सन्त हरिपुरुष जी-61
सत्संग अर्थात् सन्तों सत्पुरुषों की सुसंगति की महिमा अवर्णनीय है। सभी सद्शास्त्रों एवं सद्ग्रन्थों ने, चाहे वे किसी भी भाषा में हैं, सत्संगति की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। गोस्वामी तुलसीदास जी सत्संगति की महिमा करते हुये फरमाते हैंः-
।।चौपाई।।
सुनि आचरज करै जिन कोई । सत्संगति महिमा नहिं गोई।
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी।।
जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहां जेहि पाई।।
सो जावब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुं बेद न आन उपाऊ।।
बिनु सतसंग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
शठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पास परस कुधात सुहाई ।।
(श्री रामचरितमानस, बालकाण्ड)
अर्थः-सत्संगति की महिमा सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संगति की महिमा किसी से छिपी हुई नहीं है। बाल्मीकि ऋषि जी, नारद जी तथा मुनि अगस्त्य जी ने अपने-अपने मुख से अपनी होनी कही है कि सत्संगति के प्रताप से ही वे इतनी उच्च पदवी प्राप्त करने के अधिकारी हुये हैं। जल में रहने वाले, धरती पर चलने वाले तथा आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने भी जीव इस सृष्टि में हैं, उनमें से जिसने जिस समय जहां कहीं भी जिस किसी यत्न से निर्मल बुद्धि, सुकीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई प्राप्त की है, सो सब सत्संगति का ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई साधन वर्णन नहीं किया गया है। सत्संगति के बिना विवेक अर्थात् सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ, हितकर-अहितकर, लाभ-हानि आदि के ज्ञान) की प्राप्ति नहीं होती और भगवान की कृपा के बिना सत्संगति का प्राप्त होना सहज नहीं। यह सत्संगति आनन्द और कल्याण की मूल है, सत्संगति की प्राप्ति फल है और सब साधन फूल हैं।
आगे सत्संगति का प्रभाव बतलाते हुये फरमाते हैं कि सत्संगति अर्थात् सन्तों सत्पुरुषों की संगति पाकर दुष्ट व्यक्ति भी उसी प्रकार सुधर जाते हैं, जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सुहावना हो जाता है अर्थात् लोहा स्वर्ण में परिवर्तित होकर सुन्दर, मूल्यवान और सबका प्रिय बन जाता है। और सत्संगति का यह प्रभावकारी गुण सन्त हरिपुरुष जी अथवा सन्त हरिदास जी के विषय में पूर्णतः सत्य सिद्ध हो जाता है, क्योंकि सन्तों सत्पुरुषों की संगति प्राप्त होने के पूर्व एक प्रसिद्ध डाकू थे। सन्तों की संगति के प्रताप से इनकी काया पलट हो गई और ये एक लुटेरे और दस्यु से बदलकर उच्चकोटि के सन्त बन गये। इनका जीवनकाल सोलहवीं और सत्तरहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है।
सन्त हरिपुरुष जी का जन्म राजस्थान के डीडवाणा परगना के अन्तर्गत कापडोद नामक ग्राम में क्षत्रिय वंश के एक निर्धन परिवार में हुआ। इनका पहला नाम हरिसिंह था। इनके पिता के पास थोड़ी सी कृषि-योग्य भूमि थी, जिसकी उपज से परिवार का पालन-पोषण अत्यन्त कठिनाई से होता था। पिता तो हर समय खेती-बाड़ी के काम में व्यस्त रहते थे और माता घर के कामकाज में। उन्हें इतना अवकाश ही कहां था कि वे हरिसिंह की देेखभाल की ओर ध्यान देते। परिणाम यह हुआ कि बाल्यकाल से ही हरिसिंह बुरी संगति में पड़ गया और उस संगत का रंग धीरे-धीरे उस पर चढ़ने लगा।
जिस प्रकार शुभ संगति में यह गुण है कि उसकेप्रभाव से मनुष्य भला और नेक बनकर शुभ कार्यों की ओर प्रवृत होता है, उसी प्रकार बुरी संगत में भी यह गुण अथवा अवगुण विद्यमान है कि उसके प्रभाव में आकर मनुष्य बुरे कार्यों की ओर प्रवृत्त हो जाता है और मनुष्यत्व से गिरकर एक बुरा, कुमार्गी और कुकर्मी मनुष्य बन जाता है।
हरिसिंह को बाल्यकाल से ही जो बुरी संगति मिली, तो उसका परिणाम यह हुआ कि यौवनावस्था में पग रखने से पूर्व ही वह जुआ, शराब तथा लूटमार आदि दुव्र्यसनों का शिकार हो गया। युवा होने पर उसका विवाह कर दिया गया। हरिसिंह के माता-पिता चूँकि अब वृद्धावस्था में पदार्पण कर चुके थे, अतः परिवार के पालन-पोषण का सब भार अब हरिसिंह के सिर पर आ पड़ा। बुरी संगति में पड़कर विलासी तो वह बन ही चुका था और लूटमार की आदत भी उसे पड़ चुकी थी, अतः खेती-बाड़ी करके परिवार का पालन-पोषण करने की अपेक्षा उसने दस्यु-वृत्ति अपनाना अधिक उपयुक्त समझा। उसके गांव के निकट ही एक घना वन था, इसलिये उसने उसी वन में अपना ठिकाना बना लिया और अपने गांव के आसपास के क्षेत्र में डाके डालने लगा और उससे जो कुछ भी प्राप्त होता, उससे अपने परिवार का पालन-पोषण करने लगा।
इसी प्रकार कई वर्ष तक वह लूटमार करने का धन्धा करता रहा। किन्तु उसके पूर्वजन्मों के कुछ शुभ कर्म ऐसे थे, जिनके फलीभूत होने का समय अब आ चुका था, क्योंकि जब जीव के पुण्य-कर्म फल देने पर आते हैं तभी जीव को सन्तों सत्पुरुषों का मिलाप होता है। भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज अयोध्यावासियों को उपदेश करते हुये फरमाते हैं किः-
पुण्य पुँज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।
अर्थः-पुण्यपुंज के बिना जीव का सन्तों के साथ मिलाप नहीं होता। सन्तोें सत्पुरुषों की प्राप्ति होने से जीव का जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। एक दिन हरिसिंह गांव की ओर जाने वाली एक सुनसान पगडंडी के किनारे घने पेड़ों में छिपा हुआ इस प्रतीक्षा में घात लगाये बैठा था कि कोई यात्री इधर से निकले और वह उसे डरा-धमका कर उसका सब कुछ लूट ले। काफी प्रतीक्षा के उपरांत उसने दूर से एक व्यक्ति को उसी ओर आते देखा। उसे देखकर वह चौकन्ना होकर बैठ गया। कुछ देर बाद जब वह व्यक्ति निकट आया, तो उसे देखकर हरिसिंह को बड़ी निराशा हुई, क्योंकि वे तो कोई सन्त-महात्मा थे, जिनकी बगल में एक थैली लटकी हुई थी तथा उनके एक हाथ में कमण्डल और दूसरे हाथ में वैरागिन पकड़ी हुई थी। उन्हें देखकर वह ओंठों ही ओंठों में बड़बड़ाने लगा। आज न जाने किस का मुँह देखकर घर से निकला था कि इतनी अधिक प्रतीक्षा के उपरांत इधर से निकले भी तो ये महात्मा। ज्ञात होता है आज कोई शिकार हाथ नहीं लगेगा।
