Tuesday, February 9, 2016

भक्त कल्याण जी

भक्त कल्याण दास

     भक्त कल्याण दास महाराष्ट्र के रहने वाले थे। उनके पिता रामदास बहुत बड़े ज़मींदार थे। उनके पास अपार धन-सम्पत्ति थी, परन्तु इस धन-सम्पत्ति में उनकी तनिक भी आसक्ति न थी। वे बड़े ही साधु-सेवी, भगवद्भक्त और सरल स्वभाव के थे। उनका ह्मदय अत्यन्त कोमल था। दूसरे को दुःखी देखकर उनका ह्मदय पसीज उठता; फलस्वरुप वे हर प्रकार से उसकी सहायता कर उसका दुःख दूर करने का प्रयत्न करते। उनकी पत्नी भी उन्हीं की तरह ही धार्मिक विचारों वाली और सरल ह्मदया थी। माता-पिता के वे इकलौते पुत्र थे, इसलिये उनके प्रति माता-पिता का स्वाभाविक ही अतुल स्नेह था। संसार में आमतौर पर यही देखने में आता है कि यदि घर में धन-पदार्थों की बहुलता हो और बच्चे के साथ माता-पिता का अत्यधिक स्नेह भी हो, तो इकलौती सन्तान प्रायः बिगड़ जाती है और बुरी संगति में पड़कर कुमार्ग पर लग जाती है। किन्तु कल्याणदास के विषय में ये बात न थी। माता-पिता के धार्मिक विचारों तथा धर्म-कर्म में उनकी रुचि का तो कल्याणदास पर प्रभाव पड़ा ही, बाल्यकाल से ही सत्संगति मिलने के कारण उनके ह्मदय में भक्ति का बीजारोपण छोटी आयु में ही हो गया। सौभाग्य से उन्हें पूर्ण महापुरुषों की शरण-संगति भी प्राप्त हो गई और उनसे सच्चे नाम की भी प्राप्ति हो गई। सद्गुरुदेव के शुभ आशीर्वाद तथा उनकी अनुकम्पा से भक्ति का यह बीज शनैः शनैः प्रगति करने लगा। सत्रह वर्ष की आयु होने पर अन्नपूर्णा नामक कन्या से उनका विवाह कर दिया गया। अन्नपूर्णा धार्मिक विचारों की और बड़ी ही सुशीला थी। उसके पिता मायादास यद्यपि अत्यन्त धनाढ¬ थे, परन्तु थे बड़े ही कंजूस और सांसारिक विचारों के व्यक्ति।
     एक बार निरन्तर कई वर्षों तक वर्षा न होने से उस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा, जिससे लोग दाने-दाने को तरसने लगे। कल्याणदास के पिता रामदास अपनी उदारता के लिये उस क्षेत्र में प्रसिद्ध तो थे ही, फलस्वरुप भूख से व्याकुल जनता सहायता के लिये उनका द्वार खटखटाने लगी। उन्होंने किसानों का लगान तो माफ किया ही, सबके लिये अन्न का भण्डार भी खोल दिया। किन्तु यह भण्डार कब तक चलता, क्योंकि रामदास के द्वार पर आने वाले याचकों की संख्या कोई कम तो थी नहीं, परिणाम यह हुआ कि अन्न-भण्डार शीघ्र ही खाली हो गया। रामदास धन खर्च कर बाहर से अन्न मँगवाने लगे। धन समाप्त होने पर उन्होंने घर के आभूषण आदि बेच डाले और जब वे भी समाप्त हो गये, तो फिर उधार अन्न मंगवाना आरम्भ कर दिया। चूँकि वे धनी-मानी और प्रसिद्ध व्यक्ति थे, इसलिये पहले तो व्यापारी उन्हें उधार देते रहे, परन्तु धीरे-धीरे जब उन्हें वास्तविक स्थिति का पता चला, तो उन्होंने उधार देना बन्द कर दिया, उधार चुकता करने के लिये भी बार-बार आग्रह करने लगे। कुछ लोग तो न्यायालय में जाने की धमकी भी देने लगे। एक तो ऋण चुकाने की चिंता, दूसरे बदनामी का भय; परिणाम यह हुआ कि वे हर समय चिंतित रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनका स्वास्थ्य इतना अधिक गिर गया कि बचने की कोई आशा ही न रही। अन्तिम समय निकट आया जानकर रामदास ने कल्याण को बुलाकर कहा-बेटा! मेरा अन्तिम समय आ पहुँचा है। मैं तो अब जा रहा हूँ। मैंने तुम्हे एक विशेष कार्य के लिये बुलाया था, परन्तु अब सोचता हूँ कि तुमसे कहूँ या न कहूँ।
     कल्याण ने कहा-आप निःसंकोच ह्मदय की बात मुझसे कहें, हिचकिचायें नहीं। मैं वचन देता हूँ कि आपकी इच्छा प्राणपण से पूरी करूँगा। रामदास ने शान्ति की सांस ली मानो उनके सीने पर रखा कोई बोझ उतर गया हो, तत्पश्चात् बोले-मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। कल्याण! तुम्हें पता ही है कि भूख से व्याकुल लोगों की सहायता करने में मेरे ऊपर काफी ऋण चढ़ गया है। जैसे भी हो, यह ऋण चुका देना, यही मेरी
अन्तिम इच्छा है। भगवान तुम्हारा कल्याण करेंगे। ये शब्द कहकर रामदास ने कल्याणदास के सिर पर हाथ
रखकर उसे आशीर्वाद दिया और सदा के लिये आँखें मूँद लीं।
      कल्याणदास अभी पिता की तेरहीं से निपटे ही थे कि उनकी माता जी भी परलोक सिधार गई। उन्होंने प्रभु की इस इच्छा को भी शिरोधार्य किया। तेरहीं में सम्मिलित होने के लिये अन्नपूर्णा का ज्येष्ठ भ्राता आया। सब कार्य सम्पूर्ण हो जाने के उपरान्त उसने कल्याणदास से कहा-यदि आप आज्ञा दें, तो कुछ दिन अन्नपूर्णा घर हो आये। कल्याणदास ने इसमें कोई आपत्ति न की और अन्नपूर्णा दूसरे दिन भाई के साथ मायके चली गई। सब सम्बन्धियों के चले जाने के बाद कल्याणदास ने सोचा कि अब सर्वप्रथम मुझे पिता जी की अन्तिम इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करना चाहिये। धन और आभूषण तो अन्न क्रय करने में पहले ही भेंट हो चुके थे, अतः उन्होंने अपनी सम्पत्ति बेचकर ऋण चुकाने का निर्णय किया।
     पहले लिखा जा चुका है कि कल्याणदास के श्वसुर मायादास यद्यपि काफी धनाढ¬ थे, परन्तु थे पूरे कंजूस। उनके पुत्र तो कंजूसी में उनसे भी एक पग आगे थे। अतएव उन्होंने इस संकट के समय में सहायता करना तो एक ओर रहा, कल्याणदास को सांत्वना तक न दी। कल्याणदास भी उनके पास सहायता मांगने नहीं गये और जाते भी क्यों? सच्चे गुरुमुख संसार की ओर नहीं ताकते, वे तो केवल इष्टदेव सद्गुरु का ही आश्रय ग्रहण करते और उन्हीं के चरणों में दृढ़ विश्वास रखते हैं, जैसा कि सन्तों का कथन हैः-
एक भरोसा एक बल, एक आस विस्वास।
स्वांति सलिल सतगुरु चरण, चात्रिक तुलसीदास।।
सच्चे गुरुमुख इष्टदेव सद्गुरु के अतिरिक्त न तो किसी अन्य की आस रखते हैं और न ही कष्टों के आने पर घबराते हैं। वे तो जीवन में आने वाले प्रत्येक सुख-दुःख तथा उतार-चढ़ाव को इष्टदेव का प्रसाद समझकर प्रसन्नतापूर्वक झोली में डालते हैं। वे विचारवानों के इस कथन को सदैव स्मरण रखते हैं किः-
न खुशी अच्छी है न मलाल अच्छा है।
जिस हाल में तू रखे वह हाल अच्छा है।।
     कल्याणदास ने सम्पत्ति बेचनी शुरु कर दी। ऋण चूंकि बहुत अधिक था, अतः उनकी सारी सम्पत्ति ऋण की भेंट हो गई। कल्याणदस के पास बचे केवल वे कपड़े, जो उन्होंने शरीर पर धारण कर रखे थे। कल का राजकुमार आज कंगाल बनकर गांव से बाहर निकला, परन्तु कल्याणदास के मन में तनिक-सी भी खिन्नता नहीं थी। गांव वालों तथा सम्बन्धियों ने कोरी सहानुभूति प्रदर्शित कर अपना कत्र्तव्य पूरा कर दिया; किसी ने भी उसकी सहायता न की। सत्पुरुषों ने सत्य ही फरमाया हैः-
इह जगि मीतु न देखियो कोई।।
सगल जगतु अपनै सुख लागिओ दुख मै संगि न होई।।
(गुरुवाणी)
गांव के बाहर आकर मन ही मन विचार करने लगे कि इस असत् संसार और उसकी झूठी मोह-ममता से गुरुदेव ने उसका पल्ला छुड़ा कर कितना महान उपकार किया है। अब पुनः मोह-ममता की दलदल में क्यों फंसा जाये? अब क्यों न शेष जीवन गुरु-दरबार की सेवा में लगाकर अपना समय सफल किया जाये?
