित किया। काशी के प्रकाण्ड पण्डितों को हराकर वे मन में अति हर्षित हुए और अपनी विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने विश्वनाथ जी के मन्दिर में जाकर विश्वनाथ जी का अभिषेक किया। उसी सायं जब वे गंगा के तट पर बैठे थे, एक साधु उनके पास आया और उन्हें सम्बोधित कर बोला-पण्डित जी! मेरे एक प्रश्न का उत्तर देंगे?
पण्डित जी बोले-पूछिये।
साधु ने कहा-विद्या की पूर्णता कब है?
पण्डित हरिराम जी ने उत्तर दिया, सत्य-असत्य को जानकर प्राप्त करने योग्य पदार्थ को प्राप्त करने में ही विद्या की पूर्णता है।
साधु ने कहा-पण्डित जी! आप दूसरों को जितना समझाते हैं, उतना स्वयं को क्यों नहीं समझाते? विद्या की पूर्णता जब प्राप्त करने योग्य पदार्थ को प्राप्त करने में है, तब फिर वाद-विवाद करने से क्या लाभ? क्या वाद-विवाद में दूसरों को पराजित करके उस पदार्थ की आपको प्राप्ति हो जाएगी? कदापि नहीं। वह पदार्थ तो भक्ति से ही प्राप्त होता और हो सकता है। इसलिए भगवान की भक्ति में ही विद्या की पराकाष्ठा अथवा पूर्णता है। अपनी विद्या को पूर्ण करने के लिए आपको भक्ति करनी चाहिए। अपूर्ण और अधूरी विद्या होने पर भी अपने को विद्वान और पण्डित समझना तथा दूसरों को पराजित कर प्रसन्न होना आपको कदापि शोभा नहीं देता।
     साधू तो यह कहकर अपने रस्ते गया, परन्तु उसके वचनों ने पण्डित हरिराम जी को झकझोर कर रख दिया। विद्या का सब नशा उतर गया। काशी में सब विद्वानों को हराकर भी अब वे स्वयं को हारा हुआ मान रहे थे। साधु के वचनों ने उनके जीवन की धारा ही बदल दी। वे काशी से तुरन्त ओड़छा लौट गए। उन्हें धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा, पद-अधिकार आदि सब व्यर्थ और थोथे मालूम होने लगे। अब तो बस उनके मन में एक ही आकाँक्षा रह गई कि किसी उच्चकोटि के सन्त महापुरुष का पता चल जाए तो उनकी शरण ग्रहणकर जीवन सार्थक कर लिया जाए, क्योंकि यह बात वे भलीभाँति जानते थे कि बिना पूर्ण गुरु की शरण ग्रहण किये मनुष्य का निस्तार नहीं होता।
।।सोरठा।।
बिन सतगुरु उपदेस, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे।
ब्राहृा बिस्नु महेस, और सकल जिव को गनै।।
खोजो  सतगुरु  सन्त , जीव काज जो चाहहू।
मेटौ  भव  को अंक , आवागमन  निवारहू।।
।।दोहा।।
केतिक पढ़ि गुनि पचि मुवा, जोग जज्ञ तप लाय।
बिन  सतगुरु  पावे नहीं , कोटिन  करै उपाय।।
सतगुरु  सरन न आवहीं , फिर फिर होय अकाज।
जीव  खोय  सब  जाहिंगे , काल तिहूं पुर राज।।
पूर्ण गुरु से मिलाप की उनकी यह आकांक्षा तीव्र से तीव्रतर होती गई। उन्हें न रात को नींद आती, न दिन को चैन। वे हर समय व्याकुल रहने लगे। पण्डित हरिराम जी के ह्मदय की व्याकुलता की आवाज़ भी अन्ततः उनके अभीष्ट तक जा पहुँची। उस समय वृन्दावन भक्ति-परमार्थ का केन्द्र था। स्वामी हितहरिवंश जी, जो कि एक उच्चकोटि के सन्त थे, उस समय वृन्दावन में निवास करते थे। उन्होंने अपने शिष्य श्री नवलदास जी को ओड़छा भेजा। ओड़छा आकर श्री नवलदास जी सत्संग की गंगा बहाने लगे। पण्डित हरिराम जी उनका सत्संग श्रवण कर बड़े प्रभावित हुए। वार्तालाप करने पर जब उन्हें पता चला कि श्री नवलदास जी स्वामी हितहरिवंश जी के शिष्य हैं, जो कि एक उच्चकोटि के सन्त हैं, तो वे उसी दिन घर बार त्यागकर वृन्दावन चले गए। उस समय उनकी आयु मात्र चौबीस वर्ष की थी।
     वृन्दावन पहुँचकर उन्होंने यमुना में स्नान किया और फिर स्वामी हितहरिवंश जी के आश्रम का पता पूछते-पूछते उनके चरणों में जा पहुंचे। श्री हितहरिवंश जी के यद्यपि अनेक शिष्य थे, परन्तु उनका यह नियम था कि भगवान के भोग के लिए वे रसोई स्वयं बनाते थे। उस समय भी वे भगवान के भोग केलिए रसोई बना रहे थे। पण्डित हरिराम जी ने उनसे उसी समय बाते करनी चाहीं। श्री हितहरिवंश जी ने कहा-इस समय हम भगवान के भोग के लिए रसोई तैयार कर रहे हैं, थोड़ी देर बाद आइएगा।
     किन्तु हरिराम जी तो अति व्याकुल थे। उन्होंने उसी समय वार्तालाप करना चाहा। यह देखकर श्री हितहरिवंश जी ने चूल्हे पर से पात्र उतार दिया। हरिराम जी ने कहा-आप रसोई तैयार करिए, साथ-साथ चर्चा भी होती रहेगी। श्री हितहरिवंश जी ने हरिराम जी को सही दिशा दिखाने के लिए कहा-एक ही समय में मन को दो स्थानों पर लगाये रखना असम्भव है। इसलिए एक समय में इसे एक ही ओर लगाना चाहिए, तभी कार्य सिद्ध होता है। वैसे भी यह मन काल-व्याल से ग्रसित है, अतः काल-व्याल से छुटकारा प्राप्त करने के लिए इसे सब ओर से समेट कर भगवान के चरणों में लगाने से ही जीवन सफल होता है और ऐसा करने वाला ही धन्य है।
पण्डित हरिराम जी उनके चरणों में गिर पड़े और शरण में लेने के लिए प्रार्थना करने लगे। श्री हितहरिवंश जी
ने उन्हें नाम-उपदेश देकर उनका नाम "व्यासदास' रख दिया। तदुपरान्त श्री व्यासदास जी वृन्दावन में ही रहने लगे और अहनिशि भगवान की भक्ति में संलग्न रहने लगे।
     कुछ दिनों के उपरान्त ओड़छा के कुछ प्रेमी भक्त वृन्दावन गए। वहाँ उन्होंने श्री हितहरिवंश जी के आश्रम पर श्री व्यासदास जी को देखा और वापस जाकर यह समाचार उनके घर वालों को तथा ओड़छा नरेश को दिया। राजा मधुकरशाह ने श्री व्यासदास जी को घर वापस लिवा लाने के लिए तत्काल अपने मत्री को वृन्दावन भेजा। मंत्री ने वहाँ जाकर श्री व्यासदास जी को वापस लौट चलने के लिए बहुत आग्रह और अनुरोध किया, परन्तु उन्होंने किसी तरह भी घर वापस जाना स्वीकार नहीं किया। मंत्री ने जब देखा कि वे किसी प्रकार भी नहीं मान रहे, तो फिर उन्होंने दूसरी युक्ति से काम लेने की सोची। मंत्री ने श्री व्यासदास जी से कहा कि यदि आप ऐसे नहीं मानेगे तो फिर मैं आपके गुरुदेव से प्रार्थना करके आपको यहाँ से ले जाऊँगा, इसलिए आप मेरा कहना मानकर केवल एक बार ओड़छा चले चलिये।
     मन्त्री की यह बात सुनकर श्री व्यासदास जी अति व्याकुल हुए। वे सोचने लगे कि यदि गुरुदेव आज्ञा करेंगे तो फिर मुझे ओड़छा जाना ही पड़ेगा, इसलिए कोई ऐसी युक्ति करनी चाहिए जिससे मुझे गुरुदेव के चरणों से दूर न होना पड़े। उस दिन दोपहर को आश्रम में भगवान का भोग लग जाने पर सब साधुओं और भक्तों की पंगत बैठी, तो श्री व्यासदास जी "प्रसाद' बांटने की सेवा करने लगे। जब सब साधू और भक्त प्रसाद पाकर उठ गए तब वे उनकी पत्तलों में से उठाकर जूठन खाने लगे। यह देखकर मंत्री को बड़ी घृणा हुई। उसने सोचा कि अब ये आचार से गिर गये हैं और दूसरों का जूठा खाने लगे हैं, अतः राजपुरोहित होने के योग्य तो ये रहे नहीं, फिर इन्हें ओड़छा ले जाने के लिए इतना आग्रह करने की क्या आवश्यकता है? यह सोचकर मंत्री वापस ओड़छा चला गया।
     वहाँ पहुँचकर मंत्री ने राजा मधुकरशाह को सारी घटना की जानकारी देते हुए कहा-पण्डित जी अब सबका जूठा खाने लगे हैं। अब वे यहाँ ले आने योग्य और राजपुरोहित के पद पर बने रहने के योग्य नहीं हैं। किन्तु जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि राजा मधुकर शाह बड़े ही भगवद्भक्त और साधु-सेवी थे, अतः मंत्री की बातें सुनकर उन पर दूसरा ही प्रभाव पड़ा। वे समझ गये कि श्री व्यासदास जी ने साधु-सन्तों का सीथ प्रसाद ग्रहण किया होगा, जिसे यह मंत्री जूठन समझ रहा है। इससे राजा की श्रद्धा श्री व्यासदास जी पर और अधिक हो गई। राजा सोचने लगा कि ओड़छा राज्य धन्य हो गया, जहाँ ऐसे भक्त ने जन्म लिया। एक बार यदि वे यहाँ आ जायें तो यह मेरा अति सौभाग्य होगा।
धन्य मात पितु धन्य हैं, धन्य सुह्मद अनुरक्त।
धन्य ग्राम वह जानिये, जहँ जन्मे गुरु-भक्त।।
(गुरु-महिमा)
राजा मधुकरशाह श्री व्यासदास जी को लिवा लाने के लिए स्वयं वृन्दावन जा पहुँचे और उनसे ओड़छा चलने के लिए आग्रह करने लगे। उन्होंने कहा-चाहे एक दिन के लिए ही सही, परन्तु आप मेरा अनुरोध मानकर ओड़छा अवश्य चलें। श्री व्यासदास जी उन्हें टालने लगे। कभी कहते कि अमुक मन्दिर में जाकर भगवान के दर्शन कर आइये, कभी कहते अमुक स्थान तो देख आइये, वहाँ भगवान ने अनुपम लीलाएँ की थीं, कभी कहते कि आज अमुक मन्दिर में उत्सव मनाया जा रहा है, उत्सव का आनन्द लीजिए और कभी किसी अन्य स्थान की महिमा कर राजा को वहाँ जाने के लिए कहते। इसी प्रकार कई दिन बीत गए। श्री व्यासदास जी का विचार था कि इस तरह टालने पर राजा स्वयं ही तंग आकर यहाँ से चले जायेंगे, परन्तु ऐसा हुआ नहीं। राजा उनकी बात मानकर उस मन्दिर अथवा स्थान पर हो आते और वापस लौटकर फिर अपना आग्रह दोहराने लगते। जब कई दिन बीत गए और श्री व्यासदास जी राज़ी न हुए तो राजा ने अपने अंगरक्षकों से कहा-इन्हें बलपूर्वक पालकी में बिठा कर ले चलो।
     जब अंगरक्षक बलपूर्वक उन्हें पालकी में बिठाने लगे तो श्री व्यासदास जी ने कहा-ठीक है। जब चलना ही है तो मुझे कम से कम अपने भाई-बन्धुओं से तो मिल लेने दो। राजा ने सोचा कि वे अपने गुरु-भाइयों से मिलना चाहते होंगे, अतः उसने अंगरक्षकों से कहा-इन्हें सबसे मिल लेने दो। अंगरक्षकों ने उन्हें छोड़ दिया। फिर क्या था! श्री व्यासदास जी एक वृक्ष के पास गए और लगे उससे भुजा फैलाकर मिलने और फूट-फूटकर रोने। राजा के अंगरक्षकों ने उस वृक्ष से हटाया तो दूसरे से रो-रोकर मिलने लगे। मिलते भी जाते और कहते भी जाते-तुम्हीं तो मेरे सब कुछ हो। तुम मुझ पर दया क्यों नहीं करते? मुझ दीन को क्यों त्याग रहे हो? मुझसे ऐसा कौनसा अपराध हो गया है? मुझे मत त्यागो। तुम सबसे विलग होकर मैं जीवित नहीं रह सकता।
     राजा मधुकरशाह उनकी ऐसी दशा देखकर रो पड़े और उनके चरणों में सिर रखकर बोले-मेरे दुराग्रह से आपको बहुत कष्ट हुआ। आपके ह्मदय को मैने बहुत व्यथित किया, फिर भी आपने मुझे कोई कठोर वचन नहीं कहा। मैं अब आपको ले जाने के लिए हठ नहीं करूँगा। आपकी जिसमें खुशी हो, आप वहीं करें। मेरे अपराध को क्षमा कर दें और अपना सेवक जानकर मुझे उपदेश करें।
     श्री व्यासदास जी ने कहा-आप तो विचारवान हैं और पहले ही भगवद्भक्त और साधु-सेवी हैं। बस इसी प्रकार अपना समय भजन-सुमिरण और सन्त सेवा में लगाते रहे, क्योंकि यह दोनों ही चीज़ें कल्याणकारी और संसार सागर से पार करने वाली हैं। जीवन क्षणभंगुर है और इसका कोई भरोसा नहीं कि कब हाथों से चला जाए। अन्त समय सिवाय सन्त-सेवा और भजन-सुमिरण की कमाई के और कोई वस्तु काम नहीं आती। रिश्तेनाते, मान-बड़ाई, राज्य-वैभव सब कुछ यहीं रह जायेगा। इसलिए जितना अधिक से अधिक हो, आप सन्त-सेवा और भजन-सुमिरण में अपना समय लगायें।
     ओड़छा नरेश वापस लौट गए। जब राजपुरोहितानी को पता चला कि राजा के आग्रह पर भी उसके पति नहीं लौटे, तो अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर वह वृन्दावन श्री व्यासदास जी के पास जा पहुंची, परन्तु उन्होंने उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा। वह फूट-फूटकर रोने लगी। लोगों ने जब सिफारिश की, तो श्री व्यासदेव जी ने कहा-जो नारी भक्ति-परमार्थ में न लगी हो, उसे अपने पास रखना तो मानो स्वयं ही यम के पाश में अपने आपको फँसाना है।
     यह सुनकर उसने श्री व्यासदास जी के चरणों में सिर रख दिया और विनय की-आप जैसे भी आज्ञा करेंगे, मैं उसी प्रकार रहूँगी, परन्तु मुझे अपने चरणों से विलग मत कीजिए। श्री व्यासदास जी ने कहा-एक शर्त पर तुम यहाँ रह सकती हो कि मेरे साथकोई सम्बन्ध नहीं रखना होगा और आश्रम में रहकर गुरु-आज्ञानुसार सेवा करनी होगी।
     उसके स्वीकार कर लेने पर श्री व्यासदास जी ने उसे गुरुदेव से दीक्षा दिलाई। उसका नाम "वैष्णवदासी' रखा गया। किन्तु पुत्रों को उन्होंने दीक्षा नहीं दिलवाई। जब उनके पुत्र बड़े हो गए, तो एक दिन एक पुत्र ने सन्त हरिदास जी की बड़ी प्रशंसा की। यह सुनकर श्री व्यासदास जी बहुत प्रसन्न हुए और उसे सन्त हरिदास जी से दीक्षा लेने के लिए कहा। उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर उसने सन्त हरिदास जी से दीक्षा ली और वह "चतुर युगल किशोरदास' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
     श्री व्यासदास जी भगवान के भक्त तो थे ही, सन्तों और भक्तों के भी भक्त थे। सन्तों-भक्तों को देखकर उनका ह्मदय गद्गद हो उठता था। नम्रता, दीनता, सहनशीलता तथा प्रेम के तो वे मानो साक्षात् स्वरुप थे। कहते हैं- एक बार इनकी महिमा सुनकर एक व्यक्ति ने इनकी परीक्षा लेने का विचार किया। वह भक्त का वेष बनाकर उनके पास पहुंचा और जाते ही बोला-मुझे बड़े ज़ोरों की भूख लगी है, शीघ्र भोजन कराओ।
     श्री व्यासदास जी ने उनके लिये आसन बिछाते हुए कहा-आप विराजिये, भगवान को भोग लगने ही वाला है। उस व्यक्ति ने कहा-मुझे बहुत भूख लगी है। पहले मुझे भोजन करा दो, भगवान को भोग बाद में लगाते रहना। श्री व्यासदास जी बोले-यह कैसे सम्भव है? आप तो भगवान के भक्त हैं। क्या भगवान को भोग लगाये बिना भोजन करेंगे? बस! कुछ ही पल की देर है। आप विराजिये, अभी भोजन आ जाता है।
     यह सुनते ही वह व्यक्ति गर्म हो गया और उनके प्रति अपशब्दों का प्रयोग करने लगा, परन्तु वे कुछ नहीं बोले, चुपचाप सुनते रहे। अन्य लोगों से न रहा गया। वे जब उस व्यक्ति को  रोकने लगे, तो श्री व्यासदास जी ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया। थोड़ी ही देर में भगवान को भोग लग गया। श्री व्यासदास जी ने भगवत्प्रसाद का थाल लाकर उस व्यक्ति के सामने रख दिया और हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहा-आप पहले प्रसाद पा लें, शेष जो कुछ कहना हो, बाद में कह लीजियेगा।
     वह व्यक्ति भोजन करने बैठा, तो व्यासदास जी पंखे से हवा करने लगे। जब उस व्यक्ति ने भोजन कर लिया तो खाली थाली उसने व्यासदास जी के सिर पर दे मारी। किन्तु वे फिर भी चुप रहे। यह देखकर उस व्यक्ति ने उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगी और उनका सेवक बन गया।