यह सोचकर वह अत्यधिक निराश हो गया। किन्तु दूसरे ही क्षण उसके मन में एक विचार कौंध गया और उसकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं। उसने सुन रखा था कि राजा-महाराजा और धनवान लोग प्रायः साधु-सन्तों की बड़ी आव-भगत किया करते हैं और धन आदि से उनकी खूब सेवा करते हैं। वह मन ही मन विचार करने लगा कि सम्भव है ये महात्मा भी किसी राजा-महाराजा अथवा सेठ-साहूकार के यहां से होकर आ रहे हों। यदि ऐसा हुआ तो आज निश्चय ही तगड़ा माल हाथ लगेगा।
महात्मा जी जैसे ही उस स्थान के निकट पहुंचे, हरिसिंह खड़ग लेकर बाहर निकल आया और महात्मा जी को ललकारते हुये बोला-बाबा! रुक जाओ। हरिसिंह के शब्द सुनकर महात्मा जी ठिठक कर रुक गये और उधर ही देखने लगे, जिधर से आवाज़ आई थी। क्या देखते हैं कि एक ह्मष्ट-पुष्ट व्यक्ति हाथ में खड़ग लिये उन्हीं की ओर आ रहा है। वे समझ गये कि यह कोई लुटेरा है और लूटने के लिये ही हमें रोक रहा है। किन्तु उसे अपनी ओर आते देखकर वे घबराने की बजाय मुस्कराने लगे। हरिसिंह उनके निकट पहुँच कर बोला-बाबा! जो कुछ आपके पास हो, चुपचाप मेरे हवाले कर दो।
महात्मा जी मुस्कराते हुये बोले-अच्छा! तो तुम डाकू हो। किन्तु बेटा! हम साधु हैं, हमारे पास क्या रखा है, जो तुम्हें दे दें। हरिसिंह पर उनकी बातों का कुछ भी प्रभाव न हुआ। वह कड़कते हुये बोला-मेरे साथ आपकी यह चाल नहीं चलेगी। यदि आप अपने आप नहीं देंगे, तो मैं बलपूर्वक सब कुछ ले लूँगा। महात्मा जी अपनी बात दोहराते हुये बोले-बेटा! जब हमारे पास धन-माल है ही नहीं, तो फिर तुम्हें दें क्या? हमारे पास तो केवल वैरागिन, कमण्डल और एक पोथी है। यदि इनमें से कोई वस्तु लेना चाहो, तो ले सकते हो।
हरि सिंह कुछ देर तक तो महात्मा जी को घूरता रहा मानो उनके मनोभावों को पढ़ने की चेष्टा कर रहा हो, फिर कठोर शब्दों में बोला-तो फिर आप मुझे अपने सामान की तलाशी ले लेने दीजिये। महात्मा जी ने हंसते हुये फरमाया-तुम प्रसन्नतापूर्वक हमारी तलाशी ले सकते हो। हरिसिंह ने सबसे पहले उनकी थैली टटोली, परन्तु उसमें सिवा एक पोथी के और कुछ भी न था। उसने यह सोचकर कि माल कदाचित कमण्डल में हो, महात्मा जी के हाथ से कमण्डल ले लिया। जैसे ही उसने कमण्डल में झांका, उसे एक पोटली दृष्टिगोचर हुई। उसे देखते ही उसकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं। कमण्डल में से पोटली निकाल कर उसने उसे खोला, परन्तु जब उसमें उसे केवल सत्तू ही मिले, तो वह अपनी असफलता पर तिलमिला उठा और खड़ग तानकर कड़कती हुई आवाज़ में बोला-सीधी तरह बतला दो कि धन कहां छिपा रखा है, अन्यथा ठीक न होगा।
महात्मा जी ने हरिसिंह पर कृपापूर्ण दृष्टि डाली और अत्यन्त प्रेमपूर्ण एवं मधुर शब्दों में कहा-बेटा! हम तो पहले ही तुम से कह चुके हैं कि हमारे पास सिवा वैरागिन, कमण्डल और पोथी के और कुछ भी नहीं है। हम तो रमता-राम साधु हैं, हमारे पास भला धन कहां से आया? किन्तु यह बताओ! तुम यह लूटमार का धंधा किसलिये करते हो? रंग-रुप से तो तुम किसी अच्छे कुल के प्रतीत होते हो, फिर कोई अच्छा सा धन्धा करके सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत क्यों नहीं करते? लूटमार का धन्धा करके अपना मूल्यवान जीवन नष्ट क्यों कर रहे हो?
महात्मा जी की प्रेम से सनी और प्रभावशाली वाणी ने हरिसिंह पर जादू का सा काम किया। खड़ग नीचे करके वह बड़ी धीमी आवाज़ में बोला-बाबा क्या करूँ? कुटुम्ब का सब भार चूंकि मुझ पर है, इसलिये उनके पालन-पोषण के लिये ही मैं लूटमार का यह धन्धा करता हूँ। महात्मा जी ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण शब्दों में फरमाया-अरे भोले! क्या केवल लूटमार का धंधा करके ही परिवार का पालन-पोषण किया जा सकता है? कोई और कामकाज करके क्या यह काम नहीं किया जा सकता? क्यों नहीं कोई अच्छा-सा धन्धा कर लेते? इसके अतिरिक्त इस बात पर भी कभी तूने विचार किया है कि कुटुम्ब-परिवार के पालन-पोषण के लिये लोगों को लूटकर तथा उन पर अत्याचार करके तुम जो पाप कमा रहे हो, उसका दण्ड तो तुम्हें अकेले ही भुगतना पड़ेगा। इन पापकर्मों का दण्ड भोगने में कुटुम्ब-परिवार के सदस्य तेरे भागीदार न होंगे।
महात्मा जी की बात मध्य में ही काटकर हरिसिंह बोला-वाह! यह कैसे हो सकता है? मैं जो लूटमार का काम करके धन प्राप्त करता हूँ, जब वे इस पापपूर्ण कमाई के खाने में भागीदार हैं, तो फिर पापकर्मों का दण्ड भोगने में भागीदार क्यों न होंगे?
महात्मा जी उसकी अज्ञानता भरी बातें सुनकर बोले-यह तुम्हारी नितान्त भूल है। मनुष्य जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, उनका शुभ अथवा अशुभ फल उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है। संसार का कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना ही निकटवर्ती क्यों न हो, पापकर्मों का फल भोगने में मनुष्य का भागीदार नहीं हो सकता। इस प्राकृतिक नियमानुसार तुम्हारे कुटुम्ब-परिवार के लोग भी तुम्हारी कमाई के ही भागीदार हैं, कर्मों का शुभ अथवा अशुभ फल तो तुम्हें अकेले ही भोगना पड़ेगा। यदि हमारी बातों पर तुम्हें विश्वास न हो, तो परिवार के सदस्यों से एक बार पूछकर देख लो कि पापकर्मों का दण्ड भोगते समय क्या वे तुम्हारा साथ देंगे?
