Wednesday, January 6, 2016

भूमिया चोर



सन्त महापुरुषों का इस संसार में अवतरण केवल परोपकार के लिए ही होता है। वे करुणा करके जीव के ह्मदय से अज्ञान का अन्धकार दूर कर उसमें ज्ञान का प्रकाश भरते हैं, उसे सही मार्ग पर लगाते हैं और जीव के अन्दर विद्यमान सभी अघ-अवगुण दूर कर उसमें भक्ति, प्रेम, विनम्रता, दीनता, सन्तोष, श्रद्धा, विश्वास सत्य आदि शुभ गुणों के पुष्प विकसित करते हैं और इस प्रकार उसकी जीवन रुपी वाटिका को संवारते और निखारते हैं और उसे सुन्दर रुप प्रदान करते हैं। फलस्वरुप मनुष्य का यह जीवन भी संवर जाता है और परलोक भी सुहेला हो जाता है।
    एक बार सत्पुरुष श्री गुरुनानकदेव जी महाराज भ्रमण करते हुए और जीवो को सत्पथ पर लगाते हुए एक गांव की ओर जा निकले। भाई बाला और मरदाना भी उनके साथ थे। उस गांव में एक ज़मींदार रहता था, जिसका नाम था-भूमिया। उन दिनों आजकल की तरह यातायात के साधन उपलब्ध नहीं थे। लोग पैदल अथवा बैलगाड़ियों आदि पर ही प्रायः एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाया करते थे। भूमिये ज़मींदार का काम था-दिन में यात्रियों को लूटना और रात के समय अन्य गांवों में चोरियाँ करना। उसने अपने गांव के सभी लोगों को कह रखा था कि यदि कोई साधु-सन्त इधर आवे तो उसे यहां गांव में कोई भी मत ठहराये। यदि कोई साधु-सन्त को अपने घर ठहरायेगा तो उसका घर-बार लूट लिया जायेगा। यदि कोई आ ही जाये तो उसे मेरे घर भेज दो।
     श्री गुरुनानकदेव जी जीवों का उद्धार करते हुए उस गांव में पहुँचे और एक मकान के बाहर चबूतरे पर जा विराजमान हुए। उस घर के मालिक और अड़ोसियों-पड़ोसियों ने जब देखा कि एक महापुरुष विराजमान हैं तो वे इकट्ठे होकर आये, श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के चरणों में शीश निवाया और हाथ जोड़कर विनती की-गरीबनिवाज़! आप यहाँ न बैठें, ज़मींदार के घर चले जायें। श्री गुरुनानकदेव जी महाराज ने उनके सहमे हुए चेहरे देखकर कहा-आप लोग इतने भयभीत क्यों है? हम तो साधु-सन्त हैं, कोई चोर-लुटेरे तो नहीं हैं।
     तब उस घर के मालिक ने हाथ जोड़कर विनती की-गरीब निवाज़! इस गांव के ज़मीदार का हम लोगों को ऐसा ही आदेश है कि किसी साधु-सन्त को अपने घर मत ठहराना, नहीं तो घर-बार लूटकर गांव से भगा दूँगा। यदि कोई साधु-सन्त आ जाये तो उसे मेरे घर भेज देना। अन्तर्यामी गुरुमहाराज जी सुनकर मुसकराये और भूमिया ज़मींदार के घर जा पहुँचे। भूमिये को जब पता चला, तो उसने आकर श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के चरणों में प्रणाम किया। गुरु महाराज जी ने फरमाया-परमेश्वर तेरा भला करे।
    भूमिये ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-गरीब निवाज़! भोजन तैयार है। आइये भोजन कर लीजिए। श्री गुरुनानकदेव जी महाराज ने फरमाया-भाई! तुम काम-धन्धा क्या करते हो? श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के दर्शन करके भूमिये की बुद्धि पलट गई। अतएव उसने सब सच-सच कह दिया कि मैं अपने साथियों के साथ दिन में इक्का-दुक्का यात्रियों को लूटता हूँ और रात को चोरी करता हूँ। तब श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-भाई! हम तुम्हारे घर का भोजन नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारी कमाई अधर्म और पाप की है। यह सुनकर भूमिया श्री गुरु नानकदेव जी महाराज के चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला-सच्चे पादशाह! यदि आप भोजन नहीं करेंगे तो मेरा कल्याण कैसे होगा? गुरु महाराज जी ने फरमाया-तुम यह धन्धा छोड़ दो।