     श्री व्यासदास जी के विषय में अनेकों चमत्कारिक बातें भी पढ़ने-सुनने को मिलती हैं, उनमें से यहाँ एक घटना का वर्णन किया जाता है। एक बार ओड़छा-नरेश ने भगवान के लिए एक ज़रकशी पाग भेजी। श्री व्यासदास जी वह पाग भगवान को बाँधने लगे, परन्तु अनेक बार बाँधने पर भी जब उनसे ठीक प्रकार से पाग नहीं बँधी, तो वे पाग वहीं रखकर यह कहते हुए बाहर चले गए कि यदि मेरी बाँधी हुई पाग पसन्द नहीं आती, तो फिर स्वयं बाँध लें। कहते हैं कि थोड़ी देर बाद जब ये अन्दर गए तो देखा कि भगवान के शीश पर बड़े सुन्दर ढंग से पाग बँधी हुई है।
   श्री व्यासदास जी ने ब्राजभाषा में बहुत सारे पद लिखे हैं। निम्नलिखित पद उन्हीं का लिखा है।
जो सुख होत भक्त घर आये।
       सो सुख होत नहीं बहु सम्पति , बाँझहिं बेटा जाये।। टेक।।
जो सुख भक्तनि कौ चरणोदक, पीवत गात लगाये।
        सो सुख कबहुँ सपनेहुँ नहिं पैयत, कोटिक तीरथ न्हाये।।1।।
जो सुख होत भक्त वचननि सुनि, नैनन नीर बहाये।
        सो सुख कबहुँ न पैयत पितु घर, पूत कौ पूत खिलाये।।2।।
   जो सुख होत मिलत साधुनि सौं, छिन छिन रंग बढ़ाये।
      सो सुख होत न "ब्यास' रंक को, लंक सुमेरहिं पाये।।3।।

महर्षि ऋभु तथा निदाघ



महर्षि ऋभु के विषय में ऐसा माना जाता है कि वे ब्राहृा जी के मानस-पुत्र थे। उन्होंने पूर्ण तत्त्ववेत्ता अपने ज्येष्ठ भ्राता सनत्सुजात का शिष्यत्व ग्रहण किया और अत्यन्त श्रद्धा, निष्ठा एवं प्रेम से उनकी सेवा की। उनसे आत्मज्ञान की प्राप्ति करके वे सदा आत्मिक स्थिति में अवस्थित रहने लगे। कुछ समय के उपरान्त उन्होंने एक स्थान पर रहने की अपेक्षा भ्रमण करने का विचार किया। भ्रमण करते हुए वे एक दिन उस ओर जा निकले, जहाँ पुलस्त्य ऋषि का आश्रम था। उस समय वहाँ पुलस्त्य ऋषि का पुत्र निदाघ वेदाध्ययन कर रहा था। महर्षि ऋभु को देखकर निदाघ तुरन्त अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ, आगे बढ़कर अत्यन्त श्रद्धा से उन्हें प्रणाम किया, तत्पश्चात् आसन पर विराजमान होने के लिए विनय की। उसे संस्कारी एवं अधिकारी जानकर महर्षि ऋभु ने प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया और बोले-केवल सद्ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लेने से ही जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। जीवन का वास्तविक उद्देश्य तो आत्मज्ञान की प्राप्त करके आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है। आत्मज्ञान की प्राप्ति पूर्ण तत्त्वेत्ता सद्गुरु की कृपा से ही सम्भव है। आत्मज्ञान के बिना सभी ज्ञान थोथे हैं, परन्तु आत्मज्ञान की प्राप्ति यदि हो जाये तो फिर समझ लो कि सब कुछ जान लिया।
जो यह एक न जानिया, तो बहु जाने का होय।
एकै  तें  सब  होत  है , सब तें एक न होय।।
महर्षि ऋभु की प्रेरणा से निदाघ के ह्मदय में आत्मतत्त्व को जाने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। महर्षि के शरणागत होकर वह उनके साथ भ्रमण करते हुए हित्तचित्त एवं श्रद्धा से उनकी सेवा करने लगा। उसकी सेवा से महर्षि ऋभु प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे आत्मज्ञान का उपदेश देकर घर वापस जाने का आदेश दिया। गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर निदाघ अपने घर वापस चला गया। कुछ दिन के उपरांत उसके पिता पुलस्त्य ऋषि ने उसका विवाह कर दिया। अपने पिता के आश्रम से कुछ दूरी पर एक कुटिया बनाकर निदाघ अपनी पत्नी के साथ वहीं रहने लगा। शनैः शनैः वह पूरी तरह माया के चक्कर में फँस गया और गुरुदेव के उपदेश को भूल गया। महापुरुषों में यह विशेष गुण होता है कि जो एक बार उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, महापुरुष सदा के लिए उसके ज़िम्मेवार बन जाते हैं। वे सदैव ही उसे माया से बचाते हैं।
कबीर माया मोहिनी , सब जग घाला घानि।
सतगुरु की किरपा भई, नातर करती हानि।।
भली भई  जो  गुरु मिले , नातर होती हान।
दीपक जोति पतंग ज्यों, परता आय निदान।।
     निदाघ जब गुरु के उपदेश को भूलकर माया में लिप्त हो गया, तो उसे सचेत और सावधान करने के लिए महर्षि ऋभु वेष बदल कर उसकी कुटिया पर जा पहुँचे। निदाघ ने, जो अब गृहस्थी बन चुका था, गृहस्थ-धर्म के अनुसार उनका आदर-सत्कार कर उन्हें भोजन कराया। महर्षि ऋभु के भोजन कर चुकने पर निदाघ ने कहा-ऋषिदेव! आपका निवास स्थान कहाँ है? इस समय आप कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जाने का आपका विचार है? क्या भोजन से आपकी भूख की निवृत्ति हुई? क्या आप पूर्णतया तृप्त हो गये?
     निदाघ के इस प्रकार प्रश्न करने पर महर्षि ऋभु ने हँसते हुए कहा-तुमने मेरे निवास और आने-जाने के विषय में पूछा, सो आता-जाता तो शरीर है और मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ, आत्मा तो सर्वव्यापक है, हर जगह विद्यमान है, इसलिए उसका कहीं आना-जाना नहीं होता। इसलिए वत्स! आकाश की तरह सर्वव्यापक होने से मैं सब जगह विद्यमान हूँ, न कहीं आता हूँ और न ही कहीं जाता हूँ, भूख-प्यास के विषय में तुमने पूछा, सो भूख-प्यास भी शरीर को लगती है। मैं चूँकि शरीर नहीं हूँ। इसलिए मुझे भूख-प्यास लगने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रही तृप्त होने की बात, सो तृप्ति एवं अतृप्ति तो मन के धर्म हैं, मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं। फिर तृप्ति अतृप्ति के हेतु संसार के सभी रस परिवर्तनशील एवं अस्थायी है। मन का स्वभाव भी पल-पल बदलता रहता है। कभी रुचिकर पदार्थ भी मनुष्य को अरुचिकर प्रतीत होने के कारण उसे तृप्त नहीं कर सकते और कभी ऐसा भी होता है कि अरुचिकर पदार्थ भी उसके लिए तृप्तिकारक बन जाते हैं। इसलिए इन परिवर्तनशील एवं विषम स्वभाव वाले सांसारिक अथवा मायिक रसों पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए। आम संसारी मनुष्य माया के चक्र में पड़कर और स्वयं को शरीर समझकर जीवनपर्यन्त इन रसों के दीवाने बने रहते हैं और अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। माया के चक्कर में आकर वे अपने वास्विक स्वरुप को सदैव भूले रहते हैं। किन्तु निदाघ! तुम माया के चक्कर में पड़कर अपने वास्तविक स्वरुप को मत भूलो।
     ये वचन सुनकर निदाघ उनके चरणों में गिर पड़ा। तब महर्षि ऋभु ने स्वयं को उसके सामने प्रकट कर दिया। गुरुदेव के दर्शन कर निदाघ अत्यन्त प्रसन्न हुआ। महर्षि ऋभु उसे पुनः उपदेश देकर अन्यत्र चले गये। कुछ दिनों के उपरान्त महर्षि ऋभु पुनः वेष बदल कर निदाघ के पास गये। संयोगवश उस समय वहाँ से राजा की सवारी निकल रही थी जिस कारण लोगों की वहाँ भीड़ लगी थी। निदाघ भी वहीं एक स्थान पर खड़ा था। महर्षि ऋभु उसके निकट जाकर खड़े हो गए,फिर पूछा-यहाँ भीड़ क्यों लगी है? निदाघ ने उनकी ओर दृष्टि उठाकर देखा, परन्तु उन्हें पहचान न सका। उसने उत्तर दिया-सामने देखो! राजा की सवारी निकल रही है, उसे देखने के लिए ही यहाँ लोग जमा हैं।
     महर्षि ऋभु ने पूछा-इनमें राजा कौन है? निदाघ ने उत्तर दिया-वह जो विशालकाय हाथी के ऊपर सवार है, वही राजा है। महर्षि ऋभु ने कहा-ऊपर और नीचे से तुम्हारा क्या अभिप्राय है, मुझे अच्छी तरह समझाकर बताओ। यह सुनकर निदाघ चिढ़ गया। वह तुरन्त महर्षि की पीठ पर सवार हो गया और बोला-मैं राजा की भाँति ऊपर हूँ और आप हाथी की भाँति नीचे हैं। महर्षि ने हँसते हुए कहा-यह तो ठीक है कि तुम राजा की भाँति ऊपर हो और मैं हाथी की भाँति नीचे हूँ, परन्तु तुम कौन हो और मैं कौन हूँ?
     ये शब्द सुनते ही निदाघ चौंक उठा। वह झट महर्षि ऋभु की पीठ से उतरकर उनके चरणों में गिर पड़ा और रोकर विनय करने लगा-आप अवश्य ही मेरे गुरुदेव हैं, जो बार-बार मुझे उपदेश देकर सन्मार्ग दर्शाते हैं। प्रभो! मैंने अनजाने में आपके प्रति बड़ा भारी अपराध किया है, आप कृपालु हैं, क्षमाशील हैं, मेरा अपराध क्षमा करें।
   सन्त महापुरुष स्वभाव से ही क्षमाशील, दया के सागर एवं करुणा के अवतार होते हैं। कथन हैः-
सद कृपाल दुख परिहरन, वैर भाव नहिं कोय।
छिमा ज्ञान सत भाखहीं, हिंसा रहित जो होय।
     महर्षि ऋभु ने निदाघ को क्षमा कर दिया और पुनः आत्मतत्त्व का उपदेश किया। उनकी कृपा से निदाघ आत्मज्ञान प्राप्त कर अपनी सहज अवस्था में अवस्थित हो गया।
     महापुरुषों की यह कितनी महान कृपा होती है कि वे बार-बार अपने हितकारी एवं मंगलमय उपदेशों द्वारा जीव को वास्तविकता का बोध कराते हैं, आज भी करा रहे हैं। जब उनकी हम जीवों पर इतनी कृपा है और वे अपने पावन तन पर कष्ट सहन कर दिन-रात हमारे आत्म कल्याण के कार्य में संलग्न हैं, तो फिर हमारा भी कर्तव्य हो जाता है कि उनकी चरण-शरण ग्रहण कर उनसे आत्मज्ञान की प्राप्ति करें और अपनी आत्मा का कल्याण करके अपना जन्म सफल एवं सकार्थ करें।

भक्त ज्योतिपंत जी



      अठारहवीं शताब्दी की बात है, महाराष्ट्र प्रान्त के सतारा ज़िले के बिटे नामक गाँव में एक ब्रााहृण रहते थे, जिनका नाम था-गोपाल पंत। वे विद्वान थे और विद्यार्थियों को पढ़ाकर जैसे-तैसे जीवन-निर्वाह करते थे। गोपाल पंत विवाहित थे और उनका एक पुत्र था, जिसका नाम था-ज्येतिपंत। गोपाल पंत की पत्नी बड़ी भक्तिमती थी और प्रातःकाल उठकर प्रभु-नाम का जाप नित्यनियम से किया करती थी। माता को नाम का जाप करते देखकर ज्योतिपंत भी उसके पास आकर बैठ जाते और माता के स्वर में स्वर मिलाकर जाप करने लगते। धीरे-धीरे उनमें भक्ति के भाव दृढ़ होते गए। गोपाल पंत ने उन्हें विद्या पढ़ाने का बहुत प्रयत्न किया, अनेक प्रकार से समझाया, यहाँ तक कि उन्हें मारा-पीटा भी, परन्तु भगवान के नाम के अतिरिक्त ज्योति पंत को न तो कुछ पढ़ना ही आया और न ही कुछ याद हुआ, यहाँ तक कि गायत्री मन्त्र भी उनसे न रटा गया। इस प्रकार ज्योति पंत की आयु बीस वर्ष की हो गई।
     एक व्यक्ति विद्वान हो, दूसरों को विद्या-दान देता हो, पढ़ा लिखाकर उन्हें इस योग्य बनाता हो कि संसार में वे विद्वान कहलायें और सही ढंग से अपना जीवन-निर्वाह करें, परन्तु उसी का अपना पुत्र निरक्षर भट्ट हो, तो उसे दुःख होना स्वाभाविक है। अपने पुत्र ज्योति पंत को भी अनपढ़ देखकर गोपाल पंत को बहुत दुःख तो होता ही, ग्रामवासियों के सम्मुख उन्हें लज्जा भी अनुभव होती। इसी दुःख में एक दिन उन्हें क्रोध आ गया और वे ज्योति पंत को बुरी तरह से फटकारते हुए बोले-""तुम्हारे जैसे पुत्र की अपेक्षा तो पुत्रहीन रहना अधिक अच्छा है। मेरी आँखों से दूर हो जाओ और तब तक मेरे सामने न आना जब तक तुम विद्या पढ़कर विद्वान न हो जाओ। मैं तुम्हारे जैसे अनपढ़ एवं अयोग्य पुत्र का मुँह भी नहीं देखना चाहता।''
     गोपाल पंत विद्वान थे, परन्तु कोरे विद्वान। सन्त महापुरुषों का कथन है कि शास्त्र पढ़-पढ़कर और उन्हें मुखाग्र कर चाहे कोई कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न हो जाए,यदि उस ह्मदय में भगवान के नाम का वासा नहीं हुआ, भगवान की याद यदि उसके ह्मदय में नहीं है तो फिर उसकी सारी विद्वत्ता, उसका सभी पढ़ना-पढ़ाना थोथा है। सत्पुरुष श्री गुरुनानकदेव जी महाराज फरमाते हैं किः-
पड़ि पड़ि गडी लदीअहि पड़ि पड़ि भरीअहि साथ।
पड़ि  पड़ि बेड़ी पाईये पड़ि पड़ि गडीअहि खात।।
पड़िअहि  जेते  बरस  बरस  पड़ीअहि जेते मास।
पड़अहि  जेती  आरजा   पड़ीअहि   जेते  सास।
नानक  लेखे इक गल होरु हउमै झखणा झाख।।
अर्थः-""यदि पढ़ पढ़कर इतनी पुस्तकें एकत्र कर ली जाएँ कि उनसे गाड़ियाँ भर जाएँ और साथ ले जाते समय काफ़िला बन जाए, पढ़-पढ़कर इतनी पुस्तकें एकत्र कर ली जाएँ कि नदी पार करते समय नाव उनसे भर जाए अथवा खेत उनसे पुर हो जाये, जीवन के जितने वर्ष और जितने मास हैं, सब पढ़ने में व्यतीत कर दिये जाएँ, आयु पर्यन्त पढ़ा जाए और श्वास-श्वास में पढ़ा जाए, तो भी यह किसी लेखे में नहीं है। श्री गुरुनानक देव जी महाराज फरमाते हैं कि लेखे में तो एक ही बात है कि ह्मदय में भगवान का नाम बस जाए, भगवान की याद बस जाए। यदि यह नहीं हुआ तो फिर सब पढ़ना-लिखना जीवन पर्यन्त झख मारना ही है।'' इस विषय में यहाँ सत्पुरुष श्री गुरु नानकदेव जी महाराज के बाल्यकाल की कथा दे देना उचित प्रतीत होता है,क्योंकि उपरोक्त विषय पर वह पूरा-पूरा प्रकाश डालती है।
      श्री गुरु नानकदेव जी को उनके पिता कालू बेदी पंडित जी के पास ले गए ताकि वे कुछ पढ़-लिख लें।
पंडित जी ने जब पट्टी लिखकर श्री गुरु नानकदेव जी को दी तो उन्होने पंडित जी से प्रश्न किया-""पंडित जी! क्या आप स्वयं पढ़े-लिखे हैं जो मुझे पढ़ाने जा रहे हैं।'' पंडित जी बोले-""मैं सब कुछ पढ़ा हुआ हूँ-हिसाब-किताब, भूगोल, इतिहास आदि सभी कुछ पढ़ा हूँ। इसके अतिरिक्त वेद-शास्त्र भी मुझे कण्ठस्थ हैं।''श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया-""यह जो कुछ पढ़ाई है, यह सब तो व्यर्थ है।''
पंडित जी ने पूछा-'' फिर कौन सी पढ़ाई पढ़ना सार्थक है। यदि आपको पता है तो बताओ। सारा संसार तो यही पढ़ाई पढ़ता है जो हम पढ़ाते हैं।''तब श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमायाः-
""जालि  मोहु  घसि  मसु करि मति कागदु करि सारु।।
भाउ कलम करि चितु लेखारी गुर पुछि लिखु बीचारु।।
  लिखु  नामु  सालाहु लिखु लिखु अंतु न पारावारु।।1।।
बाबा एहु लेखा लिखि जाणु।।
     जिथै  लेखा  मंगीए  तेथै  होइ सचा नीसाणु।।1।।रहाउ।।
अर्थः- माया के मोह को जलाकर कोयला कर दो और उस कोयले को पीस कर स्याही बनाओ, शुद्ध विचार वाली निर्मल मति का कागज़ बनाओ, प्रेम की लेखनी करो, चित्त को लेखक बनाकर गुरु से पूछकर उसके बताये हुए विचारों को लिखी। अपनी शुद्ध बुद्धि के कागज़ पर परमात्मा का नाम लिखो, परमात्मा की गुण-स्तुति लिखो और उसकी अनन्तता का वर्णन लिखो। बाबा! इस प्रकार का लेखा लिखना सीखो ताकि जहाँ अर्थात् प्रभु के दरबार में तुम्हारे लेखों की जाँच होनी है, वहाँ उन लेखों की परवानगी तुम्हारे पास पहले से ही मौजूद हो।''