     इस प्रकार अपना शेष जीवन गुरु-दरबार की सेवा में लगाने का दृढ़ निश्चय करके वे पैठण (महाराष्ट्र का एक नगर) की ओर चल दिये, जहां गोदावरी नदी के तट पर उनके गरुदेव का आश्रम था। कई दिन की यात्रा के उपरान्त वे आश्रम पर जा पहुँचे। गुरुदेव के श्री दर्शन करके वे प्रेम-विह्वल हो उठे। नेत्रों से प्रेमाश्रु
बहाते हुये वे गाने लगेः-

प्रभो मोहि कीजै अपना दास।।टेक।।
द्वार पे आया हूँ मैं तुम्हरे, जग से होय निरास।।
दीजिये मोहि शरण प्रभु अपनी, काटिये जग की फांस।।1।।
राखूँ मन में आस तुम्हारी, तज करि दूजी आस।
किरपा करि प्रभु मोहि दीजै, श्री चरणन में वास।।2।।
विनती करुँ दोऊ कर जोरि के, मान लीजै अरदास।
सेवा भक्ति मो को दीजै, जान के 'दासनदास'।।3।।
गुरुदेव के पूछने पर कल्याणदास ने सब वृत्तान्त श्री चरणों में सुनाकर निवेदन किया-प्रभो! मैं तो अब कंगाल हो चुका हूँ; इसलिये अब मुझे अपनी शरण में ठौर दीजिए। गुरुदेव ने फरमाया-कल्याण! तुम्हारे पास तो नाम-भक्ति का अमुल्य एवं अक्षय खज़ाना है, फिर तुम अपने को कंगाल क्यों कहते हो? क्या तुम सत्पुरुषों के ये वचन भूल गये कि-
कबीर सब जग निर्धना, धनवन्ता नहिं कोय।
धनवंता सोइ जानिये, जाके सत्तनाम धन होय।।
कल्याण! तुम्हें तो प्रभु का कोटि-कोटि धन्यवाद करना चाहिये और उनका आभार मानना चाहिये कि उन्होंने तुम्हें जग जंजाल से छुटकारा दिला दिया है। अब तुम समय का पूरा-पूरा लाभ उठाओ और अपना एक-एक स्वांस सेवा, भक्ति और नाम में लगाकर अपने जन्म को सकारथ करो। जो घड़ियां मालिक की याद में, मालिक के सुमिरण-ध्यान में बीतें, वे घड़ियाँ ही सफल हैं।
कबीर संगत साध की, सार्इं आवै याद।
लेखे में सोई घड़ी, बाकी दिन बरबाद।।
कल्याणदास आश्रम में रहकर प्राणपण से सेवा-भक्ति में जुट गये और अपना एक-एक पल लेखे लगाने लगे। इसी प्रकार काफी दिन व्यतीत हो गये। कल्याणदास के श्वसुर मायादास को जब बहुत दिन तक उनके बारे में कोई समाचार न मिला, तो वह चिन्तित हो उठा। अभी तक तो वह यह सोच रहा था कि कल्याणदास दूसरी जगह कोई कामकाज करके अन्नपूर्णा को ले जायेगा, परन्तु जब उनकी ओर से इतने दिन बीत जाने पर भी कोई सन्देश न मिला, तो उसने एक दिन अपनी पत्नी और पुत्रों को बुलाकर कहा-कौन जाने कल्याणदास जीवित भी है या नहीं। यदि वह जीवित भी हो, तो उस कंगाल के साथ अन्नपूर्णा का रहना अब उचित नहीं। हमें अब उसका कहीं दूसरी जगह विवाह कर देना चाहिये। मायादास की पत्नी बोली-ठीक ही तो है। उस भिखारी के साथ अब हमें सम्बन्ध तोड़ लेना चाहिये। उसके साथ सम्बन्ध रखना तो मानो अपनी मान-मर्यादा में बट्टा लगाना है। फिर उसके साथ रहने से तो अन्नपूर्णा का सारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। इसलिये उसका पुनर्विवाह कर देना ही उचित है।
     सबने अन्नपूर्णा के पुनर्विवाह की बात स्वीकार कर ली। अन्नपूर्णा के बड़े भाई ने कहा-पिता जी! आप पण्डित जी से कहकर उसके लिये वर की खोज करायें। मायादास बोला-वह मैं पहले ही कर चुका हूँ। मधुकर ज़मींदार के साथ मैं इस विषय में बात भी कर आया हूँ। उन्होंने अपने पुत्र केशव के लिये अन्नपूर्णा का रिश्ता स्वीकार कर लिया है। पुत्र ने विरोध किया-वह तो लम्पट और शराबी है तथा पूरे क्षेत्र में बदनाम है। उसके साथ अन्नपूर्णा का विवाह करके क्या आप उसे नरक में ढकेलना चाहतेे हैं? मायादास ने कहा-यौवन में कुछ न कुछ अवगुण तो सभी में होते ही हैं। हो सकता है कि वह थोड़ी-बहुत शराब पीता हो। किन्तु अन्नपूर्णा बड़ी समझदार है, मुझे विश्वास है कि वह उसे सीधी राह पर ले आयेगी। फिर ऐसा धनी-मानी परिवार मिलना क्या
आसान बात है?
     लड़कों ने कुछ देर तक विवाद किया, परन्तु अन्ततः उन्हें पिता की बात माननी ही पड़ी। मायादास ने केशव के साथ अन्नपूर्णा के विवाह की बात पक्की कर दी। गांव वालों ने जब यह सुना,तो सभी को यह बात बुरी तो बहुत लगी, परन्तु मायादास और मधुकर-दोनों ही चूँकि धनाढ¬ व्यक्ति थे और उस क्षेत्र में उनका दबदबा था, अतः विरोध करने का किसी का भी साहस न हुआ। कुछ सम्माननीय व्यक्तियों ने जब मायादास को समझाने का प्रयत्न किया कि कल्याणदास के जीवित रहते अन्नपूर्णा का दूसरे के साथ विवाह करना लोकमर्यादा के विरुद्ध है, तो उसने यह कहकर उनका मुंह बन्द कर दिया कि कल्याण के जीवित होने का क्या प्रमाण है? यदि वह जीवित है, तो अब तक अन्नपूर्णा की खोज-खबर लेने क्यों नहीं आया? क्या हम उसकी प्रतीक्षा में अन्नपूर्णा को जीवनपर्यन्त घर बैठाये रखें? चूँकि इन प्रश्नों का उनके पास कोई उत्तर नहीं था, इसलिये वे चुपचाप वापस लौट गये।
     अन्नपूर्णा पति के वियोग में दुःखी तो पहले ही थी,विवाह के समाचार ने उसकी दुःखाग्नि में घृत का काम किया। उसने मन ही मन यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह किसी भी स्थिति में दूसरा विवाह नहीं करेगी। विवाह के एक दिन पूर्व तक वह अपने पति की प्रतीक्षा करेगी। यदि कल्याणदास आ गये तो ठीक, अन्यथा वह विष खाकर अपने प्राण त्याग देगी।
     उन्ही दिनों अन्नपूर्णा के गाँव के कुछ लोग तीर्थ-यात्रा से वापिस आये। यात्रा के मध्य पैठण जाना हुआ, जहां उनकी कल्याणदास से अकस्मात् मुलाकात हो गई। गांव वापस आकर उन्होंने कयाणदास से मिलने का समाचार मायादास को सुनाया। यह समाचार सुनते ही मायादास, उनकी पत्नी तथा लड़कों के चेहरे उतर गये। अन्नपूर्णा ने भी यह समाचार सुना। उन लोगों के चले जाने के बाद उसने घर वालों के समक्ष स्पष्ट रुप से कह दिया-मेरे पति जीवित हैं और आप लोग मेरे पुनर्विवाह की सोच रहे हैं। किन्तु आप सब यह बात निश्चित रुप से जान लें कि मैं इस शरीर के रहते किसी अन्य पुरुष से विवाह कदापि नहीं करुँगी।
     यह सुनकर सभी भड़क उठे। अन्नपूर्णा को एक कमरे में बन्द कर दिया गया। उसके घर से बाहर निकलने और अड़ोस-पड़ोस में जाने पर पूरी पाबन्दी लगी दी गई। अन्नपूर्णा के पास अब इसके अतिरिक्त और चारा ही क्या था कि वह प्रभु के चरणों में सहायता के लिये प्रार्थना करे। वह अपने कमरे में बैठी रात-दिन अश्रु बहाने और प्रभु-चरणों में प्रार्थना करने लगी। कोई प्रभु चरणों में आत्र्त पुकार करे और उसकी पुकार सुनी न जाये, यह तो हो ही नहीं सकता। अन्नपूर्णा की एक सहेली पड़ोस में ही रहती थी, जिसका नाम था सुशीला। दोनों का आपस में अत्यधिक स्नेह था। अन्नपूर्णा पर जो कुछ बीत रहा था, उससे सुशीला भी बहुत दुःखी थी। वह हर समय उसके विषय में ही सोचती रहती। अन्ततः उसे एक युक्ति सूझी। उसने अपने भाई अनिरुद्ध को एकान्त में बुलाकर कहा-भैया तुम जानते ही हो कि अन्नपूर्णा मेरी बचपन की सहेली है। उसके साथ जो अन्याय हो रहा है, वह तुमसे छिपा हुआ नहीं है। मुझसे उसकी यह दशा देखी नही जाती। अनिरुद्ध ने उत्तर दिया-सो तो ठीक है, परन्तु इस विषय में हम लोग क्या कर सकते हैं? जब उसके पिता ने गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की बात नहीं मानी, तो फिर वह हमारी तुम्हारी क्या सुनेगा?
