Thursday, January 7, 2016

गौतमी द्वारा साँप को निर्भयता



पितामह भीष्म शर-शय्या पर लेटे हैं। भगवान ने उनकी सारी शारीरिक पीड़ा को अपनी सुधा स्यन्दिनि चितवन डार कर पहले ही हर लिया था। युधिष्ठिर हाथ बाँधे उन राजर्षि जी के सम्मुख बैठे हैं और उनसे विनय करते हैं किः-                     वयं  हि  धार्तराष्ट्राश्च , कालमन्युवशं  गताः।
कृत्वेदं निन्दितं कर्म, प्राप्स्यामः कां गतिं नृप।।
हे नरेश्वर! हम पाण्डव और धृतराष्ट्र के सभी पुत्र काल और क्रोध के वशीभूत हो यह निन्दित कर्म करके न जाने किस दुर्गति को प्राप्त होंगे? निश्चय ही विधाता ने हमें पापी रचा है। राजन्। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे परलोक में भी मुझे इस पाप से छुटकारा मिल सके।
मनीषी भीष्म जी भरतवंश भूषण युधिष्ठिर जी को यों कहते हैंः-
""महाभाग! तुम तो सदा परतन्त्र हो। तुम काल, भाग्य और ईश्वर के अधीन हो। फिर शुभाशुभ कर्मों का कारण अपने को क्यों समझते हो? यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियों के विषय से बाहर है। इस कर्म और कर्ता की समस्या को विस्पष्ट करने के लिये हम तुम्हें एक रुचिर संवाद सुनाते हैं।
     हे कुन्तीनन्दन! पूर्वकाल में गौतमी नाम वाली एक वृद्धा ब्रााहृणी थी। वह शान्ति के साधनों में लगी रहती। एक दिन उस ने देखा कि उसके इकलौते बेटे को साँप ने डस लिया और वह अचेत हो गया। इतने में अर्जुनक नाम का एक व्याध उधर आ निकला उसने साँप को ताँत के फांस में बाँध लिया। क्रोध में भरा हुआ वह शिकारी उसे गौतमी के पास लाया। व्याध ने कहाः-महाभागे! यह वही नीच सर्प है जिसने तुम्हारे पुत्र को मार डाला है। तुम मुझे जल्दी बताओ कि मैं इस सर्प को किस विधि से मार डालूँ? कहो तो मैं इसे आग में झोंक दूँ या इसके टुकड़े टुकड़े कर डालूं। बालक की हत्या करने वाला यह सर्प पापी है इसे अधिक समय तक जीवित नहीं रखना चाहिये।
     इस पर गौतमी बोलीः-ऐ अर्जुनक! इस सर्प को तू छोड़ दे। इसे मारना उचित नहीं है। देखो-होनहार को कोई नहीं टाल सकता। इस बात को जानकर कौन होगा जो साँप की हत्या का पाप अपने ऊपर ले। ऐ अर्जुनक! संसार में धर्म का आचरण कर के जो अपने को हलका रखते हैं अर्थात् अपने ऊपर पाप का बोझ नहीं लादते वे पानी के ऊपर चलने वाली नौका के समान भवसागर से पार हो जाते हैं। परन्तु जो पाप के बोझ से अपने आपको बोझिल बना लेते हैं, वे जल में फैंके हुये हथियार की भाँति नरक-समुद्र में डूब जाते हैं। इस साँप को मार डालने से मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता। इस सर्प के जीवित रहने पर भी तुम्हारी कोई हानि नहीं होती। ऐसी स्थिति में इस जीवित प्राणी के प्राणों का नाश करके कौन यमराज के अनन्त लोक में जाने की इच्छा करेगा?
   इतनी बात सुनते ही शिकारी के खून में उबाल आ गया और वह बोला कि जिन्हें हर अवस्था में शान्त रहने का स्वभाव होता है वे ही सारा दोष काल के माथे मढ़ देते हैं कि काल ही उसका आ गया था इसलिये वह मर गया। परन्तु जिन्हें अपने शत्रु से बिना बदला लिये जीना नहीं अच्छा लगता वे शत्रु का नाश करके सुख का सांस लेते हैं। इसलिये ऐ ब्रााहृणि! तू मुझे एक बार संकेत कर दे-मैं इस तेरे पुत्र के घातक को अभी कुचले देता हूँ।
    गौतमी ने कहाः-ऐ व्याध! हर एक के अपने अपने विचार और संस्कार होते हैं। हमें भगवान ने ब्रााहृण
कुल में जन्म दिया है। इसलिये जिस दृष्टिकोण से तू इस संसार को देखता है उससे हम कहीं कोसों दूर हैं। हमारे स्वभाव में दया कूट कूट कर भरी है। तेरा व्यवसाय ही हिंसा करना है। किसी के प्राणों को छीन लेने में तुम्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता। परन्तु हम जैसे लोगों को कभी किसी तरह की हानि से दुःख नहीं होता। हमें तो सबके अन्दर अपने आत्मा को ही देखने का अभ्यास है। सभी का कल्याण हमको अभीष्ट रहता है। धर्म प्रिय सज्जन धर्म में ही तत्पर रहते हैं। मेरा यह बालक सब प्रकार से काल का ग्रास बनने ही वाला था सर्प का तो एक बहाना बन गया है। साँप न डसता तो और कोई कारण इसकी मृत्यु का हो जाता। मुझे उस अपने भगवान के कार्य में कभी कोई दोष नहीं दिखाई दे सकता। अतः मैं तुम्हें कभी भी इस साँप को मारने का इशारा नहीं कर सकती हूँ। प्रभु भक्तों को क्रोध नहीं होता। वे फिर कैसे क्रोध के वश में होकर किसी दूसरे को पीड़ा दे सकते हैं। ऐ सज्जन! तू भी इस नाग पर दया कर, इसके अपराध को क्षमा कर दे और इसे बन्धन से मुक्त कर।
     व्याध बोलाः-देवि! यदि मैं इस सर्प को न मारुँ तो न जाने यह कितने अन्य जीवों को काट खायेगा और वे मौत का शिकार हो जाएंगे। इसके जीवित रहने से तुम्हारा कौन सा हित हो जाएगा? गौतमी ने कहा- मेरी बड़ाई इसी बात में है कि मैं शत्रु को अपने हाथ में पाकर भी इसको स्वाधीनता से जीवन बिताने का अवसर दे दूँ। इससे मेरी अन्तरात्मा को जो अपार हर्ष होगा उसका वर्णन मैं नहीं कर सकती। भीष्म जी ने महाराजा युधिष्ठिर जी को कथा आगे बढ़ाते हुए कहा-गौतमी ने किसी प्रकार से भी नाग का वध करने की आज्ञा न दी। व्याध ने भी उसे बन्धन से न छोड़ा। बन्धन में बँधा हुआ ही वह साँप मनुष्य वाणी में उस अर्जुनक नामक व्याध से इस प्रकार बोला¬ः-
     ऐ नादान अर्जुनक! तू तो मनुष्य है। तेरे पास विचार करने वाली बुद्धि भी है। मैं तो रींगने वाला एक जन्तु हूँ। मुझमें समझ भी नहीं- फिर भी इतना जानता हूँ कि बालक को डस लेने में मेरा कोई दोष नहीं। उसका अन्तकाल आ गया था मृत्यु के देवता ने मुझे कहा कि ऐ सर्प! तुम जाओ और उस विप्र बालक को डस लो। मेरी अपनी कोई भी कामना ऐसा करने की न थी। न मेरी उस लड़के  से न जान-पहचान, न कोई मैत्री या शत्रुता। इसलिये मैं निर्दोष हूँ क्यों मुझे व्यर्थ सताता है?
अर्जुनक ने कहाः- ओ सर्प! घड़ा अपने आप नहीं बन जाया करता। मिट्टी, पानी और चाक सब सामग्री हो यदि वहाँ कुम्हार न हो तो कलश कैसे बन कर तैयार हो जायेगा? कुम्हार उसमें निमित्त कारण बनता है तभी वह घड़ा एक सुन्दर रुप धारण करके बाहर आता है। तू भी उस बालक को मारने में एक प्रबल निमित्त तो बन गया था? तू अपराधी है बाल हत्या तेरे कारण से ही हुई है इसलिये मैं तुझे दण्ड दूँगा।
     सर्प ने अन्तिम युक्ति देते हुए उस अर्जुनक से प्रार्थना की कि देखो सबसे बलशाली यह मृत्यु है। परमात्मा जिसके भी शरीर को लेना चाहते हैं मृत्यु को आदेश हो जाता है और वह सीधा तो किसी को मारती नहीं किसी को बीच में निमित्त बना देती है। गौतमी के पुत्र के कर्म भोग जो इस काया में उसने भोगने थे वे समाप्त हो चुके थे अतः उसे निष्प्राण कर लिया। इसमें मेरा तनिक भी दोष नहीं है। सारा विधान उस महाकाल भगवान का है मेरा नहीं।
     राजर्षि भीष्म जी ने कहा-ऐ युधिष्ठिर! अब तो सारा भांडा मृत्यु के सिर पर आ फूटा। वह बड़ी घबड़ाई-मृत्यु लपक कर सामने आई और लगी अपनी सफाई पेश करने। मृत्यु बोली- मैं तो समय के अधीन हूँ। उस कालदेव की प्रेरणा से ही मैं सारी सेवा करती हूँ। इसलिये मुझे प्रेरणा दी काल ने और तू बन गया मेरा निमित्त-सो न तू दोषी है और न मैं अपराधी हूँ। ऐ सर्प! जैसे हवा बादलों को इधर उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलों की भाँति मैं भी काल के वश में हूँ, ऐ सर्प! पृथ्वी अथवा स्वर्गलोक में जितने भी जड़-चेतन पदार्थ हैं
वे सबके सब काल के अधीन हैं। यह सारा जगत ही काल के अधीन है। इसलिये तू मुझे दोषी न ठहरा।
     सर्प ने कहा-ऐ मृत्यु की देवि! मैं तुम्हें न तो निर्दोष कह सकता हूँ और न दोषी। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि इस बालक को डसने के लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था।
     सर्प ने जब इस प्रकार मृत्यु पर दोषारोपण किया और मृत्यु ने अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये काल की ओट ली तब काल देवता बीच में आ कूदे। और उन्होने सर्प, अर्जुनक और मृत्यु को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार गर्जन किया-ऐ व्याध! इस बालक की मृत्यु में न मैं, न यह मृत्यु और न यह सर्प अपराधी हैं। इस बालक ने जो कर्म किया वही इसकी मृत्यु में प्रेरक अर्थात् प्रेरणा करने वाला बना है। दूसरा कोई भी इसके विनाश का कारण नहीं है। यह जीव अपने कर्म से ही मरता है। इस बालक ने जो कर्म किया है, उसी से यह मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसका कर्म ही इसके विनाश का कारण है। हम सब लोग कर्म के अधीन हैं। संसार में मनुष्य के पीछे पीछे उसका कर्म ही जाता है-दुःख और सुखों के मिलने में कर्म ही प्रधान कारण होता है।
     जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु वह फल प्राप्ति के क्षेत्र में अपने आप नहीं पाँव रख सकता वहाँ परमात्मा के अधीन रहता है। कुम्हार के हाथ में मिट्टी का लौंदा होता है वह उससे जो जो बर्तन चाहता है बना लेता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही सब कुछ पाता है। कत्र्ता अर्थात् कर्म करने वाले का कर्म के साथ ऐसा निकट का सम्बन्ध है जैसे धूप और छाया का। वे दोनों एक दूसरे से विलग नहीं रह सकतीं। इस सम्पूर्ण वाद-विवाद का निष्कर्ष यह निकला कि इस बालक की मृत्यु में न मैं, न मृत्यु न सर्प न तुम अर्थात् व्याध और न यह बूढ़ी ब्रााहृणी ही कारण है यह बालक अपने ही कर्म के अनुसार अपनी मृत्यु में कारण जा बना है।
     गौतमी ने कहाः-ऐ अर्जुनक! जैसे मेरा पुत्र अपने कर्मों से ही प्रेरित हो कर काल के द्वारा विनाश को प्राप्त हुआ है, मैंने वैसा ही कोई कर्म किया था जिससे यह मेरा सुख मुझसे छिन गया। इसलिये तुम काल और मृत्यु आप दोनों भी अपने अपने घर पधारो। इस प्रकार सभी ने अपनी अपनी राह ली।
     ऐ युधिष्ठिर! तुम्हें भी इसी विधि-विधान को लक्ष्य में रखते हुये शान्त हो जाना चाहिये। सब मनुष्य अपने अपने किये हुये कर्मों के अनुसार अपने लोकों में जाते हैं। तुमने या दुर्योधन ने कुछ नहीं किया है। काल ही की यह सारी करतूत समझो जिस कारण से ये सारे भूपाल मारे गये हैं।
     इस समस्त उपाख्यान का तात्पर्य समझ कर धर्मात्मा युधिष्ठिर जी को परम शान्ति मिली। उनके ह्मदय में जो सम्बन्धियों के समर भूमि में मर जाने का दावानल धधक रहा था वह शान्त हो गया। राजा ने निश्चय कर लिया कि सब कुछ कर्म-चक्र के प्रभाव से ही हो रहा है। प्रत्येक जीव कर्म श्रृंखला में बँधा हुआ जीवन-यात्रा करने में तत्पर है। कोई किसी को सुख-दुःख नहीं दिया करता। यह मिथ्या भ्रान्ति हुआ करती है कि मुझे उस मित्र ने धोखा क्यों दे दिया? मैंने किसी का कार्य सिद्ध करके कितने बड़े भारी अमंगल से उसे बचा लिया है। व्यवहार में ऐसी चर्चाएँ सत्य प्रतीत होती हैं। वस्तुतः यह संसार का कर्मचक्र तभी तक यथार्थ भासता है जब तक अन्तर्दृष्टि नहीं खुलती।