     पंडित जी ने प्रश्न किया-""जो परमेश्वर का नाम जपते हैं तो उनको नाम जपने से क्या लाभ होता है?'' श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमायाः-
""जिथै  मिलै  वडिआईआं  सद खुसीआं सद चाउ।
तिन मुखि टिके  निकलहि जिन मनि सचा नाउ।।
करमि मिलै ता पाईए नाही गली वाउ दुआउ।।2।।
अर्थः-जिनके पास परमेश्वर के नाम की पूँजी होती है, परमात्मा के दरबार में उनकी ही इज्ज़त होती है और उनकी ही स्थायी खुशियाँ और स्थायी आनन्द प्राप्त होता है। उन्हीं के माथे तिलक लगता है अर्थात् वहाँ वही सम्मान पाते हैं जिनके ह्मदय में परमात्मा का सच्चा नाम बसा होता है। किन्तु नाम की प्राप्ति तभी होती है जब प्रभु की कृपा होती है, व्यर्थ की बातें बनाने से नाम की प्राप्ति नहीं होती।''
     श्री गुरुनानकदेव जी के वचन सुनकर पंडित जी बड़े चकित हुए। उन्होंने कहा-""जो परमेश्वर का नाम जपते हैं, उनके लिए प्रायः ऐसा देखा जाता है कि जीवन में उन्हें न तो खाने-पीने को ही अच्छा मिलता है और न ही ढंग का कपड़ा पहनने को मिलता है। इसके विपरीत जो परमेश्वर को कभी याद नहीं करते, वे ऐश करते हैं और संसार के सुख भोगते हैं। श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमायाः-
इकि आवहि इकि जाहि उठि रखीअहि नाव सलार।।
                           इकि  उपाय  मंगते  इकना  वडे  दरबार ।।
      अगै गइआ जाणीऐ विणु नावै बेकार।।3।।
अर्थः-संसार में कोई जीव आता है (जन्म लेता है) कोई यहाँ से जाता है (मृत्यु को प्राप्त होता है) और कोई अपने को सबका सरदार कहाता है। एक जन्मजात निर्धन और भिखमंगा होता है और एक दरबार सजाता है, परन्तु आगे (परलोक में) जाने पर ही पता लगता है कि नाम के बिना अमीरी और सरदारी सब बेकार है।'' आगे फरमायाः-""पंडित जी! यदि यहाँ कोई धनवान है और अनेक प्रकार के सुख भोगता है, परन्तु परमात्मा का नाम नहीं सुमिरता तो उनको आगे ऐसा दण्ड मिलेगा जैसे अनाज के दानों को चक्की देती है, तिलों को तेली देता है और कपड़े को धोबी देता है। इसके विपरीत जो परमेश्वर का भजन-सुमिरण करते हैं, वे यहाँ चाहे माँग कर खाते हैं, परन्तु परमेश्वर के दरबार में उनको बड़ाई मिलेगी और धर्मराज भी उनका आदर करेगा।''
     यह सुनकर पंडित जी बोले-""आप तो बड़ी भक्ति वाली बातें करते हैं। अभी तो आप बालक हैं, आपने अभी माता-पिता को सुख देना है। आपने भी संसार का सुख देखना है। अभी आपकी आयु ही क्या है? अभी तो आपने गृहस्थ करना है और संसार के सम्बन्ध निभाने हैं, अभी से भक्ति की बातें क्यों करते हैं?'' यह सुनकर श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-""पंडित जी, सुनिये!
भै  तेरै  डरु  अगला  खपि  छिजै  देह ।।
नाव  जिना  सुलतान खान होंदे डिठे खेह।।
 नानक उठी चलिआ सभि कूड़े तुटे नेह।।4।।
अर्थः-साहिब का भय और आगे का अर्थात् परलोक का डर मुझे कचोटता है। मेरा शरीर दुखित होकर छीज रहा है, क्योंकि जो यहाँ अपने को खान और सुलतान कहाते हैं, वे सब भरकर मिट्टी में मिलते देखे गए हैं। प्रत्येक जीव अन्ततः संसार से विदा हो जाता है और सभी मिथ्या नेह के नाते टूट जाते हैं। इसलिए पंडित जी! इस मिथ्या संसार और संसार के मिथ्या सम्बन्धों से क्या प्रीत करनी है और इस संसार की पढ़ाई को क्या पढ़ना है? भक्ति की सच्ची पढ़ाई पढ़नी चाहिये और उस परमेश्वर के नाम का सुमिरण करना चाहिये जो सकल सृष्टि का स्वामी है।''
      बस! उन पंडित जी की तरह की गोपाल पंत की भी दशा थी अर्थात् वे विद्वान तो अवश्य थे, दूसरों को पढ़ा-लिखाकर विद्वान भी बनाते थे, परन्तु सच्ची पढ़ाई से वे कोसों दूर थे। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं था कि जिसने प्रभु-नाम के दो अक्षर पढ़ लिए, प्रभु-नाम को अपने ह्मदय में बसा लिया, उसने मानों सब कुछ पढ़ लिया। किन्तु जिसने यह पढ़ाई नहीं पढ़ी, वह सब शास्त्रों का ज्ञाता होते हुए भी मानो अनपढ़ है। सत्पुरुषों के वचन हैं किः-
जिन  यह  एकै  जानिया , तौ  जाने  सब जान।
जिन यह एक न जानिया, तौ सब जान अजान।।
     इस प्रकार गोपाल पंत जहाँ केवल सांसारिक विद्या में ही प्रवीण थे, वहाँ ज्योति पंत प्रभु-नाम की सच्ची पढ़ाई पढ़कर अपना लोक-परलोक संवारने में लगे हुए थे।
     अस्तु, जब गोपाल पंत ने अपने पुत्र ज्योति पंत को फटकारते हुए ये शब्द कहे कि ""तुम्हारे जैसे पुत्र की अपेक्षा तो पुत्रहीन रहना अधिक अच्छा है। मेरी आँखों से दूर हो जाओ और तब तक वापस न आना जब तक तुम विद्या पढ़कर विद्वान न हो जाओ। मैं तुम्हारे जैसे अनपढ़े अयोग्य पुत्र का मुँह भी नहीं देखना चाहता'' तो ज्योति पंत उसी समय घर से निकल पड़े और वन की ओर चल दिये। ज्यों-ज्यों वे चलते गए, वन अधिक घना होता गया। वन में काफी आगे जाने पर वे एक ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ गणेश जी का एक मन्दिर था। मन्दिर को देखकर इस बात का स्पष्ट भान होता था कि वर्षों से इस मन्दिर में कभी कोई नहीं आया, क्योंकि मन्दिर की दीवारें जीर्ण-शीर्ण हो रही थीं और अन्दर धूल-मिट्टी जमा थी। गणेश जीे की प्रतिमा को देखते ही ज्योति पंत को पिता के एक बार कहे हुए वचन याद आ गए कि गणेश जी सभी विद्याओं के दाता है। ज्योति पंत सोचने लगे कि गणेश जी को प्रसन्न कर उनसे विद्या का वरदान माँगना चाहिए। बस! फिर क्या था? ज्योति पंत वहीं डट गए। उन्होंने वृक्ष की पतली-पतली टहनियां तोड़ कर एक झाड़ू बनाई और सर्वप्रथम मन्दिर की अच्छी तरह से सफाई की। मन्दिर के निकट ही एक छोटी-सी नदी बह रही थी। ज्योति पंत ने उसमें स्नान किया। तत्पश्चात् पत्तों का एक दोना बनाया और नदी से उस दोने द्वारा जल ला-लाकर गणेश जीे की मूर्ति को स्नान कराया, फिर वे गणेश जी की मूर्ति के सम्मुख बैठ गए और लगे प्रार्थना करने।
     इधर ज्योति पंत की माता को जब इस बात का पता चला कि पिता के बुरी तरह से डाँटने-फटकारने पर ज्योति पंत कहीं चले गए हैं, तो वह चिंतित हो उठी। पास-पड़ोस में उनके जो मित्र और सहपाठी थे, माता ने सभी से पूछताछ की, परन्तु ज्योति पंत के बारे में कुछ भी पता न लगा कि वे किधर गए। माता के दुःख का पारावार न रहा। उसने रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लिया। गोपाल पंत ने गाँव के आसपास सब जगह खोज की, अनेक लोगों से पूछा, परन्तु ज्योति पंत के विषय में कुछ भी पता न लगा। इस प्रकार सात दिन बीत गए।
     उधर मन्दिर में ज्योति पंत निरन्तर छः दिन तक गणेश जी से प्रार्थना करते रहे। उन्होंने इन छः दिनों में न ही कुछ खाया, न पिया और न ही एक पल के लिए भी आँख झपकी। उन्होंने ह्मदय में यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि जब तक गणेश जी साक्षात् प्रकट नहीं होंगे, तब तक वे जल भी ग्रहण नहीं करेंगे, चाहे उनकी मृत्यु ही क्यों न हो जाए? उनका ऐसा दृढ़ निश्चय देखकर अन्ततः गणेश जी प्रकट हुए और ज्योतिपंत से वरदान माँगने को कहा। ज्योति पंत गणेश जी के दर्शन कर अति प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा-""भगवन्! पहले तो मेरे मन में यह इच्छा थी कि मैं आपसे विद्या का वरदान माँगूँगा, परन्तु अब विद्या की मुझे कोई इच्छा नहीं रही। अब तो आप मुझे भगवान की निष्काम प्रेमाभक्ति का ही वरदान दीजिये।''
     गणेश जी ने प्रसन्न होकर कहा-""तुम्हारी पहली इच्छा तो इसी क्षण पूरी हो जायेगी अर्थात् इसी क्षण से तुम्हें सारी विद्यायें आ जायेंगी। किन्तु तुम्हारे मन में भगवान की प्रेमाभक्ति की जो इच्छा है, वह कुछ समय के बाद पूरी होगी। तुम जब काशी जाओगे तो वहां सन्त श्री व्यासदेव जी से, जो समय के पूर्ण महापुरुष हैं, तुम्हारा मिलाप होगा। उनकी शरण में जाने पर तुम्हें तत्त्वज्ञान की भी प्राप्ति होगी और भगवान की प्रेमा-भक्ति की भी। आवश्यकता पड़ने पर मुझे याद करना, मैं हर प्रकार से तुम्हारी सहायता करुँगा। यह कहकर गणेश जी अन्तर्धान  हो गए। ज्योतिपंत गणेश जी से वरदान प्राप्त कर घर वापस आ गए। उन्हें देखकर माता की जान में जान आई। जब गोपाल पंत तथा अन्य ग्रामवासियों को ज्योति पंत ने यह बताया कि गणेश जी के वरदान से उन्हें सभी विद्यायें प्राप्त हो गई हैं, तो उनकी बातों पर किसी को विश्वास न आया। परन्तु जब उन्होंने शास्त्रों के अनेक श्लोक सुनाये तथा पिता के अनेक प्रश्नों का समुचित उत्तर दिया, तब जाकर कही ग्रामवासियों को तथा उनके पिता को उनकी बातों पर विश्वास हुआ। उनको सभी विद्याओं में पारंगत देखकर गोपाल पंत को अत्यन्त प्रसन्नता हुई।
     ज्योतिपंत के मामा, जिनका नाम महीपति था, पूना में रहते थे और पेशवा के प्रधान कार्यकर्ता थे। उनका सारा हिसाब-किताब महीपति ही रखते थे। उनके अधीन कई कर्मचारी थे ज्योतिपंत की माता ने उन्हें महीपति के पास भेजने का विचार किया। एक दिन अवसर पाकर उसने अपने पति गोपाल पंत से कहा-""मेरा विचार है कि ज्योति को महीपति के पास पूना भेज दिया जाए। उसके पास रहकर यह कुछ काम-काज सीख जायेगा और हो सकता है, वहीं राज्य में इसे कोई अच्छी-सी नौकरी भी मिल जाए। तब इसका विवाह होने में भी आसानी रहेगी। आगे जैसा आप उचित समझें।''
     गोपाल पंत इस बात पर राज़ी हो गए और ज्योति पंत को पूना भेज दिया गया। महीपति ने चार रुपये महीने की नौकरी पर उन्हें अपने पास ही रख लिया। उन्हीं दिनों क्या हुआ कि पेशवा को किसी ने शिकायत कर दी कि महीपति हिसाब-किताब ठीक से नहीं रखते। उनका काम बिल्कुल अधूरा पड़ा है, पता नहीं इसका क्या कारण है? आप इस बात का पता लगायें और बही-खातों का स्वयं निरीक्षण करें, हो सकता है उनके हिसाब-किताब में गड़बड़ी हो। पेशवा को अब तक महीपति पर पूरा विश्वास था, क्योंकि महीपति एक ईमानदार और सच्चे व्यक्ति थे, परन्तु शिकायत करने वाले ने कुछ इस ढंग से बातें कीं कि पेशवा के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। उन्होंने महीपति को बुलाकर कहा-""तीन दिन में सारा हिताब-किताब बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत करो, यह हमारा आदेश है। हम स्वयं उसकी जाँच करेंगे।''
     पेशवा का यह आदेश सुनकर महीपति घबरा गए, क्योंकि काम बहुत अधिक बाकी पड़ा था। कार्यालय के सारे कर्मचारी मिलकर यदि दिन-रात भी काम करते तो कार्य पूरा होने में कम से कम एक महीना अवश्य लग जाता। किन्तु पेशवा के समक्ष कुछ कहने का महीपति का साहस न हुआ। उन्हें चिंतातुर देखकर ज्योति पंत ने उनसे कहा-""मामा जी! आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें। मैं तीन दिन में सारा हिसाब-किताब ठीक कर दूंगा। आप मेरी बात पर विश्वास करके केवल इतना करें कि एक एकान्त कमरे में बही-खाते रखवाकर कमरा बन्द कर दें जिससे कि मैं निर्विघ्न रुप से अपना कार्य कर सकूँ।'' यह सुनकर सभी कर्मचारी खूब ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। एक कर्मचारी ने हँसी भरे स्वर से कहा-""जिस कार्य को हम सब मिलकर एक महीने में भी पूरा नहीं कर सकते, यह कल का छोकरा तीन दिन में पूरा कर देगा।'' यह कहते हुए ठहाका मारकर हँसा। किन्तु ज्योति पंत उन कर्मचारियों के हँसने पर तनिक भी विचलित न हुए। उनके चेहरे पर ऐसा दृढ़ता और आत्म-विश्वास झलकता देखकर महीपति ने ज्योति पंत की बात मान ली और एक कर्मचारी को सब व्यवस्था करने का आदेश दिया। एक कमरे में गद्दा-तकिया लगा दिया गया, रोशनी के लिए लैम्प रख दिया गया। और बही-खाते, कलम-दवात तथा कागज़ आदि भी रख दिए गए। इसके अतिरिक्त खाने के लिए फल और पीने के लिए जल भी रख दिया गया। ज्योति पंत ने उस कमरे में प्रविष्ट होकर कहा-""मामा जी! आप बाहर से द्वार बन्द कर लें और जब तक मैं आवाज़ न दूँ, द्वार न खोलें। मैं तीन दिनों में सारा कार्य पूरा कर दूँगा, आप विश्वास रखें।''
     महीपति ने द्वार बन्द किया और बाहर से साँकल चढ़ाकर ताला लगा दिया। द्वार बन्द हो जाने पर ज्योति पंत ने गणेश जी की स्तुति कर उनका स्मरण किया। गणेश जी तुरन्त प्रकट हो गए। ज्योति पंत ने उन्हें सारी बात बताते हुए कहा-""मैने मामा जी को वचन दिया है कि तीन दिन में सारा हिसाब बना दूँगा। आप इस कार्य में मेरी सहायता करें।'' गणेश जी ने कलम हाथ में पकड़ी और कुछ ही क्षणों में सब बही-खाते ठीक करके वे अन्तर्धान हो गए।
    इधर दो दिन तो जैसे-तैसे बीत गए। तीसरे दिन कुछ लोगों ने महीपति से कहा-""तुमने अनुभवहीन बालक पर विश्वास कर लिया यह ठीक नहीं किया। वह बही-खाते कहाँ से ठीक कर लेगा? दूसरी बात यह कि तुमने उसे कमरे में बन्द करके बाहर से ताला लगा दिया है, यदि उसको कुछ हो गया तो सारा पाप तुम्हारे सिर पर होगा। तुम्हें सारा जीवन उसके माता-पिता की बातें सुननी  पड़ेंगी। और यदि उसकी दुःखी माता ने तुम्हें शाप दे दिया तो तुम कहीं के न रहोगे।'' महीपति तो वैसे ही यह सोचकर अत्यन्त व्याकुल हो रहे थे कि न जाने ज्योतिपंत से खाते पूरे होंगे भी या नहीं, अब लोगों की बातें सुनकर तो वे बुरी तरह घबरा गए और तुरन्त कमरा खोलने के लिए तैयार हो गये। जैसे ही उन्होंने ताला खोला,अन्दर से ज्योति पंत की आवाज़ आई-""मामा जी! द्वार खोल दीजिये, बही-खाते सब तैयार हैं।'' द्वार खोल दिया गया। महीपति तथा अन्य लोगों ने बही-खाते देखे। बही-खाते सचमुच ही तैयार थे। यह देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग दाँतों तले अंगुली दबाने लगे।
     तब तक पेशवा को किसी ने सारी स्थिति से अवगत करा दिया था कि काम बहुत अधिक है, तीन दिन में किसी तरह भी पूरा नहीं हो सकता। उसे पूरा करने के लिए कम से कम एक महीना चाहिए। फिर उसने ज्योति पंत वाली सारी बात भी बता दी कि उसने तीन दिन में बही-खाते पूरे कर देने का विश्वास महीपति को दिलाया है। सारी बात सुनकर पेशवा ने पहले तो महीपति को बुलाने का विचार किया, परन्तु फिर यह सोचकर अपना विचार बदल दिया कि देखें! ज्योति पंत क्या करता है?