     भूमिया बोला-और जो कुछ भी आप आज्ञा करें, मैं मानने के लिए तैयार हूँ, परन्तु यह काम छूटना मुश्किल है। श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया- तो फिर तुम हमारे तीन वचन मान लो, तब हम तुम्हारे घर भोजन करेंगे। भूमिये ने हाथ जोड़कर पुनः निवेदन किया-इस धन्धे को छोड़ने के अलावा आप जो कुछ भी आदेश करेंगे, मैं पालन करुँगा। श्री गुरुनानकदेव जी ने फरमाया-तो हमारी तीन बातों पर आज से अमल करना-
1. सदा सच बोलना-कभी भी झूठ न बोलना।
2. जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत करना।
3. किसी गरीब को न ही लूटना,न सताना, न ही उसके यहाँ चोरी करना।
     भूमिये ज़मींदार ने श्री गुरुमहाराज जी के चरणों में मस्तक निवाया और विनय की-मैं आपके इन तीनों वचनों का पालन करुँगा। गुरुदेव ने फरमाया, यदि इन तीनों वचनों का पालन करोगे, तो तुम्हारे सभी पिछले पापकर्म बख्शे जायेंगे। तत्पश्चात् श्री गुरु महाराज जी ने उसके घर भोजन किया और जीवों को मोह-निद्रा से जगाने और उनका कल्याण करने के लिए आगे चल पड़े।
     चूँकि भूमिये ज़मींदार को लूटमार और चोरी की आदत बचपन से ही थी, अतः दूसरे दिन ही वह चोरी करने के लिए तैयार हो गया। परन्तु उसे श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के वचन याद आ गये। सोचने लगा कि किसी गरीब के घर तो चोरी करनी नहीं है, इसलिए चलो आज राजा के यहां ही हाथ मारते हैं। यह सोचकर उसने कीमती वस्त्र पहने, शरीर पर राजाओं जैसे आभूषण धारण किये, सिर पर पगड़ी बाँधी और फिर घोड़े पर सवार होकर राजमहल की ओर चल पड़ा। देखने पर वह राजघराने का ही कोई व्यक्ति मालूम पड़ता था। रात्रि के तीन पहर बीतने के पश्चात् वह महल के मुख्य द्वार पर जा पहुंचा। द्वार पर पहुँचकर उसने घोड़ा खड़ा किया और आप नीचे उतर आया। उसे देखकर पहरेदार सावधान हो गये और पूछा-आप कौन हैं? भूमिये ने झूठ तो बोलना नहीं था, क्योंकि इसके लिये वह गुरुदेव को वचन दे चुका था, इसलिए उसने निधड़क होकर कहा-भाई! मैं चोर हूँ और महल में चोरी करने के लिए जा रहा हूँ।
     पहरेदारों ने सोचा-कोई चोर भी भला इस तरह अपना परिचय देता और मुख्य द्वार से महल में प्रविष्ट होने का प्रयत्न करता है और वह भी रात्रि के चौथे पहर में। अवश्य ही यह राजा का कोई सम्बन्धी होगा, क्योंंकि इसने मुल्यवान वस्त्र और आभूषण पहन रखे हैं। यह सोचकर उन्होने कहा-हम गरीबों के साथ क्यों मज़ाक करते हैं? आप अवश्य ही राजा के कोई रिश्तेेदार हैं।
     यह कहते हुए पहरेदारों ने द्वार खोल दिया। भूमिया अन्दर चला गया। अन्दर चारों तरफ सन्नाटा था और सब गहरी नींद में थे। एक कमरे से दूसरे कमरे में होता हुआ वह उस कमरे में जा पहुँचा जहाँ राजा सोया हुआ था। भूमिया ने राजा का कीमती हार, अंगूठियां तथा अन्य आभूषण, रानी के गले का हार और अंगूठियां आदि तथा इसके अतिरिक्त अन्य हीरे-जवाहर जो एक अलमारी में रखे हुए थे, इकट्ठे किये और एक कपड़े में बाँध लिए। तभी उसकी दृष्टि मेज़ पर रखी हुई एक सोने की डिबिया पर पड़ी। उसने वह डिबिया उठाई, उसका ढक्कन खोला और अन्दर अंगुलियां डालकर देखा। उसमें कोई बारीक पिसी हुई चीज़ थी। वास्तव में वह चूर्ण था जो राजा भोजन के बाद खाया करता था। भूमिये ने सहज स्वभाव चखकर देखा तो उसमें नमक का स्वाद पाया। उसे तुरन्त श्री गुरुनानकदेव जी महाराज के वचन याद हो आए कि जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत करना। उसने वह गठरी वहीं