हरिसिंह ने जीवन में आज तक न तो इस बात पर ही कभी विचार किया था कि वह किस प्रकार के कर्म कर रहा है और न ही कभी यह सोचा था कि वह लूटमार तथा अत्याचार करके जो जघन्य पाप कर रहा है, उन पापकर्मों का फल भी उसे एक दिन भोगना होगा। वह तो केवल यह जानता था कि अपना तथा परिवार का भरण-पोषण करने के लिये उसे धन की आवश्यकता है, वह चाहे किसी भी साधन से क्यों न पैदा किया जाये। उचित-अनुचित का तो उसे ज्ञान ही नहीं था। किन्तु आज महात्मा जी की सीधी और सच्ची बातों ने उसको सोचने पर विवश कर दिया। उसका पत्थर ह्मदय महात्मा जी के प्रेमपूर्ण शब्दों से कुछ-कुछ पिघलने लगा, परन्तु दूसरे ही क्षण शैतान ने फिर ज़ोर मारा; फलस्वरुप हरिसिंह पुनः कड़कती हुई आवाज़ में बोला-साधु बाबा!मैं आपका अभिप्राय अच्छी तरह समझता हूँ। आप मुझे धोखा देकर यहाँ से खिसकना चाहते हैं। किन्तु आपकी यह चतुराई मेरे साथ नहीं चलेगी। आपका अभिप्राय यही है न कि मैं तो घर वालों से पूछने जाऊँ और आप अवसर पाकर यहँा से खिसक जायें, परन्तु हरिसिंह के हाथों में एक बार पड़कर फिर छूटना अत्यन्त कठिन है। आपने कदाचित मेरा नाम नहीं सुना। मेरा नाम सुनते ही लोग कांप उठते हैं।
महात्मा जी ने उसकी धमकी की परवाह न करते हुये फरमाया- हम वचन देते हैं कि तुम्हारे वापस आने तक हम कहीं नहीं जायेंगे। हम तो केवल यह चाहते हैं कि तुम एक बार घर जाकर अपने परिवारिक सदस्यों से इतना पूछ आओ कि तुम जो दिन-रात पाप कर्मों करने में रत हो, उन पापकर्मों का फल भोगने में वे तुम्हारा साथ निभायेंगे अथवा नहीं जिससे कि तुम्हारी आँखों पर पड़ा हुआ मोह अज्ञान का आवरण हट जाये, तुम्हें संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो जाये और तुम यह पापपूर्ण मार्ग छोड़कर तथा सन्मार्ग पर लगकर अपने इस दुर्लभ एवं मूल्यवान जीवन का कल्याण कर लो।
महात्मा जी की बातें हरिसिंह के अन्तर्मानस में उतरती चली गई। वह सोचने लगा कि एक बार घर वालों से पूछकर क्यों न इस बात की तसल्ली कर लूं कि वे मेरे पापकर्मों में भागीदार हैं या नहीं। किन्तु ये महात्मा जी यदि इतनी देर में यहां से खिसक गये तो! सहसा उसे एक युक्ति सूझ गई। उसने अपनी कमर से रस्सी खोली, जिसका प्रयोग वह फंदे के रुप में किया करता था और उस रस्सी की सहायता से महात्मा जी को एक पेड़ के साथ जकड़ते हुये बोला-मैं अभी घर जाकर परिवार के सदस्यों से आपके प्रश्न का उत्तर पूछता हूँ। यदि आपकी बात सत्य निकली तब तो ठीक है, परन्तु यदि आपकी बात असत्य सिद्ध हुई, तो फिर समझ लीजिये कि आपकी कुशल नहीं है। ये शब्द कहकर हरिसिंह पेड़ों के उस झुरमुट की ओर बढ़ गया, जहां महात्मा जी के आने से पूर्व वह छिपा हुआ शिकार की प्रतीक्षा कर रहा था। वहां एक पेड़ के साथ उसका घोड़ा बँधा हुआ था। उसने घोड़ा खोला, उसकी लगाम थामी और उसपर सवार होकर द्रुतगति से अपने गांव की ओर चल दिया। शीघ्र घर पहुंचने के लिये वह घोड़े को बार-बार चाबुक मारने लगा। महात्मा जी की बातों ने उसके ह्मदय में हलचल मचा दी थी और वह महात्मा जी के प्रश्न का उत्तर जानने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो रहा था।
घर के निकट पहुंचकर वह घोड़े से उतरा और तेज़ चाल चलता हुआ घर के अन्दर प्रविष्ट हो गया। घर के सभी लोग उसे देखकर पहले तो यह समझे कि आज हरिसिंह को शीघ्र ही कोई शिकार मिल गया होगा तभी वह इतनी शीघ्र वापस लौट आया है, परन्तु फिर उसके चेहरे पर विद्यमान व्याकुलता को देखकर वे किसी अप्रत्याशित आशंका के भय से कांप उठे। पिता ने घबरा कर पूछा-हरिसिंह! क्या बात है? इतने घबराये
हुये क्यों हो?
हरिसिंह ने महात्मा जी से हुआ सम्पूर्ण वार्तालाप सबको सुनाकर कहा-मैं आप लोगों से इस प्रश्न का उत्तर पूछने के लिये आया हूँ कि मैं जो पापकर्म करके आप लोगों के लिये धन लाता हूँ, तो क्या धर्मराज के दरबार में इन कर्मों का हिसाब देते समय और इन पापकर्मों का दण्ड भोगते समय आप लोग मेरा साथ देंगे अथवा नहीं?
उसकी बातें सुनकर घर में सन्नाटा छा गया। सब चुपचाप बैठे रहे, किसी ने भी उसके प्रश्न का उत्तर न दिया। हरिसिंह बार-बार इस आशा से हर एक की ओर देखता रहा कि शायद किसी की ओर से उसे सकारात्मक उत्तर मिले, परन्तु वहां तो सब ऐसे मौन धारण किये थे जैसे उनके मुँह पर ताले लगे हुये हों। अन्ततः उसके पिता ने मौन तोड़ते हुये कहा-बेटा! संसार में प्रत्येक मनुष्य अपने शुभ-अशुभ कर्मों का स्वयं उत्तरदायी है। प्राकृतिक नियमानुसार उसे स्वयं ही अपने किये हुये कर्मों का फल भोगना पड़ता है, कर्मों का शुभाशुभ फल भोगने में अन्य कोई प्राणी उसका भागीदार नहीं बन सकता। जबकि यह प्रकृति का एक अटल नियम है, तो फिर तुम्हीं विचार करो कि तुम्हारे कर्मों का फल भुगतने में हम भागीदार कैसे हो सकते हैं?
हरिसिंह क्रोध में बोला-तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप लोग केवल खाने के ही साझीदार हैं। पिता ने उत्तर दिया- परिवार में चूँकि तुम युवा हो, अतः तुम्हारा कत्र्तव्य है कि हमारा भरण-पोषण करो। धन कमाने का साधन सोचना तुम्हारा काम है। तुम चाहे खेती-बाड़ी करके धन कमाओ, चाहे कोई व्यापार करो अथवा लूटमार, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं। हमने तो तुमसे यह कभी नहीं कहा कि तुम लूटमार करके धन लाओ।
ऐसा टका-सा उत्तर पाकर हरिसिंह के ह्मदय पर गहरी चोट लगी। उसे ऐसे उत्तर की कदापि आशा न थी। वह चुपचाप गर्दन नीची किये घर से बाहर निकल आया और उस ओर चल दिया, जहां वह महात्मा जी को पेड़ के साथ बांध आया था। उसके सुधरने का चूँकि समय आ चुका था, अतएव अपने किये हुये पापकर्मों पर दृष्टि डालकर लगा पश्चात्तापपूर्ण अश्रु बहाने। वह मन ही मन यह सोचकर स्वयं को धिक्कारने लगा कि पहले तो जो कुछ हुआ सो हुआ, परन्तु आज तो मैने घोर अपराध किया है, जो दया की साक्षात् प्रतिमा महात्मा जी को पेड़ के साथ बांध आया हूँ। इस महान पाप का बदला कैसे चुका पाऊँगा?