भक्त शंकर पण्डित



भक्त शंकर पण्डित अत्यन्त भक्तिभावसम्पन्न ब्रााहृण थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिन सद्गुणों का वर्णन किया है वे सभी उनमें विद्यमान थे, तथापि यहाँ हम उस गुण का वर्णन करना चाहेंगे जिसको अपनाना जीवन में सबसे कठिन होता है और वह है-"रिपु सों बैर बिहाउ' अर्थात् शत्रु के साथ भी वैर-विरोध न करना। परन्तु शंकर पण्डित में यह गुण भी कूट-कूट कर भरा हुआ था जैसा कि उनके जीवन-चरित्र से प्रकट होता है।
     भक्त शंकरपण्डित गण्डकी नदी के तट पर स्थित एक गाँव में रहते थे। वे सुबह मुंह-अन्धेरे ही उठकर नदी-तट पर चले जाते और स्नानादि से निवृत्त होकर गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में जाकर भगवान की पूजा तथा स्मरण-ध्यान करते। भगवान का यह भजन-पूजन लगभग नौ बजे तक चलता। तत्पश्चात् वे घर आकर भोजन करते और फिर गाँव की संस्कृत पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने पहुँच जाते। उस गाँव के ज़मींदार ठाकुर जगपाल बड़े ही धार्मिक विचारों के थे और इस पाठशाला की स्थापना उन्होंने ही की थी, जहाँ विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ दोपहर का भोजन भी मिलता था। गाँव की पाठशाला थी, इसलिए थोड़े से ही विद्यार्थी थे। भक्त शंकर पण्डित को वेतन ठाकुर जगपाल की ओर से ही मिलता था। वेतन यद्यपि बहुत अधिक नहीं था, परन्तु शंकर पण्डित की तरह चूंकि उनकी धर्मपत्नी भी भक्तिभावसम्पन्न  एवं सन्तोषी थी, इसलिए जीवन-निर्वाह सुगमता से हो जाता था।
     ठाकुर जगपाल को एक रात्रि स्वप्न में अज्ञात निर्देश हुआ कि अमुक स्थान पर पन्द्रह लाख स्वर्ण-मुद्राएं गड़ी पड़ी हैं, वह निकलवा लो। ठाकुर जगपाल ने उस जगह खुदाई करवाई तो सचमुच ही उसे पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुर्इं। उसने निश्चय किया कि इनमें से दस लाख स्वर्ण मुद्रायें खर्च करके भगवान का एक भव्य मन्दिर बनवाऊँगा और शेष पाँच लाख मुद्रायें अपने चारों पुत्रों को दे दूँगा। उसने अपना यह निश्चय अपने चारों लड़कों को बतलाते हुए कहा कि यह मन्दिर शंकर पंडित की देख-रेख में बनेगा, क्योंकि वे भगवान के सच्चे भक्त हैं और कर्तव्य-परायण, सन्तोषी, निर्लोभी तथा ईमानदार हैं। मैने इस विषय में उनसे परामर्श कर लिया है।
    परन्तु भगवान को कुछ और ही अभीष्ट था। मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ करवाने से पूर्व ही ठाकुर जगपाल का देहान्त हो गया और उसके स्थान पर उसका बड़ा लड़का कुशलपाल ठाकुर बना। वह स्वभाव से बड़ा दुराचारी, विलासी और अधार्मिक था। शंकर पंडित से तो उसे बहुत ही चिढ़ थी। जब ठाकुर जगपाल बड़े आदर और विनम्रता से झुककर उन्हें प्रणाम करता था, तो यह देखकर कुशलपाल को आग लग जाती थी कि एक निर्धन ब्रााहृण के आगे उसका पिता इतना झुक रहा है। ठाकुर बनने के बाद उसने एक-दो बार पाठशाला बन्द कर देने का विचार किया, परन्तु कुछ तो लोक-लाज के कारण तथा कुछ माता के भय से पिता द्वारा स्थापित पाठशाला बन्द करने की उसकी हिम्मत न हुई। यद्यपि ठाकुर जगपाल की पत्नी और तीनों छोटे लड़के शंकर पंडित का बड़ा आदर करते थे, परन्तु कुशलपाल जब भी उन्हें देखता उसकी भृकुटि चढ़ जाती, अतएव शंकर पंडित ने ठाकुर की हवेली में जाना छोड़ दिया। वैसे भी उनकी संसार के प्रति कोई रुचि नहीं थी, वे तो भगवान के भजन-पूजन में ही आनन्द मानते थे और इसी को जीवन का सच्चा लाभ समझते थे। अब उन्होंने यह नियम बना लिया कि पाठशाला से छुट्टी मिलते ही वे सीधे घर चले जाते और थोड़ा-सा भोजन करके फिर गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में जाकर भजन-पूजन में लीन हो जाते और सूर्यास्त के बाद ही घर वापस आते।
      कुछ दिन के पश्चात् कुशलपाल की माता का भी देहान्त हो गया। अब तो कुशलपाल पूर्णतः निरंकुश
हो गया। अब तो रात-दिन हवेली में महफिलें जमने लगीं और वह विलासिता में गहरा डूबता चला गया और पानी की तरह पैसा बहाने लगा। कुछ ही दिनों में उसने पिता से प्राप्त अपने हिस्से का सारा धन फूँक डाला। तब उसकी नज़र पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राओं के भण्डार पर गई और उसने उस धन को हड़पने का विचार किया। अपने भाइयों को वह अच्छी तरह जानता था और उसे मालूम था कि वे उसका विरोध करेंगे, अतएव कुशलपाल ने एक जाली दस्तावेज़ तैयार किया और उस पर अपने पिता के हस्ताक्षर की हूबहू नकल कर दी। उस दस्तावेज़ में यह लिखा हुआ था कि उन पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राओं में से एक-एक लाख मुद्रा तीनों छोटे लड़कों को दे दी जाए और बाकी सब अर्थात् बाहर लाख मुद्राएं बड़े लड़के कुशलपाल को मिलें। वह जिस प्रकार चाहे इनको उपयोग में लाये। दस्तावेज़ तैयार हो जाने पर उसने अपने भाइयों को बुलाया और दस्तावेज़ दिखाते हुए बोला- पिता जी का विचार यद्यपि पहले मन्दिर बनवाने का था, परन्तु मरते समय उनका यह विचार बदल गया था और तभी यह दस्तावेज़ लिखा गया था।
     यह कहकर उसने भाइयों की ओर देखा जिनके चेहरे से अविश्वास स्पष्ट झलक रहा था। यह देखकर कुशलपाल घबरा गया और घबराहट में प्रभु-प्रेरणा से उसके मुख से निकल गया कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पण्डित की उपस्थिति में किये थे। तीनों भाई कुशलपाल के स्वभाव से भी और शंकर पंडित के स्वभाव से भी भलीभाँति परिचित थे। शंकर पंडित पर उनकी श्रद्धा भी थी। जब कुशलपाल ने ये शब्द कहे कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पंडित की उपस्थिति में किये हैं, तो वे बोले-यदि पंडित जी कह देंगे कि पिता जी ने उनके सामने इस पर हस्ताक्षर किये हैं, तो हम लोग इस दस्तावेज़ को मान लेंगे। यह कहकर तीनों भाई वहाँ से चले गये। कुशलपाल ने उनके सम्मुख कह तो दिया कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पंडित की उपस्थिति में किये थे, परन्तु अब उसको यह सोचकर भय लगने लगा कि शंकर पंडित ने यदि यह बात न मानी तो क्या होगा? परन्तु फिर उसने सोचा-""मानेगा कैसे नहीं। मुझे मिलने वाले धन में से मैं आधा उसको दे दूँगा। धन तो बड़ों-बड़ों को झुका देता है, फिर वह तो कंगाल है। इतना धन देखकर तो वह कुछ भी कहने को तैयार हो जायेगा।'' परन्तु थोड़ी देर बाद ही उसके मन में पुनः यह विचार उठ खड़ा हुआ-""इस क्षेत्र के सभी लोगों का यह कहना है कि वह बड़ा निर्लोभी, ईमानदार और सत्यवादी है। यदि वह प्रलोभन में न आया और उसने मेरी बात मानने से इनकार कर दिया तो?''
     ""तो फिर मैं उसे जीवित नहीं छोड़ूँगा।'' यह सोचकर उसका मुख कठोर हो गया।
दूसरे दिन कुशलपाल उस समय भक्त शंकर पंडित के घर जा पहुँचा, जब वे भोजन करके पाठशाला जाने के लिये तैयार थे। कुशलपाल ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम किया। यह देखकर शंकर पंडित को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कुशलपाल को एक चारपाई पर बैठने के लिए कहा, तत्पश्चात् पूछा-ठाकुर साहिब! सब कुशलमंगल है?
     कुशलपाल ने उत्तर दिया-जी हाँ! सब कुशल है। मैं आपके पास एक खास काम से आया हूँ। तत्पश्चात् उसने दस्तावेज़ के विषय में सारी बात बतलाकर दस्तावेज़ उनके हाथों में थमा दिया। शंकर पंडित ने ध्यानपूर्वक दस्तावेज़ पढ़ा और बड़े ही ध्यान से हस्ताक्षर देखे, फिर बोले-ठाकुर जगपाल जी के हस्ताक्षरों जैसे हस्ताक्षर बनाने की पूरी कोशिश की गई है, परन्तु ये हस्ताक्षर उनके कदापि नहीं है। मैं उनकी लिखावट अच्छी तरह पहचानता हूँ। यह दस्तावेज़ जाली है।
     कुशलपाल ने कहा-पंडित जी! यह आप कैसी बातें कर रहे हैं? दस्तावेज़ मेरे पक्ष में है, यदि आपकी दृष्टि में यह जाली है तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैने जानबूझ कर यह जाली दस्तावेज़ तैयार करवाया है। शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! दस्तावेज़ किसी ने भी तैयार किया हो, परन्तु यह बात मैं निश्चित रुप से कह सकता हूँ कि हस्ताक्षर जाली है। यह सुनकर कुशलपाल का चेहरा उतर गया। शंकर पंडित ने उसे समझाते हुए कहा-ठाकुर साहिब! पाप से प्राप्त धन अनर्थ का मूल है। इससे मनुष्य में काम,क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार तो ज़ोर पकड़ ही जाते हैं, असत्य भाषण, हिंसा, वैर, लम्पटता, इन्द्रिय-लोलुपता, जुआ खेलना तथा मदिरा-पान आदि अनेकों दुर्गुण भी मनुष्य के अन्दर प्रविष्ट हो जाते हैं और मनुष्य पूरी तरह अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है जिससे जीवन में उसे कभी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं होती। इन पाप कर्मों के फलस्वरुप वह संसार में अपयश का भागी तो बनता ही है, परलोक में भी नरकों की यातनाएँ झेलता है। इसलिए आप इस पाप से बचिये और पिता जी की इच्छा को पूरा कीजिए ताकि संसार में आपका यश हो।
     कुशलपाल की बुद्धि तो लोभ ने हर ली थी, अतः उसे शंकर पंडित का यह उपदेश तनिक न भाया। तब उसने दूसरा पासा फेंका और कहने लगा-पंडित जी! मैं आपका बहुत आदर करता हूँ और आपको निर्धन देखकर मुझे बहुत कष्ट होता है। यदि आप केवल एक बार सबके सामने कह दें कि यह हस्ताक्षर पिता जी के हैं तो मैं अपने हिस्से में से आधा धन आपको दे दूँगा। तब आपको जीवन में कोई अभाव नहीं रहेगा और आप निश्चिन्त होकर भगवान की सेवा पूजा और भजन-ध्यान कर सकेंगे।
     भक्त शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! अब आप यहाँ से पधारने की कृपा करें। धन का लोभ देकर आप मुझसे झूठ बुलवाना चाहते हैं। ऐसा कदापि नहीं हो सकता। मैं निर्धन अवश्य हूं, परन्तु लोभी नहीं हूँ। मेरे भगवान पाप का धन खाने वाले का भजन-पूजन और सेवा स्वीकार नहीं करते, न ही पाप का यह धन बच्चों को खिलाकर मैं उन्हें अधर्मी एवं दुराचारी बनाना चाहता हूँ। मेहनत और ईमानदारी से कमाई हुई रुखी-सूखी खाकर ही हम प्रसन्न हैं। हमें पाप का धन नहीं चाहिए। अब आप जा सकते हैं। शंकर पंडित के ये वचन सुनकर कुशलपाल जल उठा और क्रोध पूर्वक बोला-कंगाल को इतना अभिमान? आपको पिता जी ने बहुत सिर चढ़ा रखा था, इसीलिए आपने ऐसी धृष्टता करने का साहस किया है। किन्तु याद रखियेगा, मेरा नाम कुशलपाल है। मेरे आदेश का पालन करने में ही आपकी कुशल है। मेरी अवज्ञा करके आप जीवित नहीं रह सकते। शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! मैं निर्धन अवश्य हूँ, परन्तु आपकी तरह धन के बदले धर्म का त्याग करने वाला नहीं हूँ। शेष रही आपकी धमकी की बात तो जीवित रखना और मारना भगवान के हाथ में है।
         जाको राखे साइयां मार सके न कोय।   बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय।
भगवान की इच्छा के विरुद्ध आप मेरा कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकते। हाँ! यदि भगवान ने आपके हाथों ही मेरी मृत्यु लिखी है, तो फिर भगवान की इच्छा पूरी होनी ही चाहिए। परन्तु मैं अब भी आपको यही सत्परामर्श दूँगा कि आप इस पापमय विचार को अपने मन से निकाल दें। भगवान आपको सद्बुद्धि दें और आपका कल्याण करें। कुशलपाल क्रोध में बोला-आपके आशीर्वाद की मुझे आवश्यकता नहीं है। आप मेरे लिए नहीं, अपने लिये भगवान से प्रार्थना करें। यह कहकर वह पैर पटकता हुआ वहाँ से चला गया। उसने शंकर पंडित का वध करने का मन ही मन निश्चय कर लिया।