     सुशीला ने कहा-भैया! मैं उसके पिता के पास जाने की बात नहीं कर रही। मुझे एक युक्ति सूझी है। यदि तुम थोड़ी सी सहायता कर दो, तो कदाचित् उस बेचारी के कष्ट दूर हो जायें। अनिरुद्ध ने कहा-दीदी! अन्नपूर्णा दीदी का भी मैं उतना ही आदर करता हूँ जितना तुम्हारा। तुम जो कहोगी, मैं करने को तैयार हूँ। यदि मेरी सहायता से उसका कष्ट दूर हो सकता है, तो फिर मैं इस काम से पीछे नहीं हटूँगा। बताओ, मुझे क्या करना है? सुशीला ने कहा-कल्याणदास पैठण में है, यह तो तुम्हें पता लग ही चुका होगा। तुम्हें पैठण जाना होगा। मैं अभी अन्नपूर्णा के पास जाती हूँ और कल्याणदास के नाम पत्र लिखवा कर लाती हूँ। तब तक तुम घोड़े पर ज़ीन कस लो। पैठण पहुंच कर वह पत्र तुम्हें कल्याणदास के गुरुदेव के चरणों में पहुँचाना है। किन्तु पत्र के विषय में यहां किसी के कानों में तनिक सी भी भनक नहीं पड़नी चाहिये। कोई पूछे भी तो कह देना कि काम से शहर जा रहा हूँ।
     यह कहकर सुशीला अन्नपूर्णा के घर चली गई। वहां जाकर उसने अन्नपूर्णा की माता को प्रणाम किया, कुछ देर उससे मीठी-मीठी बातें की, फिर अन्नपूर्णा के कमरे में चली गई। कमरे में पहुँचकर उसने अन्दर से कुण्डी बन्द कर ली। तत्पश्चात् अन्नपूर्णा को बहुत ही धीमे शब्दों में अपनी योजना बताई और कल्याणदास के नाम एक पत्र लिखकर देने को कहा। अन्नपूर्णा ने पत्र में अपनी सारी करुण कहानी लिखकर अन्त में लिखा-मेरा पत्र मिलने पर भी आप आयें या न आयें, यह तो आपकी इच्छा पर निर्भर है, परन्तु मैं एक-एक पल आपकी प्रतीक्षा में व्यतीत करुंगी। यदि आप न आये, तो फिर मैं विष खाकर प्राण त्याग दूँगी, परन्तु जीते जी किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं करुँगी।
     पत्र लेकर सुशीला अपने घर आई। अनिरुद्ध जाने के लिये बिल्कुल तैयार था। उसने माता-पिता से यह कहकर आज्ञा ले ली थी कि वह एक दो दिन के लिये नगर में अपने मित्र के पास जा रहा है। उसने सुशीला से पत्र लिया और घोड़े पर सवार होकर पैठण की ओर चल दिया। तीसरे दिन सायंकाल वह पैठण पहुँचा और पता लगाकर आश्रम पर गया। गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होकर उसने अपना परिचय दिया और अन्नपूर्णा के विषय में सब कुछ निवेदन कर पत्र उनके चरणों में रख दिया। गुरुदेव ने तत्काल कल्याणदास को बुलाया और उसे पत्र देते हुये फरमाया-यह पत्र पढ़ लो।
     कल्याणदास ने पत्र पढ़कर श्री चरणों में रख दिया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। गुरुदेव ने फरमाया-तुम्हारे कारण किसी के प्राण जायें, यह ठीक नहीं है। इसलिये कल प्रातः ही अनिरुद्ध के साथ तुम्हें जाना है। दो दिन की यात्रा तुम दोनों इकट्ठे तय करोगे, उसके बाद अनिरुद्ध तुम्हें छोड़ देगा ताकि ग्रामवासियों को यह न पता चले कि अनिरुद्ध यहां आया था। शेष मार्ग तुम पैदल तय करोगे। तुम्हें अन्नपूर्णा को साथ लेकर यहां आना है जिससे कि वह भी सेवा-भक्ति करके अपने समय का सदुपयोग कर सके और अपना जन्म सफल कर सके।
     दूसरे दिन प्रातःकाल कल्याणदास पैठण से चले और गुरुदेव की आज्ञानुसार दो दिन अनिरुद्ध के साथ तथा उसके बाद तीन दिन पैदल चल कर लगभग प्रातः चार बजे अपने श्वसुर मायादास के घर जा पहुँचे। घर का द्वार अभी बन्द था, इसलिए वे बाहर चबूतरे पर ही बैठ गए। द्वार खटखटाना उन्होंने उचित न समझा। अन्नपूर्णा को सुशीला द्वारा यह पहले ही ज्ञात हो चुका था कि कल्याणदास एक-दो दिन के अन्दर ही वहां पहुँचने वाले हैं, इसलिये वह बड़ी व्याकुलता से पति की प्रतीक्षा कर रही थी। थोड़ी देर बाद जब मायादास के पुत्र ने द्वार खोला, तो उसकी दृष्टि चबूतरे पर बैठे कल्याणदास पर पड़ी। उसने अन्दर जाकर सबको यह समाचार दिया। सुनकर सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये। फिर कुछ सोचकर लोक-लाज के भय से मायादास जमाता को अन्दर ले गये। ऊपर से सबने यही प्रकट किया मानो उन्हें कल्याणदास के आने से अत्यन्त हर्ष हुआ हो।
     जलपान के उपरांत अन्नपूर्णा के भाई कल्याणदास के साथ वात्र्तालाप करते रहे। दोपहर के भोजन केबाद एक कमरे में उनके विश्राम का प्रबन्ध कर दिया गया। अन्नपूर्णा आकर उनके पाँव दबाने लगी। आज उसके हर्ष का पारावार न था। थोड़ी देर बाद जब वे सो गये, तो अन्नपूर्णा उठकर अपने कमरे में चली गई। इधर मायादास ने अपनी पत्नी तथा पुत्रों को एकत्र करके आपस में परामर्श किया-गाँव वालों को कल्याणदास के आने का अभी तक पता नहीं, इसलिए आज रात ही भोजन में विष देकर इसकी छुट्टी कर देनी चहिये तकि रातों-रात ही लाश को ठिकाने लगाया जा सके। कल्याणदास को कैसे और कहां ठिकाने लगाना है, इस विषय में उन लोगों में दिन भर कानाफूसी होती रही। उनकी फुसफुसाहट में अन्नपूर्णा के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। सायंकाल जब मायादास की पत्नी भोजन बनाने लगी, तो अन्नपूर्णा भी मां की सहायता करने लगी। माँ ने दो-तीन बार उसे मना भी किया, परन्तु मना करने पर भी वह वहाँ से न टली। उस दिन भोजन में अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये गये।
     जब भोजन का समय हुआ, तो अन्नपूर्णा की मां ने अन्नपूर्णा से कहा-जा दौड़कर चाँदी की थाली तो निकाल ला। जमाता को पीतल की थाली में भोजन परोसा जाये, यह अच्छा थोड़ा ही लगेगा? अन्नपूर्णा जब थाली लेकर वापस लौटी, तो रसोईघर में फुसफुसाहट की आवाज़ सुनकर वह खिड़की में से झांकने लगी। उसने मायादास को व्यंजनों में कोई पाउडर मिलाते हुये देखा। उसका ह्मदय कांप उठा। अब सब कुछ उसकी समझ में आ चुका था। विष के बारे में पति को सावधान करने के लिये जब वह कल्याणदास के कमरे में गई, तो वहाँ कल्याणदास मौजूद न था। न जाने उसके भाई उन्हें कहां ले गये थे। वह चिंतित हो उठी। अब वह करे तो क्या करे? मां को थाली पकड़ा कर वह भागती हुई अपने कमरे में गई और एक छोटे-से कागज़ पर ये शब्द लिखकर कि ""भोजन में विष मिला है'', तुरन्त वापस लौट आई।
     पापिष्ठा सास ने कल्याणदास के लिये चांदी की थाली में भोजन परोस कर उसे एक सुन्दर रेशमी रुमाल से ढककर पुत्र को आवाज़ दी। किन्तु भाई के आने के पूर्व ही अन्नपूर्णा ने थाली उठा ली। उसने आँख बचाकर वह परचा थाली में रख दिया। रसोईघर से बाहर निकलते ही अन्नपूर्णा के भाई ने थाली उससे ले ली। जिस कमरे में कल्याणदास के भोजन का प्रबन्ध किया गया था, वह उसके साथ वाले कमरे में चली गई और परदे की आड़ से झांकने लगी। उसका ह्मदय बड़ी जोरों से धड़क रहा था।
     कल्याणदास ने गुरुदेव को भोग लगवाया। तत्पश्चात् जैसे ही वे भोजन आरम्भ करने लगे कि उनकी दृष्टि कागज़ पर पड़ी। पढ़ते ही उनके नेत्र अश्रूपूर्ण हो गये और व्याकुलता की स्थिति में वे मन ही मन कहने लगे-गुरुदेव! मुझ अधम ने आज आपको विषाक्त भोजन का भोग लगवाया। प्रभो! अनजाने में मुझसे जो यह घोर अपराध हुआ है, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। हे मेरे प्राणाधार! जिस भोजन का आपको भोग लग चुका है, वह तो मेरे लिये प्रसाद रुप है, इसलिए चाहे अब प्राण रहें अथवा न रहें, प्रसाद तो मुझे ग्रहण करना ही है।