     चौथे दिन महीपति ने बही-खाते पेशवा के सामने प्रस्तुत किये। जाँच करने के लिए पेशवा ने खाते खोले। अक्षर देखकर पेशवा आश्चर्यचकित रह गया, क्योंकि अक्षर इतने अधिक सुन्दर थे कि आजतक इतने सुन्दर अक्षर उसने न देखे थे। उसने महीपति से कहा-""ये बही-खाते किसने तैयार किये हैं, उसे मेरे सामने उपस्थित करो।'' महीपति ने तुरन्त ज्योतिपंत को बुलवाया और पेशवा को उसका परिचय देते हुए बताया कि यह मेरा भाँजा है। पेशवा ने ज्योतिपंत से पूछा-""इतना सारा काम तुमने तीन दिन में कैसे पूरा किया? फिर अक्षर भी इतने सुन्दर हैं कि देखते ही बनते हैं।'' ज्योतिपंत ने कुछ नहीं छिपाया, सारी बातें सच-सच बता दीं कि यह सब गणेश जी की कृपा से ही सम्भव हुआ है। यह भी बता दिया कि गणेश जी की कृपा से ही उन्हें सब विद्यायें भी प्राप्त हुई हैं। ज्योतिपंत पर गणेश जी की इतनी कृपा देखकर पेशवा बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने ज्योति पंत का बड़ा आदर-सम्मान किया और अपने हाथ से राजकीय मुहर और अधिकार की पोशाक देकर उन्हें पुरन्दरपुर के किले की रक्षा का भार सौंप दिया। अब ज्योति पंत का सम्मान महीपति से भी अधिक बढ़ गया। वे पुरन्दरपुर के किले में चले गए। किन्तु कुछ ही दिनों के पश्चात् उन्हें स्वप्न में गणेश जी ने दर्शन देकर कहा-""अब भगवान की विशेष दया तुम पर उतरने वाली है, इसलिये तुम काशी चले जाओ।'' प्रातः होते ही ज्योति पंत ने सर्वप्रथम कार्य यह किया कि अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और पेशवा की नौकरी से सदा के लिए छुट्टी ले ली और काशी की ओर चल पड़े।
     ज्योति पंत काशी पहुंचे। वहां दूसरे दिन वे मणिकणिका घाट पर गंगा जी में खड़े हुए मंत्र जप कर रहे थे कि एक व्यक्ति ने उनके निकट पहुँचकर उन पर जल उछाला। ज्योति पंत ने देखा कि एक मलेच्छ उन पर जल उछाल रहा है तो वे बड़े कुपित हुए। उन्होंने यह सोचकर कि यह मलेच्छ ने उनपर जल उछालकर उन्हें भ्रष्ट कर दिया है, गंगा जी में पुनः डुबकी लगाई और फिर जप करने लगे। उस व्यक्ति ने उनपर पुनः जल उछाल दिया। ज्योति पंत क्रोध में आकर बड़बड़ाने लगे। यह देखकर वह व्यक्ति हँसने लगा। ज्योति पंत ने उससे हँसने का कारण पूछा, तो उसने कहा-""गंगा जी तो सबको पवित्र करने वाली हैं, इसीलिये शास्त्रों ने उनकी इतनी महिमा गाई गई है, फिर क्या गंगा जी में स्नान करके मैं पवित्र नहीं हो गया? तुम्हारे ऊपर भी तो मैने गंगाजल ही उछाला है, तो क्या गंगा जल के छींटें पड़ने से तुम अपवित्र हो गए? सबको पुनीत करने वाली पतितपावनी गंगा जी क्या मेरे स्पर्श से स्वयं अपवित्र हो गर्इं? गंगा जी के लिए तो कहा गया है किः-
योजनानां  सहरुोषु  गंगां स्मरति यो नरः।
अपि  दुष्कृतर्मासौ  लभते  परमां गतिम्।।
कीर्तनान्मुच्यते पापैर्दृष्ट्वा भद्राणि पश्यति।
अवगाह्र च पीत्वा च पुनात्यासप्तमं कुलं।।
पदमपुराण
अर्थ-ः ""जो मनुष्य सहरुाों योजन दूर से भी गंगा जी का स्मरण करता है, वह पापाचारी होने पर भी परमगति को प्राप्त होता है। मनुष्य गंगा जी का नाम लेने से पाप मुक्त होता है, दर्शन करने से कल्याण का दर्शन करता है तथा स्नान करने से और जल पीने से अपने कुल की सात पीढ़ियों को पवित्र कर देता है।'' गंगा जी की ऐसी जो महिमा लिखी गई है तो क्या यह कथन असत्य है? फिर तुम क्या सोचकर गंगा जी में स्नान कर रहे हो? मेरे इन सब प्रश्नों का उत्तर दो। मेरे एक अन्य प्रश्न का भी उत्तर दे दो। ऐसा कहा जाता है कि सम्पूर्ण
प्राणियों में उस परमात्मा की ही ज्योति विराजमान् है जैसा कि श्वेताश्वतर उपनिषद् में वर्णन किया गया हैः-
एको  देवः  सर्वभुतेषु  गूढः  सर्वव्यापी  सर्वभूतान्तरात्मा।
       कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।। 6/11
अर्थः-वह एक देव ही समस्त प्राणियों में छिपा हुआ, सर्वव्यापी और समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी परमात्मा है। वही सबके कर्मों का अधिष्ठाता, सम्पूर्ण भूतों का निवास-स्थान, सब का साक्षी, चेतन स्वरुप एवं सबको चेतना प्रदान करने वाला, सर्वथा विशुद्ध और गुणातीत है। तो क्या महापुरुषों का यह कथन भी असत्य है? क्या मलेच्छ में भी वही ज्योति विराजमान नहीं है?''
     अब तो ज्योति पंत को सन्देह हुआ। उसने प्रश्न किया-""सच-सच बतायें, आप कौन हैं?'' उस व्यक्ति ने कहा-""मैं वही हूं जिसकी खोज में तुम यहाँ आए हो?''
     यह कहकर सन्त श्री व्यासदेव जी गंगा जी से बाहर आ गए और उन्होंने मलेच्छ वाले वस्त्र उतार दिये। ज्योतिपंत भी गंगा जी से बाहर आए और श्री व्यासदेव जी के चरणों में गिर पड़े और अपने अपराध के लिए क्षमा मांगने लगे। श्री व्यासदेव जी ने उन्हें उठाया और अपने आश्रम पर ले गये। और उन्हें तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया। तत्पश्चात् श्री व्यासदेव जी ने कहा-""तुम्हारी इच्छा थी कि तुम्हें भगवान की प्रेमस्वरुपा भक्ति प्राप्त हो, वह तुम्हें प्राप्त होगी। तुम नित्यप्रति श्रीमद्भागवत की कथा किया करो और भक्तों को भगवान की लीलायें सुनाया करो।''
     गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर वे नित्यप्रति श्रीमद्भागवत की कथा कहने लगे। उनके स्वर में मधुरता थी और कथा करते-करते वे प्रेम-विभोर हो जाया करते थे, अतः कथा श्रवण करने के लिये भक्तों की भीड़ लग जाती। कुछ काल के बाद गुरुदेव की आज्ञा से ज्योति पंत महाराष्ट्र वापस लौट गए और जगह-जगह भ्रमण कर भक्ति का प्रचार करने लगे। उन्होंने भक्ति, ज्ञान और वैराग्य सम्बन्धी अनेकों पदों की मराठी भाषा में रचना की। उनके ये पद बड़े ही लोकप्रिय हैं और भक्त लोग बड़े प्रेम से इन्हें गाते हैं। इस प्रकार ज्योति पंत ने अपना लोक-परलोक तो सँवारा ही, अनेकों लोगों को भी प्रेरणा देकर भक्ति-परमार्थ के पथ पर लगाया और सदा सर्वदा के लिए अपना नाम अमर कर गए।

भक्त हिम्मत दास जी



     उन्नीसवीं शताब्दी में जब कि भारत अनेकों छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था, मध्य भारत में पन्ना भी एक अलग राज्य था। पन्ना नगर ही इसकी राजधानी थी। इसी पन्ना नगर से लगभग पांच कोस दूर एक गाँव है बरायछ, इसी ग्राम में भक्त हिम्मतदास जी का जन्म हुआ था। जिस परिवार में इनका जन्म हुआ, वह कई पुश्तों से भगवद्भक्त एवं साधु-सेवी चला आ रहा था। इनके माता-पिता बड़े ही भगवद्भक्त एवं साधु-सेवी थे। साधु-सेवी होने के कारण साधु-सन्तों का इस घर में हमेशा आना-जाना बना रहता था। सन्तों का सत्संग, जो जीव के लिए परम मंगलकारी कहा गया है, बाल्यकाल से ही इनको हरिचर्चा, प्रेमी-भक्तों की कथायें सुनने तथा कीर्तन का विशेष लाभ मिला। साधु-सेवा का भी अलभ्य लाभ प्राप्त हुआ भगवद्भक्तों के घर में जन्म मिल जाना बड़े ही सौभाग्य की निशानी होती है। हिम्मतदास जी घर में आने वाले साधु-सन्तों की वे बड़ी ही श्रद्धा तथा लगन से सेवा करते और उनका आशीर्वाद प्राप्त करते, परिणामस्वरुप उनके ह्मदय में भक्ति दिन प्रतिदिन दृढ़ से दृढ़तर होती गई।
     इसी वातावरण में पलते हुए भक्त हिम्मतदास जी ने धीरे-धीरे युवावस्था में प्रवेश किया। युवावस्था में पदार्पण करने पर इनके माता-पिता ने इनका विवाह कर दिया। इनकी धर्मपत्नी "सुशीला' भी अत्यन्त भक्ति-भाव सम्पन्न, साधु-सेवी तथा स्वभाव से अत्यन्त सुशील थी। फल यह हुआ कि दोनों पर भक्ति का रंग दिन प्रतिदिन गहरा होने लगा।  दोनों ही अपना अधिकतर समय भगवान के सुमिरण, साधु-सेवा और सत्संग में व्यतीत करते। एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम इन्होंने दयाराम रखा। दयाराम पर भी माता-पिता के भक्तिपूर्ण विचारों का बड़ा प्रभाव पड़ा और उसने भी प्रभु-भक्ति का मार्ग अपना कर अपना जन्म सफल किया।
     भक्त हिम्मतदास जी को प्रभु के गुणों का बखान करते हुए कीर्तन करने में विशेष आनन्द आता था। झांझ बजाते हुए कीर्तन करते करते वे भाव-विह्वल हो जाया करते थे। पन्ना नगर में एक बड़ा प्रसिद्ध एवं प्राचीन मन्दिर है जो "श्री युगल किशोर' जी के मन्दिर के नाम से विख्यात है। उन दिनों वहाँ के पुजारी थे-महन्त गोबिन्द जी दीक्षित। वे भी बड़े भक्ति-भावसम्पन्न थे। भक्त हिम्मतदास जी का यह नियम था कि वे नित्यप्रति सायंकाल झांझ बजाते और कीर्तन करते हुए बरायछ से पन्ना श्री युगल किशोर जी के दर्शन के लिए जाया करते थे। उन दिनों बरायछ और पन्ना के बीच में एक जंगल पड़ता था। एक दिन जब वे कीर्तन करते और झांझ बजाते हुए पन्ना जा रहे थे, तब जंगल में उन्हें लुटेरों ने घेर लिया। एक लुटेरे ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा-बाबा, शोर मत मचाओ। चुपचाप रुक जाओ और जो कुछ तुम्हारे पास हो, सब कुछ हमारे हवाले कर दो।
     परन्तु हिम्मतदास जी तो अपनी मस्ती में मस्त थे। उन्हें लुटेरों की आवाज़ भला क्या सुनाई देती। वे तो उसी तरह कीर्तन करते आगे बढ़ते जा रहे थे। यह देखकर लुटोरों को क्रोध आ गया। एक लुटेरे ने आगे बढ़कर उनकी झांझ छीन ली। इससे उनके कीर्तन में विघ्न पड़ा। उन्होने सचेत होने पर देखा कि कुछ लोग लाठियां आदि लिए उनके आस-पास खड़े हैं। भक्त हिम्मतदास जी ने उनसे पूछा-आप लोग कौन हैं और मुझसे क्या चाहते हैं?
