Wednesday, January 6, 2016

महार्षि उत्तंक

महर्षि उत्तंक-62

भगवान श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र की विनाश-लीला का उपसंहार करके द्वारिका की ओर प्रस्थान कर रहे थे। उनके रथ के आगे पवन बड़े वेग से आती और मार्ग की धूलि कंकड़ तथा काँटों को उड़ा देती। इन्द्र देवलोक से सुगन्धित जल तथा दिव्य पुष्प बरसा कर उन्हें मुदित कर रहे थे। श्रीकृष्ण जी मरुदेश की समतल भूमि को पार करके मुनियों में श्रेष्ठ गुरुभक्त, परमतपस्वी उत्तंक के आश्रम पर पहुँचे। उत्तंक मुनि ने उनका सहर्ष स्वागत किया और उनसे इस प्रकार प्रश्न पूछाः-
     ""अयि श्रीकृष्ण! क्या तुम कौरव और पाण्डवों में सन्धि करा कर ही लौट रहे हो? आप जैसे परम रक्षक और स्वामी द्वारा कौरवों के शान्त कर दिये जाने पर अब पाण्डव नरेश अपने राज्य में सुख-पूर्वक तो रहेंगे? मुझे आपसे यही पूर्ण आशा थी कि आप दोनों में सुरम्य भ्रातृ-भाव की स्थापना करा कर उन्हें आनन्दित कर देंगे।'' इतने प्रश्नों के उत्तर में श्रीकृष्ण भगवान बड़ी मधुर वाणी में इस प्रकार बोलेः-
     ""महर्षे! मैंने पहले कौरवों के पास जाकर उन्हेें युद्ध से विरत होने को कहा। उनकी सब तरह की आशंकाओं का निराकरण करकेउन्हें शान्त रहने के लिये बहुत समझाया किन्तु उन्होंने मेरे वचनों की नितान्त अवहेलना कर दी। जिसका परिणाम यह हुआ कि वे सब धृतराष्ट्र के पुत्र बन्धु बान्धवों सहित समरभूमि में खेत रहे।'' महर्षे! प्रारब्ध के विधान को कोई बुद्धि अथवा बल से नहीं मिटा सकता। कौरवों ने मेरी, भीष्म जी की और विदुर जी की सम्मति को भी ठुकरा दिया। जिसका फल यह हुआ कि समूचा गुरुकुल विनष्ट हो गया। भगवान के श्रीमुख से ये वचन सुनते ही उत्तंक मुनि क्रोध में जल उठे। रोष में भर कर केशव से यों बोलेः-
     ""श्री कृष्ण! प्रिय सम्बन्धी थे तुम्हारे कौरव-तिस पर भी आपने उनकी प्राण रक्षा न की-इसलिये मैं महातापस उत्तंक तुम्हें अवश्य शाप दूँगा। मैं किसी प्रकार से भी तुम्हारे इस घोर अपराध की उपेक्षा नहीं कर सकता। समर्थ होकर भी आपके देखते देखते इतने कौरवशाली वंश का समूल नाश होे जाये-यह आप जैसे युग पुरुष को शोभा नहीं देता।'' भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी उस मुनि को क्रोधानल में जलता हुआ देख प्रशान्त मुद्रा में कहने लगेः-
     ""ऐ भृगुपुत्र उत्तंक! आप परमतपस्वी हैं, अतः मेरी थोड़ी सी अनुनय-विनय स्वीकार कीजिये। मैं आपको अध्यात्म तत्त्व सुनाना चाहता हूँ। इस पर भी यदि आपकी क्रोधज्वाला शान्त न होती हो तो आप मुझे शाप दे दीजियेगा।'' इतना अवश्य स्मरण रखिये कि महर्षे! कोई भी पुरुष थोड़ी सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता। मैं नहीं चाहता कि आपकी तपस्या निष्फल हो जाये। मुझे विदित है कि आपका तप बहुत बढ़ा हुआ है। आपने अपने गुरुवर महर्षि गौतम जी को अपनी उग्र सेवा से सर्वथा सन्तुष्ट किया है। इसलिये मैं किसी प्रकार से भी आपके तपोबल की हानि नहीं करना चाहता।
     श्री भगवान कृष्ण जी के ये कोमल वचन सुनकर उत्तंक शान्त हुए और उन्होने उनसे अध्यात्म ज्ञान का वर्णन करने की प्रार्थना की और कहा कि मैं आपसे अध्यात्म ज्ञान की व्याख्या सुनकर आपको आशीर्वाद दूँगा अथवा शाप प्रदान करुँगा। तपस्वी को कितना अभिमान है अपने तप का। अब श्रीकृष्ण जी उत्तंक मुनि को अध्यात्मतत्त्व का बोध कराने लगेः-
