पितामह भीष्म शर-शय्या पर लेटे हैं। भगवान ने उनकी सारी शारीरिक पीड़ा को अपनी सुधा स्यन्दिनि चितवन डार कर पहले ही हर लिया था। युधिष्ठिर हाथ बाँधे उन राजर्षि जी के सम्मुख बैठे हैं और उनसे विनय करते हैं किः- वयं हि धार्तराष्ट्राश्च , कालमन्युवशं गताः।
कृत्वेदं निन्दितं कर्म, प्राप्स्यामः कां गतिं नृप।।
हे नरेश्वर! हम पाण्डव और धृतराष्ट्र के सभी पुत्र काल और क्रोध के वशीभूत हो यह निन्दित कर्म करके न जाने किस दुर्गति को प्राप्त होंगे? निश्चय ही विधाता ने हमें पापी रचा है। राजन्। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे परलोक में भी मुझे इस पाप से छुटकारा मिल सके।
मनीषी भीष्म जी भरतवंश भूषण युधिष्ठिर जी को यों कहते हैंः-
""महाभाग! तुम तो सदा परतन्त्र हो। तुम काल, भाग्य और ईश्वर के अधीन हो। फिर शुभाशुभ कर्मों का कारण अपने को क्यों समझते हो? यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियों के विषय से बाहर है। इस कर्म और कर्ता की समस्या को विस्पष्ट करने के लिये हम तुम्हें एक रुचिर संवाद सुनाते हैं।
हे कुन्तीनन्दन! पूर्वकाल में गौतमी नाम वाली एक वृद्धा ब्रााहृणी थी। वह शान्ति के साधनों में लगी रहती। एक दिन उस ने देखा कि उसके इकलौते बेटे को साँप ने डस लिया और वह अचेत हो गया। इतने में अर्जुनक नाम का एक व्याध उधर आ निकला उसने साँप को ताँत के फांस में बाँध लिया। क्रोध में भरा हुआ वह शिकारी उसे गौतमी के पास लाया। व्याध ने कहाः-महाभागे! यह वही नीच सर्प है जिसने तुम्हारे पुत्र को मार डाला है। तुम मुझे जल्दी बताओ कि मैं इस सर्प को किस विधि से मार डालूँ? कहो तो मैं इसे आग में झोंक दूँ या इसके टुकड़े टुकड़े कर डालूं। बालक की हत्या करने वाला यह सर्प पापी है इसे अधिक समय तक जीवित नहीं रखना चाहिये।
इस पर गौतमी बोलीः-ऐ अर्जुनक! इस सर्प को तू छोड़ दे। इसे मारना उचित नहीं है। देखो-होनहार को कोई नहीं टाल सकता। इस बात को जानकर कौन होगा जो साँप की हत्या का पाप अपने ऊपर ले। ऐ अर्जुनक! संसार में धर्म का आचरण कर के जो अपने को हलका रखते हैं अर्थात् अपने ऊपर पाप का बोझ नहीं लादते वे पानी के ऊपर चलने वाली नौका के समान भवसागर से पार हो जाते हैं। परन्तु जो पाप के बोझ से अपने आपको बोझिल बना लेते हैं, वे जल में फैंके हुये हथियार की भाँति नरक-समुद्र में डूब जाते हैं। इस साँप को मार डालने से मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता। इस सर्प के जीवित रहने पर भी तुम्हारी कोई हानि नहीं होती। ऐसी स्थिति में इस जीवित प्राणी के प्राणों का नाश करके कौन यमराज के अनन्त लोक में जाने की इच्छा करेगा?