     एक लुटरे ने कहा-हमें नहीं पहचानता? हम लुटेरे हैं। यदि कुशल चाहते हो, तो जो कुछ भी तुम्हारे पास हो, चुपचाप हमारे हवाले कर दो। भक्त हिम्मतदास जी बोले-भाई। मेरे पास तो बस यह झांझ ही है। इनको बजाकर मैं प्रभु के गुण गाता हूँ। इसके अतिरिक्त तो मेरे पास कुछ भी नहीं है। एक लुटेरे ने उनकी तलाशी ली। जब कुछ न मिला, तो उस लुटेरे ने अपने साथियों से कहा-चलो यहाँ से, कोई और शिकार खोजें।
     झांझ छिन जाने से कीर्तन में बाधा पड़ी जिससे भक्त जी को दुःख तो बहुत हुआ, परन्तु फिर वे इसको भी प्रभु की मौज समझकर पन्ना की तरफ चल दिए। अभी वे कुछ पग ही चले थे कि उन्हें लुटेरों की आवाज़ सुनाई दी। चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें बुला रहे थे। हुआ यह कि जब लुटेरे झांझ छीनकर चले तो कुछ पग चलने पर उन्हें दिखाई देना बन्द हो गया। एक लुटेरे ने दूसरे लुटेरे से कहा कि मुझे तो कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है, दूसरे ने भी यही बात कही, फिर तीसरे ने भी। सबने जान लिया कि हम सभी अन्धे हो गये हैं। एक लुटेरा कहने लगा- उन्हीं बाबा जी को आवाज़ दो, जिनकी हमने झांझ छीनी है। वे कोई करनी वाले बाबा लगते हैं। उसकी यह बात सबको सही लगी और सभी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे-ओ बाबा! हमें दिखाई देना बन्द हो गया है। हम पर दया करो। ये अपनी झांझ ले लो और हमारी आँखें अच्छी कर दो।
     झांझ छिन जाने का भक्त हिम्मतदास जी को बहुत दुःख था, परन्तु अब उन्होने जब लुटेरों की यह बात सुनी कि अपनी झांझ वापस ले लो, तो वे भागे-भागे लुटेरों के पास जा पहुँचे। लुटेरों ने उन्हें झांझ वापस देते हुए कहा-लो बाबा! झांझ पकड़ लो। हम लोगों से बड़ी भूल हुई जो हमने तुम्हारी झांझ छीन ली। हम लोगों को दिखाई देना बन्द हो गया है। लगता है बाबा कि तुमने हम लोगों को शाप दे दिया है। हमें क्षमा करो बाबा। अपनी झांझ वापस ले लो और कृपा करके हमारी आँखें अच्छी कर दो।
     भक्त जी ने झांझ वापस लेते हुए कहा-भैया! मैने न तो तुम लोगों को शाप दिया है और न ही मैं कोई जादू टोना जानता हूँ जिससे तुम लोगों की यह दशा हुई है। हाँ! एक बात अवश्य है कि मैने ऐसा सुना है कि प्रभु अपने प्रति किया गया अपराध तो क्षमा कर देते हैं, परन्तु अपने भक्त के प्रति किया गया अपराध क्षमा नहीं करते जैसा कि श्री रामचरितमानस में वर्णन हैः-
सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।
जो अपराध भगत कर करई । राम रोष पावक सो जरई।।
लोकहुँ बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुरबासा।।
अर्थः-""देवताओं के गुरु बृहस्पति जी देवराज इन्द्र के प्रति कथन करते हैं कि हे इन्द्र! भगवान का स्वभाव सुनो। वे अपने प्रति किए हुए अपराध से तो कभी रुष्ट नहीं होते, परन्तु जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह भगवान की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद-दोनों में यह इतिहास प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासा जी भलीभाँति जानते हैं।''
     यह कहकर भक्त जी कुछ पल उनकी ओर देखते रहे, फिर बोले-तुम लोगों ने दुर्वासा जी और भक्त अम्बरीष की यह कथा सुनी है? लुटेरों ने कहा-नहीं बाबा! हमने तो यह कथा नहीं सुनी। भक्त हिम्मतदास जी ने कहा- तो सुनो।
भक्तराज अम्बरीष
         जिनका भगवान के चरणों में अटूट और अविचल प्रेम है, जो हर समय उनके सुमिरण-ध्यान में संलग्न रहते हैं तथा जो भगवान को ही अपना परम आश्रय, परमगति और प्रेमास्पद मानते हैं, भगवान उनकी रक्षा का भार अपने ज़िम्मे ले लेते हैं। इस बात की पुष्टि करते हुये भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज अर्जुन के प्रति कथन करते हैं किः-
अनन्य  भक्त  प्रेमी जो केवल , मेरे  आश्रय  रहते  हैं ।
निष्काम भाव से नित्य निरन्तर, सदा ही मुझे सुमिरते हैं।
ऐसे  अनन्य  प्रेमी  भक्तों  का , ध्यान सदा मैं रखता हूँ।
उनकी  रक्षा  और  सहायता  अर्र्जुन  स्वयं मैं करता हूँ।।
अर्थः-जो अनन्य प्रेमी मुझ परमेश्वर को नित्य-निरन्तर स्मरण करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण-भजन करने वाले प्रेमी भक्तों की सहायता और रक्षा का दायित्व मैं स्वयं वहन करता हूँ। ऐसे ही वचन श्रीरामायण में भगवान श्रीरामचन्द्र जी महाराज ने भी नारद जी के प्रति फरमाये हैंः-
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।।
करउँ  सदा  तिन्ह  कै  रखवारी । जिमि  बालक  राखइ  महतारी।।
अर्थः-हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हे सत्य संकल्प कर कहता हूँ कि जो सकल आश्रय और भरोसे छोड़कर मेरा भजन-सुमिरण करते हैं, मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ जैसे माता बालक की रक्षा करती है।
     भगवान किस प्रकार अपने प्रेमी भक्तों की रक्षा करते हैं, इस विषय में सद्ग्रन्थों में अनेकों कथायें भरी पड़ी हैं। प्रमाण-स्वरुप यहां हम भक्त अम्बरीष की कथा दे रहे हैं, जिसका वर्णन सन्त पलटूदास जी ने अपनी वाणी में भी किया हैः-
।।कुण्डलिया।।
हरि  अपनो अपमान  सह  जन की सही न जाय।
जन की सही न जाय दुर्वासा की क्या गत कीन्हा।।
भुवन  चतुर्दश  फिरै   सभै  दरियाय  जो  दीन्हा।
पाहि  पाहि  करि  परै   जबै  हरि  चरनन  जाई।
तब  हरि  दीन्ह  जवाब  मोर  बस  नाहिं गुसार्इं।।
मोर  द्रोह  करि  बचै  करौं  जन  द्रोहक  नासा।
माफ   करै  अंबरीक    बचौगे  तब  दुर्वासा ।।
पलटू   द्रोही  सन्त   कर  तिन्है  सुदर्सन  खाय।
हरि  अपनो अपमान  सह जन की सही न जाय।।
अर्थः-यदि कोई भगवान का अनादर करे तो वे अपना अनादर तो सहन कर लेते हैं, परन्तु अपने भक्तों का अनादर कभी सहन नहीं करते। प्रमाण देते हैं कि ऋषि दुर्वासा ने जब भक्त अम्बरीष पर क्रोध किया तो भगवान ने दुर्वासा की क्या दशा की? दुर्वासा जी चौदह भुवनों में घूमते फिरे, परन्तु जहां-जहां भी वे गये, सभी ने उन्हें दूसरा द्वार दिखा दिया। अन्ततः पाहि-पाहि (अर्थात् रक्षा करो-रक्षा करो) कहते हुये जब वे भगवान के चरणों में जाकर गिरे, तब भगवान ने उन्हें उत्तर दिया कि हे मुनि जी! इस विषय में मैं कुछ नहीं कर सकता, क्योंकि मेरा यह प्रण है कि मैं अपने द्रोही को तो क्षमा कर सकता हूँ, परन्तु जो मेरे भक्त के साथ द्रोह करता है, उसको मैं क्षमा नहीं करता। हाँ! यदि भक्त अम्बरीष आपको क्षमा कर दें तो आप बच सकते हैं, अन्यथा नहीं। सन्त पलटूदास जी कथन करते हैं कि जो भगवान के प्यारे का अनादर करता है, उसे सुदर्शन चक्र नष्ट कर देता है।
     राजर्षि अम्बरीष मनु के प्रपौत्र और नाभाग के पुत्र थे। पृथ्वी के सातों द्वीपों पर उनका एकछत्र राज्य था; फलस्वरुप वे अतुल सम्पत्ति और ऐश्वर्य के स्वामी थे। संसार की ऐसी कोई वस्तु न थी जो उन्हें उपलब्ध न हो। किन्तु हर प्रकार के भोगैश्वर्य तथा धन-वैभव प्राप्त होते हुये भी वे उन्हें नगण्य समझते हुए मिट्टी के ढेले से अधिक महत्त्व नहीं देते थे और उनसे उपराम रहते हुए सदा वैराग्यपूर्ण और अभिमान रहित जीवन व्यतीत करते थे, क्योंकि वे यह बात भलीभाँति जानते थे कि धन-वैभव तथा भोगैश्वर्य आदि असत्, मिथ्या, नाशवान और अविश्सनीय हैं, सत्य तो केवल परमात्मा का नाम है।
     यदि कोई मनुष्य निर्बल और कमज़ोर होते हुये किसी को क्षमा करे तो उसे वास्तव में क्षमावन्त नहीं कहा
जा सकता। क्षमावन्त तो वास्तव में वह है जो बलवान और शक्तिशाली होते हुये भी दूसरे को क्षमा करता है। ठीक इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास न धन-सम्पदा है और न रहने का ठिकाना, ऐसा दरिद्र व्यक्ति यदि त्यागी और वैरागी होने की बात कहे, तो उसे किसी भी दशा में वैरागी नहीं कहा जा सकता। त्यागीऔर वैरागी तो वास्तव में वह है जो धन-वैभव, पद-प्रतिष्ठा तथा सब प्रकार के ऐश्वर्य भोग उपलब्ध होते हुये भी उन्हें असत् एवं अनित्य जानकर उन्हें तृणवत् समझे और ऐसा समझ कर वह उनमें प्रवृत्त न हो। भक्त अम्बरीष वास्तविक अर्थों में वैराग्यवान थे। क्योंकि हर प्रकार के सुख वैभव उपलब्ध होने पर भी वे उनसे उपराम रहते हुए सर्वदा भगवान की भक्ति और सन्तों सत्पुरुषों की पावन संगति में प्रवृत्त रहते थे। उन्होंने अपने मन को भगवान के श्री पावन चरण-कमलों में, वाणी को भगवान की गुण-स्तुति गायन करने में, हाथों को भगवान की सेवा-पूजा में, कानों को भगवान की मंगलमय लीलाओं तथा सत्संग के श्रवण करने में, नेत्रों को भगवान तथा सन्तों के दर्शन करने में, नासिका को भगवान के चरणकमलों में अर्पित पुष्पों की सुगन्धि लेने में, रसना को प्रभु-प्रसाद का रस लेने में और पाँवों को तीर्थ-स्थलियों के दर्शन करने में संलग्न रहकर वे अपना प्रत्येक अंग सफल कर रहे थे। वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य-शरीर की सफलता भी तभी है जब शरीर का प्रत्येक अंग भगवान की सेवा-भक्ति में तल्लीन रहे। जो अँग भगवान की सेवा भक्ति में तल्लीन नहीं, वह किस काम का? उसका तो होना न होना एक बराबर है। श्री रामायण में भगवान शिवजी पार्वती जी के प्रति फरमाते हैंः-
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवण रंध्र अहि-भवन समाना।।
नयनन्हि  संत  दरस  नहिं  देखा। लोचन  मोर  पंख कर लेखा।।
ते सिर  कटु  तुँबरि  सम तूला। जे  न  नमत हरि गुर पद मूला।।
जिन्ह हरि भगति ह्मदय नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ  प्रानी।।
जो  नहिं  करइ  राम  गुन  गाना। जीह  सो दादुर जीह समाना।।
कुलिस  कठोर निठर सोइ  छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती।।
अर्थः-जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र सांप के बिल के समान हैं। जिन्होने अपने नेत्रों से सन्तों के दर्शन नहीं किये, उनके वे नेत्र मोर के पँखों पर दीखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के सदृश हैं, जो भगवान तथा गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते। जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने ह्मदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुये भी मुर्दे के समान हैं। जो जीभ भगवान के गुणों का गान नहीं करती, वह मेढक की जीभ के समान है। वह ह्मदय वज्र के समान कठोर और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता।
     भक्त अम्बरीष भगवान की सेवा, पूजा और भक्ति में तत्पर रह कर अपना प्रत्येक अंग सफल कर रहे थे। जहां आम संसारी मनुष्य की सभी चेष्टायें धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य-भोगों के लिये ही होती है, वहां भक्त अम्बरीष की सभी चेष्टायें भगवान की सेवा-भक्ति हेतु ही थीं। वे मन-वचन और कर्म से हर समय भगवान की सेवा-भक्ति में तल्लीन रहते थे। यद्यपि राजा होने के कारण राज्य का कार्यभार उन्हीं के कन्धों पर था, परन्तु इस कत्र्तव्य को करते हुये भी वे कमल के पत्ते की तरह उससे सर्वथा निर्लिप्त रहते थे।
     भक्त अम्बरीष ने अनेकों यज्ञ किये और मुक्तहस्त से दान-पुण्य किया। वास्तविकता तो यह है कि उनका सम्पूर्ण जीवन ही यज्ञमय था, क्योंकि उनका प्रत्येक कर्म भगवान की प्रेमस्वरुपा भक्ति से ओतप्रोत था। वह जो कुछ भी करते थे भगवान की सेवा समझकर निष्कामभाव से करते थे। उनके ह्मदय में एकमात्र भगवान का ही निवास था। कुटुम्ब-परिवार तथा धन-सम्पत्ति आदि में उनकी तनिक भी आसक्ति न थी। भक्त अम्बरीष जी की अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया, जो
विरोधियों को भयभीत करने वाला तथा भगवद्भक्तों की रक्षा करने वाला है।
     भक्त अम्बरीष की तरह ही उनकी पत्नी भी पूर्ण वैराग्यवान धर्मशील और भक्तिमति थी। एक बार भक्त अम्बरीष ने अपनी अद्र्धांगिनी सहित एक वर्ष तक एकादशी व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर उन्होंने तीन दिन का उपवास किया, फिर नदी में स्नान कर भगवान की विधिवत् पूजा-आराधना की, तत्पश्चात् ऋषियों, मुनियों तथा ब्रााहृणों को भोजन कराकर मुक्तहस्त से दान-पुण्य किया। इन शुभ कार्यों से निवृत्त होकर राजा अम्बरीष ने उनसे व्रत खोलने की आज्ञा ली। वे पारण (किसी व्रत अथवा उपवास के  बाद का पहला भोजन) करने जा रहे थे कि उसी समय महर्षि दुर्वासा शिष्यों सहित अतिथि रुप में उनके यहां पधारे। राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही तत्काल उठ खड़े हुये, दण्डवत् प्रणाम कर उनका यथायोग्य स्वागत किया, उन्हें उच्च आसन पर विराजमान कराया तथा विधिवत् उनकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्होने भोजन के लिये उनके चरणों में विनय की। महर्षि दुर्वासा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये कहा-हम स्नानादि से निवृत्त होकर आते हैं, तब तक आप तैयारी करें। यह कहकर वे शिष्यों सहित नदी पर स्नान करने चले गये। और बहुत देर तक न लौटे। इधर पारण का समय बीता जा रहा था। समय रहते पारण न करने से व्रत भंग हो जाता, अतः महर्षि दुर्वासा के आने में देर होते देखकर भक्त अम्बरीष ने उपस्थित ऋषियों, मुनियों तथा ब्रााहृणों से निवेदन किया-अतिथि को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और समय से स्वयं पारण न करना-दोनों ही दोष हैं। इसलिए इस समय जैसा करने में मेरी भलाई हो, वैसा परामर्श मुझे दीजिए।