     पहले लिखा जा चुका है कि शंकर पंडित पाठशाला में छुट्टी होने पर सीधे घर आते थे और हल्का-सा भोजन करके गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में चले जाते थे, जहां वे भगवान का भजन-पूजन तथा सुमिरण-ध्यान करते थे। सूर्यास्त होने के लगभग एक-डेढ़ घंटे बाद ही वे घर लौटते थे। मन्दिर और गाँव के बीच में बिल्कुल सुनसान जगह थी। सायंकाल होते ही कुशलपाल छिपते-छिपाते वहां जा पहुंचा और एक वृक्ष की आड़ में खड़ा हो गया। उसने हाथ में एक तेज़ धार वाला छुरा पकड़ रखा था। सूर्यास्त हुआ और धीरे-धीरे अन्धकार ने धरती पर अपना अधिकार जमा लिया। उस अन्धकार में भक्त शंकर पंडित भगवान्नाम का जाप करते हुये गाँव की ओर चले आ रहे थे। जैसे ही वे उस वृक्ष के निकट पहुँचे, कुशलपाल ने छुरे से उनकी छाती पर वार किया और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। छुरा लगते ही शंकर पंडित बड़ा ज़ोर से चिल्लाये और फिर मूर्छित हो गये।
     शंकर पंडित ने मूÐच्छत होने पर एक अनोखा ही दृश्य देखा। क्या देखते हैं कि एक बड़ा ही सुन्दर स्थान है जहाँ भगवान हीरे-मोती जड़ित स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं और मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसे आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं। कुछ देर तक तो वे भगवान के दर्शन करते रहे, फिर भगवान अलोप हो गये। भगवान के अलोप होते ही शंकर पंडित छटपटाने लगे और उनकी मूचर््छा टूट गई। होश आने पर उन्होंने देखा कि उनके हाथ पर छुरे का जख्म है। हुआ वास्तव में यह कि कुशलपाल ने तो अपनी तरफ से छुरा शंकर पंडित की छाती में भोंका था, परन्तु जैसे ही उसने छुरे का वार करने के लिए हाथ ऊपर उठाया, उसकी चमक शंकर पंडित की आँखों में कौन्ध गई और उन्होने वार से बचने के लिए हाथ आगे कर लिए थे। इसलिए छुरा छाती में न लगकर हाथ में लगा था। शंकर पंडित घर आये और कपड़ा गीला करके हाथ पर बाँध लिया। प्रातः लोगों के पूछने पर उन्होने कहा-रात को गिर गया था, थोड़ा घाव हो गया है, ठीक हो जायेगा। परन्तु ग्रामवासी उनका बड़ा आदर करते थे। वे उन्हें वैद्य के पास ले गये। वैद्य ने ज़ख़्म साफ करके पट्टी कर दी और सबको तसल्ली देते हुए कहा। घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ ही दिनों में घाव ठीक हो जायेगा।
     उधर कुशलपाल के साथ क्या हुआ? छुरा घोंप कर जब वह भागा तो कुछ दूर जाकर ठोकर लगने से गिर पड़ा और मूÐच्छत हो गया। उस अवस्था में उसने क्या देखा कि कुछ भयानक आकृति वाले व्यक्तियों ने उसे पकड़ लिया है और यह कहते हुए डंडों से मार रहे हैं कि तूने भगवान के भक्त को जान से मारने की जो कोशिश की है, यह उस पाप का दण्ड है। वे बड़ी देर तक उसे मारते रहे और वह चिल्लाता रहा। अन्ततः उसे अधमरा करके वे चले गये। तभी वह होश में आ गया। उसका सारा शरीर एक-एक अंग सचमुच ही दुःख रहा था और उसमें उठने की भी शक्ति न थी। वह सारी रात दर्द से कराहता रहा। सूर्य उदय से पहले जैसे-तैसे वह उठा और हवेली में पहुँचा। उसके पूरे शरीर पर मार के नीले-नीले निशान थे। रह-रहकर उसे वे भयानक आकृतियाँ दिखाई पड़ती और वह भय से कांप उठता। वैद्य के कई दिन तक उपचार करने पर वह चलने और फिरने के योग्य हुआ।
     शंकर पंडित के विषय में कुशलपाल को ज्ञात हो गया था कि छुरा उनकी छाती में न लगकर उनके हाथ पर लगा था और यह भी कि उन्होने यह बात किसी पर प्रकट नहीं की कि उन पर किसी ने छुरे से हमला किया था। यह सब सुनकर कुशलपाल को अपने किये पर बड़ी ग्लानि हुई और वह शंकर पंडित के घर जा पहुँचा और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर पश्चाताप करता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला-पंडित जी! मैं बड़ा अधम हूँ, बड़ा पापी हूँ जो मैने आप जैसे भगवान के सच्चे भक्त को दुःख दिया है। मैं आपसे बार-बार क्षमा मांगता हूँ। पंडित जी ने उसे उठाकर गले से लगाते हुए कहा-ठाकुर साहिब! आपने तो मेरा भला ही किया है, क्योंकि आपके इस कृत्य के कारण ही मुझे भगवान के दर्शन पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। भगवान आपका कल्याण करें। कुशलपाल का चित्त अब शुद्ध हो गया था और उसके स्वभाव में आमूल परिवर्तन हो गया था। अतएव भक्त शंकर पंडित के मार्गदर्शन में उसने भगवान का भव्य मन्दिर तो बनवाया ही, पूर्ण महापुरुषों की शरण ग्रहण कर उसने सच्चे नाम का उपदेश भी ले लिया। इस प्रकार भक्ति के मार्ग पर चलकर उसने लोगों से आदर-सम्मान तो पाया ही, अपना परलोक भी संवार लिया।
      कथा का अभिप्राय यह है कि एक सच्चा भक्त अपने  वैरी के साथ भी कभी वैर नहीं करता, अपितु सदा उसके कल्याण एवं हित की ही कामना करता है। इस प्रकार वह अपना  कल्याण तो करता ही है, उसके
संसर्ग में आने वालों का जीवन भी सुधर एव सवंर जाता है।

अमानत में ख्यानत



     बहुत समय पहले की बात है, मालवा के राजसिंहासन पर राजा शक्तिसिंह का शासन था। अपने नाम के ही अनुरुप वह अत्यन्त शक्तिशाली था और आसपास के सभी राजा उसकी शक्ति का लोहा मानते थे। शक्तिशाली होने के कारण उसमें अहंकार का आ जाना एक स्वाभाविक बात थी। एक दिन राजा शक्तिसिंह के मन में शिकार खेलने की इच्छा हुई। इच्छा उठने की देर थी कि सारथि को आदेश हुआ कि रथ तैयार करो, राजा साहिब शिकार पर जायेंगे। सारथि ने तत्काल शिकार के लिए आवश्यक सामान रथ में रखकर घोड़े जोते। राजा शक्तिसिंह ने रथ में बैठकर वन की ओर प्रस्थान किया। जैसे ही उसने वन में प्रवेश किया, एक अति सुन्दर हरिण छलांगें मारता हुआ रथ के आगे से निकला। राजा ने तुरन्त सारथि से कहा-""कितना सुन्दर हरिण है। इसको जीवित पकड़ना है, रथ इसके पीछे लगा दो।''
     सारथि ने रथ हरिण के पीछे लगा दिया। यह देखकर हरिण तेज़ी से भागा। राजा ने सारथि से कहा-""रथ तेज़ करो, शिकार हाथ से जाने न पाये।'' सारथि ने घोड़ों को सरपट दौड़ाया, परन्तु हरिण तो अपने प्राण बचाने के लिए उस समय घोड़ों से भी तेज़ दौड़ रहा था। यह देखकर राजा ने पुनः कहा-""घोड़े और तेज़ करो।'' सारथि ने घोड़े और तेज़ किये, परन्तु हरिण अब भी बहुत आगे था। शक्तिसिंह सारथि पर नाराज़ होने लगा। तब सारथि बोला-""राजन्! घोड़े तो अपनी शक्ति के अनुसार पूरे वेग से भाग रहे हैं, अब इससे तेज़ भागने की इनमें सामथ्र्य नहीं है। हाँ! यदि इस समय वामी घोड़े होते तो फिर शिकार निश्चय ही आपके हाथ में था।''
     सारथि से वामी घोड़ों का नाम सुनकर शक्तिसिंह हैरान हुआ। उसकी अश्वशाला में एक से बढ़कर एक घोड़े मौजूद थे, परन्तु वामी घोड़ों का नाम तो उसने आज तक न सुना था। यह नाम उसके लिए बिल्कुल नया था। उसने सारथि को रथ रोक देने का आदेश दिया। जब रथ रुक गया तो राजा ने सारथि से पूछा-"" वामी घोड़ों से तुम्हारा क्या अभिप्राय है? हमने तो आज तक इन घोड़ों के बारे में नहीं सुना।'' सारथि ने उत्तर दिया-""राजन्! इसी वन के दूसरे छोर पर महर्षि वामदेव जी का आश्रम है। उनके पास दो ऐसे घोड़े हैं जो हवा से बातें करते हैं। चूँकि वे घोड़े महर्षि वामदेव जी के पास हैं, इसलिये लोग उन्हें वामी घोड़े कहते हैं।''
     राजा ने कहा-""तो फिर अपना रथ महर्षि जी के आश्रम की ओर मोड़ दो। हम वे घोड़े देखना चाहते हैं।'' सारथि ने रथ का रुख मोड़ दिया। कुछ ही देर बाद रथ महर्षि जी के आश्रम पर पहुँच गया। महर्षि वामदेव जी ने राजा का स्वागत-सत्कार कर कुशल-क्षेम पूछा और फिर आश्रम पर आने का कारण। राजा ने हाथ जोड़कर कहा-""आपकी कृपा से सब कुशल-मंगल है। आज हम इधर शिकार के लिए आए थे कि एक हरिण हमारे रथ के आगे से निकला। हरिण बहुत सुन्दर था। हम उसे जीवित पकड़ना चाहते थे, परन्तु उसकी गति के समक्ष हमारे घोड़े पिछड़ गए। उस समय सारथि से हमें ज्ञात हुआ कि आपके पास हवा से बातें करने वाले दो घोड़े हैं। आप वे घोड़े हमें कुछ समय के लिए दे दें। शाम को वे घोड़े हम आपको वापस कर देंगे।''
     महर्षि वामदेव जी बोले-""राजन्! मेरे पास जो घोड़े हैं, वे वरुण देवता के हैं। आप चूँकि स्वयं चलकर यहाँ आए हैं, इसलिए हम आपको इनकार नहीं करते, परन्तु ये घोड़े शाम को हर हालत में यहाँ पहुँच जाने ज़रूरी हैं।'' राजा ने शाम को घोड़े पहुँचा देने का वादा किया और महर्षि जी से घोड़े लेकर शिकार के लिए चला गया। शाम हुई, परन्तु तब तक राजा का मन बेईमान हो चुका था, अतः उसने सारथि से कहा-""घोड़े महल की ओर ले चलो।''
     सारथि ने घूमकर राजा की ओर देखा, परन्तु कुछ बोला नहीं। उसने रथ महल की ओर मोड़ दिया। जब
शाम को घोड़े वापस न आये तो महर्षि वामदेव जी समझ गये कि राजा घोड़ों को अपने साथ ले गए होंगे। उन्होंने अपने एक शिष्य को राजा के पास भेजा, परन्तु राजा ने टालमटोल कर उसे वापस भेज दिया। तब महर्षि जी स्वयं राजा के पास गये। पहले तो राजा ने टालमटोल की कि घोड़े थके हुये हैं, आपको बाद में पहुँचा दिये जायेंगे, परन्तु जब महर्षि जी ने घोड़े तत्काल उनके हवाले कर देने के लिए ज़ोर दिया तो राजा शक्तिसिंह ने घोड़े वापस देने से साफ साफ इनकार करते हुए कहा-""ये घोड़े राजाओं के रखने योग्य हैं, आप ऋषियों का इनसे क्या काम?''
     महर्षि वामदेव जी ने कहा-""राजन्! यह तो अमानत में ख़्यानत है। यह ठीक नहीं है।''
     राजा ने अहंकार से कहा-""तो फिर आपसे जो हो सकता है कर लीजिये, ये घोड़े आपको किसी तरह भी नहीं मिलेंगे।''
     राजा का यह कोरा उत्तर सुनकर महर्षि वामदेव जी धरती की ओर देखने लगे। तत्काल ही एक कृत्या धरती फोड़कर बाहर आई। कृत्या उस शक्ति को कहते हैं जो मन्त्र के अनुष्ठान द्वारा उत्पन्न की जाती है। उस कृत्या ने पलक झपकते ही शक्तिसिंह का सिर धड़ से अलग किया और फिर धरती में समा गई। महर्षि जी घोड़े लेकर वापस अपने आश्रम चले गए। घोड़े भी हाथ से गए और अमानत में ख़्यानत करने का फल भी शक्तिसिंह ने पाया मृत्यु के रुप में।
     यह कथा है तो छोटी-सी, पर है बड़ी शिक्षाप्रद। यदि हम संसार की रचना को देखें तो संसार की सारी रचना काल की रचना है और संसार के सब पदार्थ काल की सम्पत्ति हैं जो जीव को थोड़े समय के लिए इस्तेमाल करने को मिले हैं। किन्तु काल की इस सम्पत्ति पर जब मनुष्य अपना अधिकार जमा बैठता है और उसे अपना समझने और कहने लगता है तो वह अमानत में ख़्यानत करने का भारी अपराध कर बैठता है। इसका फल यह होता है कि ये सब सामान तोे अन्ततः काल उससे छीन ही लेता है, काल के दण्ड का भागी भी मनुष्य बन जाता है। इन पदार्थों को अपना समझ बैठने और इनमें सुरति फँसाने के फलस्वरुप काल उसे चौरासी के चक्र में घसीट ले जाता है, जहाँ उसे बार-बार काल का ग्रास बनना पड़ता है।
     इसलिये महापुरुषों का उपदेश है कि संसार के इन सामानों को आवश्यकता के अनुसार बेशक उपयोग में लाओ, रिश्तेदारों और सम्बन्धियों से जीवन-निर्वाह करते हुए उचित व्यवहार भी करो परन्तु इन्हें अपना समझने और बनाने का यत्न कभी न करो। न ये सामान तुम्हारे हैं, न कभी तुम्हारे बन सकते हैं। तुम्हारी अपनी वस्तु तो केवल-केवल प्रभु का सच्चा नाम है जो पूर्ण सतगुरु से प्राप्त होता है। सत्पुरुषों के वचन हैं किः-
आपन  तनु नहीं जाको गरबा। राज मिलख नहीं आपन दरबा।।
आपन नहीं का कउ लपटाइओ। आपन नामु सतिगुर ते पाइओ।।
सुत  बनिता  आपन नहीं भाई।  इसट मीत आप  बापु न माई।।
सुइना  रुपा  फुनि  नहीं दाम।  हैवर  गैवर  आपन नहीं काम।।
(गुरुवाणी)
सत्पुरुष श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज फरमाते हैं कि ऐ मनुष्य! जिस शरीर का तुझे अभिमान है, वह तेरा अपना नहीं है। राज्य, भूमि और धन भी तेरा अपना नहीं है। पुत्र,स्त्री, भाई, मित्र, पिता और माता इनमें से भी सदा के लिए तेरा कोई अपना नहीं है। सोना, चांदी, दौलत, हाथी और घोड़े-ये भी तेरे अपने नहीं हैं और अन्त समय तेरे काम नहीं आ सकते। फिर तू इनसे क्यों लिपटा हुआ है अर्थात् इन्हें क्यों अपना समझ रहा और इमें सुरत फँसाये हुए हैं। तेरा अपना तो केवल "नाम' ही है जिसकी प्राप्त सद्गुरु से होती है। इसलिए नाम से अपनी सुरति जोड़ो और काल के फंदे से सदा के लिए आज़ाद हो जाओ।