     कल्याणदास भोजन करने लगे। देखते ही अन्नपूर्णा मूÐच्छत होकर गिर पड़ी। आवाज़ सुनकर अन्नपूर्णा के भाई चौंक उठे। उन्होंने उसे उठाया और तहखाने में ले जाकर बन्द कर दिया। मूच्र्छा टूटने पर जब उसने स्वयं को तहखाने में बन्द पाया, तो वह लगी ज़ोर-ज़ोर से रोने और गुरुदेव के चरणों में पुकार करने। विषाक्त भोजन करते-करते कल्याणदास एकाएक छटपटाने लगे। कुछ ही पल में उनके शरीर पर नीलापन स्पष्ट झलकने लगा। शरीर अकड़ गया और वे अचेत होकर वहीं गिर पड़े। मायादास और उसके पुत्र यह समझकर कि काम पूरा हो चुका है, लाश को ठिकाने लगाने के विषय में मंत्रणा करने लगे। अन्त में यह तय हुआ कि मकान के पिछवाड़े के आँगन में गड्ढा खोद कर लाश वहीं दबा दी जाये। वे लोग यह बात पूरी तरह भूल गये कि जिसको मालिक जीवित रखना चाहे, उसे संसार में कौन मार सकता है? सन्तों का कथन हैः-
जाको राखे साइयाँ, मार सकै न कोय।
बाल न बाँका कर सकै, जो जग वैरी होय।।
गुरुवाणी में भी फरमान हैः-
जिसका सासु न काढत आपि।। ता कउ राखत दे करि हाथ।।
परामर्श अनुसार वे सब तो गड्ढा खोदने लगे। इधर कल्याणदास को मूच्र्छा की स्थिति में ऐसा अनुभव हुआ जैसे वे स्वप्न देख रहे हों। उन्होंने देखा कि उसके प्राणधन गुरुदेव सुन्दर सिंहासन पर विराजमान हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हुये अमृतमय वचन फरमा रहे हैं-कल्याण उठो! तुम इस प्रकार अचेत क्यों पड़े हो? तुम्हें तो कुछ भी नहीं हुआ। तुम तो बिल्कुल ठीक हो। इन वचनों के साथ ही कल्याणदास को ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी ने उनके कन्धे झंझोड़ कर उन्हें गहरी निद्रा से जगा दिया हो। वे कुछ देर तक आँखें बन्द किये लेटे रहे। चारों ओर ऐसा सन्नाटा छाया था कि अपने स्वांसों की ध्वनि उन्हें स्पष्टरुप से सुनाई दे रही थी। कुछ देर के उपरांत उन्होंने आँखें खोली। कमरे में दीपक का हल्का-हल्का प्रकाश फैला हुआ था। उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली। धीरे-धीरे सभी घटनायें सजीव होकर चलचित्र की भांति उनके मनःपटल पर घूमने लगीं। गुरुदेव के उपकार को स्मरण कर वे भाव-विह्वल हो गये और आनन्द अश्रु बहाते हुये उच्च स्वर से गाने लगेः-
सतगुरु मैं तुम्हरी बलिहारी।।
तुम्हरे पावन चरणकमल पर, तन मन सब ही वारी।।1।।
हैं अनन्त उपकार प्रभु तुम्हरे, तुम हो परम हितकारी।
अपने सेवकजन की प्रभु जी, कबहूँ सुधि न बिसारी।2।।
पार न पावैं शेष शारदा, महिमा अमित तुम्हारी।
मैं गाऊँ फिर किस विधि स्वामी, हूँ मतिमन्द अनारी।।3।।
कर्ता धर्ता हो तुम जग के, सब दुःख कष्ट निवारी।
राखी पैज सदा भक्तन की, अपनो बिरद संभारी।।4।।
"दासनदास' दोऊ कर जोरि कै, विनती करत चरणारी।
मम हिरदै में सदा बिराजै, सुन्दर छवि तुम्हारी।।5।।
मायादास उसकी पत्नी तथा पुत्रों ने जो पाप कर्म किया था, उसके कारण घबराये हुये तो वे पहले ही थे, कहीं पत्ता भी खड़कता तो वे भय से कांपने लगते थे, भजन की आवाज़ कानों में पड़ते ही उन सबके ह्मदय किसी अज्ञात आशंका से ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगे। वे भागे-भागे उस कमरे की ओर गये, जहां वे अपनी समझ से कल्याणदास को मृत छोड़ आये थे। वहां का दृश्य देखते ही उनके होश उड़ गये, काटों तो खून नहीं। उनकी समझ में न आया कि वे जो कुछ देख रहे हैं, सत्य है अथवा स्वप्न, क्योंकि जिनको उन्होंने भोजन में अत्यन्त घातक विष मिलाकर दिया था, भोजन करते-करते ही जो विष के प्रभाव से अचेत होकर गिर पड़े थे और जिन्हें वे मृत समझ चुके थे, वही कल्याणदास भाव-विभोर होकर भजन गाने में तल्लीन थे। उनके शरीर पर नीलाहट का चिन्ह तक न था, उनका शरीर तो पहले से भी अधिक सुन्दर दिखाई दे रहा था। यह चमत्कार देखकर सभी भय के मारे थर-थर कांपने लगे और उनके चरणों में गिर कर अपने कुकृत्य के लिये क्षमा याचना करने लगे।
     कल्याणदास ने उन्हें क्षमा करते हुये कहा-इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं है। ये कोई मेरे पूर्व कृत कर्म का फल था, जिसके परिणामस्वरुप मुझे विष खाकर कष्ट भोगना था, परन्तु कृपालु गुरुदेव ने मुझे तनिक-सा भी कष्ट नहीं होने दिया। अपनी दया से उन्होंने मेरा सारा कष्ट हर लिया। वे गुरुदेव के उपकारों का मुक्त कण्ठ से गायन करने लगे। महिमा करते-करते वे गुरुदेव के ध्यान में इस कदर लीन हो गये कि उन्हें अपने शरीर की तनिक भी सुधि न रही। मायादास आधी रात भर भयभीत से वहां बैठे रहे।
     प्रातःकाल कल्याणदास ने मायादास से कहा-रात जो कुछ हुआ, उसे भूल जाइये। अब मैं यहां से जाना चाहता हूँ। आप अन्नपूर्णा से पूछ लें कि वह मेरे साथ जाना चाहती है अथवा आप लोगों के साथ रहना चाहती है। उसकी जैसी इच्छा हो, आप वैसा ही कीजिये। मायादास ने अन्नपूर्णा के पास जाकर पूछा-हमारी बात मानकर तथा केशव के साथ विवाह करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहती हो अथवा राह के भिखारी कल्याणदास के साथ जाना चाहती हो। अन्नपूर्णा ने दृढ़ता से कहा-आपके लिये वे मार्ग के भिखारी होंगे, परन्तु मेरे लिये तो वे देवतुल्य हैं। मायादास ने पुनः कहा-भलीभाँति सोच-विचार लो। यदि तुम हमारी बात न मानकर कल्याणदास के साथ जाओगी, तो फिर समझ लो कि आज के बाद हमारा-तुम्हारा नाता सदा के लिये समाप्त हो चुका। अन्नपूर्णा ने उत्तर दिया-पिताजी! मैने भलिभाँति सोच-विचार लिया है। यदि आपने मुझे उनके साथ नहीं जाने दिया, तो फिर निश्चित जानिये कि मैं आत्महत्या कर लूंगी। मेरी हत्या का दोष फिर आप लोगों के सिर होगा।
     मायादास भयभीत हो गया। उसने पत्नी और पुत्रों के साथ परामर्श कर अन्ततः अन्नपूर्णा को कल्याणदास के साथ विदा कर दिया। कल्याणदास अन्नपूर्णा के साथ पैठण की ओर चल दिये। जाने से पूर्व अन्नपूर्णा ने सुशीला तथा उसके भाई अनिरुद्ध का बहुत-बहुत धन्यवाद करते हुये कहा-आप दोनों ने मुझ पर जो उपकार किया है, उससे मैं कभी भी उऋण नहीं हो सकती। मैं सदा तुम्हारे लिए मंगलकामना करती रहूंगी। सुशीला और अनिरुद्ध की आँखों में खुशी के आँसू छलछला आए। उन्होंने उसे प्रेमसहित विदाई दी।
     मायादास ने अन्नपूर्णा को कल्याणदास के साथ विदा तो कर दिया, परन्तु कुकर्म से बाज़ फिर भी न आया। उसने अपने पुत्र द्वारा केशव के पास सन्देश भिजवाया कि अन्नपूर्णा का पति कल्याण दास उसे अपने साथ पैठण ले जा रहा है। यदि साहस हो तो कल्याणदास की हत्या कर अन्नपूर्णा को वापस ले आओ। सन्देश मिलते ही केशव क्रोध से तिलमिला उठा। उसने अपने कुछ विश्वस्त घुड़सवार सैनिकों को साथ लिया और पैठण की ओर जाने वाले मार्ग पर अपना घोड़ा दौड़ा दिया। कुछ ही समय बाद केशव ने कल्याणदास तथा अन्नपूर्णा को जा घेरा।
     केशव तलवार निकाल कर कल्याणदास पर वार करना ही चाहता था कि एक ओर से पच्चीस-तीस घुड़सवार सैनिक वहां आ पहुँचे। उन्होंने केशव और उसके साथियों को ललकारा उन्हें देखते ही केशव और उसके साथी भय से कांपने लगे; जिसको जिधर मार्ग मिला भाग खड़ा हुआ। उन लोगों के भाग जाने पर घुड़सवार भी जिधर से आये थे, उधर ही वापस लौट गये। कल्णादास समझ गये कि यह सब श्री गुरुदेव की ही एक लीला है।
     पैठण पहुँचकर दोनों गुरुदेव के श्री चरणों में उपस्थित हुये। गुरुदेव के पावन दर्शन कर वे गद्गद हो गये। दोनों आश्रम में ही रहने लगे। इस प्रकार गुरुदेव की छत्रच्छाया में रहकर तथा सेवा-भक्ति की कमाई कर उन्होंने अपना जन्म सफल किया और अपना नाम सदा-सर्वदा के लिए अमर कर गये।