     महर्षे! आपको यह विदित होना चाहिये कि सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण ये तीनों भाव मेरे ही आश्रय पर हैं। सम्पूर्ण भूत मुझमें हैं और सम्पूर्ण भूतों में मैं स्थित हूँ विद्वान लोग जिसे सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त और क्षर अक्षर कहते हैं। वह सब मेरा ही स्वरुप है। द्विज शिरोमणि उत्तंक! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करना-रुप जो धर्म है वह मेरा परम प्रिय ज्येष्ठ पुत्र है मैं सदा उनके संग निवास करता हूँ जो अधर्म से निवृत्त होकर धर्म में सदा प्रवृत्त रहते हैं। मैं ही विष्णु, मैं ही ब्राहृा और इन्द्र हूँ। अधर्म में लगे हुए सभी लोगों को दण्ड देने वाला और अपनी मर्यादा से कभी न च्युत होने वाला ईश्वर मैं ही हूँ। मैं भिन्न भिन्न योनियों में अवतार लेकर उन उन लोकों में जाकर धर्म की पुनः स्थापना करता हूँ। देवयोनि में, गन्धर्व योनि में अथवा नागयोनि में जैसी भी योनि में प्रादुर्भूत होता हूँ वैसे वैसे ही आचार-विचार तथा व्यवहार किया करता हूँ। इस समय मैं मनुष्य योनि में अवतीर्ण हुआ हूँ। इसलिये कौरवों पर अपनी ईश्वरीय शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहता था। पहले मैने दीनता पूर्वक सन्धि के लिये ही उनसे प्रार्थना की थी। उन्होंने मोह में ग्रस्त होने के कारण मेरी हितकर बात को भी हवा में उड़ा दिया। इसके पीछे मैने उनके सामने युद्ध की भयानक विभीषिकाओं का वर्णन किया किन्तु वे न माने। क्योंकि उनके सिर पर काल खेल रहा था। हाँ इतना अवश्य है कि वे कौरव मर कर भी क्षत्रिय धर्म के अनुसार संग्राम करके स्वर्गलोक में चले गये हैं। इधर पाण्डव अपने धर्माचरण के कारण समस्त लोकों में विख्यात हुए हैं।
     इस प्रकार के सुन्दर वचनों को सुनकर उत्तंक मुनि प्रशान्त हो गया और श्रीकृष्ण जी से अपना विराट रुप दिखाने का अनुरोध किया। प्रसन्नवदन भक्तवत्सल भगवान ने उत्तंक को अपने विराट् रुप के दर्शन भी करा दिये। उत्तंक मुनि महाप्रभु श्रीकृष्ण जी के तेजमय विराट रुप को देखकर अत्यन्त भयभीत और विस्मित हुए उनसे अपने उसी नर रुप में लौट जाने की उन्होने प्रार्थना की। अब भगवान श्रीकृष्ण जी ने उत्तंक जी से कहा कि ""ऐ मुनिवर! आपको विदित हो कि मेरा विश्वरुपदर्शन अमोघ होेता है। इसलिये आप मुझसे कोई वरदान माँगिये। बिना वर प्रदान किये तुम्हारा यह विराट् रुप का देखना सफल नहीं होगा।''
     उत्तंक तपोनिष्ठ था। जिस भूमि पर वह साधना कर रहे थे, वहाँ जल की एक बूँद भी नहीं मिलती थी। उत्तंक ने हाथ जोड़कर यही वर माँगा कि मुझे यहाँ इच्छानुसार पानी मिल जाया करे। श्री भगवान ने उत्तंक से सहर्ष कहा कि जब जब आपको जल पीने की इच्छा हो तब आप मुझे स्मरण कर लीजियेगा। आप जी भर पानी पा लेंगे। इतना कहकर भगवान तो द्वारिका की ओर चले गये।
     एक दिन उत्तंक घनी तपस्या से उठा और उसे जल की प्यास ने बहुत व्याकुल किया। तुरन्त ही उसने श्रीकृष्ण जी की सुन्दर मूर्ति का ध्यान करके जल की याचना की। इतने में ही उन बुद्धिमान मुनि को उस मरु प्रदेश में कुत्तों के झुंड से घिरा हुआ एक नंग-धड़ंग चाण्डाल दिखाई पड़ा उसके शरीर में मैल और कीच जमी हुई थी। वह देखने में बड़ा भयंकर था। उसकी कमर में तलवार और हाथो में धनुष-बाण थे। उत्तंक की दृष्टि उस चाण्डाल के पैरों की ओर गई-उसने देखा कि पाँव के नीचे से एक छिद्र से प्रचुर जल की धारा