एक पिता के विपुल कुमारा



श्री रामायण के उत्तरकाण्ड में भगवान् श्री रामचन्द्र जी महाराज काकभुशुँडि जी को सम्बोधित करते हुए फरमाते हैं किः-
एक पिता के विपुल कुमारा।होहिं पृथक गुन सील  अचारा।।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।
कोउ  सर्वग्य  धर्मरत कोई । सब पर पितहि प्रीति सम होई।।
कोउ पितु भगत वचन मन कर्मा।सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।यद्यपि सो सब भांति अयाना।।
अर्थः-""एक पिता के कई पुत्र पृथक-पृथक् गुण, स्वभाव तथा आचरण वाले होते हैं। कोई विद्वान होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानवान, कोई धनवान्,कोई शूरवीर,कोई दानी,कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का उन सभी पर प्रेम होता है। किन्तु उनमें से यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का आज्ञाकारी और सेवक होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता तो वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्यारा होता है चाहे वह सब प्रकार से अंजान ही हो।'' इसी पर एक कथा हैः-
     एक सेठ बड़ा ही भक्तिमान, सत्संगी और विचारवान था। उसके चार पुत्र थे। सबसे बड़े लड़के को पुस्तकें पढ़ने का बड़ा शौक था, इसलिए वह सदैव नई से नई पुस्तकें खरीदता रहता और उन्हें पढ़कर अलमारी में रख देता। इस प्रकार उसके पास पुस्तकों की अनेकों अलमारियां भरी पड़ी थीं। नई-नई पुस्तकों की खोज में वह प्रायः पुस्तकों की दुकानों के चक्कर काटता रहता और जैसे ही कोई दुकानदार उसे किसी नई पुस्तक के आने की सूचना देता, तो पुस्तक चाहे कितनी ही कीमत की क्यों न हो, वह तुरन्त खरीदकर उसे घर ले आता और तब तक पुस्तक को न छोड़ता जब तक उसे समाप्त न कर लेता। सेठ जब कभी उससे कहता कि बेटा! थोड़ा भजन-पूजन किया करो और काम-धन्धे की ओर भी ध्यान दिया करो और कामकाज में मेरा हाथ बँटाया करो तो वह पिता के वचनों को बिल्कुल ही अनसुना कर देता। पुस्तकों पर चूंकि वह अनाप-शनाप पैसे खर्च करता था, अतः सेठ ने जब दो-तीन बार उसको ऐसा करने से मना किया, तब भी उसने पिता की बात की ओर ध्यान न दिया।
     सेठ का जो दूसरा लड़का था, उसको व्यायाम करने का और शरीर को ह्मष्ट-पुष्ट बनाने का बड़ा शौक था। सुबह उठकर वह अखाड़े में चला जाता, वहाँ सैंकड़ों डंड-बैठक लगाता और फिर कुश्ती लड़ता। वहां से घर वापस आता तो खूब डटकर खाता-पीता और सो रहता। घर में जो भोजन बनता, उस भोजन के अतिरिक्त ढेर सारे सूखे मेवे और मौसम के ताज़ाफल वह डकार जाता। बाज़ार जाता तो वहाँ भी हलवाई की दुकान पर जाकर जलेबी, समोसे, कचौड़ी आदि खूब डटकर खाता। सायंकाल फिर अखाड़े में जाकर कुश्ती का अभ्यास करता और फिर घर वापस आकर खूब डटकर खाना खाता और सो रहता। बस! यही उसकी दिनचर्या थी। काम-धन्धे की ओर वह तनिक भी ध्यान नहीं देता था। जब कभी सेठ उसको कामकाज की ओर ध्यान देने के लिए तथा भगवान के  भजन-पूजन के लिए कहता तो वह अपने बड़े भाई की तरह पिता के वचनों को अनसुना कर देता था।
     तीसरे लड़के को अपने शरीर के बनाव-ऋंगार का सदा ख्याल रहता था। नये-नये फैशन के कपड़े सिलवाकर पहनना, नये से नये फैशन के जूते बनवाना और पाउडर, क्रीम तथा सुगन्धित तेलों का इस्तेमाल करना-यह उसका शौक था। इन पर वह महीने में हज़ारों रुपये खर्च कर देता था। कितनी कितनी देर वह आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर अपने को सजाता-संवारता रहता। माता-पिता के साथ उसका व्यवहार भी बिल्कुल इसी तरह का था जैसा उसके दोनों बड़े भाईयों का।
     किन्तु सेठ का चौथा और सबसे छोटा लड़का माता-पिता का बड़ा ही आज्ञाकारी और सेवाकारी था। माता-पिता जो कुछ भी उसको कहते, वह प्राणपण से उसका पालन करता। कामकाज में वह पिता का पूरा-पूरा हाथ तो बँटाता ही था, भगवान के भजन-पूजन में भी माता-पिता का कहना मानकर समय देता। इस तरह वह माता-पिता को अत्यन्त ही प्रिय था।
     इस संसार में सदैव तो कोई रहने नहीं पाता। जो भी इस संसार में आया है, उसने एक दिन अवश्य ही यहाँ से जाना है, यह प्रकृति का एक अटल विधान है। प्रकृति के इस नियम के अनुसार पहले सेठ की पत्नी का और फिर कुछ दिनों के उपरांत स्वयं सेठ का परलोक-गमन हो गया। सेठ के शरीरान्त के पश्चात् जब क्रियाकर्म से सब निवृत्त हुए तो सेठ के तीनों बड़े लड़कों ने सम्पत्ति के बँटवारे के लिए आवाज़ उठाई। उनका एक सम्बन्धी वकील था। उसने उन्हें समझाने-बुझाने का बहुत प्रयत्न किया कि सम्पत्ति का बँटवारा मत करो, बल्कि मिलजुल कर रहो और मिलजुल कर ही व्यापार भी संभालो, इसी में तुम लोगों का भला है, परन्तु तीनों बड़े लड़कों के कान पर जूँ तक न रेंगी। वे तो उलटा लड़-झगड़कर सम्पत्ति बाँटने पर उतारु हो गये। वह देखकर उस वकील ने कहा-""तुम लोग झगड़ा मत करो। तुम्हारे पिता इस संसार से जाने के पूर्व एक वसीयत लिखवा गए हैं जो मेरे पास रखी है। तुम लोग कोई दिन निश्चित कर लो, उस दिन अपने सभी रिश्तेदार-सम्बन्धियों को, जो नगर में रहते हैं, यहाँ तुम लोगों की कोठी पर बुलवा लिया जायेगा। उनके सामने यह वसीयत तुम सबको दिखा भी दी जायेगी, पढ़कर सुना भी दी जायेगी। और आप चारों भाइयों में सम्पत्ति का बँटवारा भी कर दिया जायेगा।'' निश्चित दिन में सभी लोग एकत्र हो गए। वकील भी कुछ मज़दूरों को साथ लेकर आ गया जिनके कन्धों पर फावड़े, गैंती, तसले आदि रखे हुए थे। सेठ के बड़े लड़के ने वकील से पूछा-""इन मज़दूरों को आप किसलिए लाये हैं?''
वकील महोदय ने कहा-""जब वसीयत पढ़ी जायेगी तो आप सबको विदित हो जायेगा कि इन मज़दूरों को मैं क्यों लाया हूँ। इनकी अभी आवश्यकता पड़ेगी।'' तदुपरान्त सभी लोग एक कमरे में बैठ गए। तब वकील महोदय ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा-""आप सभी को आज इसलिए यहाँ बुलाया गया है कि सेठ जी के तीनों बड़े लड़के सम्पत्ति का बंटवारा करना चाहते हैं। मैने इन्हें ऐसा न करने के लिए बहुत समझाया, परन्तु ये किसी तरह भी मानने को तैयार नहीं हुए। इस बारे में छोटे भाई की प्रार्थना को भी इन्होंने अस्वीकार कर दिया। सेठ जो इन तीनों के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे, अतः उन्होंने पहले से ही वसीयत लिखवाकर मेरे पास रख दी थी। आप सब लोग वसीयत पर सेठ जी के हस्ताक्षर देखकर तसल्ली कर लें, तब मैं वसीयत सबके सामने पढ़कर सुनाऊँगा।''
     यह कहकर उसने फाईल में से वसीयतनामा निकाला और सेठ जी के बड़े लड़के के हाथ में देते हुए कहा-""इस वसीयत के अन्त में तथा प्रत्येक पृष्ठ पर तुम्हारे पिता जी के हस्ताक्षर हैं। देखकर तसल्ली करो और फिर बताओ कि हस्ताक्षर तुम्हारे पिता जी के ही हैं ना?'' बड़े लड़के ने वसीयतनामा ले लिया और उसके प्रत्येक पृष्ठ पर पिता जी के हस्ताक्षर बड़े गौर से देखे, फिर वसीयतनामा वकील महोदय को लौटाते हुए कहा-"'ठीक है, मुझे तसल्ली है। ये हस्ताक्षर पिता जी के ही हैं।''
     वकील महोदय ने तब वसीयतनामा बारी-बारी से दूसरे और तीसरे लड़के को भी दिया। उन्होने भी हस्ताक्षर अच्छी तरह देखकर जब अपनी तसल्ली कर ली तो फिर वकील महोदय सबसे छोटे लड़के की ओर घूमे। छोटे लड़के ने कहा-""वकील साहिब! वसीयत देखकर मैं क्या करुँगा? पिता जी वसीयत लिखवा गए हैं, तभी तो वह आपके पास मौजूद है। फिर भाइयों ने तसल्ली कर ही ली है। यदि पिता जी वसीयत नहीं भी कर जाते तो आप लोग बड़े-बुज़ुर्ग हैं, आप सब जो भी फैसला करते, मैं खुशी-खुशी उसे स्वीकार करता। मैं तो सम्पत्ति के बंटवारे के लिए झगड़ा करना भी कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं समझता।'' उस लड़के के ऐसे विचार सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। वकील महोदय भी उसकी बात सुनकर मुसकरा दिये। तब वहाँ उपस्थित सभी लोगों को भी वकील महोदय ने वह वसीयतनामा दिखाया, जिन्होंने इस बात की पुष्टि कर दी कि हस्ताक्षर सेठ जी के ही हैं।
     तदुपरान्त वकील महोदय ने वसीयतनामा पढ़ना शुरु किया। सबसे पहले उसमें काम धन्धे के विषय में लिखा हुआ था कि व्यापार के लेन-देन और स्टाक के चार भाग कर दिये जायें और उनकी पर्चियाँ बनाकर डाल दी जायें और किसी बालक के द्वारा, जो चारों भाइयों को स्वीकार्य हो, पर्चियाँ उठवाई जायें। जिस कोठी में इस समय व्यापार का सारा कामकाज हो रहा है, वह कोठी छोटे लड़के पास रहेगी, क्योंकि वह पहले से ही वहाँ सारा कामकाज संभाल रहा है।
     वसीयत का इतना भाग पढ़कर वकील महोदय ने सेठ जी के तीनों बड़े लड़कों की ओर देखा, व्यापार वाली कोठी के विषय में सुनकर जिनके चेहरों पर क्रोध के भाव प्रकट हो गए थे। कुछ पल तो वकील महोदय उनकी ओर बड़े ध्यानपूर्वक देखते रहे, फिर बोलेे-"'अब मैं वसीयत का दूसरा हिस्सा पढ़ता हूँ, जो इस रहने वाली कोठी के बारे में है।''
     वकील ने पढ़ना शुरु किया-जो कोठी निवास के लिये बनवाई गई है, वह पहले से ही इस प्रकार की बनवाई गई है कि उसमें भगवान का मन्दिर कोठी के एक तरफ है। चारदीवारी बनाकर जिसकी सीमा पहले से ही निर्धारित कर दी गई है। बाकी कोठी के चार पोरशन हैं। पर्ची डालकर एक-एक पोरशन चारों लड़कों को दे दिया जाए। सभी रिश्तेदार आपस में परामर्श करके मन्दिर किसी धार्मिक ट्रस्ट को सौंप दिया जाए। किन्तु मन्दिर ट्रस्ट को सौंपने से पहले उसके प्रांगण में जो बकसे ज़मीन में मैने गड़वा रखे हैं, वे नीचे लिखे अनुसार दे दिए जायें, परन्तु देने से पहले सब सम्बन्धियों के सामने खोलकर उसमें रखा सामान सबको दिखा दिया जाए। मन्दिर के आगे जो प्रांगण है, उसमें चारों कोनों पर और प्रांगण के बीचों बीच फर्श पर पाँच फूल बने हुए हैं। उन फूलों की जगह को एक-एक करके खोदा जाए। सबसे पहले पूर्व दिशा के कोने में खोदा जाए और वहां से जो बकसा निकले, वह सब से बड़े लड़के को दे दिया जाए। पश्चिम दिशा के कोने से जो बकसा निकले वह दूसरे लड़के को, उत्तर दिशा वाला बकसा तीसरे लड़के को, दक्षिण दिशा वाला सबसे छोटे लड़के को और बीचों बीच वाले फूल के नीचे से जो बकसा निकले, वह मन्दिर की देखभाल और विस्तार के लिए धार्मिक ट्रस्ट को दे दिया जाये। इतना पढ़कर वकील महोदय ने सेठ के बड़े लड़के से कहा-""तुमने मुझसे पूछा था कि मज़दूरों को लाने की क्या आवश्यकता थी? सो मज़दूर फर्श खोदने के लिए ही मैं साथ लाया था।''
     तदुपरान्त वकील ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों से मन्दिर के प्रांगण में चलने का अनुरोध किया। सभी लोग बड़ी उत्सुकता से मन्दिर की ओर चल दिए कि देखें! किस भाई के हिस्से में क्या आता है। सभी लोग मन्दिर के प्रांगण में पहुँचे। वहां वसीयत के लिखे अनुसार फर्श पर पाँच फूल बने हुए थे। वकील महोदय ने पूर्व दिशा के फूल की ओर संकेत करते हुए मज़दूरों से कह‏ा-""यहाँ खोदो!''
     मज़दूर खुदाई में लग गए। लगभग दो फीट खोदने पर उसमें एक बकसा निकला। बकसे को देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने यही समझा कि इसमें खूब माल भरा होगा, परन्तु जब बकसा खोला गया तो उसमें केवल पुरानी पुस्तकें भरी हुई थीं, जिनमें बुरी तरह से दीमक लगी हुई थी। यह देखकर चारों ओर शोर मच गया। वकील महोदय ने हाथ के संकेत से सबको चुप करने के लिए कहा। जब सब चुप हो गए तो वकील ने कहा-""बकसे में से जो कुछ निकला, उसे देखकर आप सभी अत्यन्त चकित हो रहे होंगे। सेठ जी ने अपनी वसीयत में इसका कारण यूँ लिखा है कि यह लड़का सदैव पुस्तकों का कीड़ा बना रहा और पुस्तकों पर हर महीने हज़ारों रुपये खर्च करता रहा। मेरे कई बार कहने पर भी इसने न तो कभी कामकाज की ओर ही ध्यान दिया, न ही कभी भजन-पूजन किया। इसके अतिरिक्त जीवन में इसने न तो कभी माता-पिता की आज्ञा मानी ओर न ही कभी सेवा की। मैं यह नही कहता कि जीवन में पढ़ना-लिखना बुरा है, परन्तु हर समय पुस्तकों का कीड़ा बने रहना और माता-पिता की प्रत्येक बात अनसुनी करते रहना, यह तो किसी तरह भी ठीक नहीं। चूंकि माता पिता की आज्ञा से अधिक यह सदा पुस्तकों को ही महत्त्व देता रहा है, इसलिए मैने इस बकसे में पुरानी पुस्तकें रखवायीं जिससे कि मेरे बाद इसको मेरी तरफ से पुस्तकों का यह तोहफा मिले।''
     यह कहकर वकील महोदय जैसे ही चुप हुए, वहां उपस्थित सभी लोगों में कानाफूसी होने लगी। बड़े लड़के ने लज्जा से सिर झुका लिया। तत्पश्चात वकील महोदय ने प्रांगण के पश्चिमी कोने की ओर खोदने के लिए मज़दूरों को संकेत किया। खोदने पर वहाँ से भी एक बकसा निकला जो सभी के सामने खोला गया। उस बकसे में जो कुछ रखा हुआ था, उसे  देखकर एक बार फिर शोर मच गया। उसमें क्या था? काजू, बादाम, अखरोट आदि के छिलके, जिनकी गिरियाँ कीड़े खा चुके थे और पशुओं की कुछ हड्डियाँ और सुखा हुआ चमड़ा। वकील ने पुनः वसीयतनामा पढ़ना शुरु किया जिसमें सेठ की ओर से लिखा था कि मेरा दूसरा लड़का अपने शरीर को ही ह्मष्ट-पुष्ट करने में सदा लगा रहता है। कुश्ती लड़ना, डंड-बैठक पेलना, डटकर खाना-पीना और सो रहना-बस! यही इसकी दिनचर्या है। यह भी महीने में हज़ारों रुपये खाने-पीने में उड़ा देता है। मैने जब भी इसे भगवान का भजन-पूजन करने के लिये अथवा अपने कामकाज में हाथ बंटाने के लिये कहा, इसने मेरी बात हमेशा अनसुनी कर दी। अगर एक दो बार इसने मेरी बात का उत्तर दिया भी तो यही कि घर में इतना पैसा है, यदि मैं काम-धन्धा नहीं करुँगा तो कौन सा फर्क पड़ जायेगा। शेष रही भजन-पूजन की बात, तो यह तो बुड्ढों का काम है। इसने न तो कभी माता-पिता की आज्ञा मानी, न ही कभी सेवा की। माता-पिता की आज्ञा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण इसकी दृष्टि मे था-खाना पीना और शरीर को ह्मष्ट-पुष्ट बनाना। इस बात को यह बिल्कुल भूल गया कि शरीर को चाहे जितना ह्मष्ट-पुष्ट कर लो, एक दिन तो यह खाक में मिल जाना है। पशुओं की हड्डियां और चमड़ा इसलिये बकसे में रखवाये गये हैं ताकि इसको यह समझ आ जाये कि पशुओं की हड्डियां और चमड़ा तो उनके मरने का बाद भी काम आ जाता है, जब कि मनुष्य के मरने के बाद उसके शरीर की कोई भी चीज़ काम नहीं आती चाहे उसका शरीर कितना ही ह्मष्ट-पुष्ट क्यों न हो।
     यह कहकर वकील महोदय चुप हो गये। वहां उपस्थित सभी लोग, जो अभी तक वकील महोदय की बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे, अब सेठ के दूसरे लड़के की ओर देखने लगे जिसने शर्म से अपनी नज़रें नीची कर रखी थीं। तदुपरान्त वकील महोदय ने मज़दूरों को उत्तर के कोने की ओर संकेत कर वहाँ खोदने के लिए कहा। वहाँ से भी एक बकसा निकला जो सबके सामने खोला गया। उसमें फटे-पुराने  रेशमी, कपड़े, पुराने घिसे-पिटे जूते, क्रीम, सैंट, तेल आदि की कुछ खाली शीशियाँ भरी पड़ी थीं। सभी लोग वकील की तरफ देखने लगे। उसने फिर वसीयत पढ़नी आरम्भ की जिसमें सेठ की तरफ से लिखा हुआ था कि मेरा तीसरा लड़का बड़ा ही फैशनेबल है और महीने में हज़ारों रुपये नये-नये फैशन के कपड़े, नये-नये फैशन के जूते तथा सुगिन्धत तेलों, क्रीमों, पाउडरों आदि पर खर्च कर देता है और अपने बनाव-सिंगार में सारा समय नष्ट करता रहता है। इसने भी मेरी आज्ञा कभी नहीं मानी। मेरी हर बात को अनसुना कर दिया। अपने शरीर के बनाव-सिंगार को सदैव अधिक महत्त्व दिया। इसको जिन वस्तुओं का बहुत शौेक है और इसकी दृष्टि में जो माता-पिता की आज्ञा से भी अधिक  महत्त्वपूर्ण हैं, इसके द्वारा इस्तेमाल की हुई पुरानी वस्तुओं में कुछेक इस बकसे
में मैने रखवा दीं ताकि मेरे बाद मेरी तरफ से इसे तोहफे के तौर पर मिल सके।
     यह सुनकर तीसरे लड़के ने भी शर्म से गर्दन झुका ली। तब वकील ने मज़दूरों से प्रांगण के दक्षिण दिशा वाले कोने में खोदने के लिए कहा। वहाँ से भी एक बकसा निकला जो पहले तीनों बकसों की तुलना में काफी छोटा था। सबके सामने जैसे ही उसे खोला गया, सभी की आँखें खुली की खुली रह गर्इं, क्योंकि वह बकसा हीरे-जवाहरात से भरा हुआ था। वकील महोदय ने पुनः वसीयत को पढ़ना शुरु किया जिसमें इस प्रकार लिखा था-""मेरा छोटा लड़का सदा ही मेरा प्रिय रहा है, इसने माता-पिता की आज्ञा को हमेशा महत्त्वपूर्ण समझा और उसको जीवन में प्रमुखता दी। यह ठीक है मेरे सबसे बड़े लड़के की तरह यह विद्वान नहीं, दूसरे लड़के की तरह ह्मष्ट-पुष्ट नहीं और तीसरे लड़के की तरह यह सुन्दर भी नहीं, परन्तु मैने इसको जो कुछ भी करने के लिए कहा, उसने बिना किसी मीन-मेख के उसका प्राणपण से पालन किया। मेरे कहे अनुसार यह सत्संग में, भगवान के भजन-पूजन में और काम-धन्धे में अपना पूरा-पूरा समय देता रहा। उसके इस गुण से मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ और ये हीरे-जवाहरात मैं इस छोटे लड़के को दे रहा हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि यह धन का सही उपयोग करेगा और अपना लोक-परलोक दोनों सुधारेगा।
     यह कहकर वकील महोदय चुप हो गये। सभी लोग सेठ के छोटे लड़के की प्रशंसा करने लगे। अब सभी की आँखें प्राँगण के बीचों-बीच वाले फूल पर लगीं थीं। वकील महोदय का संकेत पाकर वह जगह भी खोदी गई तो वहाँ से भी एक छोटा बकसा निकला जिसमें सोने की मोहरें भरी हुई थीं, जो लाखों के मूल्य की थीं। इसके लिये वसीयत में निर्देश था कि जिस धार्मिक ट्रस्ट को यह मन्दिर सौंपा जाए, उसी को यह धन दिया जाए। वह ट्रस्ट इस धन का मन्दिर की देखभाल और इसके विस्तार में सदुपयोग करे। सब कार्य पूरा हो चुका था। सब लोग वहाँ से उठकर सेठ की कोठी में आए जहां उनके भोजनादि का प्रबन्ध था। भोजन उपरान्त सभी लोग अपने अपने घरों को चले गये।
     उपरोक्त कथा से श्री रामचरितमानस की चौपाइयों पर, जो लेख के प्रारम्भ में दी गई है, बहुत अच्छी तरह प्रकाश पड़ता है कि माता-पिता को वही पुत्र अत्यन्त प्रिय होता है जो उनका आज्ञाकारी और सेवाकारी होता है। ठीक इसी प्रकार गुरुदेव को भी यद्यपि सब सेवक-शिष्य प्यारे होते हैं और वे सभी सेवकों का समानरुप से हित एवं कल्याण चाहते हैं, परन्तु जो सेवक मन,वचन और कर्म से गुरु-आज्ञा का पालन करने में तत्पर रहता है, वह तो स्वाभाविक ही गुरुदेव का अत्यन्त प्रियपात्र होता है और उनकी पूर्ण प्रसन्नता का अधिकारी होता है। अन्य शब्दों में गुरुदेव की कृपा एवं प्रसन्नता का पात्र बनने के लिए अन्य गुणों की अपेक्षा आज्ञा-पालन के गुण का सबसे अधिक महत्त्व है। जो शिष्य गुरुदेव की प्रत्येक आज्ञा को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य कर प्राणपण से उसका पालन करता है, गुरुदेव की कृपा से वह तो भक्ति-धन से मालामाल एवं निहाल हो जाता है जैसा कि कथन हैः-
गुरु अज्ञा दृढ़ करि गहै, गुरु मत सहजो चाल।
रोम रोम गुरु को रटै, सो सिष होय निहाल।।
भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज ने अयोध्यावासियों के प्रति कितने साफ साफ शब्दों में फरमाया है किः-
सोई सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुशासन मानै जोई।।
अर्थः-""वही मेरा सेवक है और वही मेरा अति प्रिय है जो मेरी आज्ञा मानता है।''
     सभी सद्ग्रन्थ तथा सन्तजन इस बात पर एकमत हैं कि ज्ञान,भक्ति तथा मुक्ति के प्रदाता समय के पूर्ण सद्गुरुदेव ही होते हैं। अतएव शिष्य-सेवक को चाहिये कि सद्गुरु को प्रसन्न करने तथा उनकी कृपा का पात्र बनने का प्रयत्न करे और इसका एकमात्र उपाय है-सद्गुरु की प्रत्येक आज्ञा को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य कर उसका तन-प्राण से पालन करना। जिसने इस गुण को अपना लिया, वह निहाल हो गया, कृतार्थ हो गया, उसने जीवन्मुक्त पदवी को प्राप्त कर लिया। धन्य हैं वे भाग्यशाली जीव, अपने इष्टदेव की आज्ञा-मौज को श्रद्धापूर्वक ह्मदयंगम कर जो उसके अनुसार अपना जीवन ढाल लेते हैं और प्राणपण से आज्ञा-पालन में तत्पर रहते हैं। ऐसे सौभाग्यशाली गुरुमुख प्रेमी ही इष्टदेव की प्रसन्नता एवं कृपा के पात्र बनते हैं। उनका जीवन ही सराहनीय एवं अनुकरणीय है।