भक्त अंगद सिंह जी

भक्त अंगदसिंह जी

परमसंत श्री कबीर साहिब जी के वचन हैंः-
भक्ति प्राण ते होत है, मन दै कीजै भाव।
     परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव।।
प्राचीन समय की बात है, भारतवर्ष के मध्यभारत के क्षेत्र में एक छोटा सा राज्य था जिसका नाम था-सैनगढ़। जिस समय की हम यह कथा लिखने जा रहे हैं, उन दिनों उस राज्य पर राजा दीनसलाह सिंह का शासन था। अंगदसिंह उन्हीं राजा दीनसलाह सिंह के भतीजे थे, जिन्होंने अभी यौवन अवस्था में पग रखा था। अंगदसिंह शारीरिक-रुप से बलिष्ठ तो थे ही, बुद्धिमान्, निर्भीक, साहसी और देशभक्त भी थे। इन गुणों के कारण राजा दीनसलाहसिंह अपने भतीजे को बहुत चाहते थे। अंगदसिंह भी अपने चाचा का बहुत आदर करते थे और उनके हर आदेश का पालन करने को सदा तत्पर रहते थे। विचारवानों का कथन है किः-
है गुण अवगुण सब विषे, इन बिन जंतु न कोई।
                           (सारुक्तावलि)
अंगदसिंह में भी जहाँ इतने सारे गुण विद्यमान थे, वहाँ कुछ अवगुण भी मौजूद थे। राज-परिवार से सम्बन्धित होने के कारण धन-धान्य की तो कोई कमी थी नहीं, फिर यौवनावस्था भी थी, इस पर सुसंगति की बजाय मिल गई कुसंगति, फल यह हुआ कि वे अत्यन्त विलास-प्रिय और ऐय्याश बन गये थे तथा खेल-तमाशे, आमोद-प्रमोद और नाच-गाने आदि में ही अपना अधिकतर समय व्यतीत करने लग गये थे। अर्थात् कुसंगति का रंग उनपर पूरी तरह चढ़ गया था। अपनी इस कुमित्र-मण्डली के साथ सारा दिन बिताकर वे रात देर गए घर वापस आते, परन्तु दशा यह होती कि नशे में पूरी तरह चूर होते।
     अंगदसिंह के माता-पिता परलोक सिधार चुके थे। राजा दीनसलाहसिंह के कोई सन्तान नहीं थी, इसलिए अंगदसिंह ही उनके राज्य के उत्तराधिकारी थे। राजा को अंगदसिंह की यह कुमित्र मण्डली और उनकी ये आदतें बिल्कुल अच्छी न लगती थीं। अतः उन्होंने यह सोचकर अंगदसिंह का विवाह कर दिया कि जब वह पत्नी की ओर आकर्षित हो जायेंगे तो कुमित्र-मण्डली का आकर्षण स्वयमेव ही कम हो जायेगा और वे अपने आप ही सुधर जायेंगे।
     अंगदसिंह की पत्नी बड़ी ही भक्तिभावसम्पन्न, सन्त-सेवा, सुशील स्वभाव की, मृदुभाषी तथा पतिव्रता थी। उसके माता-पिता बड़े ही भक्तिभाव वाले और साधु प्रकृति के थे तथा पूर्ण सद्गुरु से उन्हें नाम की दात भी मिली हुई थी। उनके घर प्रायः सत्संग होता रहता था। इस प्रकार अंगदसिंह की धर्म-पत्नी को बाल्यकाल से ही सत्संगति का सुअवसर मिलता रहा था जिससे उसके अन्दर भक्ति के विचार काफी सुदृढ़ हो गये थे। प्रभु-भक्त और प्रभु-प्रेम का उस पर गहरा रंग चढ़ा हुआ था।
     अंगदसिंह की दिनचर्या देखकर पहले तो उनकी धर्मपत्नी को बड़ा आघात लगा, परन्तु वह शीघ्र ही संभल गई। उसने अपने व्यवहार से यह बात बिल्कुल भी न प्रकट होने दी कि उसे पति की आदतें पसन्द नहीं हैं, न ही उसने कभी अपने पति से उनके आचरण के लिए शिकायत की। वह चुपचाप अपने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए दिन व्यतीत करने लगी। जब तक अंगदसिंह घर पर रहते, वह उनकी हर तरह से सेवा करती और मधुर शब्दों में संभाषण करती। उसके इस प्रकार के व्यवहार का परिणाम यह हुआ कि अंगदसिंह के ह्मदय में उसने अपना स्थान बना लिया। अंगदसिंह उसकी प्रत्येक बात को पूरा करने और उसे हर तरह से प्रसन्न रखने का प्रयास करते। उनके मन में कई बार यह विचार उठता कि आमोद-प्रमोद और रंग-रलियों की महफिलों में
आना-जाना छोड़ दें, परन्तु कुमित्रों के आते ही वह विचार पूरी तरह दब जाता और वे उनके साथ चल पड़ते।
     यह देखकर उनकी धर्मपत्नी मन ही मन अत्यन्त दुःखी होती और भगवान के चरणों में घंटों इस बात के लिए प्रार्थना करती कि भगवान उसके पति पर अपनी कृपादृष्टि डालें और उन्हें कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगायें। भगवान उन्हें ऐसी सुमति दें कि कुसंगति के गंदले तालाब में विषयों की मछलियाँ पकड़ने की अपेक्षा वे सुसंगति के मान-सरोवर में मज्जन करें और नाम भक्ति के मुक्ता चुग-चुगकर खायें। अन्ततः उसकी सच्चे मन से की गई पुकार रंग लाई और भगवान ने अंगदसिंह के जीवन में परिवर्तन लाने का सब प्रबन्ध कर दिया। किसी भी कार्य के लिये यदि ह्मदय की गहराइयों से भगवान के चरणों में प्रार्थना की जाए तो वह प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। अंगदसिंह के जीवन सुधार के लिए उसकी धर्मपत्नी द्वारा की गई प्रार्थनाओं के फलीभूत होने का भी समय आ गया।
     हुआ यह कि एक दिन अंगदसिंह की धर्मपत्नी के गुरुदेव अकस्मात् उसके घर आ गए। गुरुदेव के दर्शन करके उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसने तुरन्त आंगन में उनके लिए पलंग तैयार किया और गरुदेव उस पर विराजमान हो गए। आज्ञा पाकर वह भी धरती पर बैठ गई। नौकर-चाकर भी एकत्र हो गए और उसका संकेत पाकर वहीं धरती पर बैठ गए।
     उस दिन अंगदसिंह भी सायंकाल होते ही घर लौट आए। घर में प्रवेश करते ही उन्होंने क्या देखा कि आंगन में एक तेजस्वी सन्त पलंग पर विराजमान हैं और उनकी धर्मपत्नी उनके सम्मुख दोनों हाथ जोड़े धरती पर बैठी है। सारे नौकर-चाकर भी वहीं बैठे हैं। सन्त कुछ कह रहे हैं और सभी उसे सुनने में मग्न हैं। अंगदसिंह तो विलासप्रिय व्यक्ति थे, उन्हें भला इन कार्यों से क्या रुचि हो सकती थी। दूसरे, अपनी पत्नी का जोकि भविष्य में उस राज्य की होनेवाली रानी थी, इस प्रकार किसी साधु-सन्त के सामने हाथ जोड़कर बैठना बिल्कुल अच्छा न लगा। वे यह सब देखकर झल्ला उठे। किन्तु जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि अंगदसिंह की धर्मपत्नी ने अपने व्यवहार से उनके दिल में काफी जगह बना ली थी और अंगदसिंह उसे बहुत चाहने लगे थे; फलस्वरुप वे हर समय इसी प्रयास में रहते थे कि उनकी पत्नी सदा प्रसन्न रहे और कभी कोई ऐसी बात न हो जिससे कि दोनों में एक-दूसरे के प्रति कटुता उत्पन्न हो। उस समय भी वहां सन्तों को बैठे देखकर पहले तो वे क्रोध से तिलमिला उठे, फिर न जाने क्या सोचकर वे बड़बड़ाते हुए अपने कमरे में चले गए। न ही निकट आए और न ही सन्तों को प्रणाम किया।
     अंगदसिंह की पत्नी अब तक सब कुछ सहन करती आई थी, परन्तु अंगदसिंह के आज के इस अविनययुक्त और अनीति पूर्ण व्यवहार से उसे गहरा आघात पहुँचा। उसके गुरुदेव तो पूर्ण महापुरुष थे जो मान-अपमान, स्तुति-निंदा तथा हर्ष-शोक आदि से बहुत ऊपर उठ चुके थे। ऐसे संत महापुरुषों के लिए ही गुरुवाणी में फरमान हैकिः-
सुखु दुखु जिह परसै नहीं लोभ मोह अभिमानु।
कहु नानक सुन रे मना सो मूरति भगवान।।
उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि।
कहु नानक सुनु रे मना मुकति ताहि तै जानि।
हरख सोग जा कै नहीं वैरी मीत समान।
कहु नानक सुनि रे मना मुक्ति ताहि तै जानि।।
अस्तु, मान-सम्मान और हर्ष-शोक आदि को समान समझनेवाले गुरुदेव अंगदसिंह के व्यवहार से तनिक भी उद्विग्न न हुए, हाँ! उन्होंने यह अवश्य जान लिया कि घर के स्वामी के ह्मदय में साधु-सन्तों के लिए तनिक भी