     सभी ने परामर्श कर भक्त अम्बरीष से कहा-आप केवल जल से पारण कर लें। इससे आप का व्रत भी पूरा हो जायेगा तथा अतिथि को भोजन कराए बिना पारण करने का दोष भी नहीं लगेगा। उनकी सम्मति अनुसार भक्त अम्बरीष ने मन ही मन भगवान का सुमिरण-ध्यान करते हुए जल ग्रहण किया और महर्षि दुर्वासा के आने की प्रतीक्षा करने लगे। काफी देर बाद जब महर्षि दुर्वासा वापस लौटे तो राजा अम्बरीष ने आगे बढ़कर उनका अभिवादन किया। महर्षि दुर्वासा ने तपोबल से यह जान लिया कि राजा ने पारण कर लिया है, अतः वे क्रोध से भर उठे और सबके समक्ष उन्हें खोटी-खरी सुनाते हुए बोले-देखो! यह कैसा अभिमानी है। यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भक्ति का तो इसे पता ही नहीं, परन्तु आडम्बर इतना करता है मानो इस जैसा संसार में कोई भक्त है ही नहीं। मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ, इसने भोजन के लिए मुझे निमंत्रण भी दिया, परन्तु फिर भी बिना मुझे खिलाये स्वयं भोजन कर लिया। इस प्रकार इसने आज धर्म का उल्लंघन किया है। मैं अभी इसे इसका फल चखाता हूँ। ये कहते-कहते क्रोध से महर्षि दुर्वासा का मुख लाल हो गया। क्रोधावेश में उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे एक कृत्या उत्पन्न की। कृत्या एक प्रकार की शक्ति होती है जो अभिचार द्वारा किसी को मारने के लिये उत्पन्न की जाती है। वह कृत्या प्रलयकाल की अग्नि के समान दहक रही थी। वह हाथ में तलवार लेकर अम्बरीष को मारने के लिये बढ़ी। वह इतनी भयंकर थी कि उसके पैरों की धमक से पृथ्वी कांपने लगी। उस भयानक कृत्या को भक्त अम्बरीष की ओर बढ़ते देखकर वहां उपस्थित सभी लोग भय से थर्र-थर्र कांपने लगे, परन्तु भक्त अम्बरीष तनिक भी भयभीत न हुए। और होते भी क्यों? जिन्होंने अपना जीवन ही भगवान के चरणों में समर्पित कर रखा हो, उनके सामने यदि स्वयं काल भी आ खड़ा हो, तो भी वे भयभीत नहीं होते,क्योंकि उन्होंने अपने ह्मदय में यह भावना दृढ़ कर रखी होती है किः-
।।कुण्डलियां।।
मोर  राम  मैं राम का  ता से  रहौं  निसंक।
ता से रहौं निसंक तनिक मोर बार न बांकै।।
जो  कोइ  मानै  बैर  हारि  के आपुई थाकै।
दोऊ  विधि  से राम भार उनके सिर दीन्हा।
मो पर परै जो गाढ़ राम आपुइ पर लीन्हा।।
राम  भरोसा  पाय  डरौ  काहू  से  नाहीं ।
सम्मुख  आवै मौत  न राखूँ भय मन माहीं।।
पलटू  सब के  राम हैं  क्या राजा  क्या रंक।
मोर  राम  मैं राम  का ता से रहौं निसंक।।
भगवान ने तो अपने प्रेमी भक्त की रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को पहले से ही नियुक्त कर रखा था। उसने जब कृत्या को भक्त अम्बरीष की ओेर बढ़ते देखा तो उसने तुरन्त जवाबी कार्यवाही की। जैसे क्रोध से फुफकारते हुये सर्प को अग्नि भस्म कर देती है, उसी प्रकार सुदर्शन चक्र ने महर्षि दुर्वासा की कृत्या को एक पल में जलाकर राख का ढेर कर दिया। कृत्या को जलाकर भी सुदर्शन चक्र शान्त नहीं हुआ। उसके बाद वह तेज़ी से कृत्या के रुाष्टा महर्षि दुर्वासा जी की ओर बढ़ा। सुदर्शन चक्र को अपनी ओर आते देखकर दुर्वासा जी के होश उड़ गये और वो अपने प्राण बचाने के लिये वहां से भागने लगे। चक्र भी उनके पीछे-पीछे चला। दुर्वासा जी सभी दिशाओं में भागे-भागे फिरे, वे आकाश, पाताल, समुद्र तथा स्वर्गादि तक में गये, परन्तु जहां-जहां भी वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्र तेज़ वाले सुदर्शन को अपने पीछे लगे देखा। जब उन्हें कहीं भी प्राण बचते दिखाई न दिये, तो हारकर वे ब्राहृा जी की शरण में गये और विनय की देवशिरोमणि! भगवान के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये।
      ब्राहृा जी ने उत्तर दिया-भगवान के इस सुदर्शन चक्र से बचा पाने में मैं किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हूँ। ब्राहृा जी से निराशाजनक उत्तर पाकर वे शंकर जी की शरण गये। शंकर जी ने कहा-यह चक्र भगवान का शस्त्र है। इससे किसी को बचाना मेरी सामथ्र्य से बाहर है। आप भगवान की शरण में जाइये, वे ही आपका मंगल करेंगे। महर्षि दुर्वासा वहां से भागकर भगवान के परमधाम वैकुण्ठ में गये और कांपते हुये भगवान के चरणों में गिर पड़े और विनय की-प्रभो! मैं अपराधी हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। मैने आपके भक्तों की महिमा न जानकर आपके भक्त का अपराध किया है। मुझे इस चक्र से बचाइये।
     भगवान ने कहा-दुर्वासा जी! मैं तो सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सरलस्वभाव भक्तों ने मुझे अपने वश में कर रखा है। उनका एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे प्यार करता हूँ। न वे मेरे सिवा किसी को चाहते हैं और न ही मैं उनके अतिरिक्त किसी को चाहता हूँ। मैं उनके ह्मदय में बसता हूँ और वे मेरे ह्मदय में बसते हैं। इसलिये मैं आपकी सहायता करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। हाँ! मैं आपको एक उपाय बता देता हूँ। जिसका अपराध करने के कारण आप पर यह विपदा आई है, आप उसी के पास जाइये और उससे क्षमा मांगिये। आपका कल्याण होगा। दुर्वासा जी! एक बात आप सदैव स्मरण रखिये कि निरपराध प्रेमी भक्तों के अनिष्ट की चेष्टा करने से अनिष्ट करने वाले का ही अमंगल होता है।
     भगवान के ऐसा आदेश देने पर महर्षि दुर्वासा लौटकर भक्त अम्बरीष के पास आये और सुदर्शन चक्र से बचाने की प्रार्थना की। तब भक्त अम्बरीष ने अनेक प्रकार से सुदर्शन चक्र की स्तुति कर उन्हें शान्त किया। चक्र के शान्त हो जाने पर भक्त जी ने महर्षि दुर्वासा के चरण पकड़ कर कहा-मेरे कारण आपको इतना कष्ट हुआ, इसके लिये मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। आप चलकर भोजन ग्रहण कीजिए। महर्षि दुर्वासा जी ने भोजन किया और भक्त अम्बरीष को शुभाशीर्वाद देते हुए कहा-आज मैने भगवान के अनन्य प्रेमी भक्तों की महिमा स्पष्ट देख ली। राजन्! यद्यपि मैने आपका अनिष्ट करने का प्रयत्न किया, परन्तु आपने मेरे उस अपराध को भुलाकर मेरे लिए मंगलकामना ही की और सुदर्शन चक्र से मेरी प्राण रक्षा की। आप भगवान के सच्चे भक्त
हैं। आपकी कीर्ति संसार में सदा अमर रहेगी।
     भगवान की अपने ऊपर इतनी अधिक कृपा देखकर भक्त अम्बरीष की भक्तिभावना में और भी अभिवृद्धि हो गई। राज्य के संचालन का दायित्व अपने पुत्रों को सौंपकर वे वन में चले गए और जीवन का एक-एक पल भगवान की सेवा-भक्ति और सुमिरण-ध्यान में लगाकर संसार से मुक्त हो गए और अपना नाम सदा के लिए अमर कर गये।
     भक्त हिम्मतदास जी ने उपरोक्त कथा सुनाकर उन लुटेरों से कहा-मैने तो आप लोगों को कोई शाप आदि नहीं दिया, न ही मुझमें ऐसी शक्ति है। हाँ! एक बात अवश्य है कि मुझे इस झाँझ से बहुत प्यार है। क्योंकि इसे बजा-बजाकर मैं कीर्तन करता हूँ। झांझ के छिन जाने से मुझे बहुत दुःख हुआ था। और भगवान का चूँकि यह बिरद है कि ""दास दुःखी तो मैं दुखी,आदि अंत तिहुँ काल।'' इसलिये हो सकता है कि भगवान ने आप लोगों को यह दण्ड दिया हो। परन्तु भगवान तो अत्यन्त कृपालु हैं, यदि आप लोग सच्चे ह्मदय से अपनी पिछली करनी पर पश्चात्ताप करें और भविष्य में सन्मार्ग पर चलने की प्रतीज्ञा करें तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप लोगों की दृष्टि लौट आयेगी। उन लुटेरों ने ऐसा ही किया अर्थात् अपने पिछले अशुभ कर्मों पर पश्चात्ताप प्रकट किया और भविष्य में सन्मार्ग पर चलने का वचन दिया। ऐसा करते ही उन्हें पुनः दिखाई देने लगा। वे सब भक्त जी को प्रणाम कर और क्षमा माँग कर अपने अपने घरों को रवाना हो गए।
     उन लोगों के जाने के बाद भक्त हिम्मतदास जी झांझ बजाते और कीर्तन करते हुए पुनः पन्ना की ओर चल पड़े। मार्ग में लुटेरों के मिल जाने के कारण चूँकि काफी समय वहाँ बीत गया था, अतएव जब वे मन्दिर पर पहुँचे, तब काफी देर हो चुकी थी। वहाँ संध्या की आरती के बाद भगवान को भोग लगवाकर शयन भी करवाया जा चुका था और मन्दिर के पट बन्द कर दिये गये थे। भक्त जी कई वर्षों से नित्यप्रति भगवान के दर्शन करने वहाँ आया करते थे, अतएव चौकीदार उन्हें अच्छी तरह पहचानता था। भक्त जी को देखते ही वह बोल उठा-आज तो आप बहुत देर से आये। अब तो मन्दिर के द्वार बन्द हो चुके हैं, अब तो दर्शन नहीं हो सकेंगे। परन्तु भक्त जी ने तो जैसे चौकीदार की बात सुनी ही न हो। वे तो मन्दिर के द्वार के बाहर खड़े होकर झांझ बजा-बजाकर प्रभु के गुण गाने लगे और प्रभु के चरणों में विनती करने लगे कि क्या आज मुझे प्रभु के दर्शन नहीं होंगे? क्या आज मेरा यह नियम पूरा नहीं होगा? कीर्तन करते हुए उनकी आँखों से प्रेमाश्रु प्रवाहित हो रहे थे। ऐसा करते हुए उन्हें कुछ ही देर बीती थी कि मन्दिर के द्वार अपने आप खुल गये। चौकीदार यह देखकर चकित रह गया। भक्त हिम्मतदास जी मन्दिर के अन्दर चले गये और प्रेम-विभोर होकर झांझ बजा-बजाकर नृत्य करते हुए कीर्तन करने लगे।
     जब मन्दिर के पट अपने आप खुल गये तो चैकीदार ने महन्त गोबिन्द जी दीक्षित को इसकी सूचना देने का विचार किया। वह वहाँ से चलने लगा,परन्तु भगवान की उस पर कुछ ऐसी कृपा हुई कि वह उन्हें सूचित करने की बजाय भक्त जी के साथ मस्त होकर नाचने और ताली बजा-बजाकर कीर्तन करने लगा, यहाँ तक कि प्रातःकाल की श्री आरती का समय हो गया और महन्त गोबिन्द जी दीक्षित अन्य पुजारियों के साथ वहां आ पहुँचे। मन्दिर के द्वार की चाबी तो दीक्षित जी के पास होती थी और वही प्रातः आकर द्वार खोला करते थे। आज मन्दिर के द्वार खुले देखकर वह चौंक गए। जब अन्दर जाकर वहाँ का दृश्य देखा तो स्तब्ध रह गए। भक्त हिम्मतदास जी झांझ बजा-बजाकर झूम रहे थे और भगवान की गुण-स्तुति गा रहे थे और ताली बजा-बजाकर उनका साथ दे रहा था चौकीदार। महन्त जी ने धीरे से चौकीदार के कन्धे पर हाथ रखकर उसे सचेत किया, तत्पश्चात् उससे सारी बात मालूम की। दीक्षित जी वैसे तो पहले से ही भक्त जी की भक्ति से अत्यन्त प्रभावित थे, रात की घटना के विषय में जानकर और उनपर भगवान की इतनी कृपा देखकर तो उन्हें और भी भक्त जी के प्रति श्रद्धा हो गई। उन्होने भक्त जी के पास जाकर उन्हें सचेत करते हुए कहा-भक्त जी! सचेत होइए, प्रातःकाल की आरति का समय हो रहा है।
     महन्त गोबिन्द जी दीक्षित के सचेत करने पर भक्त जी होश में आए। पन्ना के राजा भी अत्यन्त भक्तिभाव
सम्पन्न थे। उनका यह नियम था कि वे श्री युगलकिशोर जी के मन्दिर में प्रातःकाल की आरति में सम्मिलित हुआ करते थे। वे भी वहाँ पहुँच गए। महन्त जी से रात की घटना के बारे में जब राजा को पता चला तो उन्होंने भक्त जी को बड़ी श्रद्धा से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर प्रार्थना की, कि-मुझे मालूम हुआ है कि आप बरायछ से यहाँ नित्यप्रति भगवान के दर्शन के लिए आते हैं। आपको यहाँ नित्यप्रति आने में बड़ा कष्ट होता होगा, क्योंकि मार्ग में जंगल पड़ता है। आज से आप यहीं निवास करें, राज्य की ओर से आपके निर्वाह की पूरी व्यवस्था कर दी जाएगी।
     परन्तु भक्त जी ने बड़ी नम्रतापूर्वक उनका यह प्रस्ताव अस्वीकार करते हुए कहा कि मैं बरायछ में ही ठीक हूँ, मुझे वहीं रहने दीजिए। उनकी बात सुनकर राजा मौन हो गए। तत्पश्चात आरती प्रारम्भ हुई। आरती करने के बाद भक्त हिम्मतदास जी बरायछ लौट गए। मन्दिर वाली घटना के बाद भक्त हिम्मतदास जी की यह दशा हो गई कि अब वे भगवान के साक्षात् दर्शन करने के लिए अति व्याकुल होने लगे। इनकी ऐसी तड़प देखकर उधर भगवान भी अब उन्हें दर्शन देने के लिए अधीर हो गए।
     भक्त जी के साधु-सेवी स्वभाव के कारण अक्सर साधु-सन्त इनके घर आकर ठहरा करते थे। धन की कमी के कारण इन्हें प्रायः गाँव के एक महाजन, जिसका नाम परमेश्वरी था, उससे खाने-पीने का सामान उधार लेना पड़ता था। मन्दिर वाली घटना के दो-चार दिन बाद ही साधुओं की एक टोली शाम के समय इनके घर आ पहुंची। भक्त जी ने आदरपूर्वक उनको ठहराया और भोजन की सामग्री लेने के लिए परमेश्वरी महाजन के घर गये। चूँकि पहले का उधार बहुत हो गया था, अतः परमेश्वरी ने बही निकालकर उन्हें पिछला हिसाब दिखाना शुरु किया। भक्त जी ने कहा-मैं सारा हिसाब चुकता कर दूँगा, अभी तो आप थोड़ा सामान दे दें। परमेश्वरी महाजन ने कहा-पिछला उधार बहुत अधिक हो गया है। जब तक आप वह चुकता नहीं करेंगे, मैं और उधार देने में असमर्थ हूँ।
     भक्त हिम्म्तदास जी निराश होकर घर लौट आये। उनका उदास चेहरा और खाली हाथ देखकर उनकी धर्मपत्नी सुशीला सब कुछ समझ गई। उसके सारे आभूषण तो साधु-सेवा में पहले ही बिक चुके थे। केवल एक नथ ही शेष रह गई थी, उसने वह उतार कर भक्त जी के हाथ में देते हुए कहा-यह नथ देकर आप भोजन की सामग्री ले आवें। भक्त जी बड़े असमंजस में पड़ गये। उन्होने सुशीला से कहा-सारे आभूषण तो पहले ही बिक चुके हैं, अब यह एक नथ ही तो तुम्हारे पास बची है, यह कैसे बेच आऊँ? नहीं मैं यह नथ नहीं ले जाऊँगा।
     सुशीला ने कहा-आप संकोच न करें और इस नथ को देकर शीघ्र ही सामग्री ले आयें। क्या आज ये साधु-महात्मा हमारे घर से भूखे जायेंगे? नथ तो फिर भी आ सकती है और नहीं भी आयेगी तो कोई बात नहीं, परन्तु साधु-सेवा का जो अलभ्य लाभ है, वह तो बड़े सौभाग्य से ही प्राप्त होता है। अतः आप देर न करें, शीघ्र महाजन के यहाँ जायें और भोजन-सामग्री ले आयें। भक्त हिम्मतदास जी मन ही मन सुशीला की भक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए नथ लेकर परमेश्वरी महाजन के पास गए और नथ गिरवी रखकर भोजन की सामग्री घर ले आये। सुशीला ने भोजन बनाया, तत्पश्चात् दोनों ने प्रेंमपूर्वक साधु-महात्माओं को भोजन कराया। रात्रि को विश्राम करके सवेरे साधु-जन दोनों को आशीर्वाद देकर विदा हो गए। साधुओं के जाने के बाद भक्त हिम्मतदास जी ने अपने वस्त्र और लोटा आदि उठाया और पत्नी से बोले-मैं नदी की तरफ जा रहा
हूँ, स्नानादि से निवृत्त होकर थोड़ी देर में आता हूँ।
     यह कहकर भक्त जी तो नदी की तरफ गए, उधर भगवान ने एक अनोखी लीला रचाई। भक्त हिम्मतदास जी का रुप धारण करके भगवान जा पहुँचे परमेश्वरी महाजन के घर और जाते आवाज़ लगाई-महाजन जी, महाजन जी! आवाज़ सुनकर परमेश्वरी महाजन बाहर आये। क्या देखते हैं कि भक्त हिम्मतदास जी द्वार पर खड़े हैं। भक्त जी को देखकर महाजन ने कहा-अब फिर भोजन की सामग्री चाहिए। भक्तरुप में भगवान बोले-मुझे कहीं से रुपये मिल गये थे, सो आपका हिसाब चुकता करने आया हूँ। रकम ले लीजिए और नथ वापिस कर दीजिए।
     परमेश्वरी ने बही-खाता खोलकर सब हिसाब गिनाया। भगवान ने उन्हें रुपये दिये, परमेश्वरी ने हिसाब चुकता लिखकर अपने हस्ताक्षर किए, फिर भगवान से हस्ताक्षर कराये, तत्पश्चात् तिजोरी से नथ निकाल कर भगवान के हवाले कर दी। नथ लेकर भगवान भक्त जी के रुप में सीधे हिम्मतदास जी के घर आये और सुशीला से बोले-लो, यह नथ ले लो और पहन लो। सुशीला उस समय गोबर से ठाकुर जी का चौका लीप रही थी, भक्त जी को देखकर आश्चर्य से बोली-अभी-अभी तो आप वस्त्रादि लेकर नदी की तरफ स्नानादि से निवृत्त होने के लिए गये थे, फिर महाजन के यहां कैसे पहुँच गए? फिर धन तो घर में था नहीं, यह नथ कहाँ से ले आये?