भक्तिमती रबिया



     भक्तिमती रबिया का जन्म आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व तुर्किस्तान के बसरा नामक नगर में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। रबिया की तीन बहनें और थीं। चारों बहनों में रबिया सबसे छोटी थी। रबिया अभी बच्ची ही थी कि उसकी माता का देहावसान हो गया। उसके पिता प्रातः होते ही काम पर निकल जाते और जब वापस आते तो चारों ओर अन्धकार फैल चुका होता। दिन भर के थके-मांदे तो होते ही, अतः खा-पी कर चारपाई पर ढेर हो जाते। उन्हें अपने कामकाज से इतना अवकाश ही कहां था कि वे बच्चों का ख्याल करते। फलस्वरुप रबिया का बचपन माता पिता के प्यार से वंचित ही रहा। माता पिता का प्यार न मिलने से रबिया सदा उदास रहती। उसके घर के निकट ही एक उच्चकोटि के सन्त रहते थे। लोगों की उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा थी, अतः काफी संख्या में लोग उनकी संगति का लाभ उठाने के लिये उनकी कुटिया पर आया करते थे। कभी कभी वहां सत्संग भी होता था। अपनी उदासी दूर करने के लिये रबिया भी कभी कभी वहां चली जाया करती थी। वहां जाने पर उसके मन को बड़ी शान्ति मिलती थी। ईश्वर की महिमा करते हुये वे सन्त प्रायः ये शब्द कहा करते थे कि ईश्वर अत्यन्त कृपालु हैं।
     एक दिन लोगों के चले जाने के बाद भी रबिया वहीं बैठी रही। उसकी आँखों से अश्रु बह रहे थे। सन्त जी ने उसे अपने निकट बुलाकर उससे रोने का कारण पूछा। रबिया ने कहा-आप तो सदा यही कहते हैं कि ईश्वर अत्यन्त कृपालु हैं, फिर वे मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करते? सन्त जी रबिया के घर की परिस्थिति से भलीभाँति परिचित थे। उन्होने उसके सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते हुए कहा-वे तुम्हारे ऊपर भी अवश्य कृपा करेंगे। जब वे सभी पर कृपा करते हैं, तो फिर तुम्हारे ऊपर कृपा क्यों नहीं करेंगे? किन्तु इसके लिये तुम्हे एक काम करना होगा। रबिया ने पूछा-मुझे क्या करना होगा? ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं सब खुछ करने को तैयार हूँ।
     सन्त जी ने फरमाया-तुम हर समय उन्हें याद किया करो और ह्मदय में यह समझा करो कि ईश्वर के प्रत्येक कार्य में कृपा ही कृपा भरी हुई है। यदि तुम ऐसा समझोगी तो फिर तुम ईश्वर की कृपा प्राप्त करने में अवश्य ही सफल होगी। वे अपने भक्तों पर सदा ही कृपा करते हैं। उनके वचनों की गहनता तो वह बच्ची भला क्या समझती, परन्तु उन वचनों पर विश्वास कर रबिया हर समय ईश्वर को याद करने लगी। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, उसकी सुरति संसार की कामनाओं से हटती गई और ईश्वर के सुमिरण भजन में अधिकाधिक लगती गई। ईश्वर के सुमिरण भजन से न केवल उसके व्याकुल मन को शान्ति ही मिलती, प्रत्युत उसे अपने अंदर एक अनोखेआनन्द का अनुभव होता।
     जब रबिया की आयु लगभग बारह वर्ष की हुई, उसके पिता का भी देहान्त हो गया। रबिया तथा उसकी बहनों के सम्मुख अब जीवन-निर्वाह का प्रश्न उठ खड़ा हुआ, अतः सभी कोई न कोई काम करने लगीं। रबिया भी एक धनवान के घर कामकाज करने लगी। वहां से जो कुछ मिलता, उससे निर्वाह करती और शेष समय ईश्वर की याद में बिताती। इसी प्रकार दिन बीतते गए और इसके साथ ही रबिया के सुमिरण ध्यान और ईश्वर प्रेम में भी दृढ़ता आती गई। एक बार देश में भयानक अकाल पड़ा और लोग दाने-दाने को तरसने लगे। अकाल के फलस्वरुप रबिया और उसकी बहनों की नौकरी भी छूट गई। जहां अपने ही भोजन के लाले पड़े हों, वहांं दूसरे को कोई नौकरी क्या दे? लोग घर बार छोड़कर दूसरी जगह भागने लगे। चारों बहनें भी अन्यत्र जाने का निश्चय कर घर से निकल पड़ीं। मार्ग में पता नहीं किस तरह रबिया अपनी बहनों से विलग हो गई। उसने उन्हें खोजने का बहुत प्रयत्न किया। वे तो नहीं मिलीं, उलटा रबिया एक दुष्ट व्यक्ति के चक्र में फँस गई। वह व्यक्ति उससे यह वादा कर कि वह उसकी बहनों को ढूँढने में सहायता देगा, रबिया को फुसला कर दूसरी जगह ले गया और उसे एक धनी के हाथ गुलाम की तरह बेच दिया। वह धनी व्यक्ति अत्यन्त क्रोधी और निष्ठुर स्वभाव का था, अतएव रबिया के दुःखों कष्टों में और भी अधिक वृद्धि हो गई। उसे और भी अधिक कष्टों का सामना करना पड़ा। वह व्यक्ति गालियां तो बकता ही था, साधारण सी बात पर लातें और घूँसे भी बरसाने लगता। उस घर में रबिया को रात दिन कोल्हू के बैल की तरह जुतना पड़ता। वह बेचारी अबला भला कर भी क्या सकती थी? सब कुछ सहन करती हुई ईश्वर को याद करती और उसकी कृपा की याचना करती रही।
     मालिक का अत्याचार दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। रबिया उसके अत्याचार से तंग आकर उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये युक्ति सोचने लगी। एक रात अवसर पाकर वह मालिक की हवेली से भाग निकली। किन्तु ईश्वर की तो मौज कुछ और ही थी! हुआ यह कि वह अभी कुछ ही दूर गई थी कि अन्धकार में भागते हुए उसे ठोकर लगी जिससे वह गिर पड़ी और उसके दाहिने हाथ में सख्त चोट लगी। रबिया दर्द से व्याकुल होकर वहीं बैठ गई और ईश्वर के चरणों में प्रार्थना करने लगी- हे प्रभो! क्या तुम मेरी सुधि नहीं लोगे? क्या तुम मुझ पर कृपा नहीं करोगे? क्या मेरा जीवन यूंही कष्टों में ही व्यतीत होगा?
     आग में तपाने पर ही सोने की सब खोट निकलती है और फिर वह कुन्दन बनकर  चमकता है। ठीक इसी प्रकार दुःखों-कष्टों की अग्नि में से निकलने के उपरान्त भक्तिमान् पुरुष भी विशुद्ध कंचन की तरह चमक उठता है। प्रार्थना करते हुये एकाएक रबिया के मन में विचार उठा-रबिया! क्या तुम्हें प्रभु की कृपा पर विश्वास नहीं? यदि नहीं, तो फिर क्यों उसके सामने आशा से दामन फैलाती है? और यदि तुम्हें उसकी कृपा पर पूर्ण विश्वास है और यह मानती है कि वह कृपालु हैं, तो फिर इन कष्टों से घबरा कर दुःखी क्यों होती है? क्या ये कष्ट भी उसी की दात नहीं हैं? यदि हैं तो फिर इनसे घबराना कैसा? प्रभु की दात समझ कर क्यों नहीं इन्हें सहर्ष स्वीकार करती? तू स्वार्थ से भरी है। तूने आज तक केवल दुःखों-कष्टों की निवृत्ति के लिये ही भगवान को स्मरण किया है, उसके प्यार के लिये कभी उसे स्मरण नहीं किया। रबिया! तू अत्यन्त स्वार्थी है।
     मन में ये विचार उठते ही वह अपने को इस बात के लिये धिक्कारने लगी कि वह सन्तों के इस कथन को क्यों भूल गई कि ""ईश्वर कृपालु हैं और अपने भक्तों पर सदा कृपा करते हैं। ईश्वर की प्रत्येक कार्यवाही में कृपा ही कृपा भरी हुई है।'' क्या यह ईश्वर की कृपा नहीं कि उन्होंने उसे संसार की विषय-विलासिता से निकालकर अपनी भक्ति में लगाया है। रबिया के विचारों में ईश्वर-कृपा से पूर्ण परिवर्तन हो गया। वह ईश्वर के चरणों में पुनः प्रार्थना करने लगी, परन्तु पहली प्रार्थनाओं और इस प्रार्थना में धरती-आकाश का अन्तर था। यह प्रार्थना कष्टों की निवृत्ति के लिये नहीं, अपितु ईश्वर की कृपाओं का गुणानुवाद गाने के लिये थी। वह प्रार्थना करने लगी-हे मेरे कृपालु प्रभो! मुझ पर यह तेरी महान कृपा है कि तुमने मुझे संसार की विषय-वासनाओं की ज्वाला से निकाल कर अपनी पावन भक्ति में लगाया। मेरा रोम-रोम तुम्हारा कृतज्ञ है।
     तभी उसके कानों में ये शब्द पड़े-रबिया! चिंता न कर। तेरे सब कष्ट शीघ्र ही दूर हो जायेंगे और तेरा यश चहुँ ओर फैल जायेगा। सब लोग तुझे आदर की दृष्टि से देखेंगे और तेरा सम्मान करेंगे। मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ। रबिया ने आँखें खोलकर चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, परन्तु उसे आस पास कोई दिखाई न दिया। इन शब्दों को प्रभु की कृपा समझकर वह वापस लौट पड़ी। उसने सोचा कि जब प्रभु मुझ पर प्रसन्न हैं, तो फिर कष्टों को सहन करना कौन-सा कठिन कार्य है? मेरे लिये तो वे कष्ट भी प्रभु का प्रसाद होने के कारण फूलों के सदृश हैं। रबिया मालिक के घर वापस लौट आई। उसके जीवन में आमूल परिवर्तन हो चुका था। वह हित्तचित्त से मालिक के घर का काम करने लगी, परन्तु कामकाज करते हुये भी उसकी वृत्ति हर समय ईश्वर के सुमिरण-ध्यान में ही लगी रहती थी। उस दिन से उसके मालिक के व्यवहार में भी बहुत परिवर्तन हो गया। रबिया के मुख पर उसे एक अनोखा तेज़ दिखाई देता था, अतएव मारना तो दूर उसका रबिया को कुछ कहने का भी साहस न होता था। इसी प्रकार कुछ दिन बीत गये। एक रोज़ आधी रात के समय जबकि चारों ओर नीरवता छाई थी, रबिया अपनी कोठरी में घुटनों के बल बैठी हुई ईश्वर के चरणों में प्रार्थना कर रही थी। ईश्वर की प्रेरणा से उसी समय रबिया के मालिक की नींद टूटी और रबिया की प्रार्थना के शब्द उसके कानों में पड़े। वह तुरन्त चारपाई से उठ खड़ा हुआ। कमरे के बाहर आकर वह आवाज़ सुनने लगा। आवाज़ रबिया की कोठरी की ओर से आ रही थी। वह आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखता हुआ वहां गया। कोठरी का द्वार खुला हुआ था। परदा हटाकर वह ज्यों ही कोठरी के अन्दर घुसने लगा कि अन्दर का दृश्य देखकर वहीं ठिठक गया। कोठरी एक अलौकिक प्रकाश से आलोकित थी और रबिया घुटनों के बल बैठी हाथ उठाये प्रार्थना कर रही थी। उसने रबिया के ये शब्द सुने-हे मेरे कृपालु प्रभो! मैं चाहती तो यह हूँ कि अपने जीवन का एक-एक पल तेरी याद में, तेरे सुमिरण-भजन में बिताऊँ, परन्तु क्या करूँ? जितना मैं चाहती हूँ उतना हो नहीं पाता, क्योंकि मैं किसी की गुलाम हूँ।अच्छा! जैसी तेरी मौज।
’""राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।''
रबिया के मालिक को तो वैसे ही कई दिनों से उसके आचार-व्यवहार में परिवर्तन दिखाई दे रहा था, आज का दृश्य देखकर तो उसे पूरा विश्वास हो गया कि रबिया कोई साधारण स्त्री नहीं अपितु कोई परम पुनीत आत्मा है जिस पर ईश्वर की विशेष कृपा है। रबिया के मुखमंडल पर एक अनोखी आभा देखकर उसके ह्मदय में श्रद्धा भी उत्पन्न हुई और भय भी। वह मन ही मन विचार करने लगा कि ऐसी पवित्र आत्मा को दासता में रखकर मैने बड़ा भारी पाप किया है। चाहिये तो यह था कि मैं इसकी सेवा करता, उलटा मैं इससे सेवा कराता रहा। केवल सेवा ही नहीं कराई, इस पर अत्याचार भी किया, इसे मारा पीटा भी। वह पश्चात्ताप करता हुआ रोने लगा। उसकी आवाज़ सुनकर रबिया का ध्यान टूटा। तब वह अत्यन्त विनीत भाव से बोला-देवी! मेरे अपराधों को क्षमा कर। मैने अब तक तुम्हें पहचाना नहीं था। आज ईश्वर की कृपा से मैने तेरा वास्तविक रुप देख लिया। आज से तुम्हें मेरी सेवा नहीं करनी पड़ेगी। तुम सुखपूर्वक इस घर में रहकर ईश्वर की भक्ति करो। आज से मैं तुम्हारी सेवा करुँगा।
     रबिया ने कहा-आपने इतने दिनों तक मुझे अपने घर में रखकर खाने-पहनने को दिया, यह आपका मुझ पर उपकार है। एक उपकार आप मुझ पर और कर दें, मुझे दूसरी जगह जाने की स्वतंत्रता दे दें। ताकि मैं अपना सारा समय ईश्वर की याद में बिता सकूँ। मालिक ने कहा- जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो। मेरी ओर से तुम पूरी तरह स्वतन्त्र हो। रबिया ने बसरा नगर से कुछ दूर एक एकान्त स्थान पर अपनी कुटिया बनाई और अपना शेष जीवन भगवान का सुमिरण भजन करते हुये व्यतीत किया। यहाँ हम उनके कुछ विचार और वचन दे रहे हैं जिससे कि उनके जीवन के विषय में पाठकों को और अधिक जानकारी हो कि उनका जीवन कितना उच्च और आदर्शमय था।
     एक बार रबिया उदास बैठी थी। उसी समय उनका एक श्रद्धालु उनके दर्शन के लिये आया। उन्हें उदास देखकर उसने पूछा-आज आप उदास क्यों हैं? रबिया ने उत्तर दिया-आज सवेरे मेरा पाजी मन ईश्वर का सुमिरण छोड़कर स्वर्ग की ओर चला गया था। मैं यही सोच कर उदास हूँ कि ईश्वर का सुमिरण-भजन छोड़कर मेरा मन स्वर्ग के सुखों की ओर क्यों गया?
     एक बार रबिया बहुत बीमार थी। सूफियान नाम का एक साधक उसकी बीमारी के विषय में सुनकर उससे मिलने गया। रबिया की हालत देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने कुछ कहना चाहा, परन्तु कुछ सोचकर वह चुप हो गया। रबिया ने कहा-तुम कुछ कहते-कहते रुक क्यों गये? जो कुछ कहना चाहते हो निःसंकोच कहो। सूफियान ने कहा-देवी! आप ईश्वर से प्रार्थना क्यों नहीं करतीं? वे सर्वसमर्थ हैं; वे आपका रोग एक पल में मिटा सकते हैं। रबिया ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-सूफियान! क्या तुम इस बात से परिचित नहीं हो कि रोग किसकी इच्छा और संकेत से होता है? क्या इस रोग में भी मेरे ईश्वर का हाथ नहीं है? सूफि यान ने कहा-जो कुछ होता है उसकी इच्छा से ही होता है। उसकी इच्छा के बिना क्या होता है? रबिया बोली-जब सब कुछ उसकी इच्छा से ही होता है, तब तुम मुझसे यह कैसे आशा करते हो कि मैं उसकी इच्छा के विरुद्ध इस रोग से छुटकारा प्राप्त करने के लिये उससे प्रार्थना करूँ? ईश्वर का हर काम कृपा से भरा होता है, इसलिये उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करना क्या प्रेमी-भक्त के लिये उचित है? प्रेमी को तो उसकी इच्छा के सम्मुख नतमस्तक हो जाना चाहिये। और उसकी हर मौज को (सुख मिले या दुःख) उसका प्रसाद समझ कर अपनी झोली में डालना चाहियेे।
     रबिया ने अपना सब कुछ ईश्वर को अर्पण कर दिया था। एक प्रभु के सिवा उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जिसे वह अपनी समझती हो। एक बार बसरा के प्रसिद्ध सन्त हसन बसरी ने उससे पूछा-आपने ऐसी ऊँची स्थिति किस प्रकार प्राप्त की? रबिया ने उत्तर दिया-सब कुछ खोकर ही मैंने उसे पाया है। बिना खोए उसे पाना असम्भव है। किसी विचारवान ने सच ही कहा है-
उसी के वास्ते जग को भुलाया है मैंने।
सब कुछ खो कर ही उसे पाया है मैंने।।
रबिया सबके साथ प्रेम का व्यवहार करती थी, चाहे वह कोई पुण्यात्मा हो अथवा पापी। सबके साथ उसका दया का बर्ताव रहता था। एक दिन एक व्यक्ति ने रबिया से पूछा-पाप रुपी राक्षस को तो आप अपना शत्रु ही समझती हैं न? उससे तो आप घृणा करती हैं न? रबिया ने उत्तर दिया-
करुँ मैं दुश्मनी किससे अगर दुश्मन भी हो अपना।
मुहब्बत ने नहीं दिल में जगह छोड़ी अदावत की।।
ईश्वर के प्रेम में छकी रहने के कारण ह्मदय में किसी के प्रति घृणा रही ही नहीं, फिर भला कोई मेरा शत्रु कैसे हो सकता है?
     एक बार जब कुछ श्रद्धालु रबिया के दर्शन के लिये गये, तो रबिया ने एक व्यक्ति से पूछा-भाई! तुम किस प्रयोजन से ईश्वर का सुमिरण-भजन करते हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-नरक की भयानक यातनाओं से बचने के लिये। तब रबिया ने एक अन्य व्यक्ति से पूछा-और तुम किसलिये ईश्वर को याद करते हो? उसने कहा-मैने सुना है कि स्वर्ग अत्यन्त ही रमणीय स्थान है, वहां भाँति-भाँति के भोग और असीम सुख हैं। उसी स्वर्ग को पाने के लिये ही मैं भगवान की भक्ति करता हूँ।
     रबिया ने कहा-बेसमझ लोग ही भय अथवा लोभ के कारण भगवान की भक्ति किया करते हैं। भक्ति न करने से तो यह अच्छा ही है, परन्तु मान लो कि स्वर्ग या नरक-दोनों का ही अस्तित्व न होता, तो क्या फिर तुम लोग भगवान की भक्ति न करते? सच्चा भक्त ईश्वर की भक्ति लोक-परलोक की किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिये नहीं करता, अपितु ईश्वर को पाने के लिये ही करता है।
     रबिया इसीलिये प्रभु से प्रार्थना करती थी-हे मेरे प्रभो! तू ही मेरा सब कुछ है। मैं तेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहती। हे प्रभो! यदि मैं नरक के भय से तेरी पूजा करती हूँ, तो मुझे नरकाग्नि में भस्म कर दे, यदि मैं स्वर्ग के लोभ से तेरी भक्ति करती हूं, तो स्वर्ग का द्वार सदा-सर्वदा के लिये मेरे लिये बन्द कर दे और यदि मैं तेरे लिये  तेरा सुमिरण भजन करती हूँ, तो फिर अपना  प्रकाशमय सुन्दर रुप दिखलाकर मुझे कृतार्थ कर।
     एक बार एक धनी मनुष्य ने रबिया को फटे-पुराने कपड़े पहने देखकर कहा-यदि आपका आदेश हो तो आपकी इस दरिद्रता को दूर करने के लिये कुछ धन आपकी सेवा में भेंट करना चाहता हूँ। रबिया ने उत्तर दिया-सांसारिक दरिद्रता के लिये किसी से कुछ भी लेने में मुझे बड़ी लज्जा आती है। जब यह सम्पूर्ण जगत मेरे प्रभु का ही राज्य है, तब उसे छोड़कर मैं अन्य किसी से क्यों लूँ? मुझे आवश्यकता होगी तो मैं उससे ही माँग लूँगी।
     रबिया कभी-कभी प्रेमावेश में बड़े ज़ोर से चिल्ला उठती। एक बार लोगों ने उससे पूछा-आपको कोई रोग अथवा दुःख तो है नहीं, फिर आप किसलिये चिल्ला उठती हैं? रबिया ने उत्तर दिया-मुझे कोई बाहरी अथवा शारीरिक बीमारी नहीं है, जिसको संसार के लोग समझ सकें। मुझेे तो अन्तर का रोग है, जो किसी भी वैद्य अथवा हकीम के वश का नहीं है। मेरा यह रोग तो उसके दर्शन से ही जा सकता है।
     सच है-जिसे अन्तर का रोग हो, जिसके ह्मदय में प्रभु प्रेम की कसक हो, उसके रोग को भला वैद्य क्योंकर समझ सकता है? गुरुवाणी का वाक हैः-
बैदु बुलाइआ बैदगी पकड़ि  ढंढोले बांह।
भोला बैदु न जाणई करक कलेजे माहिं।।
अर्थः-वैद्य को उपचार के लिये बुलाया गया, तो वह बाँह पकड़ कर नब्ज़ देखता है। किन्तु भोला वैद्य क्या जाने कि यह रोग ह्मदय का है, कलेजे में कसक उठती है।
     एक बार पूर्णिमा की रात्रि को, जबकि चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से सारा वातावरण आलोकित था, रबिया अपनी कुटिया के अन्दर बैठी किसी दूसरी ही सृष्टि की ज्योत्स्ना का आनन्द लूट रही थी। तभी एक परिचित स्त्री ने आकर ध्यानमग्न रबिया को झिंझोड़ते हुये कहा-रबिया! बाहर चलकर देख, कैसी सुन्दर रात है। रबिया ने उत्तर दिया-तुम एक बार मेरे ह्मदय के अन्दर झाँक कर देखो, संसार के परे की कैसी अनोखी सुन्दरता है।
     ऐसा था भक्तिमति रबिया का जीवन। हमें भी चाहिये कि उसके जीवन से प्रेरणा लें और अपना पल-पल प्रभु के सुमिरण-भजन में लगाते हुये अपना जीवन सकारथ करें।