आदरभाव नहीं है। ऐसा जानकर उन्होंने वहाँ अब अधिक देर रुकना उचित न समझा। वे तुरन्त उठ खड़े हुए और चलने को तैयार हो गए। अंगदसिंह की पत्नी ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया, रुकने के लिये बार-बार प्रार्थना की, परन्तु गुरुदेव यह कहते हुए वहाँ से चले गए कि इस समय हम जल्दी में हैं, फिर कभी आयेंगे।
     गुरुदेव के प्रति अंगदसिंह के अनुचित एवं अविनययुक्त व्यवहार से उसकी पत्नी को गहरा आघात तो लगा ही था, परन्तु अब गुरुदेव के वहां से चले जाने पर तो मानो उस पर पहाड़ टूट पड़ा। वह मूÐच्छत होकर वहीं गिर पड़ी। सेवक और सेविकायें तो वहां उपस्थित ही थे, कुछ ने दौड़कर अंगदसिंह को सूचना दी। सेविकायें उसे उठाकर उसके कमरे में ले गर्इं और उसे होश में लाने का प्रयास करने लगीं। काफी देर बाद जब उसे होश आया और उसने आँखें खोलीं तो सामने अंगदसिंह को देखकर उसने पुनः आँखें मूँद लीं और करवट लेकर पड़ गई। अंगदसिंह ने एक-दो बार उसे आवाज़ दी, परन्तु जब उसकी ओर से कोई उत्तर न मिला तो उसने सोचा-चलो! इसे होश तो आ ही गया है, कुछ देर आराम कर लेगी तो स्वस्थ हो जायेगी। यह सोचकर उन्होंने सबको उसका पूरा-पूरा ध्यान रखने का आदेश दिया और स्वयं अपने कमरे में चले गये।
      कुछ समय के पश्चात् दासियाँ जब अंगदसिंह की पत्नी के लिए भोजन लेकर गई तो उसने भोजन करने से इनकार कर दिया और उन सबसे कह दिया कि न कोई मेरे निकट आये और न ही कोई मुझे बुलाने का प्रयत्न करे। दासियों ने अंगदसिंह को सब समाचार दिया। अंगदसिंह अपनी पत्नी के कमरे में गए। वह द्वार की ओर पीठ करके लेटी हुई थी और उसकी आँखों से आँसूं बह रहे थे। अंगदसिंह ने तीन चार बार उसे आवाज़ दी, परन्तु उसकी ओर से कोई उत्तर न मिलने पर वे यह बड़बड़ाते हुए अपने कमरे में वापस चले गये कि भोजन करती है तो करे, नहीं तो पड़ी रहे मरने के लिये।
     इसी प्रकार चार दिन बीत गये। अंगदसिंह की पत्नी ने भोजन करना तो दूर रहा, इन चार दिनों में जल की एक बूंद तक ग्रहण न की। रोते-रोते उसकी आँखें सूज गर्इं। उसकी हालत बिगड़नी शुरु हो गई। राजा दीनसलाहसिंह को पता चला तो उसने आकर समझाया, रिश्तेदारों और सम्बन्धियों ने आकर समझाया, परन्तु वह आँखे बन्द किये चुपचाप उसी प्रकार लेटी रही। धीरे-धीरे यह बात पूरे नगर में फैल गई कि अंगदसिंह की पत्नी ने इसलिये अन्न-जल का त्याग किया है क्योंकि उसके गुरुदेव का अंगदसिंह ने अपमान किया है। सारा नगर अंगदसिंह को दोष देने लगा।
अन्ततः अंगदसिंह पाँचवे दिन दोपहर को एकान्त होने पर अपनी पत्नी के कमरे में गए। वह उसी तरह गुम-सुम पलंग पर लेटी हुई थी। अंगदसिंह ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोले-मैने तुम्हारे दिल को बहुत ठेस पहुँचाई है। मैं अपने किये पर बहुत लज्जित हूँ। अब तुम जैसा कहोगी, मैं वैसा ही करूँगा। उठो, और कुछ खा-पी लो। अंगदसिंह की पत्नी ने जब ये शब्द सुने, तो पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ, फिर सोचने लगी-क्या भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली है? क्या इनके सुधरने का समय आ गया है? लगता है कि भगवान ने सचमुच ही मेरी पुकार सुन ली है। अन्यथा ये इस प्रकार के शब्द क्यों कहने लगे? यह सोचकर वह भगवान के प्रति कृतज्ञता से भर गई। उसकी आँखों से पुनः अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। रोते-रोते वह बोली-आपने जो उस दिन मेरे गुरुदेव का अपमान किया, उसी से मेरे ह्मदय को ठेस पहुँची है, क्योंकि गुरुदेव तो परब्राहृ परमेश्वर का अवतार होते हैं। आपने उनका अनादर नहीं किया, अपितु सर्वेश्वर परमात्मा का अनादर किया है। इससे जघन्य पाप संसार में भला और क्या हो सकता है? आप कुसंगति में पड़कर जो कुछ भी अनुचित कर्म करते रहे, मैने उस पर कभी अंगुली नहीं उठायी; चुपचाप उन्हें सहन करती रही। किन्तु गुरुदेव का अपमान मेरी आँखों के सामने हो, यह मेरी आत्मा कभी सहन नहीं कर सकती। इसलिए अच्छा
यही है इस अपराध के प्रायश्चितस्वरुप मैं अपने प्राण त्याग दूँ।
     यह सुनकर अंगदसिंह व्याकुल हो उठे और बोले-ऐसा मत कहो। मैं अभी तुम्हारे गुरुदेव के पास जाता हूँ और उनसे अपने अपराध के लिए क्षमा माँगता हूँ।अब उठो और कुछ खाओ -पीओ ताकि मुझे कुछ तसल्ली हो। अंगदसिंह की पत्नी ने कहा-जब तक गुरुदेव से क्षमा याचना करके और उन्हें मनाकर आप घर नहीं लायेंगे और साथ ही यह प्रतिज्ञा नहीं करेंगे कि भविष्य में आप किसी भी साधु-सन्त का न तो अनादर करेंगे और न ही उन्हें घृणा की दृष्टि से देखेंगे तब तक मैं जल भी ग्रहण नहीं करुँगी,यह मेरा प्रण है।
     अंगदसिंह ने उसके सामने प्रतिज्ञा करते हुए कहा-जो कुछ हुआ सो हुआ। अब भविष्य में मुझसे कभी ऐसा अपराध नहीं होगा। मैं अभी जाकर गुरुदेव से क्षमा की भिक्षा मांगता हूँ और उन्हें मनाकर आदर-सहित यहां लाता हूँ। साथ ही मैं यह प्रतीज्ञा करता हूँ कि आज से कुसंगति का पूरी तरह परित्याग करके मैं जीवन का शेष समय सत्संगति और प्रभु के सुमिरण-भजन में व्यतीत करूंगा। अंगदसिंह के ये शब्द सुनकर उनकी पत्नी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और भगवान की इस असीम अनुकम्पा के लिए उन्हें बार बार मन ही मन धन्यवाद देने लगी और अपनी कृतज्ञता प्रकट करने लगी। यही तो वह मन से चाहती थी कि अंगदसिंह दुष्टमण्डली को छोड़कर सत्संगति और भजन-सुमिरण में अपना समय व्यतीत करें। आज उसकी यह इच्छा पूरी हो रही थी, इसलिए भगवान की कृपा का अनुभव कर आज वह बहुत प्रसन्न थी।
     अंगदसिंह उसी समय गुरुदेव के आश्रम पर पहुँचे और जाते ही उनके चरणों में गिर पड़े और अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगे। सन्त महापुरुष किसी से रुष्ट ही कब होते हैं? वे तो करुणा, दया और क्षमा के अवतार होते हैं और जीवों के कल्याण के लिए सब कुछ सहन करते हैं। गुरुदेव ने अंगदसिंह को क्षमा कर दिया और उनकी प्रार्थना पर उनके घर चले गए। वहीं पर अंगदसिंह ने गुरुदेव से नाम-दीक्षा ले ली और उस दिन से अपना अधिकतर समय नाम-सुमिरण,भजन-ध्यान और सन्तों की सेवा में व्यतीत करने लगे। वे भगवान श्रीकृष्ण के उपासक थे। कुछ ही दिनों में उनकी दशा यह हो गई कि वे भगवान के श्री दर्शन के लिए उसी प्रकार छटपटाने लगे जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु में मरुस्थल की तपती रेत में प्यास से व्याकुल हिरण एक घूँट जल के लिए छटपटाने लगता है। किन्तु दर्शन देने से पूर्व भगवान अपने भक्त की भक्ति में दृढ़ता देखते हैं। यह देखते हैं कि भक्त ने दृढ़ता से उनका ओट-आसरा पकड़ा है या नहीं। अगंदसिंह जी की परीक्षा का समय भी आ गया। उस समय के बादशाह को जब इस बात का पता चला कि सैनगढ़ पर एक वृद्ध राजा शासन कर रहा है तो उसने राज्य को अपने अधीन करने का विचार कर अपने सूबेदार को बुलाया और उसे सैनगढ़ पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। राजा दीनसलाहसिंह एक तो वृद्ध था, दूसरे उसके पास इतनी अधिक सेना भी नहीं थी, इसलिए यह समाचार सुनते ही उसके होश उड़ गए। उसने तुरन्त अपने भतीजे अंगदसिंह को बुलाया और कहा-अंगद! शत्रु हमारे ऊपर एक बड़ी सेना लेकर चढ़ आया है। मेरे हाथ-पाँव तो अब शिथिल हो चुके हैं, इसलिए युद्ध कर सकना अब मेरी सामथ्र्य से बाहर है। सैनगढ़ की रक्षा और सम्मान का भार अब तुम्हारे ही हाथों में है। मै जानता हूँ कि बादशाह की सेना की तुलना में हमारी सेना बहुत ही कम है, फिर भी मुझे तुम्हारी वीरता और साहस पर पूरा-पूरा विश्वास है।