सन्तों सत्पुरुषों का कथन है कि जब मनुष्य की दृष्टि अपने पापकर्मों पर पड़ती है और वह उन्हें स्मरण कर सच्चे ह्मदय से पश्चात्ताप करता हुआ अश्रु बहाता है, तो उसके सब पाप धुल जाते हैं। पापों से बचने का उपचार भी यही है कि मनुष्य पिछले किये हुये पापकर्मों पर पश्चात्तापपूर्ण अश्रु बहाये और भविष्य में सन्मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा करे। पिछले किये हुये पापकर्मों को स्मरण करने और उनपर अश्रु बहाने से हरिसिंह के मन की मैल धुलने लगी।
महात्मा जी के निकट पहुंचकर हरिसिंह ने तुरन्त उनके बन्धन खोले और रोते हुये उनके चरणों में गिरकर क्षमायाचना करते हुये कहने लगा-मैं महापापी हूँ, मैने बहुत पाप किये हैं। आप दया और क्षमा के भण्डार हैं। मुझ अधम पर कृपा कीजिये और मुझे वह मार्ग बतलाइये, जिससे मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर सकूँ। उसकी ऐसी दशा देखकर महात्मा जी के ह्मदय में दया उमड़ आई। सन्तोें-महात्माओं का यह एक उदात्त गुण है कि उनका ह्मदय मक्खन से भी अधिक कोमल होता है। वे अपने शरीर पर आने वाले दुःख एवं कष्ट तो हंसते-हंसते सहन कर लेते हैं, परन्तु दूसरों का दुःख उनसे तनिक भी सहा नहीं जाता। गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन हैः-
संत ह्मदय नवनीत समाना। कहा कविन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं सन्त सुपुनीता।।
अर्थः-सन्तों का ह्मदय मक्खन की न्यार्इं कोमल होता है, ऐसा कवियों ने कहा तो है, परन्तु उन्होंने वास्तविक बात कहना नहीं जाना। उन्होने सन्तों के ह्मदय की तुलना मक्खन से कर तो दी, परन्तु वस्तुतः उनकी यह तुलना पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि सन्तों का ह्मदय तो मक्खन से कहीं अधिक कोमल होता है। कारण इसका यह कि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है, जबकि परम पवित्र सन्त दूसरों के दुःख-कष्ट देखकर ही पिघल जाते हैं।
महात्मा जी ने अपना कृपापूर्ण हाथ उसके सिर पर फेरते हुये कहा-उठो हरिदास! तुम्हारे अश्रु यह बता रहे हैं कि तुम्हें अपने किये पर बहुत पश्चात्ताप है। अब तुम श्रद्धा और प्रेम से परमात्मा के नाम का सुमिरण करो। नाम-सुमिरण के प्रताप से तुम्हारे सब पापकर्म नष्ट हो जायेंगे और तुम्हारा लोक-परलोक संवर जायेगा। इसी पर सत्पुरुषों का कथन भी हैः-
नाम जो रत्ती एक है, पाप जो रत्ती हज़ार।
आध रत्ती घट संचरै, जारि करै सब छार।।
डाकू हरिसिंह अब साधु हरिदास बन गये। उन्होने अपने सब अस्त्र-शस्त्र निकट के एक कुएँ में फेंक दिये और महात्मा जी द्वारा प्रदत्त नाम का श्रद्धाभाव से चिंतन करने लगे; फलस्वरुप उनके ह्मदय के मलिन भाव नष्ट हो गये और थोड़े ही दिनों के नाम-चिंतन से वे कुछ से कुछ बन गये। उनकी कायापलट हो गई। पहले जहां उनके ह्मदय में हर समय कठोरता और हिंसा-भावना विद्यमान रहती थी, वहां अब दया और प्रेम ने अपना आवास बना लिया। परमात्मा का सुमिरण-ध्यान करते हुये वे सभी प्राणियों के साथ स्नेह का व्यवहार करने लगे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति डीडवाणे तथा उसके आसपास के क्षेत्र में फैल गई और प्रेमीजन दूर-दूर से उनके दर्शन करने तथा उपदेश श्रवण करने के लिये आने लगे। प्रेमीजन उन्हें हरिपुरुष जी के नाम से स्मरण करने लगे और आगे चलकर उनका यही नाम अधिक प्रचलित हुआ।
कहां तो उनका काम ही लूटमार करना और दूसरों को दुःख पहुंचाना था और कहां अब उनकी यह दशा हो गई कि दूसरे का दुःख उनसे तनिक भी सहन न होता था। डीडवाणे के निकट ही एक सरोवर था, जिसके किनारे देवी का मन्दिर था। उस क्षेत्र के नागरिक देवी के इस मन्दिर में पशुओं की बलि चढ़ाया करते थे और पशु-बलि की यह प्रथा चिरकाल से चली आ रही थी। इस परम्परा को देखकर सन्त हरिपुरुष जी मन में बहुत दुःखी हुये। उन्होने अपने सदुपदेश द्वारा लोगों के इस कार्य को रोका। उनके उपदेशपूर्ण वचनों से प्रभावित होकर लोगों ने पशु-बलि का परित्याग कर दिया। इस कार्य से लोगों के दिलों में उनके प्रति और भी श्रद्धा बढ़ गई और लोग उन्हें दयाल महाराज के नाम से सम्बोधित करने लगे।
कुछ समय पश्चात् सन्त हरिपुरुष जी (अथवा संत हरिदास जी) अपने सदुपदेशों द्वारा लोक-कल्याण हेतु मारवाड़ के नगर-नगर और ग्राम-ग्राम में परिभ्रमण करने और जनसाधारण को प्रमाद-निद्रा से जगाने लगे। अन्त में गाढ़ा महाजन के विशेष आग्रह पर वे डीडवाणे वापस लौट आये और जीवन का शेष समय परमात्मा का चिंतन-ध्यान करते हुये तथा सदुपदेशों द्वारा लोगों को सन्मार्ग पर लगाते हुये डीडवाणे में ही व्यतीत किया। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अनेक लोग उनके शिष्य बन गये और उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर अपना कल्याण करने लगे।
यह है सत्संगति का प्रभाव, जिसके प्रताप से न केवल सन्त हरिपुरुष जी का अपना ही उद्धार हुआ, प्रत्युत अपने सदुपदेशों द्वारा अनेकों जीवों को सन्मार्ग पर लगाकर उनके उद्धार एवं कल्याण में भी वे सहायक हुये।
सत्संग अर्थात् सन्तों सत्पुरुषों की सुसंगति की महिमा अवर्णनीय है। सभी सद्शास्त्रों एवं सद्ग्रन्थों ने, चाहे वे किसी भी भाषा में हैं, सत्संगति की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। गोस्वामी तुलसीदास जी सत्संगति की महिमा करते हुये फरमाते हैंः-
।।चौपाई।।
सुनि आचरज करै जिन कोई । सत्संगति महिमा नहिं गोई।
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी।।
जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहां जेहि पाई।।
सो जावब सतसंग प्रभाऊ । लोकहुं बेद न आन उपाऊ।।
बिनु सतसंग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।
शठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पास परस कुधात सुहाई ।।
(श्री रामचरितमानस, बालकाण्ड)
अर्थः-सत्संगति की महिमा सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संगति की महिमा किसी से छिपी हुई नहीं है। बाल्मीकि ऋषि जी, नारद जी तथा मुनि अगस्त्य जी ने अपने-अपने मुख से अपनी होनी कही है कि सत्संगति के प्रताप से ही वे इतनी उच्च पदवी प्राप्त करने के अधिकारी हुये हैं। जल में रहने वाले, धरती पर चलने वाले तथा आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने भी जीव इस सृष्टि में हैं, उनमें से जिसने जिस समय जहां कहीं भी जिस किसी यत्न से निर्मल बुद्धि, सुकीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई प्राप्त की है, सो सब सत्संगति का ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई साधन वर्णन नहीं किया गया है। सत्संगति के बिना विवेक अर्थात् सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ, हितकर-अहितकर, लाभ-हानि आदि के ज्ञान) की प्राप्ति नहीं होती और भगवान की कृपा के बिना सत्संगति का प्राप्त होना सहज नहीं। यह सत्संगति आनन्द और कल्याण की मूल है, सत्संगति की प्राप्ति फल है और सब साधन फूल हैं।
आगे सत्संगति का प्रभाव बतलाते हुये फरमाते हैं कि सत्संगति अर्थात् सन्तों सत्पुरुषों की संगति पाकर दुष्ट व्यक्ति भी उसी प्रकार सुधर जाते हैं, जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सुहावना हो जाता है अर्थात् लोहा स्वर्ण में परिवर्तित होकर सुन्दर, मूल्यवान और सबका प्रिय बन जाता है। और सत्संगति का यह प्रभावकारी गुण सन्त हरिपुरुष जी अथवा सन्त हरिदास जी के विषय में पूर्णतः सत्य सिद्ध हो जाता है, क्योंकि सन्तों सत्पुरुषों की संगति प्राप्त होने के पूर्व एक प्रसिद्ध डाकू थे। सन्तों की संगति के प्रताप से इनकी काया पलट हो गई और ये एक लुटेरे और दस्यु से बदलकर उच्चकोटि के सन्त बन गये। इनका जीवनकाल सोलहवीं और सत्तरहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है।
सन्त हरिपुरुष जी का जन्म राजस्थान के डीडवाणा परगना के अन्तर्गत कापडोद नामक ग्राम में क्षत्रिय वंश के एक निर्धन परिवार में हुआ। इनका पहला नाम हरिसिंह था। इनके पिता के पास थोड़ी सी कृषि-योग्य भूमि थी, जिसकी उपज से परिवार का पालन-पोषण अत्यन्त कठिनाई से होता था। पिता तो हर समय खेती-बाड़ी के काम में व्यस्त रहते थे और माता घर के कामकाज में। उन्हें इतना अवकाश ही कहां था कि वे हरिसिंह की देेखभाल की ओर ध्यान देते। परिणाम यह हुआ कि बाल्यकाल से ही हरिसिंह बुरी संगति में पड़ गया और उस संगत का रंग धीरे-धीरे उस पर चढ़ने लगा।
जिस प्रकार शुभ संगति में यह गुण है कि उसकेप्रभाव से मनुष्य भला और नेक बनकर शुभ कार्यों की ओर प्रवृत होता है, उसी प्रकार बुरी संगत में भी यह गुण अथवा अवगुण विद्यमान है कि उसके प्रभाव में आकर मनुष्य बुरे कार्यों की ओर प्रवृत्त हो जाता है और मनुष्यत्व से गिरकर एक बुरा, कुमार्गी और कुकर्मी मनुष्य बन जाता है।
हरिसिंह को बाल्यकाल से ही जो बुरी संगति मिली, तो उसका परिणाम यह हुआ कि यौवनावस्था में पग रखने से पूर्व ही वह जुआ, शराब तथा लूटमार आदि दुव्र्यसनों का शिकार हो गया। युवा होने पर उसका विवाह कर दिया गया। हरिसिंह के माता-पिता चूँकि अब वृद्धावस्था में पदार्पण कर चुके थे, अतः परिवार के पालन-पोषण का सब भार अब हरिसिंह के सिर पर आ पड़ा। बुरी संगति में पड़कर विलासी तो वह बन ही चुका था और लूटमार की आदत भी उसे पड़ चुकी थी, अतः खेती-बाड़ी करके परिवार का पालन-पोषण करने की अपेक्षा उसने दस्यु-वृत्ति अपनाना अधिक उपयुक्त समझा। उसके गांव के निकट ही एक घना वन था, इसलिये उसने उसी वन में अपना ठिकाना बना लिया और अपने गांव के आसपास के क्षेत्र में डाके डालने लगा और उससे जो कुछ भी प्राप्त होता, उससे अपने परिवार का पालन-पोषण करने लगा।
इसी प्रकार कई वर्ष तक वह लूटमार करने का धन्धा करता रहा। किन्तु उसके पूर्वजन्मों के कुछ शुभ कर्म ऐसे थे, जिनके फलीभूत होने का समय अब आ चुका था, क्योंकि जब जीव के पुण्य-कर्म फल देने पर आते हैं तभी जीव को सन्तों सत्पुरुषों का मिलाप होता है। भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज अयोध्यावासियों को उपदेश करते हुये फरमाते हैं किः-
पुण्य पुँज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।
अर्थः-पुण्यपुंज के बिना जीव का सन्तों के साथ मिलाप नहीं होता। सन्तोें सत्पुरुषों की प्राप्ति होने से जीव का जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है। एक दिन हरिसिंह गांव की ओर जाने वाली एक सुनसान पगडंडी के किनारे घने पेड़ों में छिपा हुआ इस प्रतीक्षा में घात लगाये बैठा था कि कोई यात्री इधर से निकले और वह उसे डरा-धमका कर उसका सब कुछ लूट ले। काफी प्रतीक्षा के उपरांत उसने दूर से एक व्यक्ति को उसी ओर आते देखा। उसे देखकर वह चौकन्ना होकर बैठ गया। कुछ देर बाद जब वह व्यक्ति निकट आया, तो उसे देखकर हरिसिंह को बड़ी निराशा हुई, क्योंकि वे तो कोई सन्त-महात्मा थे, जिनकी बगल में एक थैली लटकी हुई थी तथा उनके एक हाथ में कमण्डल और दूसरे हाथ में वैरागिन पकड़ी हुई थी। उन्हें देखकर वह ओंठों ही ओंठों में बड़बड़ाने लगा। आज न जाने किस का मुँह देखकर घर से निकला था कि इतनी अधिक प्रतीक्षा के उपरांत इधर से निकले भी तो ये महात्मा। ज्ञात होता है आज कोई शिकार हाथ नहीं लगेगा।