इतनी बात सुनते ही शिकारी के खून में उबाल आ गया और वह बोला कि जिन्हें हर अवस्था में शान्त रहने का स्वभाव होता है वे ही सारा दोष काल के माथे मढ़ देते हैं कि काल ही उसका आ गया था इसलिये वह मर गया। परन्तु जिन्हें अपने शत्रु से बिना बदला लिये जीना नहीं अच्छा लगता वे शत्रु का नाश करके सुख का सांस लेते हैं। इसलिये ऐ ब्रााहृणि! तू मुझे एक बार संकेत कर दे-मैं इस तेरे पुत्र के घातक को अभी कुचले देता हूँ।
गौतमी ने कहाः-ऐ व्याध! हर एक के अपने अपने विचार और संस्कार होते हैं। हमें भगवान ने ब्रााहृण
कुल में जन्म दिया है। इसलिये जिस दृष्टिकोण से तू इस संसार को देखता है उससे हम कहीं कोसों दूर हैं। हमारे स्वभाव में दया कूट कूट कर भरी है। तेरा व्यवसाय ही हिंसा करना है। किसी के प्राणों को छीन लेने में तुम्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता। परन्तु हम जैसे लोगों को कभी किसी तरह की हानि से दुःख नहीं होता। हमें तो सबके अन्दर अपने आत्मा को ही देखने का अभ्यास है। सभी का कल्याण हमको अभीष्ट रहता है। धर्म प्रिय सज्जन धर्म में ही तत्पर रहते हैं। मेरा यह बालक सब प्रकार से काल का ग्रास बनने ही वाला था सर्प का तो एक बहाना बन गया है। साँप न डसता तो और कोई कारण इसकी मृत्यु का हो जाता। मुझे उस अपने भगवान के कार्य में कभी कोई दोष नहीं दिखाई दे सकता। अतः मैं तुम्हें कभी भी इस साँप को मारने का इशारा नहीं कर सकती हूँ। प्रभु भक्तों को क्रोध नहीं होता। वे फिर कैसे क्रोध के वश में होकर किसी दूसरे को पीड़ा दे सकते हैं। ऐ सज्जन! तू भी इस नाग पर दया कर, इसके अपराध को क्षमा कर दे और इसे बन्धन से मुक्त कर।
व्याध बोलाः-देवि! यदि मैं इस सर्प को न मारुँ तो न जाने यह कितने अन्य जीवों को काट खायेगा और वे मौत का शिकार हो जाएंगे। इसके जीवित रहने से तुम्हारा कौन सा हित हो जाएगा? गौतमी ने कहा- मेरी बड़ाई इसी बात में है कि मैं शत्रु को अपने हाथ में पाकर भी इसको स्वाधीनता से जीवन बिताने का अवसर दे दूँ। इससे मेरी अन्तरात्मा को जो अपार हर्ष होगा उसका वर्णन मैं नहीं कर सकती। भीष्म जी ने महाराजा युधिष्ठिर जी को कथा आगे बढ़ाते हुए कहा-गौतमी ने किसी प्रकार से भी नाग का वध करने की आज्ञा न दी। व्याध ने भी उसे बन्धन से न छोड़ा। बन्धन में बँधा हुआ ही वह साँप मनुष्य वाणी में उस अर्जुनक नामक व्याध से इस प्रकार बोला¬ः-
ऐ नादान अर्जुनक! तू तो मनुष्य है। तेरे पास विचार करने वाली बुद्धि भी है। मैं तो रींगने वाला एक जन्तु हूँ। मुझमें समझ भी नहीं- फिर भी इतना जानता हूँ कि बालक को डस लेने में मेरा कोई दोष नहीं। उसका अन्तकाल आ गया था मृत्यु के देवता ने मुझे कहा कि ऐ सर्प! तुम जाओ और उस विप्र बालक को डस लो। मेरी अपनी कोई भी कामना ऐसा करने की न थी। न मेरी उस लड़के से न जान-पहचान, न कोई मैत्री या शत्रुता। इसलिये मैं निर्दोष हूँ क्यों मुझे व्यर्थ सताता है?
अर्जुनक ने कहाः- ओ सर्प! घड़ा अपने आप नहीं बन जाया करता। मिट्टी, पानी और चाक सब सामग्री हो यदि वहाँ कुम्हार न हो तो कलश कैसे बन कर तैयार हो जायेगा? कुम्हार उसमें निमित्त कारण बनता है तभी वह घड़ा एक सुन्दर रुप धारण करके बाहर आता है। तू भी उस बालक को मारने में एक प्रबल निमित्त तो बन गया था? तू अपराधी है बाल हत्या तेरे कारण से ही हुई है इसलिये मैं तुझे दण्ड दूँगा।
सर्प ने अन्तिम युक्ति देते हुए उस अर्जुनक से प्रार्थना की कि देखो सबसे बलशाली यह मृत्यु है। परमात्मा जिसके भी शरीर को लेना चाहते हैं मृत्यु को आदेश हो जाता है और वह सीधा तो किसी को मारती नहीं किसी को बीच में निमित्त बना देती है। गौतमी के पुत्र के कर्म भोग जो इस काया में उसने भोगने थे वे समाप्त हो चुके थे अतः उसे निष्प्राण कर लिया। इसमें मेरा तनिक भी दोष नहीं है। सारा विधान उस महाकाल भगवान का है मेरा नहीं।