     अपने चाचा दीनसलाहसिंह के ये शब्द सुनते ही अंगदसिंह की भुजायें फड़कने लगीं और हाथ बार-बार तलवार पर जाने लगा। उन्होंने कहा-चाचा जी! आप ज़रा भी न घबरायें। शत्रु-सेना चाहे हम से संख्या में कितनी ही अधिक है, परन्तु हम उस टिड्डीदल को यह दिखा देंगे कि युद्ध किसे कहते हैं? हमारी तलवारें जब बिजली की तरह युद्भूमि में कड़केंगीं तो आप इस टिड्डीदल को सिर पर पाँव रखकर भागते देखेंगे।
     इस प्रकार अपने चाचा राजा दीनसलाहसिंह को तसल्ली देकर अंगदसिंह महल से बाहर आए और
सेनापति को सेना एकत्र करने का आदेश दिया। युद्ध का डंका बजा और कुछ ही देर बाद अपनी थोड़ी-सी सेना के साथ अंगदसिंह ने शत्रुसेना पर हल्ला बोल दिया। सूबेदार को ऐसी आशा बिल्कुल नहीं थी। वह तो यह सोच रहा था कि इतनी बड़ी सेना को देखकर राजा दीनसलाहसिंह आत्म समर्पण कर देगा। इसलिए वह बिल्कुल निÏश्चत था। इस अप्रत्याशित आक्रमण से पहले तो वह घबरा गया और उसकी सेना में भी खलबली मच गई परन्तु वह शीघ्र ही संभल गया और अपनी सेना में उत्साह भर कर उसने अंगदसिंह की सेना पर जवाबी हमला बोल दिया। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के सैंकड़ों सैनिक हताहत हुए। अंगदसिंह और उसके सैनिकों ने वीरता के वे जौहर दिखाये कि शत्रु-सेना के पैर उखड़ गए और वह मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई, किन्तु सूबेदार न बच सका। अंगदसिंह ने सूबेदार का सिर काट लिया। उस समय सूबेदार ने एक मुकुट पहन रखा था जिसमें अनेकों हीरे जड़े हुए थे। उन सबके बीचों-बीच एक बहुत ही मूल्यवान हीरा भी था। उसे देखते ही अंगदसिंह के मन में विचार उठा कि यह बहुमूल्य हीरा तो भगवान के मकुट में शोभा पाने के योग्य है। यह विचार उठते ही अंगदसिंह ने वह हीरा मुकुट में से निकाल लिया। तत्पश्चात् वे अपनी बहादुर सेना केसाथ विजय का डंका बजाते हुए नगर लौटे और राजा के सामने सूबेदार का सिर और वह मुकुट रखते हुए कहा-यह सूबेदार का सिर और उसका मुकुट है। आपके आशीर्वाद से हमारी सेना विजयी हुई है। दीनसलाहसिंह बड़े प्रसन्न हुए और अंगदसिंह को गले लगा लिया। राज्य में इस विजय के उपलक्ष्य में खूब खुशियाँ मनाई गर्इं।
     कुछ दिनों के बाद किसी ने राजा दीनसलाहसिंह को इस बात की शिकायत कर दी कि सूबेदार के मुकुट में एक हीरा ऐसा था जो बहुत ही मूल्यवान था, आपको मुकुट देने से पूर्व अंगदसिंह ने वह हीरा मुकुट में से निकाल लिया था। ""इतना बहुमुल्य हीरा अंगदसिंह ने मुकुट में से निकाल लिया और मेरे को बताया तक नहीं।'' यह सोचकर राजा दीनसलाहसिंह का पारा चढ़ गया। अंगदसिंह की यह बात उसे बिल्कुल पसन्द न आई। लोभ ने उसकी बुद्धि का हरण कर लिया। वह इस बात को पूरी तरह भूल गया कि अंगदसिंह के कारण ही वह आज सैनगढ़ के सिंहासन पर बैठा हुआ है। अन्यथा आज वह बादशाह के कारागृह में पड़ा होता। उसने उसी समय अंगदसिंह को बुलाया और बोला-अंगद! हमने सुना है कि सूबेदार के मुकुट में एक अत्यन्त मूल्यवान हीरा था, जिसे तुमने निकाल लिया है।
     अंगदसिंह ने उत्तर दिया-आपने सही सुना है। वह हीरा भगवान के मुकुट में शोभा पाने योग्य है। मैंने यह सोचकर ही उसे निकाला है कि भगवान जगन्नाथ जी के सुन्दर मुकुट में उसे जुड़वाऊँगा। राजा दीनसलाहसिंह ने क्रोध में भरकर कहा-वह हीरा हमारे हवाले कर दो, वह हमारे मुकुट की शोभा बढ़ायेगा। अंगदसिंह ने उत्तर दिया-चाचा जी! वह हीरा तो भगवान जगन्नाथ जी के समर्पित करने का मैं निश्चय कर चुका हूँ, इसलिए वह हीरा आप मुझसे न मांगिये।
     राजा दीनसलाहसिंह ने कहा-तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह हीरा तुम हमें नहीं दोगे। अंगदसिंह ने कहा-ऐसा ही समझ लीजिए। वह भगवान का हो चुका है, इसलिए वह हीरा मैं आपको नहीं दे सकता।
     राजा क्रोध से तिलमिला उठा और कड़क कर बोला-तुम्हारा यह साहस! तुम्हें हीरा हमारे हवाले करना ही होगा। यदि तुमने ऐसा न किया और अपने इस धृष्टतापूर्ण व्यवहार के लिए हमसे क्षमा न मांगी तो फिर तुम्हें ऐसा कड़ा दण्ड दिया जायेगा, जो तुम सोच भी नहीं सकते। अंगदसिंह ने बड़े ही धीरज से उत्तर दिया-आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए, परन्तु वह हीरा तो मैं भगवान को समर्पित कर चुका हूँ। इसलिए अपने प्राण रहते किसी और को वह हीरा मैं नहीं दे सकता।
     यह कहकर अंगदसिंह वहाँ से चले गए। राजा खून का घूंट पीकर रह गया। रात भर उसे नींद न आई।
वह इसी ऊहापोह में पड़ा रहा कि हीरा कैसे प्राप्त किया जाए। वह जानता था कि अंगदसिंह के सशक्त हाथों से वह हीरा प्राप्त करना असम्भव है। इसलिए उसने छल-कपट का सहारा लेने का निश्चय किया। अंगदसिंह के लिए भोजन का थाल अंगदसिंह की धर्मपत्नी स्वयं तैयार करती थी और फिर एक नौकर वह थाल अंगदसिंह के पास ले जाता था। यह नौकर बहुत समय से उनके घर काम करता था और अंगदसिंह को उसने गोद में खिलाया था। अंगदसिंह को वह बहुत चाहता था। अंगदसिंह उसका बड़ा आदर करते थे, इसलिए उनकी पत्नी भी उसका आदर-सम्मान करती थी। राजा दीनसलाहसिंह ने अंगदसिंह के उस नौकर को कुछ डरा-धमका कर और कुछ धन का लोभ देकर उनके भोजन में विष मिलाने पर राज़ी कर लिया। उसने बहकावे और लोभ में आकर वैसा ही किया और रात्रि को विष मिलाकर भोजन अंगदसिंह को परोस दिया।
     अंगदसिंह का यह नियम था कि वे पहले अपने इष्टदेव को भोग लगवाते थे, तत्पश्चात् ही भोजन करते थे। उस समय भी जब थाल उनके सामने परोसा गया तो उन्होंने अपने नियम के अनुसार इष्टदेव को भोग लगवाया। यह देखकर नौकर की बुद्धि पलट गई कि देखो! एक यह है कि भक्ति-प्रेम-श्रद्ध के उच्च भावों से भरपूर हैं और एक मैं ऐसा नीच हूँ कि जिसे गोदी में खिलाया, जिसका इतने दिन नमक खाया और जो पिता की तरह मेरा आदर करता है, थोड़े से धन के लोभ में पड़कर उसी की हत्या करने पर तुला हुआ हूँ। यह तो साथ जाएगा नहीं, परन्तु इस पाप का फल तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।
     ह्मदय परिवर्तन होते ही उसने अंगदसिंह के पैर पकड़ लिए और बोला-मालिक! यह भोजन न करें, इसमें विष मिला हुआ है। मैं राजा के बहकावे में आ गया था, इसलिये मुझसे यह घोर अपराध हो गया। मुझे क्षमा कर दें। अंगदसिंह ने सुना तो हक्के-बक्के रह गए, फिर कुछ संभलकर बोले-मैने तुम्हें क्षमा कर दिया। भगवान ने तुम्हें सद्बुद्धि दी, यह उनकी तुम्हारे ऊपर अत्यन्त कृपा है अन्यथा तुम हत्या के दोषी हो जाते। उनकी इस कृपा को याद करके उनका भजन-ध्यान किया करो। रही भोजन की बात, सो इस भोजन को तो भगवान का भोग लग चुका है, इसलिए मेरे लिए तो यह अब विषमय भोजन नहीं, अमृतरुप प्रसाद है। भगवान का यह प्रसाद तो मैं अब अवश्य ही ग्रहण करुँगा।
     यह कहकर उन्होंने नौकर के बार-बार मना करने पर भी भोजन करना शुरु कर दिया। यह देखकर नौकर दौड़ा हुआ अंगदसिंह की पत्नी के पास गया और उससे बोला-आप अंगद सिंह जी को भोजन करने से तुरन्त रोकें। उसमें विष मिला हुआ है। अंगदसिंह की पत्नी ने कहा-उनके भोजन में विष कहाँ से आया?