छोड़ दी और खाली हाथ वापस चला आया। सुबह हुई, राजा की आँख खुली तो क्या देखता है कि कमरे में एक गठरी पड़ी है। राजा के आदेश से नौकरों ने जब गठरी खोली तो उसमें राजा और रानी के आभूषण तथा हीरे-जवाहरात आदि थे। महल में शोर मच गया, परन्तु राजा यह जानकर बड़ा हैरान हुआ कि महल से कोई चीज़ चोरी नहीं हुई। उसने पहरेदारों को बुलाकर पूछा, तो मुख्य द्वार के पहरेदारों ने रात वाली घटना ज्यों की त्यों वर्णन कर दी। सुनकर राजा और भी अधिक हैरान हुआ कि यह कैसा चोर है। राजा के आदेश से सैनिकों ने बहुत खोज की, परन्तु चोर के बारे में कुछ भी पता न चला। तब राजा ने राज्य में घोषणा करवा दी कि चोर राज दरबार में उपस्थित हो, उसके साहस और सच्चाई को देखते हुए उसे आधा राज्य दे दिया जायेगा।
     यह घोषणा सुनकर भूमिया हैरान हुआ, परन्तु यह सोचकर कि मुझको पकड़ने का यह कहीं जाल न हो, वह दरबार में न गया। तब राजा के आदेश से सैनिकों ने सन्देह में अनेकों ही लोगों को बंदी बना लिया और उनसे पूछताछ शुरु की गई। जब भूमिये को इस बात का पता चला कि मेरे कारण अनेकों गरीब लोग सैनिकों द्वारा पकड़े जा रहे हैं तो वह सोचने लगा कि यह तो ठीक नहीं है। वह राजदरबार में जा पहुँचा और राजा से बोला-राजन्! इन सबको छोड़ दीजिए, आपका चोर मैं हूँ।
     राजा ने पूछा-इस बात का क्या प्रमाण है कि तुम्हीं असली चोर हो। भूमिये ने उस रात की सारी घटना ज्यों की त्यों वर्णन कर दी। राजा ने अन्य सभी को छोड़ने का आदेश दिया, फिर भूमिये से पूछा-तुम चोरी करने की नियत से राजमहल में आए थे, फिर खाली हाथ यहाँ से क्यों चले गए? भूमिये ने श्री गुरु नानकदेव जी महाराज के उसके घर कृपा करने और उनके द्वारा फरमाए गए तीन वचनों के विषय में बतलाते हुए कहा-मैने महापुरुषों से वादा किया था कि उन तीनों वचनों को मानूँगा। उनका एक वचन था कि किसी गरीब के यहाँ न तो चोरी करना, न ही उसे सताना, इसलिए आपके महल में चोरी करने का निश्चय किया, उनका दूसरा वचन था कि सच बोलना, झूठ बिल्कुल मत बोलना, इसलिए आपके पहरेदारों के सामने मैने सच-सच कह दिया कि मैं चोर हूँ। उनका तीसरा वचन था कि जिसका नमक खाना, उसका बुरा मत करना। उस दिन महल में जब मैने चोरी के माल की गठरी बाँध ली तो मेरी दृष्टि मेज़ पर रखी सोने की डिबिया पर गई। मैने वह डिबिया खोली और अन्दर अँगुलियाँ डालीं, तो उसमें कोई चूर्ण था। वह चूर्ण अँगुलियों को लग गया तो मैने अंगुलियाँ मुँह में डाल लीं। उस चूर्ण में नमक था और मैने वह नमक चख लिया था, इसलिए गठरी छोड़कर खाली हाथ वापस चला गया।
     भूमिये की बातें सुनकर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा-धन्य हैं महापुरुष जो जीवों को अपने सदुपदेशों से सन्मार्ग पर लगा रहे हैं और धन्य हो तुम, जिसका महापुरुषों के वचनों पर ऐसा निश्चय हुआ है। आज से मैं तुम्हें अपना मंत्री नियुक्त करता हूँ। अब ऐसा करो कि मुझे भी उन महापुरुषों के दर्शन कराओ। तत्पश्चात् दोनों ही श्री गुरुनानकदेव जी महाराज की शरण में गए, उनके शिष्य बने और भजन-सुमिरण करके अपना लोक-परलोक संवार लिया।
     संसार में ऐसा जीव का सच्चा हितैषी, ऐसा भलाई चाहने वाला, ऐसा उपकारी, जो जीव के मन का काँटा बदल दे, उसे पापकर्मों के मार्ग से हटाकर शुभकर्मों की ओर प्रवृत्त करे, सन्त महापुरुषों के अतिरिक्त अन्य कौन है? ऐसे पर-उपकारी सच्चे हितैषी सन्त महापुरुषों के उपकारों का बदला हम जीव जन्म-जन्मान्तरों तक नहीं चुका सकते।

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