यह सोचकर वह अत्यधिक निराश हो गया। किन्तु दूसरे ही क्षण उसके मन में एक विचार कौंध गया और उसकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं। उसने सुन रखा था कि राजा-महाराजा और धनवान लोग प्रायः साधु-सन्तों की बड़ी आव-भगत किया करते हैं और धन आदि से उनकी खूब सेवा करते हैं। वह मन ही मन विचार करने लगा कि सम्भव है ये महात्मा भी किसी राजा-महाराजा अथवा सेठ-साहूकार के यहां से होकर आ रहे हों। यदि ऐसा हुआ तो आज निश्चय ही तगड़ा माल हाथ लगेगा।
महात्मा जी जैसे ही उस स्थान के निकट पहुंचे, हरिसिंह खड़ग लेकर बाहर निकल आया और महात्मा जी को ललकारते हुये बोला-बाबा! रुक जाओ। हरिसिंह के शब्द सुनकर महात्मा जी ठिठक कर रुक गये और उधर ही देखने लगे, जिधर से आवाज़ आई थी। क्या देखते हैं कि एक ह्मष्ट-पुष्ट व्यक्ति हाथ में खड़ग लिये उन्हीं की ओर आ रहा है। वे समझ गये कि यह कोई लुटेरा है और लूटने के लिये ही हमें रोक रहा है। किन्तु उसे अपनी ओर आते देखकर वे घबराने की बजाय मुस्कराने लगे। हरिसिंह उनके निकट पहुँच कर बोला-बाबा! जो कुछ आपके पास हो, चुपचाप मेरे हवाले कर दो।
महात्मा जी मुस्कराते हुये बोले-अच्छा! तो तुम डाकू हो। किन्तु बेटा! हम साधु हैं, हमारे पास क्या रखा है, जो तुम्हें दे दें। हरिसिंह पर उनकी बातों का कुछ भी प्रभाव न हुआ। वह कड़कते हुये बोला-मेरे साथ आपकी यह चाल नहीं चलेगी। यदि आप अपने आप नहीं देंगे, तो मैं बलपूर्वक सब कुछ ले लूँगा। महात्मा जी अपनी बात दोहराते हुये बोले-बेटा! जब हमारे पास धन-माल है ही नहीं, तो फिर तुम्हें दें क्या? हमारे पास तो केवल वैरागिन, कमण्डल और एक पोथी है। यदि इनमें से कोई वस्तु लेना चाहो, तो ले सकते हो।
हरि सिंह कुछ देर तक तो महात्मा जी को घूरता रहा मानो उनके मनोभावों को पढ़ने की चेष्टा कर रहा हो, फिर कठोर शब्दों में बोला-तो फिर आप मुझे अपने सामान की तलाशी ले लेने दीजिये। महात्मा जी ने हंसते हुये फरमाया-तुम प्रसन्नतापूर्वक हमारी तलाशी ले सकते हो। हरिसिंह ने सबसे पहले उनकी थैली टटोली, परन्तु उसमें सिवा एक पोथी के और कुछ भी न था। उसने यह सोचकर कि माल कदाचित कमण्डल में हो, महात्मा जी के हाथ से कमण्डल ले लिया। जैसे ही उसने कमण्डल में झांका, उसे एक पोटली दृष्टिगोचर हुई। उसे देखते ही उसकी आँखें प्रसन्नता से चमक उठीं। कमण्डल में से पोटली निकाल कर उसने उसे खोला, परन्तु जब उसमें उसे केवल सत्तू ही मिले, तो वह अपनी असफलता पर तिलमिला उठा और खड़ग तानकर कड़कती हुई आवाज़ में बोला-सीधी तरह बतला दो कि धन कहां छिपा रखा है, अन्यथा ठीक न होगा।
महात्मा जी ने हरिसिंह पर कृपापूर्ण दृष्टि डाली और अत्यन्त प्रेमपूर्ण एवं मधुर शब्दों में कहा-बेटा! हम तो पहले ही तुम से कह चुके हैं कि हमारे पास सिवा वैरागिन, कमण्डल और पोथी के और कुछ भी नहीं है। हम तो रमता-राम साधु हैं, हमारे पास भला धन कहां से आया? किन्तु यह बताओ! तुम यह लूटमार का धंधा किसलिये करते हो? रंग-रुप से तो तुम किसी अच्छे कुल के प्रतीत होते हो, फिर कोई अच्छा सा धन्धा करके सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत क्यों नहीं करते? लूटमार का धन्धा करके अपना मूल्यवान जीवन नष्ट क्यों कर रहे हो?
महात्मा जी की प्रेम से सनी और प्रभावशाली वाणी ने हरिसिंह पर जादू का सा काम किया। खड़ग नीचे करके वह बड़ी धीमी आवाज़ में बोला-बाबा क्या करूँ? कुटुम्ब का सब भार चूंकि मुझ पर है, इसलिये उनके पालन-पोषण के लिये ही मैं लूटमार का यह धन्धा करता हूँ। महात्मा जी ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण शब्दों में फरमाया-अरे भोले! क्या केवल लूटमार का धंधा करके ही परिवार का पालन-पोषण किया जा सकता है? कोई और कामकाज करके क्या यह काम नहीं किया जा सकता? क्यों नहीं कोई अच्छा-सा धन्धा कर लेते? इसके अतिरिक्त इस बात पर भी कभी तूने विचार किया है कि कुटुम्ब-परिवार के पालन-पोषण के लिये लोगों को लूटकर तथा उन पर अत्याचार करके तुम जो पाप कमा रहे हो, उसका दण्ड तो तुम्हें अकेले ही भुगतना पड़ेगा। इन पापकर्मों का दण्ड भोगने में कुटुम्ब-परिवार के सदस्य तेरे भागीदार न होंगे।
महात्मा जी की बात मध्य में ही काटकर हरिसिंह बोला-वाह! यह कैसे हो सकता है? मैं जो लूटमार का काम करके धन प्राप्त करता हूँ, जब वे इस पापपूर्ण कमाई के खाने में भागीदार हैं, तो फिर पापकर्मों का दण्ड भोगने में भागीदार क्यों न होंगे?
महात्मा जी उसकी अज्ञानता भरी बातें सुनकर बोले-यह तुम्हारी नितान्त भूल है। मनुष्य जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, उनका शुभ अथवा अशुभ फल उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है। संसार का कोई भी व्यक्ति, चाहे वह कितना ही निकटवर्ती क्यों न हो, पापकर्मों का फल भोगने में मनुष्य का भागीदार नहीं हो सकता। इस प्राकृतिक नियमानुसार तुम्हारे कुटुम्ब-परिवार के लोग भी तुम्हारी कमाई के ही भागीदार हैं, कर्मों का शुभ अथवा अशुभ फल तो तुम्हें अकेले ही भोगना पड़ेगा। यदि हमारी बातों पर तुम्हें विश्वास न हो, तो परिवार के सदस्यों से एक बार पूछकर देख लो कि पापकर्मों का दण्ड भोगते समय क्या वे तुम्हारा साथ देंगे?