उछल रही है। मुनि को पहचानते ही वह चाण्डाल खिलखिला कर हँसा और बोलाः-""ओ भृगुकुल तिलक उत्तंक! आओ, मुझसे जल ग्रहण करो। तुम्हें प्यास से पीड़ित देखकर मुझे तुम पर बड़ी दया आ रही है।'' चाण्डाल के मुख से ये वचन सुनकर भी उत्तंक के मन में उस पानी को पीने की तनिक भी इच्छा न हुई। मुनि ने उससे जल लेना स्वीकार न किया। इतना ही नहीं-मुनि उत्तंक को भगवान श्रीकृष्ण जी की इस कृपा पर बड़ा क्रोध आया। उधर चाण्डाल, मुनि को जल ले लेने का आग्रह करने लगा। मुनि ने किसी तरह भी वह जल न लिया और लगा मन ही मन भगवान श्रीकृष्ण जी को कोसने। चाण्डाल भी मुनि के अन्तर्मन को जानकर वहाँ से अन्तर्धान हो गया।
     अभी मुनि अशान्त अवस्था में ही थे कि शंख-चक्र-गदाधारी श्री कृष्ण जी वहाँ आ प्रकट हुए। उन्हें देखकर महामना उत्तंक बोलेः-""हे पुरुषोत्तम! प्रभो! आपको श्रेष्ठ ब्रााहृणों के लिये चाण्डाल के स्पर्श किया हुआ वैसा अपवित्र जल देना उचित नहीं था।'' प्रभु ने उत्तंक को रोषपूर्वक देखकर सान्त्वना देते हुए यों कहाः-""महर्षे! उस रेगिस्तान में जैसा रुप धारण करके वह जल आपको देना उचित था; उसी रुप से दिया गया। खेद! आप उस रहस्य को समझ न सके।''""भृगुनन्दन!तुमने तो मुझसे अन्य कोई बहुमूल्य पदार्थ न माँग कर इस जलहीन प्रदेश में पीने के लिये जल ही माँगा था। परन्तु मैंने देवेश इन्द्र से प्रार्थना की कि आप अभी भूमण्डल पर जाइये और उत्तंक नामक महातपस्वी को अमृत पान कराइये।'' इन्द्र ने मेरी बात को काटते हुए कहा कि ""मनुष्य को अमृत पिलाकर अमर नहीं किया जा सकता। इसलिये आप उन्हें अमृत न देकर और कोई वर प्रदान कीजिये।'' परन्तु मैने इन्द्र से तुम्हारे लिये आग्रह किया कि आपने उत्तंक को तो अवश्यमेव अमृत ही देना है।''
     इस पर भृगुपुत्र उत्तंक! इन्द्र मुझे प्रसन्न करने के लिये इस प्रकार बोले कि ""यदि उत्तंक को अमृत देना ही देना है तो मैं चाण्डाल का रुप धारण करके वहाँ जाऊँगा और वह मुनि अमृत लेना स्वीकर करेंगे तो उन्हें दे दूँगा अन्यथा उन्हें अमृत न मिल सकेगा।'' महर्षे! आपने तो चाण्डाल रुप में आए हुए साक्षात् इन्द्र के हाथों अमृत लेना भी स्वीकृत न किया और उसे ठुकरा दिया। यह आपका घोर अपराध है। अच्छा, आपकी जल की समस्या को किसी और रुप में सुलझाऊँगा।
     सच है महापुरुष दया के सागर हैं। उन्हें पग पग पर जीव के उत्कट कल्याण की इच्छा बनी रहती है। यह जीव ऐसा मन्दमति और कठोर है जो उनके इशारे को समझ नहीं पाता। उनकी श्री आज्ञा और वचनों को अपनी रजोमयी और तमोमयी बुद्धि की तुला पर तौलने की कोशिश करता है। तभी तो उत्तंक जल की जगह पर मिलने वाले अमृत का भी निरादर कर बैठा। तिस पर भी भगवान उसकी किसी प्रकार से भी भत्र्सना नहीं करते। उसके जल के कष्ट को और किसी ढंग से दूर करने के लिये तैयार हो जाते हैं। महापुरुषों की इतनी विराट दयालुता के आगे सिर झुका लेना पड़ता है और अल्पमति जीव की बुद्धि पर तरस आने लगता है।
     श्री भगवान फिर बोले,""प्रिय मुनिवर! जिन दिनों आपको जल पीने की इच्छा होगी, उन्हीं दिनों मरुप्रदेश में जल से भरे हुए मेघ घिर आयेंगे।'' भृगृनन्दन उत्तंक! उनसे आपको शीतल, मधुर तथा निर्मल जल मिलेगा। उस जल में किसी का भी स्पर्श न होगा। इस प्रकार करुणानिधान भगवान श्री कृष्णचन्द्र जी महाराज उस मुनि की आशाओं को परिपूर्ण करके आँखों से ओझल हो गये।

No comments:

Post a Comment