     लीलाधारी भगवान ने कहा-यह सब मत पूछो, जल्दी से नथ पहन लो। सुशीला बोली-आप देख रहे हैं कि हाथ गोबर से सने हुए हैं, अतः आप नथ चबूतरे पर रख दीजिए, मैं हाथ धोकर पहन लूंगी। भगवान ने कहा-सोने का गहना धरती पर नहीं रखा जाता, इसलिए नथ ले लो और जल्दी से पहन लो। सुशीला तो भगवान को भक्त हिम्मतदास जी ही समझ रही थी। वह उठकर उनके पास आ गई और बोली-अभी हाथ धोऊँगी तो दोबारा फिर गोबर से सन जायेंगे, क्योंकि लीपने का काम अभी पूरा नहीं हुआ, अतः आप स्वयं ही पहना दो।
     भगवान ने उसे नथ पहनाई, घर से बाहर आये और फिर अन्तर्धान हो गए। इधर भक्त हिम्मतदास जी स्नानादि से निवृत्त होकर घर वापस आये और सुशीला को नथ पहने देखकर हक्के-बक्के रह गए। कुछ देर बाद उन्होने अपने को संयत किया और बोले-यह नथ तुम्हारे पास कहाँ से आई?
     सुशीला ने कहा-अब इस उम्र में हँसी ठट्ठा क्यों करते हैं? अभी आप स्वयं ही तो नथ लेकर आये थे। यह कहते हुए उसने सारी घटना सुना दी। सुनकर भक्त जी को अचंभा हुआ। सोचने लगे कि कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूँ। मैं तो नदी पर स्नान करके अभी आ रहा हूँ, फिर यह नथ कौन दे गया? सुशीला कभी झूठ भी नहीं बोलती। यही सब सोचते हुए वे सीधे परमेश्वरी महाजन के घर जा पहुँचे। आगे दुकान थी और पीछे उनका निवास। परमेश्वरी महाजन दुकान पर बैठे हुए थे। भक्त हिम्मतदास जी को देखकर वे बोले-आइये-आइये भक्त जी, विराजिये। क्या सेवा करुँ?
     पत्नी की नाक में नथ कहाँ से आई, अभी वे इसी आश्चर्य में डूबे हुए थे, कि आज महाजन के व्यवहार में अप्रत्याशित परिवर्तन देखकर भक्त जी को और भी अधिक आश्चर्य हुआ। उन्होने महाजन से पूछा-कल जो मैने नथ गिरवी रखी थी, वह आपने किसको बेची है? अब आश्चर्य करने की बारी परमेश्वरी महाजन की थी। उसने कहा-भक्त जी। यह आप क्या पूछ रहे हैं? अभी कुछ देर पहले ही तो आप यहाँ आए थे और सारा हिसाब चुकता करके नथ वापस ले गए थे। बही में मैने स्वयं हिसाब चुकता करके हस्ताक्षर किये थे और आपने भी उसमें हस्ताक्षर किये थे।
     यह कहकर परमेश्वरी महाजन ने बही उठाई और वह पन्ना खोलकर भक्त जी के आगे रख दिया। भक्त जी ने देखा कि हिसाब चुकता है और महाजन के साथ-साथ उनके भी हस्ताक्षर उसमें मौजूद हैं। वे समझ गए कि भगवान ही मेरे रुप में आकर हिसाब चुकता कर गये हैं। अन्य कौन है जो ऐसा कर सके? उनके नेत्रों से अश्रुओं की झड़ी लग गई। वे महाजन से लिपट गये और बोले-महाजन जी। मेरे पास तो पैसे थे नहीं जो आपका हिसाब चुकता करता और न ही मैं कुछ देर पहले आपके यहाँ आया था। यह सब तो भगवान की अपनी ही लीला है। महाजन जी! आपका परमेश्वरी नाम आज सार्थक हो गया, क्योंकि आपको घर बैठे ही भगवान ने आज दर्शन दे दिए। मैने शायद कोई अपराध किया है अथवा मेरे मन में संसार की कोई लालसा शेष है, तभी भगवान ने मुझे दर्शनों के अयोग्य समझा।
     यह कहकर वे घर आए। उनके नेत्रों से अश्रु अभी भी प्रवाहित हो रहे थे। उन्हें रोते देखकर सुशीला घबरा गई। भक्त जी ने निकट आकर कहा-सुशीला! सत्य जानना कि मैने यहाँ आकर तुम्हें नथ नहीं पहनाई थी। नथ तो परमेश्वरी महाजन के पास गिरवी रखी थी। महाजन का हिसाब चुकता करके और नथ छुड़वाकर तुम्हें पहनाने वाले भगवान के अतिरिक्त भला और कौन हो सकते हैं? तुम सचमुच ही सौभाग्यशालिनी हो। मैने न जाने कौन सा अपराध किया है, जो भगवान ने मुझे दर्शन नहीं दिए। अब तो भगवान के दर्शन होने पर ही मैं अन्न-जल ग्रहण करुँगा।
     यह कहकर उन्होने झांझ उठाई और भगवान का गुणगान करने लगे। सुशीला भी उनके साथ कीर्तन में सम्मिलित हो गई। इसी तरह तीन दिन बीत गए, न दोनों ने कुछ खाया, न ही जल ग्रहण किया। भगवान भला ऐसे भक्त से कैसे अदृश्य रहते? वे उनके सामने प्रकट हो गए। भगवान के साक्षात् दर्शन कर उनका जीवन धन्य हो गया, उनका संसार में आना सफल हो गया।

सत्यवादी चोर



एक घड़ी आधी घड़ी, आधी हूँ से पुनि आध।
कबीर संगति साध की, कटे कोटि अपराध।।
     यह सन्त सत्पुरुषों की शुभ संगति का प्रताप है कि उनकी संगति से जीव का जीवन सुधर और संवर जाता है। जैसे ही जीव उनके पावन वचनों पर आचरण करता है, उसके जीवन की काया पलट हो जाती है जैसा कि निम्नलिखित प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है।
     सन्त नामदेव जी एक बार रात के समय कहीं जा रहे थे कि उन्हें एक व्यक्ति मिला। वह चोर था और चोरी करने निकला था। सन्त नामदेव जी को देखकर उसने छिपने की कोशिश की तो सन्त नामदेव जी बोले-भाई! तुम कौन हो और मुझे देखकर छिप क्यों रहे हो? उस चोर ने सन्त नामदेव जी को पहचानकर उनके प्रणाम किया और बोला महाराज! मैं चोर हूँ और चोरी करने जा रहा हूँ। सन्त नामदेव जी ने कहा-भाई! यह धन्धा छोड़ दो और कोई ऐसा काम-धन्धा करो जिससे तुम्हें किसी को देखकर भय न लगे और छिपना न पड़े। चोर ने कहा-महाराज! मेरे पिता भी यही काम करते थे और मैं भी केवल यही काम जानता हूँ, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई काम मैं जानता नहीं। फिर मैं पढ़ा लिखा भी नहीं हूँ और न ही मेरे पास इतना धन है कि व्यापार आदि कर सकूँ। यदि मैं यह धन्धा छोड़ दूँ तो फिर परिवार का पालन पोषण कैसे करुँगा? उसका यह उत्तर सुनकर सन्त नामदेव जी कुछ पल तो मौन रहे, फिर बोले-अच्छा भाई! तुम यह धन्धा बेशक करो, परन्तु हमारी एक बात मान लो। चोर ने कहा-आज्ञा कीजिए। सन्त नामदेव जी ने कहा- पहले वादा करो कि तुम हमारी बात मानोगे। चोर के वादा करने पर सन्त नामदेव जी बोले- आज से तुम किसी भी परिस्थिति में झूठ मत बोलना, सदा सच बोलना, तुम्हारा कल्याण होगा।
     यह कहकर सन्त नामदेव जी तो अपने रास्ते चल दिये, इधर चोर सोचने लगा कि झूठ नहीं बोलूँगा तो काम कैसे चलेगा। पर अब तो सन्त नामदेव जी से वादा किया है, अतः कुछ भी हो जाए, अपना वादा नहीं तोड़ूँगा। यह सोचकर चोर भी चोरी के इरादे से एक ओर चल दिया। कुछ दूर जाने पर उसे एक और व्यक्ति नज़र आया। वह वास्तव में वहाँ का राजा था जो भेस बदल कर नगर का भ्रमण कर रहा था। उसने भी चोर को देख लिया। राजा ने उस चोर से धीरे से पूछा-तुम कौन हो और इस समय कहाँ जा रहे हो? चोर मन ही मन विचार करने लगा कि झूठ तो मैने बोलना नहीं है, इसलिए सच-सच बता देता हूँ, जो होगा देखा जायेगा। मन में यह विचार कर उसने उत्तर दिया -मैं चोर हूँ और चोरी करने के इरादे से घर से निकला हूँ।
     राजा चकित हुआ कि यह कैसा चोर है जो स्वयं ही बता रहा है कि मैं चोर हूँ। उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-क्यों हँसी करते हो? तुम अवश्य ही कोई सैनिक अथवा गुप्तचर मालूम होते हो? चोर ने कहा-नहीं, मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। मैं वास्तव में ही चोर हूँ और चोरी करना मेरा धन्धा है। राजा ने कहा-भाई! चोर तो मैं भी हूँ, परन्तु अभी नया-नया ही यह धन्धा शुरु किया है। अच्छा हुआ तुम मिल गए, आज दोनों मिलकर चोरी करते हैं। यदि तुम्हारा ख्याल हो तो राजमहल में चोरी करें। चोर बोला-पागल हो गए हो। राजमहल में कैसे घुसेंगे? राजा ने कहा-घबराओ नहीं, मेरी बात ध्यान से सुनो। मैं पहले राजमहल में नौकर था, परन्तु राजा ने किसी बात पर रुष्ट होकर मुझे नौकरी से निकाल दिया। चूँकि राजा ने मुझे निकाला था, इसलिए दूसरा कोई मुझे नौकरी देने को तैयार नहीं हुआ,इसलिए मैंने यह धन्धा अपनाया। मुझे राजमहल के एक-एक गुप्त द्वार का पता है, चलो आज राजमहल में भाग्य आज़माते हैं। यह कहकर राजा उस चोर को साथ लेकर राजमहल के पिछवाड़े जा पहुँचा और गुप्त मार्ग का द्वार खोलते हुए बोला-तुम पुराने चोर हो, अन्धेरे में देखने का तुम्हें अभ्यास है, इसलिए तुम अन्दर जाकर माल बटोर लाओ, मैं यहीं पहरा देता हूँ।
     चोर ने कहा-इतने बड़े महल में मुझे कैसे मालूम होगा कि माल कहाँ रखा है? राजा ने उसे ख़ज़ाने का रास्ता और वहाँ तक पहुंचने की सब युक्ति समझा दी। चोर अन्दर घुसा और ख़ज़ाने के द्वार पर जा पहुँचा। वहाँ दीवार पर एक चर्खी लगी हुई थी, उसे घुमाते ही द्वार खुल गया। चोर ने देखा, वहाँ अनेकों बड़े-बड़े मज़बूत बक्से रखे हैं, जिनमें बड़े-बड़े ताले लगे हुए हैं। उसने चाबियों का गुच्छा तथा कुछ दूसरे औज़ार निकाले और एक बक्से का ताला खोलने की कोशिश की, परन्तु उसकी सब कोशिश असफल हुई। उसने यह सोचकर कमरे में दृष्टि दौड़ाई कि शायद कोई लोहे की सलाख वगैरह मिल जाए, तभी उसकी निगाह एक बक्से पड़ गई, जो साईज़ में छोटा था और एक बड़े बक्से के ऊपर रखा हुआ था। उसने उसका ताला खोलने की कोशिश की, थोड़े ही प्रयत्न से ताला खुल गया। उसने ढक्कन उठाकर देखा, तो उसमें एक छोटी संदुकची के अतिरिक्त और कुछ न था। उसने संदूकची बाहर निकाली। जैसे ही ढक्कन खोला, उसकी आँखें चमक उठीं। उसमें तीन बहुमूल्य हीरे रखे हुए थे। उसने वे तीनों हीरे उठाये और वहां से चलने लगा, तभी उसके दिल में विचार आया कि हीरे तो तीन हैं, हम दोनों इनका आधा आधा भाग कैसे करेंगे। मैं झूठ बोलकर एक हीरा अधिक अपने पास रख लूँ, यह मैं करुँगा नहीं, क्योंकि मैने झूठ न बोलने का वादा सन्तों से किया है। यह सोचकर उसने एक हीरा संदूकची में वापस रख दिया और दो हीरे लेकर महल से बाहर आ गया। बाहर आकर उसने राजा से कहा- ये दो हीरे लाया हूँ, एक तुम्हारा एक मेरा। यह कहकर उसने एक हीरा राजा को थमाया और यह जा, वह जा।
    उसके जाने के बाद राजा ने सोचा कि हीरे तो उस संदूकची में तीन थे, फिर उसने यह क्यों कहा कि मैं दो हीरे लाया हूँ। चलकर देखना चाहिए। यह सोचकर राजा वहाँ गया, तो क्या देखता है कि एक हीरा संदूकची में ही रखा हुआ है। राजा बड़ा हैरान हुआ कि यह कैसा चोर है, जो चोरी भी करता है और सच भी बोलता है। राजा ने ख़ज़ाने का द्वार खुला छोड़ दिया और अपने शयन कक्ष में जाकर सो गया। सुबह हुई और थोड़ी ही देर में हल्ला मच गया कि राजमहल के ख़ज़ाने में चोरी हो गई है। राजा ने अपने मंत्री को बुलवाया और चोरी के बारे में बतलाते हुए कहा-ख़ज़ाने का द्वार खुला हुआ मिला है, अवश्य ही यह किसी भेदी का काम है। शीघ्र ही इसकी जाँच करो और चोर का पता लगाओ।
     मंत्री "जो आज्ञा' कहकर ख़ज़ाने वाले कमरे में गया। सब बक्से ज्यों के त्यों रखे हुए थे, केवल एक छोटे बक्से का ढक्कन खुला हुआ था। उसने उसमें से छोटी संदूकची निकालकर देखा, उसमें एक हीरा रखा हुआ था। मंत्री को पता था कि इस संदूकची में तीन बहुमूल्य हीरे थे। सोचने लगा कि ऐसा प्रतीत होता है कि चोर जल्दी में एक हीरा इसी में छोड़ गया। अब क्यों न यह हीरा मैं रख लूँ? चोरी तो हुई ही है, चोर जब पकड़ा जाएगा तो वह लाख कहता रहे कि मैने दो हीरे चुराये थे, उसकी कौन मानेगा। यह सोचकर उसने वह हीरा अपनी जेब में डाल लिया और फिर राजा को आकर सूचना दी कि शेष सब बक्से तो ठीक-ठाक रखे हैं, केवल वह बक्सा खोेला गया है जिसमें तीन हीरे रखे थे। वे तीनों हीरे चोर ले गया है।
    मंत्री की यह बात सुनकर राजा मुसकरा दिया। तत्पश्चात् उसने मंत्री को शीघ्र ही चोर को तलाश करने का आदेश दिया। तलाश शुरु हुई और खोजियों द्वारा शीघ्र ही चोर को पकड़ लिया गया और राज दरबार में पेश किया गया। राजा ने चोर से पूछा-क्या रात को तुम्हीं ने राजमहल में घुसकर चोरी की है? चोर ने हाथ जोड़कर कहा-जी हाँ, राजा साहिब! चोरी तो मैने ही की है और मैं इसका दण्ड भुगतने को भी तैयार हूँ, परन्तु मेरे साथ एक अन्य चोर भी इसमें शामिल था। मंत्री ने पूछा-वह कौन है, उसका नाम बताओ।
     चोर ने उत्तर दिया-मैं उसका नाम नहीं जानता और न ही यह जानता हूँ कि वह कहाँ रहता है। रात को पहली बार ही उससे मेरी मुलाकात हुई थी और उसी ने गुप्त द्वार से खज़ाने तक पहुँचने का मुझे रास्ता भी बतलाया था। मंत्री कहने लगा-वाह! क्या कहानी गढ़ी है। उसका नाम-पता शीघ्र ही बता दो, वरना खाल खिंचवा दी जायेगी। चोर ने कहा- आप जो सलूक चाहें मेरे साथ करें, परन्तु मैं सच कहता हूँ कि मुझे उसका नाम-पता नहीं मालूम। मैं रात की सारी घटना आप लोगों को सुनाता हूँ। यह कहकर उसने रात की सारी घटना ज्यों की त्यों वर्णन कर दी और वह हीरा, जो उसके पास था, निकाल कर राजा के आगे रख दिया। सुनकर मंत्री क्रोध से भड़क उठा-तुम चोर हो, तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। तुम कहते हो कि तुमने दो हीरे चुराये थे और उनमें से एक अपने साथी को दिया था, परन्तु चोरी तो तीनों हीरे हुए हैं, फिर तीसरा हीरा कहाँ गया?