हरिसिंह ने जीवन में आज तक न तो इस बात पर ही कभी विचार किया था कि वह किस प्रकार के कर्म कर रहा है और न ही कभी यह सोचा था कि वह लूटमार तथा अत्याचार करके जो जघन्य पाप कर रहा है, उन पापकर्मों का फल भी उसे एक दिन भोगना होगा। वह तो केवल यह जानता था कि अपना तथा परिवार का भरण-पोषण करने के लिये उसे धन की आवश्यकता है, वह चाहे किसी भी साधन से क्यों न पैदा किया जाये। उचित-अनुचित का तो उसे ज्ञान ही नहीं था। किन्तु आज महात्मा जी की सीधी और सच्ची बातों ने उसको सोचने पर विवश कर दिया। उसका पत्थर ह्मदय महात्मा जी के प्रेमपूर्ण शब्दों से कुछ-कुछ पिघलने लगा, परन्तु दूसरे ही क्षण शैतान ने फिर ज़ोर मारा; फलस्वरुप हरिसिंह पुनः कड़कती हुई आवाज़ में बोला-साधु बाबा!मैं आपका अभिप्राय अच्छी तरह समझता हूँ। आप मुझे धोखा देकर यहाँ से खिसकना चाहते हैं। किन्तु आपकी यह चतुराई मेरे साथ नहीं चलेगी। आपका अभिप्राय यही है न कि मैं तो घर वालों से पूछने जाऊँ और आप अवसर पाकर यहँा से खिसक जायें, परन्तु हरिसिंह के हाथों में एक बार पड़कर फिर छूटना अत्यन्त कठिन है। आपने कदाचित मेरा नाम नहीं सुना। मेरा नाम सुनते ही लोग कांप उठते हैं।
महात्मा जी ने उसकी धमकी की परवाह न करते हुये फरमाया- हम वचन देते हैं कि तुम्हारे वापस आने तक हम कहीं नहीं जायेंगे। हम तो केवल यह चाहते हैं कि तुम एक बार घर जाकर अपने परिवारिक सदस्यों से इतना पूछ आओ कि तुम जो दिन-रात पाप कर्मों करने में रत हो, उन पापकर्मों का फल भोगने में वे तुम्हारा साथ निभायेंगे अथवा नहीं जिससे कि तुम्हारी आँखों पर पड़ा हुआ मोह अज्ञान का आवरण हट जाये, तुम्हें संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो जाये और तुम यह पापपूर्ण मार्ग छोड़कर तथा सन्मार्ग पर लगकर अपने इस दुर्लभ एवं मूल्यवान जीवन का कल्याण कर लो।
महात्मा जी की बातें हरिसिंह के अन्तर्मानस में उतरती चली गई। वह सोचने लगा कि एक बार घर वालों से पूछकर क्यों न इस बात की तसल्ली कर लूं कि वे मेरे पापकर्मों में भागीदार हैं या नहीं। किन्तु ये महात्मा जी यदि इतनी देर में यहां से खिसक गये तो! सहसा उसे एक युक्ति सूझ गई। उसने अपनी कमर से रस्सी खोली, जिसका प्रयोग वह फंदे के रुप में किया करता था और उस रस्सी की सहायता से महात्मा जी को एक पेड़ के साथ जकड़ते हुये बोला-मैं अभी घर जाकर परिवार के सदस्यों से आपके प्रश्न का उत्तर पूछता हूँ। यदि आपकी बात सत्य निकली तब तो ठीक है, परन्तु यदि आपकी बात असत्य सिद्ध हुई, तो फिर समझ लीजिये कि आपकी कुशल नहीं है। ये शब्द कहकर हरिसिंह पेड़ों के उस झुरमुट की ओर बढ़ गया, जहां महात्मा जी के आने से पूर्व वह छिपा हुआ शिकार की प्रतीक्षा कर रहा था। वहां एक पेड़ के साथ उसका घोड़ा बँधा हुआ था। उसने घोड़ा खोला, उसकी लगाम थामी और उसपर सवार होकर द्रुतगति से अपने गांव की ओर चल दिया। शीघ्र घर पहुंचने के लिये वह घोड़े को बार-बार चाबुक मारने लगा। महात्मा जी की बातों ने उसके ह्मदय में हलचल मचा दी थी और वह महात्मा जी के प्रश्न का उत्तर जानने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो रहा था।
घर के निकट पहुंचकर वह घोड़े से उतरा और तेज़ चाल चलता हुआ घर के अन्दर प्रविष्ट हो गया। घर के सभी लोग उसे देखकर पहले तो यह समझे कि आज हरिसिंह को शीघ्र ही कोई शिकार मिल गया होगा तभी वह इतनी शीघ्र वापस लौट आया है, परन्तु फिर उसके चेहरे पर विद्यमान व्याकुलता को देखकर वे किसी अप्रत्याशित आशंका के भय से कांप उठे। पिता ने घबरा कर पूछा-हरिसिंह! क्या बात है? इतने घबराये
हुये क्यों हो?
हरिसिंह ने महात्मा जी से हुआ सम्पूर्ण वार्तालाप सबको सुनाकर कहा-मैं आप लोगों से इस प्रश्न का उत्तर पूछने के लिये आया हूँ कि मैं जो पापकर्म करके आप लोगों के लिये धन लाता हूँ, तो क्या धर्मराज के दरबार में इन कर्मों का हिसाब देते समय और इन पापकर्मों का दण्ड भोगते समय आप लोग मेरा साथ देंगे अथवा नहीं?
उसकी बातें सुनकर घर में सन्नाटा छा गया। सब चुपचाप बैठे रहे, किसी ने भी उसके प्रश्न का उत्तर न दिया। हरिसिंह बार-बार इस आशा से हर एक की ओर देखता रहा कि शायद किसी की ओर से उसे सकारात्मक उत्तर मिले, परन्तु वहां तो सब ऐसे मौन धारण किये थे जैसे उनके मुँह पर ताले लगे हुये हों। अन्ततः उसके पिता ने मौन तोड़ते हुये कहा-बेटा! संसार में प्रत्येक मनुष्य अपने शुभ-अशुभ कर्मों का स्वयं उत्तरदायी है। प्राकृतिक नियमानुसार उसे स्वयं ही अपने किये हुये कर्मों का फल भोगना पड़ता है, कर्मों का शुभाशुभ फल भोगने में अन्य कोई प्राणी उसका भागीदार नहीं बन सकता। जबकि यह प्रकृति का एक अटल नियम है, तो फिर तुम्हीं विचार करो कि तुम्हारे कर्मों का फल भुगतने में हम भागीदार कैसे हो सकते हैं?
हरिसिंह क्रोध में बोला-तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप लोग केवल खाने के ही साझीदार हैं। पिता ने उत्तर दिया- परिवार में चूँकि तुम युवा हो, अतः तुम्हारा कत्र्तव्य है कि हमारा भरण-पोषण करो। धन कमाने का साधन सोचना तुम्हारा काम है। तुम चाहे खेती-बाड़ी करके धन कमाओ, चाहे कोई व्यापार करो अथवा लूटमार, हमें इससे कोई प्रयोजन नहीं। हमने तो तुमसे यह कभी नहीं कहा कि तुम लूटमार करके धन लाओ।
ऐसा टका-सा उत्तर पाकर हरिसिंह के ह्मदय पर गहरी चोट लगी। उसे ऐसे उत्तर की कदापि आशा न थी। वह चुपचाप गर्दन नीची किये घर से बाहर निकल आया और उस ओर चल दिया, जहां वह महात्मा जी को पेड़ के साथ बांध आया था। उसके सुधरने का चूँकि समय आ चुका था, अतएव अपने किये हुये पापकर्मों पर दृष्टि डालकर लगा पश्चात्तापपूर्ण अश्रु बहाने। वह मन ही मन यह सोचकर स्वयं को धिक्कारने लगा कि पहले तो जो कुछ हुआ सो हुआ, परन्तु आज तो मैने घोर अपराध किया है, जो दया की साक्षात् प्रतिमा महात्मा जी को पेड़ के साथ बांध आया हूँ। इस महान पाप का बदला कैसे चुका पाऊँगा?