भक्त गदाधर जी भट्ट



प्रभु भक्तों केलक्षणों का वर्णन करते हुए देवर्षि नारद जी कथन करते हैं किः-
प्रशान्तचित्ताः सर्वेषां सौम्याः कामजितेन्द्रियाः।
कर्मणा  मनसा   वाचा  परद्रोहमनिच्छवः ।।
गुणेषु  परकार्येषु  पक्षपातमुदान्विताः ।
सदाचारावदाताश्च परोत्सवनिजोत्सवाः।।
               पश्यन्तः सर्वभूतस्यं वासुदेवममत्सराः। दीनानुकम्पिनो नित्यं भृशं परहितैषिणः।।
(स्कन्द पुराण)
भक्त वस्तुतः कौन है? नारद जी कथन करते हैं कि जिनका चित्त अति शान्त है, जो सबके प्रति कोमल भाव रखते हैं, जिन्होंने कामनाओं तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो मन,वचन तथा कर्म से कभी दूसरों से द्रोह करने की इच्छा नहीं रखते, जो सद्गुणों के पक्षपाती हैं और सदा दूसरों के गुण ही देखते हैं, जो दूसरों के कार्य-साधन में प्रसन्नतापूर्वक संलग्न रहते हैं, सदाचार से जिनका जीवन सदा उज्जवल बना रहता है, जो दूसरों की खुशी को अपनी खुशी मानते हैं, सब प्राणियों के भीतर परमात्मा को विराजमान देखकर जो कभी किसी से ईष्र्या-द्वेष नहीं करते, दीनों पर दया करना जिनका स्वभाव बन गया है और जो सदा दूसरों के हित की इच्छा रखते हैं, वही वास्तविक अर्थों में सच्चे भक्त हैं।
     ऐसे ही सद्गुणों से युक्त थे भक्त गदाधर जी भट्ट। बाल्यकाल में ही उनके ह्मदय में उपरोक्त सद्गुणों का प्रवेश हो गया था और होता भी क्यों न? जिस ह्मदय में भगवान के प्रति निश्छल एवं अनन्य प्रेम हो, वहाँ पर ये शुभ गुण तो सहज स्वभाव ही निवास करने लगते हैं। विशुद्ध अनुराग के पाश में बँधकर जिनके ह्मदय-मन्दिर में सर्वगुण सम्पन्न प्रभु स्वयं निवास करें, वहाँ दुर्गुण तथा असद्वृत्तियां भला टिक ही कहाँ सकते हैं? वहाँ तो केवल शुभ गुण ही ठहर सकते हैं। भक्त गदाधर जी का भी प्रभु चरणों में अनन्य प्रेम था,अचल निष्ठा और आस्था थी और उन्होंने अपने ह्मदय-मन्दिर में अपने इष्ट्देव को विराजमान कर रखा था, अतएव उनके ह्मदय में शुभ गुणों का होना स्वाभाविक ही था।
     भक्त गदाधर जी अत्यन्त प्रतिभावान थे। भगवान के प्रेम के रंग में रंगकर वे नये-नये पदों की रचना किया करते। उनका कण्ठ भी बड़ा मधुर और सुरीला था, अतः अपने रचे हुए पद जब वे प्रेम-विभोर होकर गाते, तो सुनने वाले प्रेम की मस्ती में झूमने लगते और उनकी आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगते। अनेक लोगों ने उनके पद कण्ठस्थ कर लिए और कथा-कीर्तन आदि में गाने लगे।
     एक बार उनके गाँव के कुछ प्रेमी तीर्थ-यात्रा करते हुए वृन्दावन पहुँचे। वहाँ एक भक्त ने श्री गदाधर जी का यह पद गायाः-                   सखी! हौं स्याम रंग रंगी।
देखि  बिकाइ  गई वह  मूरति  सूरति माहिं  पगी।।
संग  हुतो  अपनौ  सपनौ-सौ सोइ  रही  रस खोइ।
जागेहूँ  आगे  दृष्टि  परै  सखि नेकु न  न्यारौ होइ।
एक जु  मेरी अंखयिन में निसिद्यास  रह्रौ करि मौन।
गाय चरावत जात सुन्यौ सखी सो धौं कन्हैया कौन।।
कासौं   कहौं  कौन  पतियावे  कौन  करै  बकवाद।
कैसे  के  कहि  जात  गदाधर  गूँगे  को गुड़ स्वाद।।
अर्थः- यह पद सखी भाव से लिखा गया है। एक सखी दूसरी सखी को सम्बोधित करते हुए कहती है कि मैं तो श्याम के रंग में पूरी तरह रंग गई हूँ। उसकी मोहिनी मूर्ति देखकर मैं बिक गई हूँ अर्थात् अपना सर्वस्व उस पर निछावर कर बैठी हूँ। अब तो मेरी सुरति उसके स्वरुप में हर समय लीन रहती है। अब वह सपनों की तरह सदा मेरे संग रहता है और मैं निद्रा में भी दर्शन का रस पीकर खोई रहती हूँ। और सखी! जब मैं जागती हूँ तब भी वह सामने ही दिखलाई देता है, मुझसे तनिक-सी देर भी विलग नहीं होता। हे सखी! एक श्याम तो वह है जो मेरी आँखों में दिन-रात विराजमान रहता है, फिर मैने जो यह सुना है कि श्याम गउएँ चराने गया है, तो वह श्याम कौन सा है? अब यह बात मैं किससे कहूँ और कौन मुझे समझाये? फिर इन व्यर्थ की बातों में पड़े कौन? गदाधर जी कहते हैं कि प्रेम का रस तो गूंगे के गुड़ जैसा है। जिस प्रकार एक गूँगा व्यक्ति गुड़ के स्वाद का अनुभव तो कर सकता है, परन्तु उसके स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता, उसी तरह प्रभु-प्रेम के रस का भी वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके आनन्द को वे ही जानते हैं, जिन्होंने यह रस चखा है।
     यह पद श्रीजीव गोस्वामी जी ने भी सुना। सुनते ही वे भाव-विह्वल हो गये। रत्न का पारखी ही रत्न को पहचान सकता है, साधारण मनुष्य भला रत्न की पहचान क्योंकर कर सकता है? श्री जीव गोस्वामी जी ने, जो कि उच्चकोटि के सन्त थे, मन में विचार किया कि यह पद किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा विरचित नहीं है जो मात्र काल्पनिक उड़ाने भरने वाला कवि हो, अपितु यह उस व्यक्ति द्वारा विरचित है जिस पर प्रेमस्वरुपा भक्ति का रंग चढ़ा हुआ है। उन्होंने उस भक्त को बुलवाया, जिसने उपरलिखित पद गाया था और उससे श्री गदाधर जी के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त की। तदुपरान्त उन्होंने श्री गदाधर जी के नाम एक पत्र लिखा और अपने दो शिष्यों को बुलाकर उन्हें वह पत्र देते हुए तुरन्त गदाधर जी के पास जाने के लिए कहा। श्री जीव गोस्वामी जी ने गदाधर जी को सम्बोधित करके केवल इतने ही शब्द पत्र में लिखे थे-मुझे बड़ा आश्चर्य है कि बिना रंगसाज़ के ही आप पर भक्ति का रंग कैसे चढ़ गया?
     पत्र लेकर दोनों शिष्य, जो कि साधु-वेष में थे, चल पड़े। उन दिनों आज की तरह यातायात के साधन तो थे नहीं, अतः पैदल चलते हुए कई दिनों के उपरान्त सूर्यास्त के बाद उस गाँव के निकट जा पहुँचे यहाँ गदाधर जी रहते थे। गाँव से लगभग एक फरलांग की दूरी पर एक शिवालय था। उन दोनों ने यह परामर्श करके कि अब इस समय गाँव में जाकर गदाधर जी से भेंट करना ठीक नहीं, प्रातः होने पर उनसे भेंट करेंगे, रात्रि उस शिवालय में ही व्यतीत की।
     दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व ही वे दोनों गाँव में प्रविष्ट हुये। गदाधर जी अपने मकान के बाहर चबूतरे पर बैठे हुए दातौन कर रहे थे। दोनों उनकेनिकट जाकर बोले-जय हरि बोलो।
     गदाधर जी ने दृष्टि उठाई। साधुओं को सामने देखकर गदाधर जी का ह्मदय गद्गद हो गया। वे अपने स्थान से एकदम उठ खड़े हुए, दातौन फेंक दी और उन्हें प्रणाम करते हुए बोले-धन्य है आज का दिन जो इस दास को प्रातःकाल ही सन्तों के दर्शन हुए। अन्दर पधारिये और दास का गृह पवित्र कीजिए।
     साधुओं ने कहा-इस समय हमें शीघ्रातिशीघ्र भक्त गदाधर जी से मिलना है, अतः इस समय आप हमें मत रोकिये। बस! इतना बतला दीजिये कि भक्त गदाधर जी का मकान कौन सा है? यह सुनकर कि ये साधु उन्हीं के पास आये हैं, भक्त गदाधर जी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा-आज मेरे बड़े अहोभाग्य हैं। आईये! अन्दर कृपा कीजिए। आप लोग कहाँ से आ रहे हैं?
     साधु बोले-हम लोग श्री जीव गोस्वामी जी के शिष्य हैं और वृन्दावन से आ रहे हैं।
     वृन्दावन का शब्द कानों में पड़ते ही भक्त गदाधर जी अपनी सुधबुध भूल गये। शरीर संज्ञाहीन हो गया और नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। कुछ क्षण तो उनकी यह स्थिति बनी रही, तदुपरांत वे मूÐच्छत होकर गिर पड़े। साधुओं ने तत्काल उन्हें सँभाला। तब तक गाँव के कुछ लोग भी वहाँ पहुँच गए थे। साधुओं ने जब गाँववालों को सारी बात बतलाई तो उन्होंने कहा-जिन भक्त गदाधर जी से आप मिलना चाहते हैं, वे तो यही हैं।
     यह सुनकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने भक्त गदाधर जी के मुख पर जल के छींटे मारे और उनके कान में उच्च स्वर से कहा-हम वृन्दावन से श्री जीव गोस्वामी जी का आपके नाम पत्र लाए हैं। उठिये और अपना पत्र संभालिये। इन शब्दों ने जादू का सा काम किया। पत्र का शब्द कानों में पड़ते ही भक्त गदाधर जी ऐसे उठ बैठे मानों उनके प्राण इस पत्र की ही प्रतीक्षा कर रहे हों। उठते ही वे बोले-कहाँ है पत्र?
     साधुओं ने पत्र उनके हाथ में थमा दिया। उन्होंने पत्र पहले अपने मस्तक से, फिर नेत्रों से और फिर ह्मदय से लगाया। तत्पश्चात् पत्र को खोल कर पढ़ा। एक बार नहीं, दो बार नहीं, वे उसे बार-बार पढ़ते रहे और प्रेमाश्रु बहाते रहे। उनके प्रेम-भक्त से भरपूर ऐसी उच्चकोटि की भावना देखकर साधुओं का ह्मदय भर आया। वे उनके प्रेम की भूरि भूरि प्रसंसा करने लगे। उन के नेत्रों से भी प्रेमाश्रु प्रवाहित होने लगे। कुछ देर तक यही स्थिति बनी रही। अन्ततः लोगों के चिताने पर तीनों को चेत हुआ। भक्त गदाधर जी साधुओं को घर के अन्दर ले गए और उनका यथायोग्य आदर-सत्कार किया। भक्त जी के माता-पिता परलोक सिधार चुके थे, भाई-बहन कोई था नहीं और विवाह के सम्बन्ध में वे अभी तक फँसे न थे, अतएव उन्होंने अपना सर्वस्व दीन-दुखियों को बांट दिया और स्वयं उन साधुओं के साथ वृन्दावन की ओर चल दिये।
     वृन्दावन पहुँचकर वे श्री जीव गोस्वामी जी के चरणों में उपस्थित हुए और उनके शिष्य हो गए। प्रभु-भक्ति का रंग तो उनपर पहले से चढ़ा ही हुआ था परन्तु वह रंग कच्चा था। अब श्री जीव गोस्वामी जी जैसे असाधारण और उच्चकोटि के रंगसाज के मिल जाने यह रंग पक्का और गाढ़ा हो गया और उसमें निखार भी आ गया। एक बात जो ऊपर के प्रसंग से स्पष्ट होती है और जो पाठको को समझ लेनी ज़रुरी है, वह यह है कि बिना सतगुरु की कृपा के भक्ति का गूढ़ा रंग नहीं चढ़ता। इसीलिए सभी सन्तों महापुरुषों ने सद्गुरु की महिमा मुक्त कंठ से गायन की है। परमसन्त श्री कबीर साहिब जी के वचन हैंः-
।।शबद।।
    सतगुरु हैं रंगरेज़, चुनर  मोरी  रंगि डारी।।टेक।।
स्याही  रंग  छुड़ाइ  के रे , दियो मजीठा रंग।
 धोये से छूटै नहीं रे, दिन दिन होत सुरंग।।1।।
भाव के कुँड नेह के जल में, प्रेम रंग दइ बोर।
     चसकी चास लगाइ के रे, खूब रंगी झकझोर।।2।।
सतगुरु ने चुनरी रंगी रे, सतगुरु चतुर सुजान।
         सब कुछ उन पर वार दूँ रे, तन मन धन औ प्रान।।3।।
कहै कबीर रंगरेज़ गुरु रे, मुझ पर हुए दयाल।
       सीतल चुनरी ओढ़ि के रे, भइ हौं भकत निहाल।।4।।
     भक्त गदाधर जी स्थायीरुप से वृन्दावन में ही रहने लगे। भक्त गदाधर जी के पद प्रेमियों को अब उन्हीं के मुख से नित्य प्रति सुनने को मिलने लगे। उन्होंेंने नये-नये पदों की रचना की। शनैः शनैः उनकी ख्याति आसपास के क्षेत्रों में भी फैल गई। भगवत्प्रेमी उनके भजनों को सुनने के लिए लालायित रहते। भावपूर्ण ह्मदय, लोगों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करने वाला मधुर कंठ, फिर भी लेशमात्र अहंकार नहीं था उनमें। विनम्रता, दीनता, दया, प्रेम, सद्भाव, सदाचार आदि सभी शुभ गुणों से सम्पन्न थे वे, अतएव जो भी उनके
सम्पर्क में आता, प्रभावित हुए बिना न रहता। साक्षीस्वरुप कुछ प्रमाण यहाँ दिये जाते हैैं।
     उनके प्रेमी श्रोताओं और श्रद्धालु थे-कल्याण सिंह राजपूत, जो वृन्दावन से कुछ ही दूरी पर स्थित धौरहरा ग्राम के निवासी थे। भक्त गदाधर जी भट्ट की निरन्तर संगति से उनपर भी भक्ति-प्रेम का रंग चढ़ने लगा। और यह तो सुनिश्चित ही है कि परमात्मा की प्रेम-स्वरुपा भक्ति का अमिय रस जब मनुष्य पान करने लगता है, तब संसार के विषयरस उसे सारहीन और निरस प्रतीत होने लगते हैं। फिर विषयरस उसे लुभा नहीं सकते; जैसा कि श्री रामायण में कथन हैः-
राम चरण पंकज प्रिय जिनहीं। विषयभोग वस करहिं कि तिनहीं।।
अर्थः-जिनको श्री प्रभु के चरणकमल प्यारे हैं अर्थात् जिनकी भगवान के चरणों में प्रीति है, उन्हें क्या विषयभोग वश में कर सकते हैं? कदापि नहीं।
     कल्याणसिंह जी को भी विषयों से विरक्ति हो गई। वे गृहस्थ-धर्म का पालन करते हुए भी संयमी जीवन व्यतीत करने लगे। किन्तु उनकी पत्नी सांसारिक विचारों की एक सामान्य स्त्री थी। उसकी विषयों के प्रति आसक्ति बनी हुई थी, अतः पति की अपने प्रति उदासीनता उसे अच्छी न लगी। इसका कारण गदाधर जी को जानकर वह उनसे द्वेष करने लगी। किसी विषयी मनुष्य की इच्छापूर्ति में जब विघ्न पड़ता है, तो स्वाभाविक ही उसमें क्रोध की उत्पत्ति हो जाती है जिससे उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है, जिसका परिणाम यह होता है कि उचित-अनुचित का उसे कुछ ज्ञान नहीं रहता और वह अनुचित कर्म करने पर भी उतारू हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी इस विषय में फरमाते हैंः-
ध्यायतो  विषयान्   पुँसः  संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
           स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 2/62-63
अर्थः-विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् विवेक शक्ति का नाश हो जाता है और विवेक शक्ति का नाश हो जाने से मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है।
     भगवान ने कामवासना अथवा विषयवासना को मनुष्य का सबसे महान् शत्रु बतलाया है, क्योंकि इसके अधीन होकर मनुष्य पापकर्मों की ओर प्रवृत हो जाता है। कल्याणसिंह की पत्नी केसाथ भी यही हुआ। काम-वासना के अधीन होकर वह भी विवेक-शून्य हो गई और अनुचित कर्म करने को तत्पर हो गई। उसने मन ही मन विचार किया कि यदि गदाधर जी को किसी प्रकार कलंकित किया जा सके, तो फिर मेरे पति को न केवल उनमें, प्रत्युत सभी सन्तों-भक्तो में अश्रद्धा हो जाएगी, परिणामस्वरुप वे फिर से गृहस्थी मेें अनुरक्त हो जायेंगे। उसने एक भिखारिन को, जिसका लगभग डेढ़ वर्ष का एक बच्चा था, रुपयों का प्रलोभन दिया और उसे सिखा पढ़ाकर उस समय वहाँ भेजा जबकि भक्त गदाधर जी भगवान की लीलायें सुना रहे थे और भगवत्प्रेमी तन्मयता से भगवद्-लीलामृत का पान कर रहे थे। भिखारिन ने वहाँ पहुँचते ही पहले तो ज़ोर-ज़ोर से रोना आरम्भ कर दिया, फिर गदाधर जी पर लांछन लगाते हुए कहने लगी-आप तो यहँा मज़े उड़ा रहे हैं और मैं इस बच्चे को उठाये जगह-जगह भटकती फिरती हूँ। कम से कम मेरे रहने तथा भोजनादि की व्यवस्था तो कर दीजिये। इस बच्चे को लेकर मैं कहाँ-कहाँ भटकती फिरूँ?
     भक्त गदाधर जी को वृन्दावन में रहते हुए लगभग छः वर्ष हो गए थे और सभी वृन्दावन-निवासी उनके
सदाचारमय जीवन से भलीभाँति परिचित थे। भिखारिन की बात पर फिर वे कैसे विश्वास कर लेते? वे सभी क्रोधित होकर भिखारिन को मारने के लिए तत्पर हो गए। भक्त गदाधर जी ने उन्हें ऐसा करने से रोका। तत्पश्चात् उन्होंने उस भिखारिन को सम्बोधित कर अत्यन्त स्नेहपूर्वक कहा-अच्छा हुआ तुम यहाँ चली आर्इं। चिंता क्यों करती हो? निवास आदि का प्रबन्ध भी भगवान की कृपा से हो जायेगा। बैठोे, भगवान की लीलायें श्रवण करो।
     कल्याणसिंह जी तथा अन्य प्रेमी समझ गये कि गदाधर जी दयावश ही ऐसा कह रहे हैैं, क्योंकि वे उनके स्वभाव से भलीभाँति परिचित थे। उन्होंने उस स्त्री को एक ओर ले जाकर जब थोड़ा भय दिखाया, तो उसने सब कुछ सच-सच बतला दिया और गदाधर जी के चरणों पर गिर पड़ी। गदाधर जी ने प्रेमी श्रोताओं से कहा-इस बेचारी का इसमें कोई दोष नहीं है। दरिद्रता ने ही इसे ऐसा करने पर विवश किया है, अतः आप लोग मिलजुल कर इसके आवास आदि का प्रबन्ध कर देें।
     उनके सद्व्यवहार से उस स्त्री का ह्मदय ही बदल गया। उसने अश्रुपात करते हुए गदाधर जी से बार-बार क्षमा माँगी। गदाधर जी ने न केवल क्षमा ही कर दिया। अपितु उसके रहने और भोजन आदि का भी प्रेमियों के द्वारा प्रबन्ध करवा दिया। उस स्त्री ने अपना शेष जीवन भगवान् के चरणों में समर्पित कर दिया और अपना एक-एक पल भजन-सुमिरण में लगाया।
     इधर भिखारिन के मुख से अपनी पत्नी का नाम सुनकर कल्याण सिंह क्रोध से तिलमिला उठे। गदाधर जी ने समझा-बुझाकर उन्हें शान्त किया। भेद खुल जाने पर कल्याणसिंह की पत्नी भी गदाधर जी के चरणों में आ गिरी और अपने कुकृत्य के लिए क्षमायाचना करने लगी। गदाधर जी ने उसे क्षमा कर दिया। वह भी उस दिन से भगवद्भक्ति में लग गई।
       दूसरी घटना इस प्रकार है। एक बार रात्रि के समय एक चोर चोरी करने के विचार से उनकी कुटिया में घुसा। चोर को देखकर गदाधर जी ने जानबूझ कर चादर ओढ़ ली और चुपचाप पड़े रहे। चोर ने एक चादर बिछाई और सब सामान उस पर रखकर गठरी बाँधी। जब वह गठरी उठाने लगा तो भारी होने के कारण उससे गठरी न उठी। गदाधर जी लेटे-लेटे सब कुछ देख रहे थे। वे शीघ्रता से उठे और गठरी में हाथ लगाकर उसे उठवाने लगे। चोर गठरी छोड़कर भागने लगा। गदाधर जी ने उसे पकड़ते हुए कहा-मुझे तो यह सब सामान फिर मिल जायेगा, परन्तु तुम क्या करोगे? तुम्हारी तो आजीविका ही यही है। फिर क्या अब दूसरे घर में चोरी करने जाओगे। मैं इस बारे में किसी के नहीं बतलाऊँगा, तुम किसी प्रकार का भय मत करो।
     चोर फूट-फूट कर रोने लगा और उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा। क्षमा तो मिली ही, साथ में भगवान की भक्ति का आशीर्वाद भी मिला। गदाधर जी की थोड़ी देर की संगति ने चोर की कायापलट कर दी। वह चोरी छोड़कर भगवान का भक्त बन गया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने सत्य ही लिखा हैः-
।।चौपाई।।
शठ सुधरहिं सत्संगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई।।
हमें भी चाहिये कि भक्त गदाधर जी के जीवन से शिक्षा ग्रहण करें और उन्हीं की तरह प्रेम, भक्ति, करुणा, दया, विनम्रता, विनयशीलता,क्षमा, अक्रोध आदि सद्गुणों को अपने ह्मदय में धारण करें तथा भक्ति-पथ पर अग्रसर होकर अपना भी कल्याण करें तथा दूसरों को भी भक्ति पथ पर लगाने का प्रयत्न करें।