     चोर के कुछ कहने से पहले ही राजा बोल पड़ा-मंत्री जी! यह चोर ठीक कह रहा है, हीरे दो ही चोरी हुए थे और इसने उनमें से एक हीरा अपने साथी को दिया था और एक स्वयं  रखा था और इसका सबूत यह है कि रात को इसका साथी मैं ही था। मैं रात को भेस बदलकर जब नगर में घूम रहा था, तब इससे मेरी मुलाकात हुई थी। और जो हीरा इसने मुझे दिया था, वह यह रहा। यह कहकर राजा ने जेब से हीरा निकालकर सामने रख दिया। दरबार में सन्नाटा छा गया। राजा कुछ देर मौन रहा, फिर बोला-जब यह मेरा हिस्सा मुझे देकर चला गया, तो मैने खज़ाने में आकर इसकी जाँच की, कि यह झूठ बोल गया है कि सच और मुझे वहाँ पहुँचकर और यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि तीसरा हीरा संदूकची में ही था, मंत्री जी! वह हीरा आप अपनी जेब में से निकालिये। राजा के यह कहते ही सबकी नज़रें मंत्री की ओर घूम गर्इं, जो अब भय के मारे थर्र-थर्र काँप रहा था। राजा के आदेश से हीरा उसके पास से बरामद कर लिया गया और चोरी के अपराध में उसे कारागार में डाल दिया गया।
      तत्पश्चात् राजा ने चोर से कहा-तुम चोरी भी करते हो और फिर सच भी बोलते हो, उसका क्या रहस्य है? चोर ने सन्त नामदेव जी से मिलने और उनसे सदा सच बोलने का वादा करने का सम्पूर्ण वृत्तान्त राजा को सुना दिया। राजा ने कहा-मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ और तुम्हें अपना मंत्री बनाना चाहता हूँ।
     चोर ने कहा-राजा साहिब! यह आपकी मेहरबानी है। परन्तु जिनका वचन मानने से ही आज मुझे आप मंत्री पद देने को तैयार हो गये हैं, मैं तो अब उनकी ही शरण में रहूँगा और उनके वचनानुसार चलकर अपने जीवन का कल्याण करुँगा, ऐसा मैने निश्चय कर लिया है। तत्पश्चात् यह सन्त नामदेव जी की शरण में गया और उनकी संगति में सेवा और सुमिरण करके उसने परम पद की प्राप्ति की।

भूमिया चोर



सन्त महापुरुषों का इस संसार में अवतरण केवल परोपकार के लिए ही होता है। वे करुणा करके जीव के ह्मदय से अज्ञान का अन्धकार दूर कर उसमें ज्ञान का प्रकाश भरते हैं, उसे सही मार्ग पर लगाते हैं और जीव के अन्दर विद्यमान सभी अघ-अवगुण दूर कर उसमें भक्ति, प्रेम, विनम्रता, दीनता, सन्तोष, श्रद्धा, विश्वास सत्य आदि शुभ गुणों के पुष्प विकसित करते हैं और इस प्रकार उसकी जीवन रुपी वाटिका को संवारते और निखारते हैं और उसे सुन्दर रुप प्रदान करते हैं। फलस्वरुप मनुष्य का यह जीवन भी संवर जाता है और परलोक भी सुहेला हो जाता है।
    एक बार सत्पुरुष श्री गुरुनानकदेव जी महाराज भ्रमण करते हुए और जीवो को सत्पथ पर लगाते हुए एक गांव की ओर जा निकले। भाई बाला और मरदाना भी उनके साथ थे। उस गांव में एक ज़मींदार रहता था, जिसका नाम था-भूमिया। उन दिनों आजकल की तरह यातायात के साधन उपलब्ध नहीं थे। लोग पैदल अथवा बैलगाड़ियों आदि पर ही प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाया करते थे। भूमिये ज़मींदार का काम था-दिन में यात्रियों को लूटना और रात के समय अन्य गांवों में चोरियाँ करना। उसने अपने गांव के सभी लोगों को कह रखा था कि यदि कोई साधु-सन्त इधर आवे तो उसे यहां गांव में कोई भी मत ठहराये। यदि कोई साधु-सन्त को अपने घर ठहरायेगा तो उसका घर-बार लूट लिया जायेगा। यदि कोई आ ही जाये तो उसे मेरे घर भेज दो।
     श्री गुरुनानकदेव जी जीवों का उद्धार करते हुए उस गांव में पहुँचे और एक मकान के बाहर चबूतरे पर जा विराजमान हुए। उस घर के मालिक और अड़ोसियों-पड़ोसियों ने जब देखा कि एक महापुरुष विराजमान हैं तो वे इकट्ठे होकर आये, श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के चरणों में शीश निवाया और हाथ जोड़कर विनती की-गरीबनिवाज़! आप यहाँ न बैठें, ज़मींदार के घर चले जायें। श्री गुरुनानकदेव जी महाराज ने उनके सहमे हुए चेहरे देखकर कहा-आप लोग इतने भयभीत क्यों है? हम तो साधु-सन्त हैं, कोई चोर-लुटेरे तो नहीं हैं।
     तब उस घर के मालिक ने हाथ जोड़कर विनती की-गरीब निवाज़! इस गांव के ज़मीदार का हम लोगों को ऐसा ही आदेश है कि किसी साधु-सन्त को अपने घर मत ठहराना, नहीं तो घर-बार लूटकर गांव से भगा दूँगा। यदि कोई साधु-सन्त आ जाये तो उसे मेरे घर भेज देना। अन्तर्यामी गुरुमहाराज जी सुनकर मुसकराये और भूमिया ज़मींदार के घर जा पहुँचे। भूमिये को जब पता चला, तो उसने आकर श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के चरणों में प्रणाम किया। गुरु महाराज जी ने फरमाया-परमेश्वर तेरा भला करे।
    भूमिये ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-गरीब निवाज़! भोजन तैयार है। आइये भोजन कर लीजिए। श्री गुरुनानकदेव जी महाराज ने फरमाया-भाई! तुम काम-धन्धा क्या करते हो? श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के दर्शन करके भूमिये की बुद्धि पलट गई। अतएव उसने सब सच-सच कह दिया कि मैं अपने साथियों के साथ दिन में इक्का-दुक्का यात्रियों को लूटता हूँ और रात को चोरी करता हूँ। तब श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-भाई! हम तुम्हारे घर का भोजन नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारी कमाई अधर्म और पाप की है। यह सुनकर भूमिया श्री गुरु नानकदेव जी महाराज के चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला-सच्चे पादशाह! यदि आप भोजन नहीं करेंगे तो मेरा कल्याण कैसे होगा? गुरु महाराज जी ने फरमाया-तुम यह धन्धा छोड़ दो।
     भूमिया बोला-और जो कुछ भी आप आज्ञा करें, मैं मानने के लिए तैयार हूँ, परन्तु यह काम छूटना मुश्किल है। श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया- तो फिर तुम हमारे तीन वचन मान लो, तब हम तुम्हारे घर भोजन करेंगे। भूमिये ने हाथ जोड़कर पुनः निवेदन किया-इस धन्धे को छोड़ने के अलावा आप जो कुछ भी आदेश करेंगे, मैं पालन करुँगा। श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-तो हमारी तीन बातों पर आज से अमल करना-
1. सदा सच बोलना-कभी भी झूठ न बोलना।
2. जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत करना।
3. किसी गरीब को न ही लूटना,न सताना, न ही उसके यहाँ चोरी करना।
     भूमिये ज़मींदार ने श्री गुरुमहाराज जी के चरणों में मस्तक निवाया और विनय की-मैं आपके इन तीनों वचनों का पालन करुँगा। गुरुदेव ने फरमाया, यदि इन तीनों वचनों का पालन करोगे, तो तुम्हारे सभी पिछले पापकर्म बख्शे जायेंगे। तत्पश्चात् श्री गुरु महाराज जी ने उसके घर भोजन किया और जीवों को मोह-निद्रा से जगाने और उनका कल्याण करने के लिए आगे चल पड़े।
     चूँकि भूमिये ज़मींदार को लूटमार और चोरी की आदत बचपन से ही थी, अतः दूसरे दिन ही वह चोरी करने के लिए तैयार हो गया। परन्तु उसे श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के वचन याद आ गये। सोचने लगा कि किसी गरीब के घर तो चोरी करनी नहीं है, इसलिए चलो आज राजा के यहां ही हाथ मारते हैं। यह सोचकर उसने कीमती वस्त्र पहने, शरीर पर राजाओं जैसे आभूषण धारण किये, सिर पर पगड़ी बाँधी और फिर घोड़े पर सवार होकर राजमहल की ओर चल पड़ा। देखने पर वह राजघराने का ही कोई व्यक्ति मालूम पड़ता था। रात्रि के तीन पहर बीतने के पश्चात् वह महल के मुख्य द्वार पर जा पहुंचा। द्वार पर पहुँचकर उसने घोड़ा खड़ा किया और आप नीचे उतर आया। उसे देखकर पहरेदार सावधान हो गये और पूछा-आप कौन हैं? भूमिये ने झूठ तो बोलना नहीं था, क्योंकि इसके लिये वह गुरुदेव को वचन दे चुका था, इसलिए उसने निधड़क होकर कहा-भाई! मैं चोर हूँ और महल में चोरी करने के लिए जा रहा हूँ।
     पहरेदारों ने सोचा-कोई चोर भी भला इस तरह अपना परिचय देता और मुख्य द्वार से महल में प्रविष्ट होने का प्रयत्न करता है और वह भी रात्रि के चौथे पहर में। अवश्य ही यह राजा का कोई सम्बन्धी होगा, क्योंंकि इसने मुल्यवान वस्त्र और आभूषण पहन रखे हैं। यह सोचकर उन्होने कहा-हम गरीबों के साथ क्यों मज़ाक करते हैं? आप अवश्य ही राजा के कोई रिश्तेेदार हैं।
     यह कहते हुए पहरेदारों ने द्वार खोल दिया। भूमिया अन्दर चला गया। अन्दर चारों तरफ सन्नाटा था और सब गहरी नींद में थे। एक कमरे से दूसरे कमरे में होता हुआ वह उस कमरे में जा पहुँचा जहाँ राजा सोया हुआ था। भूमिया ने राजा का कीमती हार, अंगूठियां तथा अन्य आभूषण, रानी के गले का हार और अंगूठियां आदि तथा इसके अतिरिक्त अन्य हीरे-जवाहर जो एक अलमारी में रखे हुए थे, इकट्ठे किये और एक कपड़े में बाँध लिए। तभी उसकी दृष्टि मेज़ पर रखी हुई एक सोने की डिबिया पर पड़ी। उसने वह डिबिया उठाई, उसका ढक्कन खोला और अन्दर अंगुलियां डालकर देखा। उसमें कोई बारीक पिसी हुई चीज़ थी। वास्तव में वह चूर्ण था जो राजा भोजन के बाद खाया करता था। भूमिये ने सहज स्वभाव चखकर देखा तो उसमें नमक का स्वाद पाया। उसे तुरन्त श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के वचन याद हो आए कि जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत करना। उसने वह गठरी वहीं छोड़ दी और खाली हाथ वापस चला आया। सुबह हुई, राजा की आँख खुली तो क्या देखता है कि कमरे में एक गठरी पड़ी है। राजा के आदेश से नौकरों ने जब गठरी खोली तो उसमें राजा और रानी के आभूषण तथा हीरे-जवाहरात आदि थे। महल में शोर मच गया, परन्तु राजा यह जानकर बड़ा हैरान हुआ कि महल से कोई चीज़ चोरी नहीं हुई। उसने पहरेदारों को बुलाकर पूछा, तो मुख्य द्वार के पहरेदारों ने रात वाली घटना ज्यों की त्यों वर्णन कर दी। सुनकर राजा और भी अधिक हैरान हुआ कि यह कैसा चोर है। राजा के आदेश से सैनिकों ने बहुत खोज की, परन्तु चोर के बारे में कुछ भी पता न चला। तब राजा ने राज्य में घोषणा करवा दी कि चोर राज दरबार में उपस्थित हो, उसके साहस और सच्चाई को देखते हुए उसे आधा राज्य दे दिया जायेगा।
     यह घोषणा सुनकर भूमिया हैरान हुआ, परन्तु यह सोचकर कि मुझको पकड़ने का यह कहीं जाल न हो, वह दरबार में न गया। तब राजा के आदेश से सैनिकों ने सन्देह में अनेकों ही लोगों को बंदी बना लिया और उनसे पूछताछ शुरु की गई। जब भूमिये को इस बात का पता चला कि मेरे कारण अनेकों गरीब लोग सैनिकों द्वारा पकड़े जा रहे हैं तो वह सोचने लगा कि यह तो ठीक नहीं है। वह राजदरबार में जा पहुँचा और राजा से बोला-राजन्! इन सबको छोड़ दीजिए, आपका चोर मैं हूँ।
     राजा ने पूछा-इस बात का क्या प्रमाण है कि तुम्हीं असली चोर हो। भूमिये ने उस रात की सारी घटना ज्यों की त्यों वर्णन कर दी। राजा ने अन्य सभी को छोड़ने का आदेश दिया, फिर भूमिये से पूछा-तुम चोरी करने की नियत से राजमहल में आए थे, फिर खाली हाथ यहाँ से क्यों चले गए? भूमिये ने श्री गुरु नानकदेव जी महाराज के उसके घर कृपा करने और उनके द्वारा फरमाए गए तीन वचनों के विषय में बतलाते हुए कहा-मैने महापुरुषों से वादा किया था कि उन तीनों वचनों को मानूँगा। उनका एक वचन था कि किसी गरीब के यहाँ न तो चोरी करना, न ही उसे सताना, इसलिए आपके महल में चोरी करने का निश्चय किया, उनका दूसरा वचन था कि सच बोलना, झूठ बिल्कुल मत बोलना, इसलिए आपके पहरेदारों के सामने मैने सच-सच कह दिया कि मैं चोर हूँ। उनका तीसरा वचन था कि जिसका नमक खाना, उसका बुरा मत करना। उस दिन महल में जब मैने चोरी के माल की गठरी बाँध ली तो मेरी दृष्टि मेज़ पर रखी सोने की डिबिया पर गई। मैने वह डिबिया खोली और अन्दर अँगुलियाँ डालीं, तो उसमें कोई चूर्ण था। वह चूर्ण अँगुलियों को लग गया तो मैने अंगुलियाँ मुँह में डाल लीं। उस चूर्ण में नमक था और मैने वह नमक चख लिया था, इसलिए गठरी छोड़कर खाली हाथ वापस चला गया।
     भूमिये की बातें सुनकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा-धन्य हैं महापुरुष जो जीवों को अपने सदुपदेशों से सन्मार्ग पर लगा रहे हैं और धन्य हो तुम, जिसका महापुरुषों के वचनों पर ऐसा निश्चय हुआ है। आज से मैं तुम्हें अपना मंत्री नियुक्त करता हूँ। अब ऐसा करो कि मुझे भी उन महापुरुषों के दर्शन कराओ। तत्पश्चात् दोनों ही श्री गुरुनानकदेव जी महाराज की शरण में गए, उनके शिष्य बने और भजन-सुमिरण करके अपना लोक-परलोक संवार लिया।
     संसार में ऐसा जीव का सच्चा हितैषी, ऐसा भलाई चाहने वाला, ऐसा उपकारी, जो जीव के मन का काँटा बदल दे, उसे पापकर्मों के मार्ग से हटाकर शुभकर्मों की ओर प्रवृत्त करे, सन्त महापुरुषों के अतिरिक्त अन्य कौन है? ऐसे पर-उपकारी सच्चे हितैषी सन्त महापुरुषों के उपकारों का बदला हम जीव जन्म-जन्मान्तरों तक नहीं चुका सकते।