सन्तों सत्पुरुषों का कथन है कि जब मनुष्य की दृष्टि अपने पापकर्मों पर पड़ती है और वह उन्हें स्मरण कर सच्चे ह्मदय से पश्चात्ताप करता हुआ अश्रु बहाता है, तो उसके सब पाप धुल जाते हैं। पापों से बचने का उपचार भी यही है कि मनुष्य पिछले किये हुये पापकर्मों पर पश्चात्तापपूर्ण अश्रु बहाये और भविष्य में सन्मार्ग पर चलने की प्रतिज्ञा करे। पिछले किये हुये पापकर्मों को स्मरण करने और उनपर अश्रु बहाने से हरिसिंह के मन की मैल धुलने लगी।
महात्मा जी के निकट पहुंचकर हरिसिंह ने तुरन्त उनके बन्धन खोले और रोते हुये उनके चरणों में गिरकर क्षमायाचना करते हुये कहने लगा-मैं महापापी हूँ, मैने बहुत पाप किये हैं। आप दया और क्षमा के भण्डार हैं। मुझ अधम पर कृपा कीजिये और मुझे वह मार्ग बतलाइये, जिससे मैं अपने पापों का प्रायश्चित कर सकूँ। उसकी ऐसी दशा देखकर महात्मा जी के ह्मदय में दया उमड़ आई। सन्तोें-महात्माओं का यह एक उदात्त गुण है कि उनका ह्मदय मक्खन से भी अधिक कोमल होता है। वे अपने शरीर पर आने वाले दुःख एवं कष्ट तो हंसते-हंसते सहन कर लेते हैं, परन्तु दूसरों का दुःख उनसे तनिक भी सहा नहीं जाता। गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन हैः-
संत ह्मदय नवनीत समाना। कहा कविन्ह परि कहै न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं सन्त सुपुनीता।।
अर्थः-सन्तों का ह्मदय मक्खन की न्यार्इं कोमल होता है, ऐसा कवियों ने कहा तो है, परन्तु उन्होंने वास्तविक बात कहना नहीं जाना। उन्होने सन्तों के ह्मदय की तुलना मक्खन से कर तो दी, परन्तु वस्तुतः उनकी यह तुलना पूरी तरह सही नहीं है, क्योंकि सन्तों का ह्मदय तो मक्खन से कहीं अधिक कोमल होता है। कारण इसका यह कि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है, जबकि परम पवित्र सन्त दूसरों के दुःख-कष्ट देखकर ही पिघल जाते हैं।
महात्मा जी ने अपना कृपापूर्ण हाथ उसके सिर पर फेरते हुये कहा-उठो हरिदास! तुम्हारे अश्रु यह बता रहे हैं कि तुम्हें अपने किये पर बहुत पश्चात्ताप है। अब तुम श्रद्धा और प्रेम से परमात्मा के नाम का सुमिरण करो। नाम-सुमिरण के प्रताप से तुम्हारे सब पापकर्म नष्ट हो जायेंगे और तुम्हारा लोक-परलोक संवर जायेगा। इसी पर सत्पुरुषों का कथन भी हैः-
नाम जो रत्ती एक है, पाप जो रत्ती हज़ार।
आध रत्ती घट संचरै, जारि करै सब छार।।
डाकू हरिसिंह अब साधु हरिदास बन गये। उन्होने अपने सब अस्त्र-शस्त्र निकट के एक कुएँ में फेंक दिये और महात्मा जी द्वारा प्रदत्त नाम का श्रद्धाभाव से चिंतन करने लगे; फलस्वरुप उनके ह्मदय के मलिन भाव नष्ट हो गये और थोड़े ही दिनों के नाम-चिंतन से वे कुछ से कुछ बन गये। उनकी कायापलट हो गई। पहले जहां उनके ह्मदय में हर समय कठोरता और हिंसा-भावना विद्यमान रहती थी, वहां अब दया और प्रेम ने अपना आवास बना लिया। परमात्मा का सुमिरण-ध्यान करते हुये वे सभी प्राणियों के साथ स्नेह का व्यवहार करने लगे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति डीडवाणे तथा उसके आसपास के क्षेत्र में फैल गई और प्रेमीजन दूर-दूर से उनके दर्शन करने तथा उपदेश श्रवण करने के लिये आने लगे। प्रेमीजन उन्हें हरिपुरुष जी के नाम से स्मरण करने लगे और आगे चलकर उनका यही नाम अधिक प्रचलित हुआ।
कहां तो उनका काम ही लूटमार करना और दूसरों को दुःख पहुंचाना था और कहां अब उनकी यह दशा हो गई कि दूसरे का दुःख उनसे तनिक भी सहन न होता था। डीडवाणे के निकट ही एक सरोवर था, जिसके किनारे देवी का मन्दिर था। उस क्षेत्र के नागरिक देवी के इस मन्दिर में पशुओं की बलि चढ़ाया करते थे और पशु-बलि की यह प्रथा चिरकाल से चली आ रही थी। इस परम्परा को देखकर सन्त हरिपुरुष जी मन में बहुत दुःखी हुये। उन्होने अपने सदुपदेश द्वारा लोगों के इस कार्य को रोका। उनके उपदेशपूर्ण वचनों से प्रभावित होकर लोगों ने पशु-बलि का परित्याग कर दिया। इस कार्य से लोगों के दिलों में उनके प्रति और भी श्रद्धा बढ़ गई और लोग उन्हें दयाल महाराज के नाम से सम्बोधित करने लगे।
कुछ समय पश्चात् सन्त हरिपुरुष जी (अथवा संत हरिदास जी) अपने सदुपदेशों द्वारा लोक-कल्याण हेतु मारवाड़ के नगर-नगर और ग्राम-ग्राम में परिभ्रमण करने और जनसाधारण को प्रमाद-निद्रा से जगाने लगे। अन्त में गाढ़ा महाजन के विशेष आग्रह पर वे डीडवाणे वापस लौट आये और जीवन का शेष समय परमात्मा का चिंतन-ध्यान करते हुये तथा सदुपदेशों द्वारा लोगों को सन्मार्ग पर लगाते हुये डीडवाणे में ही व्यतीत किया। उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अनेक लोग उनके शिष्य बन गये और उनके द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर अपना कल्याण करने लगे।
यह है सत्संगति का प्रभाव, जिसके प्रताप से न केवल सन्त हरिपुरुष जी का अपना ही उद्धार हुआ, प्रत्युत अपने सदुपदेशों द्वारा अनेकों जीवों को सन्मार्ग पर लगाकर उनके उद्धार एवं कल्याण में भी वे सहायक हुये।
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