भक्त पद्मसेन


शास्त्रकारों का कथन है किः-
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः।
            नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्म संग्रहः।। (सुक्तावलि)
अर्थात् सब शरीर अनित्य हैं, वैभव भी सदा रहने वाला नहीं है, मृत्यु भी नित्य निकट आ रही है, इसलिए धर्म का संग्रह करना ही कर्तव्य है। अतएव मनुष्य को सदैव धर्म-मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिये और धर्म पर सदा दृढ़ रहना चाहिये, उससे कभी भी, किसी भी परिस्थिति नें विचलित न होना चाहिये। शास्त्रकारों का कथन है किः-
सपदि विलयमेतु राजलक्ष्मी रुपरि पतन्त्वथवा कृपाणधाराः।
अपहरतुतरां शिरः कृतान्तो मम तु मतिर्न मनागुपैतु धर्मात्।।
अर्थः-""राजलक्ष्मी चाहे आज ही चली जाए, मुझ पर तेज़धार वाली तलवार चाहे आज ही गिर पड़े, यमराज चाहे आज ही मेरा सिर काट ले, परन्तु मेरी बुद्धि धर्म से ज़रा भी विचलित न हो।''
     और जो सदा धर्म-मार्ग पर चलता है, धर्म का आचरण करता है, इस मार्ग से कभी विचलित नहीं होता, वह सदा ही सुख-सम्पत्ति से भरपूर रहता है जैसा कि वर्णन हैः-
जिमि  सरिता  सागर  महँ जाहीं । यद्यपि  ताहि  कामना नाहिं।
तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाए। धरमशील पहिं जाहिं सुभाए।।
(श्री रामचरित मानस, उत्तरकाण्ड)
अर्थः-""जिस प्रकार नदियाँ आप से आप समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को उनकी कोई कामना नहीं होती, वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मशील पुरुष के पास जाती हैं।'' इसी पर एक कथा हैः-
     प्राचीन समय की बात है, अवन्तीपुर के नरेश पद्मसेन बड़े ही धर्मशील, भक्तिभावसम्पन्न और प्रजा-पालक थे। अपनी प्रजा को वे अपनी सन्तान के तुल्य समझते थे और प्रजा सदा सुखी रहे, इसके लिए वे सतत् प्रयत्नशील रहते थे। जिस प्रकार पिता अपनी सन्तान को दुःखी नहीं देख सकता, उसी प्रकार महाराजा पद्मसेन भी प्रजा को दुःखी नहीं देख सकते थे। उन्होंने अपने गुप्तचर छोड़ रखे थे जो यह पता लगाते रहते थे कि किसी को कोई दुःख,कोई कष्ट तो नहीं है। जैसे ही गुप्तचरों को इस बात का पता चलता, वे तुरन्त इसकी सूचना महाराज को देते और महाराज पद्मसेन उस व्यक्ति की यथा-सम्भव सहायता कर उसका दुःख-दर्द दूर करते। इस प्रकार उनका यश चहुँ ओर फैला हुआ था।
     उनके राज्य के एक छोटे-से गाँव में एक पुरुष और स्त्री रहते थे, जो अत्यन्त दरिद्रता में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। पति-पत्नी दोनों ही धातु की मूर्तियां बनाते थे जो उनका पैतृक व्यवसाय था। अन्य कोई काम-धन्धा न तो उन्हें आता ही था और न ही उनके पास इतना धन था कि कोई काम-धन्धा शुरु कर सकें। आसपास के क्षेत्र में मूर्तियां खरीदने वाले भी बहुत कम थे, अतः बड़ी ही निर्धनता में वे अपने दिन काट रहे थे।
     एक बार ऐसा हुआ कि तीन-चार दिन तक एक भी मूर्ति न बिकी जिससे उस निर्धन-दंपति को भूखों रहना पड़ा। यह समाचार गुप्तचरों द्वारा महाराजा पद्मसेन तक पहुंचा। पद्मसेन ने अपने मंत्री को बुलाया और उससे परामर्श कर उस निर्धन दंपति के लिए काफी धन अपने एक विश्वासपात्र राजसेवक द्वारा भिजवाया। जिससे कि उन दोनों का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो सके। किन्तु जब राजसेवक वहाँ पहुँचा और उन्हें धन देना चाहा तो उन्होने धन लेने से साफ इनकार कर दिया। राजसेवक ने उन्हें धन स्वीकार करने के लिए राज़ी करने का हर सम्भव प्रयत्न किया, परन्तु वे किसी प्रकार भी राज़ी न हुए। राजसेवक ने वापस जाकर महाराजा पद्मसेन को सारी हकीकत बतलाई। सुनकर महाराज पद्मसेन सोच में पड़ गए। अन्त में अपने मंत्रियों से परामर्श कर उन्होने अपने सभी गुप्तचरों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि आज के बाद यदि किसी निर्धन व्यक्ति का कोई सामान हाट में सायंकाल तक नहीं बिकता तो उसका मूल्य चुका कर वह सामान खरीद लिया जाए और राज्य के कोशागार में जमा करवा दिया जाए। महाराजा पद्मसेन के आदेश के अनुसार उस दिन से पूरे राज्य में यह नियम लागू हो गया।
     इसके कुछ ही दिन बाद उस दंपति ने शनि देवता की एक बड़ी ही सुन्दर मूर्ति बनाई और उसे बेचने के लिए बाज़ार ले गए। बाज़ार में जो लोग भी सामान खरीदने के लिए आए, उस मूर्ति को देखकर सभी ने उनकी कला की भूरि-भूरि प्रशंसा की, परन्तु उस मूर्ति को खरीदने के लिए किसी भी व्यक्ति ने उसका मुल्य तक न पूछा। शनिदेवता को आमतौर पर अनिष्टकारक माना जाता है, फिर भला शनिदेवता की मूर्ति खरीद कर कौन घर ले आए और मुसीबत मोल ले। इसी प्रकार सारा दिन बीत गया। सायंकाल को महाराजा पद्मसेन के आदेशानुसार एक गुप्तचर उस दंपति के पास पहुंचा और मूर्ति की प्रशंसा करते हुए उनसे उसके दाम पूछे और मूल्य चुकाकर वह मूर्ति खरीद ली और महाराजा पद्मसेन के दरबार में लाए और फिर उनके आदेश से उसे राज्य के कोशागार में जमा करवा दिया।
     राजपुरोहित औैर राज-ज्योतिषी को जब इस विषय में पता चला तो वे तुरन्त महाराजा पद्मसेन के पास जा पहुँचे और उनसे निवेदन किया-""महाराज! आपके गुप्तचरों ने यह क्या किया कि शनि देवता की मूर्ति खरीद ली और आपने भी उसे कोशागार में रखवा दिया? यह तो अनर्थ कर डाला आपने। उस मूर्ति को तुरन्त वहां से निकलवाइये और किसी नदी में प्रवाहित कर दीजिये, अन्यथा सभी दैवी शक्तियाँ आपसे रुष्ट हो जायेंगी और शनि देवता की क्रूर दृष्टि से आपका तो अनिष्ट होगा ही, प्रजा का भी अनिष्ट होगा।''
     महाराजा पद्मसेन ने अत्यन्त धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी और बोले-""आपका कथन सत्य है, क्योंकि ज्योतिष विज्ञान के अनुसार शनि देवता अनिष्टमूलक माने जाते हैं, परन्तु फिर भी मैं वह मूर्ति अपने राज्य के कोशागार से निकालकर नदी में प्रवाहित नहीं कर सकता।'' राजपुरोहित ने प्रश्न किया-""क्या आपको अपने और राज्य के लोगों के अनिष्ट की भी चिंता नहीं।'' महाराजा पद्मसेन ने गम्भीरतापूर्वक कहा-""आप यह अच्छी तरह जानते हैं कि राज्य के लोगों के अनिष्ट की बात मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता, क्योंकि मैं प्रजा को अपनी सन्तान की तरह मानता हूँ, परन्तु फिर भी मैं आपका कहना मानने में असमर्थ हूँ। वह मूर्ति कोशागार में जमा हो चुकी है और अब वहीं रहेगी। उसे मैं नदी में प्रवाहित नहीं कर सकता।''
      राजपुरोहित ने प्रश्न किया-""लेकिन क्यों? इसमें आपको क्या आपत्ति है?''
     महाराजा पद्मसेन बोले-""आपको पता ही है कि मैंने यह व्रत धारण कर रखा है कि किसी भी परिस्थिति में धर्म के पथ से विचलित नहीं हूँगा।''
     जी हाँ! यह तो सबको विदित है।'' राजपुरोहित ने कहा।
     महाराजा पद्मसेन बोले-""आज से कुछ दिन पूर्व मैने गुप्तचरों को यह आदेश दिया था कि किसी निर्धन व्यक्ति का सामान यदि सायंकाल तक नहीं बिकता तो उसे खरीदकर राज्य के कोशागार में जमा करवा दिया जाए। शनि देवता की यह मूर्ति खरीदते समय उसी आदेश का गुप्तचरों ने पालन किया। मूर्ति सायंकाल तक बिकी नहीं थी, इसलिए उसे गुप्तचरों ने खरीद लिया और उसे कोशागार में जमा करवा दिया।''
     राजपुरोहित ने कहा-""महाराज! यह तो ठीक है कि गुप्तचरों ने आपके आदेश का पालन किया, परन्तु अब इसे नदी में प्रवाहित कर दिये जाने में आपको क्या आपत्ति है?'' महाराजा पद्मसेन ने उत्तर दिया-""किसी अनिष्ट की आशंका से अपने वचन से फिर जाना क्या धर्म से विचलित होना नहीं है? कोशागार में मूर्ति जमा हो जाने पर अब उस मूर्ति को निकालकर नदी में प्रवाहित करने में क्या मेरा वचन भंग नहीं होता? और यदि मैं अपना वचन भंग करुँ तो फिर मेरा अपने को धर्मनिष्ठ कहना किसी तरह भी उचित नहीं है। इसलिए मैं आप दोनों महानुभावों की बात मान कर अपने धर्म को कदापि नहीं छोड़ सकता, चाहे मेरा कितना ही अनिष्ट क्यों न हो जाए? हाँ! कुछ दिनों के पश्चात यदि आप उसे जल में प्रवाहित करने को कहेंगे तो मैं आपकी बात मान लूँगा।''
     अभी महाराजा पद्मसेन ने ये शब्द कहे ही थे कि उनके अन्दर से एक तेज़ निकला और साकार रुप से उनके सामने खड़ा हो गया। महाराजा पद्मसेन ने पूछा-""आप कौन हैं?'' उसने उत्तर दिया-""मैं सदाचार हूँ, मेरा और शनिदेवता का तनिक भी मेल नहीं है। मेरा और उसका एक स्थान पर रहना कठिन ही नहीं, असम्भव है। उसके होते हुए मैं एक क्षण भी यहाँ नहीं रुक सकता। इसलिए या तो आप अपने राजपुरोहित और राज-ज्योतिषी की बात मानकर शनिदेव को तुरन्त अपने कोशागार से निकाल बाहर करें और उसे इसी समय नदी में प्रवाहित कर दें, अन्यथा मैं आपको छोड़कर चला जाऊँगा।''
     सदाचार के ये शब्द सुनकर महाराजा पद्मसेन तनिक भी विचलित न हुए। उन्होंने कहा-""मैं अपने धर्मव्रत को किसी भी परिस्थिति नें नहीं छोड़ सकता। आप यदि मुझे छोड़कर जाना चाहते हैं तो यह आपकी इच्छा।'' महाराजा पद्मसेन का यह उत्तर सुनकर सदाचार वहाँ से अदृश्य हो गया। तब एक और तेज़ महाराजा के अन्दर से निकल कर उनके सामने खड़ा हो गया। पद्मसेन ने कहा-""आप कौन हैं? उसने उत्तर दिया-""मैं सत्य हूँ। मैं सदा सदाचार के साथ रहता हूँ। सदाचार चूँकि आपका साथ छोड़ गया है, इसलिए मैं भी आपका साथ छोड़ रहा हूँ।'' पद्मसेन ने उत्तर दिया-""जैसी आपकी इच्छा।''
     उसके अदृश्य होते ही तीसरा तेज़ प्रकट हुआ। महाराजा ने पूछा-""आप कौन हैं?''
     उसने उत्तर दिया-"" मैं न्याय हूँ जहाँ सत्य रहता है, मैं भी वहीं रहता हूँ, इसलिए मैं भी आपसे विदा लेता हूँ।'' तब एक और तेज़ प्रकट हुआ। पद्मसेन के पूछने पर उसने अपना परिचय देते हुए कहा-""मैं नीति हूँ और सदा न्याय के अंग-संग रहती हूँ। न्याय के साथ ही मैं भी आपसे विदा ले रही हूँ।''
     इस प्रकार एक-एक करके सभी दैवी गुण महाराजा पद्मसेन के सामने प्रकट होते गए और अपना परिचय देते हुए उनका साथ छोड़ते गए, यहाँ तक कि राजलक्ष्मी ने भी उनसे  विदाई ले ली। अन्ततः धर्म साकाररुप में उनके सामने प्रकट हुआ और बोला-""मैं धर्म हूँ। सभी दैवी गुण आपका साथ छोड़ गए हैं, इसलिए अब मैं भी यहाँ नहीं रह सकता। मैं भी आपको छोड़कर जा रहा हूँ।
     यह सुनकर महाराजा पद्मसेन बोले-""आप मुझे छोड़कर कहीं नहीं जा सकते। मैने सदा धर्म-व्रत का पालन किया है और अब भी उसी व्रत का पालन कर रहा हूँ। आपके लिए तो मैने सबको छोड़ दिया है, फिर आप मुझे छोड़कर कैसे जा सकते हैं?'' यह सुनकर धर्म पुनः महाराज पद्मसेन के अन्दर प्रवेश कर गया। उसके ऐसा करते ही सभी दैवी गुण और श्री लक्ष्मी पुनः पद्मसेन के पास लौट आए।
     कहने का तात्पर्य यह कि जहाँ धर्म है, वहीं सब दैवी गुण हैं और वहीं श्री है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सदा धर्म का पालन करना चाहिये और उस पर सदा दृढ़ रहना चाहिये। यही आत्मिक उन्नति और आत्म-कल्याण का मार्ग है और इसी में लोक-परलोक सुखी और सफल होता है। महापुरुषों के वचन हैं किः-
धरमु भूमि सतु बीजु करि ऐसी किरस कमावहु।
तां वापारी जाणीअहु लाहा लै जावहु।।
गुरुवाणी
सत्पुरुष श्री गुरु नानकदेव जी महाराज फरमाते हैं कि धर्म को पृथ्वी बनाओ और उसमें सत्य आचरण का बीज बोओ। बस! ऐसी आत्मिक जीवन को विकसित करने वाली खेती-बाड़ी करो। यदि तुम ऐसी करनी करके आत्मिक जीवन का लाभ प्राप्त करके ले जाओगे तो प्रभु के दरबार में चतुर व्यापारी समझे जाओगे और तुम्हारी वहाँ शोभा होगी और मुख उज्जवल होगा। इसलिए शास्त्रकारों का उपदेश है किः-
                         धर्म  एव   हतो  हन्ति   धर्मो  रक्षति  रक्षितः ।
तस्माद धर्मोन हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
(मनुस्मृति 8/15)
भावार्थः- धर्म को यदि मार दिया जाए अर्थात् उसकी उपेक्षा कर दी जाए तो वह हमें भी नष्ट कर देता है। यदि धर्म की रक्षा करें अर्थात् उसका पालन करें तो वह भी हमारी रक्षा करता है। इसलिए धर्म को कभी न मारो अर्थात् उसको कभी न छोड़ो, क्योंकि ऐसा न हो कि मारा हुआ धर्म (अर्थात् उपेक्षित धर्म कहीं हमारा नाश कर दे। इसलिए मनुष्य को सदैव धर्म का पालन करना चाहिये और धर्म पथ पर दृढ़ रहना चाहिये। इसी में उसका कल्याण है।