राजर्षि भीष्म जी ने कहा-ऐ युधिष्ठिर! अब तो सारा भांडा मृत्यु के सिर पर आ फूटा। वह बड़ी घबड़ाई-मृत्यु लपक कर सामने आई और लगी अपनी सफाई पेश करने। मृत्यु बोली- मैं तो समय के अधीन हूँ। उस कालदेव की प्रेरणा से ही मैं सारी सेवा करती हूँ। इसलिये मुझे प्रेरणा दी काल ने और तू बन गया मेरा निमित्त-सो न तू दोषी है और न मैं अपराधी हूँ। ऐ सर्प! जैसे हवा बादलों को इधर उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलों की भाँति मैं भी काल के वश में हूँ, ऐ सर्प! पृथ्वी अथवा स्वर्गलोक में जितने भी जड़-चेतन पदार्थ हैं
वे सबके सब काल के अधीन हैं। यह सारा जगत ही काल के अधीन है। इसलिये तू मुझे दोषी न ठहरा।
सर्प ने कहा-ऐ मृत्यु की देवि! मैं तुम्हें न तो निर्दोष कह सकता हूँ और न दोषी। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि इस बालक को डसने के लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था।
सर्प ने जब इस प्रकार मृत्यु पर दोषारोपण किया और मृत्यु ने अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये काल की ओट ली तब काल देवता बीच में आ कूदे। और उन्होने सर्प, अर्जुनक और मृत्यु को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार गर्जन किया-ऐ व्याध! इस बालक की मृत्यु में न मैं, न यह मृत्यु और न यह सर्प अपराधी हैं। इस बालक ने जो कर्म किया वही इसकी मृत्यु में प्रेरक अर्थात् प्रेरणा करने वाला बना है। दूसरा कोई भी इसके विनाश का कारण नहीं है। यह जीव अपने कर्म से ही मरता है। इस बालक ने जो कर्म किया है, उसी से यह मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसका कर्म ही इसके विनाश का कारण है। हम सब लोग कर्म के अधीन हैं। संसार में मनुष्य के पीछे पीछे उसका कर्म ही जाता है-दुःख और सुखों के मिलने में कर्म ही प्रधान कारण होता है।
जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु वह फल प्राप्ति के क्षेत्र में अपने आप नहीं पाँव रख सकता वहाँ परमात्मा के अधीन रहता है। कुम्हार के हाथ में मिट्टी का लौंदा होता है वह उससे जो जो बर्तन चाहता है बना लेता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही सब कुछ पाता है। कत्र्ता अर्थात् कर्म करने वाले का कर्म के साथ ऐसा निकट का सम्बन्ध है जैसे धूप और छाया का। वे दोनों एक दूसरे से विलग नहीं रह सकतीं। इस सम्पूर्ण वाद-विवाद का निष्कर्ष यह निकला कि इस बालक की मृत्यु में न मैं, न मृत्यु न सर्प न तुम अर्थात् व्याध और न यह बूढ़ी ब्रााहृणी ही कारण है यह बालक अपने ही कर्म के अनुसार अपनी मृत्यु में कारण जा बना है।
गौतमी ने कहाः-ऐ अर्जुनक! जैसे मेरा पुत्र अपने कर्मों से ही प्रेरित हो कर काल के द्वारा विनाश को प्राप्त हुआ है, मैंने वैसा ही कोई कर्म किया था जिससे यह मेरा सुख मुझसे छिन गया। इसलिये तुम काल और मृत्यु आप दोनों भी अपने अपने घर पधारो। इस प्रकार सभी ने अपनी अपनी राह ली।
ऐ युधिष्ठिर! तुम्हें भी इसी विधि-विधान को लक्ष्य में रखते हुये शान्त हो जाना चाहिये। सब मनुष्य अपने अपने किये हुये कर्मों के अनुसार अपने लोकों में जाते हैं। तुमने या दुर्योधन ने कुछ नहीं किया है। काल ही की यह सारी करतूत समझो जिस कारण से ये सारे भूपाल मारे गये हैं।
इस समस्त उपाख्यान का तात्पर्य समझ कर धर्मात्मा युधिष्ठिर जी को परम शान्ति मिली। उनके ह्मदय में जो सम्बन्धियों के समर भूमि में मर जाने का दावानल धधक रहा था वह शान्त हो गया। राजा ने निश्चय कर लिया कि सब कुछ कर्म-चक्र के प्रभाव से ही हो रहा है। प्रत्येक जीव कर्म श्रृंखला में बँधा हुआ जीवन-यात्रा करने में तत्पर है। कोई किसी को सुख-दुःख नहीं दिया करता। यह मिथ्या भ्रान्ति हुआ करती है कि मुझे उस मित्र ने धोखा क्यों दे दिया? मैंने किसी का कार्य सिद्ध करके कितने बड़े भारी अमंगल से उसे बचा लिया है। व्यवहार में ऐसी चर्चाएँ सत्य प्रतीत होती हैं। वस्तुतः यह संसार का कर्मचक्र तभी तक यथार्थ भासता है जब तक अन्तर्दृष्टि नहीं खुलती।
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