सच्चा धन



किसी नगर में एक ब्रााहृण रहता था, जो अति गरीब और कंगाल था। उसके परिवार में और कोई नहीं था। उसके माता-पिता उसके बचपन में ही उसे अनाथ छोड़कर मर चुके थे। जायदाद या विरासत के नाम पर उन्होने सिवाये एक मामूली से झोंपड़े के और कुछ नहीं छोड़ा था। दूर तथा निकट के सम्बन्धियों तक में भी कोई और सहारा देनेवाला नहीं था। ऐसी दशा में बेचारा रोटियों का मुहताज़ बनकर दर-दर की ठोकरें खाने के सिवाये और कर ही क्या सकता था? ज्यों-त्यों भीख माँगकर गुज़ारा चलाने लगा। कभी किसी ने कुछ दे दिया, तो पेट भर लिया,अन्यथा उपवास होता। इस प्रकार वह ब्रााहृण-कुमार युवावस्था को पहुँचा। मामूली सी शास्त्रों की विद्या भी उसने किसी दयालु पण्डित की कृपा से प्राप्त कर ली थी। विवाह का प्रश्न उसके लिये असम्भव से कम नहीं था। जब पास में फूटी कौड़ी ही नहीं थी, तो विवाह कहां से करता? लेकिन अब चूँकि वह काफी समझदार हो चुका था, वह इस बात को अच्छी तरह समझने लगा था कि धन के बिना इस दुनियाँ में कुछ नहीं हो सकता। चुनांचे अब वह धन प्राप्त करने के लिये कोई उपाय सोचने में लगा रहता।
     उसने अपने पण्डित से धर्मःशास्त्र में पढ़ा था कि देवता लोग अपनी पूजा करने वालों की सब मनोकामनायें पूर्ण कर देते हैं। उसे कई देवताओं की पूजा की विधि और उनके रिझाने के मन्त्र खूब याद थे, जो उसने उन्हीं पण्डित जी से सीखे थे। उसने दिल में सोचा कि क्यों न मैं विधि अनुसार देवताओं की पूजा करके उनसे धन प्राप्ति का वरदान पा लूँ। इस विचार को मन में दृढ़ करके उसने देवताओं की पूजा करना और उनके लिये कई प्रकार के व्रत रखना आरम्भ कर दिये। लेकिन आदमी धैर्यहीन था। कुछ दिनों तक वह किसी एक देवता की विधि अनुसार पूजा करता, मगर जब देखता कि बहुत दिनों तक पूजा करने पर भी न तो देवता के दर्शन हुये और न ही कोई वरदान मिला, तो वह उसे छोड़कर दूसरे देवता की पूजा करनें में लग जाता। इस प्रकार उसने अनेक देवताओं की कई कई बार पूजा की। परन्तु उससे लाभ कुछ भी न हुआ।
     जब उस ब्रााहृण को देवताओं की पूजा करते बहुत दिन बीत गये, किन्तु उसका मनोरथ पूर्ण न हो सका, तो उसे देवताओं की तरफ से कुछ सहायता मिल सकने में निराशा होने लगी। लेकिन उसका धन दौलत को पाने का ख्याल ज़बरदस्त था। क्योंकि उसका ऐसा विश्वास था कि धन ही संसार में सब प्रकार के सुखों का मूल कारण है तथा वह केवल सुखी होने की इच्छा से ही धन की कामना करता था। वैसे भी आमतौर पर दुनियाँ में यही ख्याल ज़्यादा पाया जाता है तथा लोग अधिकतर दौलत को ही सुख और खुशी का ख़ज़ाना मानते हैं। एवं यह कहते सुने जाते हैं कि "भाई! धन के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। मनुष्य के पास यदि धन न हो, तो उसे कोई पूछता तक नहीं। खाने-पीने, रहने-सहने और दुनियाँ में अच्छा दर्ज़ा हासिल करने के लिये बस धन ही एक ज़रिया है। धनहीन का जीवन नीरस होता है-इत्यादि इत्यादि। लेकिन यही ख्याल हर हालत में ठीक नहीं है। माना कि पैसे का अपना एक महत्त्व है और इसी कारण उसकी विशेषता है तथा जीवन-निर्वाह के हेतु उसकी आवश्यकता भी है। लेकिन यह ख्याल तो कतई गलत है कि पैसा ही परमेश्वर और परमात्मा है अथवा पैसे पर ही मनुष्य के भाग्य का बनना निर्भर करता है। धन के लोभ को तो सन्तों ने पाप का भी बाप बतलाया है। क्योंकि धन के लोभ में पड़कर ही बहुधा मनुष्य गुमराही और बुराई के शिकार होते हैं तथा बुराई के जाल में फँसकर नरकों के अधिकारी बनते हैं। धन तो वह सफल है जो भलाई, उपकार और परमार्थ के मार्ग में काम आवे तथा  जिससे जीव का कल्याण भी होवे। यदि ऐसी सूरत है, तब तो धन बेशक सार्थक है। अन्यथा दूसरी सूरत में तो आमतौर पर लोग धन के अभिमान में पड़कर गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं और अपना पराया नुकसान कर बैठते हैं। ऐसी हालतों से बचना चाहिये।
     ब्रााहृण के ह्मदय में धन और ऐश्वर्य को पाकर सुखी बनने की अभिलाषा प्रबल थी। उसने सोचा कि मेरा इतने देवताओं की पूजा करना यों ही गया और मेरा मनोरथ सिद्ध नहीं हुआ, तो इसका कोई कारण अवश्य होना चाहिये। सोचते-सोचते उसे ख्याल आया कि अब मैं इन सबको छोड़कर उस देवता की पूजा करुँ, जिसका आराधन आज तक किसी भी मनुष्य ने न किया हो। ऐसा करने से आशा पूरी होने की सम्भावना है। इस ख्याल के आते ही वह विचारने लगा कि ऐसा कौन सा देवता है, जिसकी पूजा आज तक किसी ने न की हो। ब्रााहृण इन्हीं विचारों में खोया हुआ था कि उसे आकाश में कुण्डधार नामक मेघों के देवता का साक्षात् दर्शन हुआ। दर्शन पाकर उसे ख्याल आया कि इनकी पूजा, उपासना और आराधना आज तक  किसी भी मनुष्य ने नहीं की होगी। बस, मैं आज से इन्हीं की ही उपासना क्यों न करुँ। ये अवश्य ही मुझ पर प्रसन्न होकर धन बख्शेंगे। उस दिन से उस ब्रााहृण ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति-पूर्वक कुण्डधार की उपासना आरम्भ कर दी।
     ब्रााहृण की अनन्य निष्ठा और श्रद्धापूर्वक पूजा से कुछ समय बाद कुण्डधार उस पर प्रसन्न हुये। उन्होंने ब्रााहृण से उसकी इच्छा के बारे में पूछा, तो ब्रााहृण ने बतलाया कि वह सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अभिलाषी है, परन्तु धनहीन और दरिद्र होने से वह अपने जीवन को सुखी नहीं बना सकता। धन के बिना उसे हर तरफ दुःख ही दुःख मिलता है, इसलिये वह धन और ऐश्वर्य चाहता है, जिससे कि उसका जीवन भी सुखरुप बन सके।
     कुण्डधार मेघों के देवता हैं। उनका अधिकार केवल मेघों पर ही है। वे यदि किसी को देना भी चाहें, तो जल के सिवाये और कुछ भी नहीं दे सकते। ब्रााहृण की इच्छा को जानकर उन्होंने उसके लिये दूसरे ऐश्वर्यवान देवताओं की स्तुति की। देवताओं ने कुण्डधार की स्तुति पर ध्यान देकर अपने एक शक्तिशाली दूत को जिसका नाम मणिभद्र था तथा जो यक्ष जाती का था, कुण्डधार के पास भेजा कि वे जो कुछ चाहें, उसे पूरा कर दो। देवताओं की प्रेरणा से मणिभद्र कुण्डधार के निकट पहुँचे और पूछा,""आप क्या चाहते हैं?''
     कुण्डधार ने उत्तर दिया,""यक्षराज! मुझे अपने लिये तो कुछ भी नहीं चाहिये। लेकिन हाँ! इस ब्रााहृण ने बड़ी श्रद्धा-सहित मेरी पूजा और उपासना की है। यदि देवता लोग मुझपर प्रसन्न हुये हैं तो उनसे कहो कि वे इस ब्रााहृण की मनोकामना पूर्ण कर दें।''
    मणिभद्र यक्ष बोले,""आपका यह भक्त ब्रााहृण तो धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये ही इतनी तपस्या और आराधना कर रहा है। यदि इसे धन की ही कामना है, तो मिल सकता है। आप इससे पूछें कि इसे कितना धन चाहिये। यह जितना भी माँगेगा, मैं इसे अवश्य दूँगा।''
     कुण्डधार बोले,""किन्तु यक्षराज! यह धन और ऐश्वर्य के दुर्गुणों को नहीं जानता। यह अज्ञान का मारा है। यह केवल सुख चाहता है। लेकिन गलती से ऐसा विश्वास रखता है कि सुख की प्राप्ति केवल धन और ऐश्वर्य के मिल जाने से ही हो सकती है। इसी मिथ्या भ्रम में पड़कर ही यह धन की कामना को दिल में बसाये हुये है। परन्तु मैं इसके लिये धन की प्रार्थना नहीं करुँगा। क्योंकि विचारवान का यह धर्म है कि वह जान-बूझकर अनर्थ न होने दे। मैं भली प्रकार जानता हूँ कि धन-ऐश्वर्य को पाकर यह अज्ञान और मोह के कारण अभिमानी बन जायेगा तथा पाप-कर्म में इसकी प्रवृति होगी। ऐसा करना तो भारी अनर्थ का मूल होगा। इस भक्त ने श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना की है, तो मैं इसे ऐसा कोई वरदान नहीं दूँगा, जिसके कारण यह नरकगामी होकर जन्मों तक दुःखी होता फिरे। यह सुख का अभिलाषी है। इसलिये मेरा यही कत्र्तव्य है कि इसे सच्चे सुख के मार्ग पर डाल दूँ। यह धन ही चाहता है, तो झूठे मायावी धन के बदले क्यों न इसे सत्-धन की प्राप्ति करा दूँ। चुनाँचे ऐ यक्षराज! मैं यही चाहूँगा कि देवताओं की कृपा से इसके मन पर पड़े हुये मोह-ममता और अज्ञान के परदे हट जावें, संसार की मिथ्या आसक्ति इसके चित्त से दूर होवे, इसके ह्मदय में सत्-असत् का विवेक उत्पन्न हो, धर्म और सच्चाई में इसकी बुद्धि प्रवृत्त हो, जिससे कि यह सच्चे सुख को प्राप्त करे।''
     मणिभद्र ने कुण्डधार की ये ज्ञानभरी बातें सुनीं, तो वे अति प्रसन्न हुये और बोले, ""कुण्डधार! आप सच्चे उपकारी हैं। आपने अपने भक्त की भलाई की कामना की है। यह सच्ची दया है, जो बड़ों को छोटों पर और विचारवानों को अज्ञानियों पर हमेशा करनी चाहिये। आप धन्य हैं। आपकी इच्छा पूर्ण होगी। आज से आपकी इच्छानुसार इस ब्रााहृण की बुद्धि धर्म-सच्चाई और भक्ति में प्रवृत्त होगी। हमारे आशीर्वाद से इसके मन में संसार के मिथ्या पदार्थों से सच्चा वैराग्य उत्पन्न होगा, तथा यह आपका भक्त सांसारिक सुखों का लोभी न रहकर सच्चा धर्मपरायण और भक्तिवान होगा।'' इतना कहकर मणिभद्र अन्तर्धान हो गया।
     इधर तो यह सब हो रहा था और उधर उस ब्रााहृण भक्त की दशा कुछ और थी। वह अभी तक उसी प्रकार श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक मेघों के देवता कुण्डधार की पूजा-उपासना और आराधना में लगा हुआ था। इसके साथ ही वह लगातार काफी समय से प्रतीक्षा कर रहा था कि कब उसके आराध्य कुण्डधार उस पर प्रसन्न हों और उसका मनोरथ पूर्ण होवे। वह हर समय यही सोचा करता कि कब उसके घर में दौलत का मेंह बरसे और ऐश्वर्य का समुद्र चारों तरफ से उमंड़कर उसे अपने घेरे में ले ले। लेकिन जब अति दीर्घ-काल तक कुण्डधार की पूजा-उपासना से भी उसे कुछ फल निकलता मालूम न हुआ, तो वह कुछ कुछ निराश अवश्य हो चला था। क्योंकि पहले भी वह काफी समय तक अनेक देवताओं की उपासना कर चुका था, जिसका कुछ भी वांछित फल नहीं निकला था। यहाँ भी वही निराशा उसके आड़े आ रही थी। फिर भी वह उसी प्रकार कुण्डधारी की उपासना और पूजा में लगा रहा। अर्थात् अब उसकी हालत कुछ डगमग सी थी। वह कुण्डधार की पूजा-आराधना भी करता था, मगर साथ ही निराशा उसके मन पर न चाहते हुए भी छाई जा रही थी।
     ऐसी अवस्था में ब्रााहृण का समय बीत रहा था। जिस समय यक्षराज मणिभद्र मेघों के देवता कुण्डधार को उनका वांछित वरदान देकर अन्तर्धान हुये। उसी समय ब्रााहृण ने सोते हुये स्वप्न देखा कि उसके चारों तरफ कफन पड़ा हुआ है-वह मर चुका है तथा उसकी अर्थी निकाली जा रही है। जागने पर जब ब्रााहृण को इस स्वप्न की याद आई, तो उसके चित्त में वैराग्य का अंकुर फूट निकला। उसने सोचा,""अब मेरी आयु समाप्त होने वाली है। मैने अपना सारा जीवन योंही गँवा दिया। मैने सुख-प्राप्ति की इच्छा से धन-ऐश्वर्य की कामना की, तथा इस कामना के वशीभूत होकर मैंने देवताओं की पूजा-उपासना करने में अपने जीवन का  मूल्यवान समय नष्ट कर दिया। मगर देवताओं में से किसी ने भी मुझ पर दया नहीं की। अन्त में थककर मैने कुण्डधार मेघ-देवता की आराधना में इतना समय बिता दिया, परन्तु उन्होंने भी मेरी दशा पर तरस न खाया। हाय! मैं भी कितना अज्ञान के चक्र में पड़ा रहा हूँ। धन और ऐश्वर्य की कामना में ही मैंने सारी आयु अकारथ खो दी तथा अपना परलोक सुधारने की मैने कुछ भी चिन्ता नहीं की। अब भी समय है यदि मैं इन व्यर्थ की चिन्ताओं का त्याग करके अपना परलोक सुधारने के यत्न में लग जाऊँ, तो कल्याण हो सकता है।''
     इनसान आखिर इनसान ही तो है, जिसे गलती और भूल का पुतला कहा जाता है। यदि वह भूल-भ्रम का शिकार होकर गलत रास्ते पर पड़ जाता है, यदि वह अज्ञान के फंदे में फँसकर सत् और असत् का विवेक खो बैठता है तथा यदि वह संसार की मोहिनी माया के धोखे में आकर उसे सुख-रुप मानता हुआ उसकी कामना करता है, तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। अज्ञान, मोह-ममता और भ्रम का तो काम ही  यही है कि वे संसारी जीवों को सत्मार्ग से भटकाकर असत मार्ग में प्रवृत्त कर दें, तथा यह भी यथार्थ है कि आमतौर पर दुनियाँ मोह अज्ञान और भ्रम के फंदे में आकर असलियत को भूल जाती है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि इनसान हमेशा अज्ञानता और मोह का शिकार बना रहेगा और उसका सुधार नहीं हो सकता। भूल का सुधार हो सकता है और अवश्य हो सकता है। इनसान ज़रा सा विवेक और बुद्धि से काम ले एवं सत्पुरुषों के उपदेशों पर ध्यान धरे, संसार और संसार के दृष्टमान पदार्थों की असलियत पर कुछ विचार करे, तो निश्चय ही इस भारी भूल का सुधार हो सकता है। जब भी इनसान सन्तों के उपदेश द्वारा जागकर अपनी भलाई-बुराई और नफा-नुकसान का विचार करे, तभी उसकी बिगड़ी दशा सँवर सकती है।
जब चेतै जब ही भला, मोह नींद सूँ जाग।
सन्तन की संगति मिलै, सहजो ऊँचे भाग।।
     ब्रााहृण ने भी अपना सारा जीवन धन और ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये अनथक  परिश्रम करने में बिता दिया, किन्तु फल कुछ भी न निकला। कारण यह कि वह गलत मार्ग पर पड़ गया था। उसने सांसारिक माया को ही सब कुछ मान लिया था। भ्रम का परदा उसके मन पर इतना गहरा छा गया था कि उसे असलियत नज़र ही नहीं आती थी। उसके आराध्य देवता ने देखा कि भक्त गलत रास्ते पर चलने लगा है। उन्हें उसकी इस हालत पर दया आ गई। उन्होने उसकी बुद्धि का काँटा ही बदल दिया। दूसरी कृपा उस ब्रााहृण पर एक महापुरुष की हुई। ब्रााहृण ने काफी समय तक शुभ-कर्म का अभ्यास किया था। उसके द्वारा की गई पूजा उपासना और आराधना का फल नष्ट तो हो ही नहीं सकता था। उसके शुभ कर्मों का फल उसे यह मिला कि एक पूर्ण सन्त जोकि रुहानियत की सभी मन्ज़िलों को पार कर चुके थे, दैवयोग से रमते-रमाते उधर आ निकले, जहाँ यह ब्रााहृण कुण्डधार देवता की आराधना में लगा हुआ था। इधर ब्रााहृण के मन में स्वप्न में देखे हुये दृश्य के कारण वैराग्य उत्पन्न हो चला था। ऐसी अवस्था में जब उसने एक तेजःस्वरुप सन्त का दर्शन पाया, तो वह उसके पवित्र चरणों में गिर पड़ा। सन्तों ने उसकी कुशल पूछी, तो ब्रााहृण ने सारा किस्सा ज्यों का त्यों कह सुनाया, तथा अन्त में यह भी कहा कि अब उसका मन सांसारिक सुखों और धन-ऐश्वर्य आदि की कामनाओं से उपराम हो चला है एवं अब वह परलोक-सुधार का मार्ग जानने का अभिलाषी है। सन्तों ने उसकी यह अवस्था देखी, तो बोले,"'भोले ब्रााहृण! तुम गलत रास्ते पर पड़ गये थे। धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति से ही इनसान को सच्चा सुख नहीं मिलता। यह तो महज़ माया का फ़रेब और धोखा है। जिसने तुम्हें असलियत से भुला दिया था। सच्चा सुख तो मालिक के अनुराग में है, जैसा कि सन्तों का कथन हैः-
तब लग  कुशल न जीव कहँ , सपनेहूँ मन बिरुााम।
जब लग भजत न राम कहँ, शोक धाम तजि काम।।
     अर्थात् जब तक कि मनुष्य सभी खाहिशों और कामनाओं को, जोकि शोक का घर हैं त्यागकर मालिक के भजन में नहीं लग जाता, तब तक उसके लिये किसी प्रकार की कुशल नहीं है तथा उसे स्वप्न में भी सुख और विश्राम की प्राप्ति नहीं हो सकती।
     ""ब्रााहृण! तुम्हारे भाग्य अच्छे हैं कि तुम समय पर ही चेत गये। तुम्हारे आराध्य-देवता ने तुम पर दया की। आम दुनियावी नज़र से यह अगरचे दया नहीं। आम दुनियां के ख़्याल से तो देवता की दया तुम पर यह होती कि वे तुम्हें अपार धन और ऐश्वर्य बख्श देते। मगर परमार्थ की दृष्टि से यह तुम पर दया नहीं, बल्कि अन्याय होता। क्योंकि धन और ऐश्वर्य को पाकर तुम सत्मार्ग से भटक जाते और पाप में प्रवृत्त हो जाते। लेकिन सच्ची दया यह है कि किसी भूले प्राणी को सतमार्ग पर लाया जाये। इसीलिये हमारा कहना है कि तुम्हारे उत्तम भाग्य हैं, जो समय पर ही चेत गये। यद्यपि इस बात का खेद भी है कि तुमने अपनी आयु का इतना बड़ा भाग गलत ख्वाहिशों में लगे हुये गुज़ार दिया। मगर अब भी कुछ नहीं बिगड़ा। अब भी जीवन के इस बचे हुये समय में मालिक का भजन दिल लगाकर करो, तो सुधार हो सकता है।
सन्तों ने कहा हैः-
चूँ पंजाह सालत बिरुँ शुद ज़ि-दस्त।
ग़नीमत  शुमार पंजरुज़ा कि हस्त।।
(शेख सादी साहिब)
अर्थः-यदि जीवन के पच्चास वर्ष योंही हाथों से निकल गये हैं अर्थात् उन पच्चास वर्षों में रुहानी कमाई और मालिक के भजन से ग़ाफिल बने रहे, तो भी अब उनके लिये अफसोस मत करो। अफसोस करने से अब हासिल भी क्या होता है? लेकिन अब भी जो जीवन के पाँच ही दिन चाहे शेष रहे हों, इन्हीं को दुर्लभ जानो। और इन्हीं पाँच दिनों में भी यदि सच्चे दिल से मालिक का भजन करो, तो काम बना बनाया है।
     इतना प्रवचन कहकर सन्तों ने ब्रााहृण को सच्चे नाम का उपदेश दिया और वहाँ से चल दिये। सच्चे नाम का उपदेश पाकर ब्रााहृण कृत्कृत्य हो गया। अब वह अन्य सभी ख़्यालों को एक तरफ रखकर जी-जान से नाम की कमाई में लग गया। थोड़े समय तक ही लगकर नाम का अभ्यास करने से ब्रााहृण को सिद्धि-शक्ति प्राप्त हो गई। अब तक उसके ख़्यालों का रुख कतई पलट चुका था। अब उसने देखा कि मुझमें इतनी बड़ी शक्ति आ गई है कि जिस धन और ऐश्वर्य के लिये मैं इतना बेचैन और व्याकुल रहा करता था, वही मैं स्वयं अब दूसरों को बख्श सकता हूँ। अपनी सिद्धि-शक्ति के बल से मैं जिसे भी आशीर्वाद दे दूँ, उसी के घर में दौलत का मेंह बरसने लगे। जब उस ब्रााहृण ने ऐसी हालत को अपने में पैदा हुआ हुआ पाया, तो वह अपने किये पर पछताने लगा। वह मन में कहता-काश! मुझे मालूम होता कि मालिक के भजन में इतनी बड़ी शक्ति है कि सांसारिक माया उसकी दासी है, तो मैं धन और ऐश्वर्य को पाने के चक्कर में अपने जीवन का अमूल्य समय यों व्यर्थ न गँवाता। अब ही जाकर मुझे मालूम हुआ है कि मैं असलियत से किस कदर भूला हुआ था। ऐसा विचार कर वह ब्रााहृण अपने को धन्यभाग मानता हुआ उसी प्रकार मन लगाकर नाम-भजन में लगा रहा। धीरे-धीरे उसकी सुरति नाम में ऐसी लगी कि वह उसमें पूरी तरह लीन होकर पूर्णपद को जा प्राप्त हुआ।
     तब एक दिन मेघों के देवता कुण्डधार उस परमपद को प्राप्त हो चुके ब्रााहृण के दर्शन को आये। ब्रााहृण ने उनका विधिपूर्वक आदर सत्कार किया और उनके बैठने योग्य आसन देकर उनकी कुशल पूछी। तब उत्तर में कुण्डधार बोले,""महात्मन्! आप धन्य हैं कि मालिक के नाम का अभ्यास करके मालिक के रुप में समा गये हैं। संसारी जीव तो आमतौर पर धन और ऐश्वर्र्य को ही सुख के साधन मानकर दिनरात उन्हीं की प्राप्ति के लिये यत्न में लगे रहते हैं। लेकिन यह सासंारिक माया तो हरगिज़ किसी की नहीं बन सकती। यदि मैं उस समय आपको धन और ऐश्वर्य से मालामाल कर देता, तो यह कौन सी दया होती? सच्ची दया तो यह थी कि मैने आपकी बुद्धि को बदल देने की प्रार्थना की, ताकि आप सत्-असत् का विवेक करके सत्मार्ग को ग्रहण करें और असत् को ह्मदय से त्याग दें। उसके साथ ही आप पर सबसे बड़ी दया उन महापुरुष की हुई, जिन्होंने आपको सच्चे नाम में मन लगाने का उपदेश दिया। मैं तो केवल उसमें निमित्त मात्र था। अब तो आप स्वयं ही पूर्णपद को प्राप्त करके सच्चे सुख और सच्चे आनन्द के भण्डार बन चुके हैं। आपके चरणों में मेरा बारम्बार प्रणाम है।''
     इतना कहकर कुण्डधार अन्तर्धान हो गये।