     नौकर ने उसे सारी बात बतला दी। सुनते ही अंगदसिंह की पत्नी के पैरों तले से ज़मीन निकल गई। वह भागी हुई उस कमरे में गई जहाँ अंगदसिंह भोजन कर रहे थे, परन्तु उस के वहँा पहुँचने से पूर्व अंगदसिंह जल्दी-जल्दी भोजन कर चुके थे; उन्होंने थाल में एक कण भी न छोड़ा था। यह देखकर वह और भी घबरा गई। उसने तुरन्त राजवैद्य को बुलवाया और भोजन के विषय में सारी बात बताकर कहा-आप इन्हें कोई ऐसी औषधि दें जिससे इन पर विष का प्रभाव न हो।
     राजवैद्य ने औषधि तैयार की, परन्तु अंगदसिंह ने यह कह कर औषधि लेने से इन्कार कर दिया कि जिस भोजन का भगवान को भोग लग गया, वह तो अमृतरुप हो गया, फिर औषधि किसलिये ली जाए? यह कहकर वे मन्दिर में चले गए और भगवान के ध्यान में बैठ गए। उनकी धर्मपत्नी, राजवैद्य और वह नौकर भी उनके निकट बैठ गए। इस प्रकार सारी रात बीत गई, परन्तु अंगदसिंह पर विष का रत्ती भर भी प्रभाव न हुआ। तब राजवैद्य ने कहा-विष का किंचित्मात्र भी कोई लक्षण इनमें प्रकट नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि आप लोगों को धोखा हुआ है।
     यह कहकर राजवैद्य वहाँ से चला गया और राजा दीनसलाहसिंह को सारी घटना से अवगत कराया। यह
सुनकर कि अंगदसिंह पर विष का ज़रा भी प्रभाव नहीं हुआ, उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि नौकर ने धोखा दिया हो और भोजन में विष मिलाया ही न हो। यह सोचकर उसे बड़ा क्रोध आया।
     उधर अंगदसिंह की पत्नी इसे भगवान की कृपा समझ रही थी और भगवान की इस कृपा पर उसकी आँखों से प्रेम और कृतज्ञता के अश्रुकण गिर रहे थे। प्रातः होने पर अंगदसिंह ध्यान से उठे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा-हमारा सैनगढ़ में रहना अब बिल्कुल ठीक नहीं है। जिस देश का राजा भगवान का भक्त होना तो दूर, भक्तों का ऐसा विरोधी हो और फिर साथ ही ऐसा लोभी भी हो कि दूसरे की हत्या करने को भी तत्पर हो जाए, वहाँ रहना कदापि उचित नहीं। इसलिए मैं तो अब भगवान जगन्नाथ जी की पुरी में रहूँगा, तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। उसकी पत्नी ने कहा-मैं भी आपके साथ पुरी चलूँगी।
     दिन बीत, रात आई। अंगदसिंह आधी रात तक कमरे में लेटे रहे। आधी रात होने पर वे उठे। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। उन्होंने धीरे-से अपनी पत्नी को जगाया और तब दोनों उस सन्नाटे में घर से बाहर निकले और पुरी की राह ली। प्रातः होने पर जब नौकरों ने अंगदसिंह और उनकी पत्नी को घर में न पाया, तो कोहराम मच गया। समाचार राजा दीनसलाहसिंह तक भी पहुंचा। राजा ने तुरन्त अपने कुछ विशेष सैनिकों को बुलाकर आदेश दिया-अंगदसिंह घर से भाग गया है। उसकी पत्नी भी उसके साथ है। अंगदसिंह वह मूल्यवान हीरा अवश्य ही अपने साथ ले गया होगा। तुम लोग अलग-अलग दिशा में जाओ और उसका पीछा करो। अधिकतर संभावना उसकी पुरी की ओर जाने की है, क्योंकि वह हीरा अंगदसिंह जगन्नाथ जी को समर्पित करना चाहता था। चाहे जैसे भी हो, उससे वह हीरा प्राप्त करके ले आओ, चाहे इसके लिए तुम्हें अंगदसिंह और उसकी स्त्री की हत्या ही क्यों न करनी पड़े।
     सैनिक घोड़ें पर सवार होकर अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। उधर प्रातःकाल होने पर एक सरोवर देखकर अंगद सिंह ने वहाँ स्नानादि किया और भगवान के ध्यान में बैठ गए। उन्हें यह आशा कदापि नहीं थी कि सैनिक उनका पीछा करेंगे। अभी ध्यान में बैठे हुए उन्हें थोड़ी देर ही हुई थी कि सैनिक वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने अंगदसिंह को ध्यान से उठाया और बोले-राजा के आदेश से हम हीरा प्राप्त करने के लिए आये हैं। वह हीरा आप हमें दे दें, हम चुपचाप वापस लौट जायेंगे।
     अंगदसिंह ने कहा-वह हीरा तो भगवान की अमानत है वह मैं किसी सूरत में भी तुम लोगों को नहीं दे सकता। सैनिकों के सरदार ने कहा-आप चुपचाप हीरा हमारे हवाले कर दें, इसी में आपकी बुद्धिमत्ता और जीवन की कुशलता है, अन्यथा हम उसे बलपूर्वक आपसे ले जायेंगे, चाहे हमें आपका वध ही क्यों न करना पड़े।
     अंगदसिंह उस समय खाली हाथ थे। सोचने लगे-यदि इस समय खड़ग मेरे पास होता तो इनका इस प्रकार की बातें करने का साहस ही न होता। अब जैसी भगवान की इच्छा। तत्पश्चात् उन्होंने हीरा निकाला और यह कहते हुए कि ""प्रभो! दास की यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये'' वह हीरा उस सरोवर में फेंक दिया। यह देखकर सैनिक अवाक् रह गये। उनके ऐसे त्याग को देखकर वे बड़े प्रभावित हुए और उन्हें भगवान का सच्चा भक्त समझने लगे तत्पश्चात् वापस लौटकर उन्होंने सारा वृत्तान्त राजा को सुनाया। सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। किन्तु इतने पर भी वह प्रभु-भक्तों की महिमा को न समझा, क्योंकि उस पर तो लोभ का भूत सवार था। गोताखोरों और उन सैनिकों को साथ लेकर वह उस सरोवर पर स्वयं गया और गोताखोरों को हीरा खोजने का आदेश दिया। गोताखोरों ने सरोवर का चप्पा-चप्पा छान मारा, हीरा न मिलना था, न मिला। वह तो वहँा पहुँच चुका था, जहां की वह अमानत था। विवश होकर राजा राजधानी वापस लौट गया।
     उधर सैनिकों के जाने के बाद अंगदसिंह अपनी पत्नी के साथ पुरी के लिये पुनः चल पड़े थे। उसी रात भगवान ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा-अंगद! हमने तुम्हारी भेंट स्वीकार कर ली है। वह हीरा हमारे पास पहुंच चुका है और तुम्हारी इच्छानुसार हमारे मुकुट में सुशोभित हो रहा है। तुम शीघ्र पुरी पहुंचो। भगवान के इन वचनों के साथ ही अंगदसिंह की नींद टूट गई। उन्होंने अपनी पत्नी को जगाकर स्वप्न के विषय में बतलाया, फिर कहा-हमारी तुच्छ भेंट भगवान ने कृपा करके स्वीकार कर ली, मानो आज हमारे भाग्योदय हो गये। भगवान के आदेशानुसार अब हमें शीघ्रातिशीघ्र पुरी पहुँच जाना चाहिए। बिना मार्ग में विश्राम किये दोनों शीघ्र ही पुरी पहुंच गए। उन्होने सर्वप्रथम मन्दिर में पहुँचकर भगवान के दर्शन किये। उन्होंने देखा कि वह अनमोल हीरा भगवान के मुकुट में शोभा पा रहा है। यह देखकर अंगदसिंह की आँखों से प्रेमाश्रु प्रवाहित होने लगे। उन्होंने अब पुरी में ही रहकर भजन-सुमिरण करने का निश्चय किया।
     कुछ दिनों के उपरान्त राजा दीनसलाहसिंह को अंगदसिंह और उनकी पत्नी के विषय में समाचार मिला कि वे दोनों पुरी में रहकर साधु सन्तों की सेवा और भगवान का भजन-सुमिरण करते हुए जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तो वह अपनी करनी पर अत्यन्त लज्जित हुआ। उसके विचारों ने पलटा खाया और उन्हें वापस लौटा लाने के लिए वह स्वयं पुरी पहुँचा। अंगदसिंह का पता लगाया और अपने अपराधों के लिए उनसे क्षमा मांगी, तत्पश्चात् सैनगढ़ चलकर राजकाज संभालने के लिए उनसे प्रार्थना की। अंगदसिंह ने कहा-मेरा मन तो यहँा रम गया है, इसलिए मैं अब वापस नहीं जाऊँगा। शेष रही राजकाज की बात, सो उसकी अब कोई इच्छा मेरे मन में नहीं रही। जो सुख और आनन्द यहाँ रूखी-सूखी खाकर भगवान का भजन-सुमिरण करने और साधु-सन्तों की सेवा करने में मिलता है, वह ऐश्वर्य भोगों और भाँति-भाँति के व्यंजनों में कहाँ? इसलिए सैनगढ़ वापस चलने के लिए आप मुझसे मत कहिए।
     किन्तु राजा नहीं माना और बार-बार जिद्द करने लगा। उस रात भगवान ने अंगदसिंह को स्वप्न में दर्शन देकर राजा की बात स्वीकार कर लेने का आदेश दिया। भगवान का आदेश भला भक्त कैसे टाल सकता था? अंगदसिंह राजा के साथ सैनगढ़ लौटे। आते ही राजा ने उनका राज्याभिषेक कर राज्य की बागडोर उनके सुपुर्द की। तत्पश्चात् अंगदसिंह को साथ लेकर राजा दीनसलाहसिंह गुरुदेव के आश्रम पर पहुँचा, उनसे नाम-दीक्षा ली और फिर आश्रम पर ही रहकर शेष जीवन भक्ति-भजन और सेवा में व्यतीत किया।
     अंगदसिंह और उनकी पत्नी तो अब नियमितरुप से गुरुदेव के आश्रम पर जाकर सत्संग का लाभ प्राप्त करने लगे। कभी-कभी अंगदसिंह के अऩुरोध पर गुरुदेव महल में भी कृपा करते जहां सत्सग का प्रवाह चलता। इस प्रकार अंगदसिंह और उनकी पत्नी ने अपना जन्म तो सफल किया ही, उनके माध्यम से अन्य अनेकों जीवों का भी सुधार एवं उद्धार हुआ।

Thursday, January 7, 2016

गौतमी द्वारा साँप को निर्भयता



पितामह भीष्म शर-शय्या पर लेटे हैं। भगवान ने उनकी सारी शारीरिक पीड़ा को अपनी सुधा स्यन्दिनि चितवन डार कर पहले ही हर लिया था। युधिष्ठिर हाथ बाँधे उन राजर्षि जी के सम्मुख बैठे हैं और उनसे विनय करते हैं किः-                     वयं  हि  धार्तराष्ट्राश्च , कालमन्युवशं  गताः।
कृत्वेदं निन्दितं कर्म, प्राप्स्यामः कां गतिं नृप।।
हे नरेश्वर! हम पाण्डव और धृतराष्ट्र के सभी पुत्र काल और क्रोध के वशीभूत हो यह निन्दित कर्म करके न जाने किस दुर्गति को प्राप्त होंगे? निश्चय ही विधाता ने हमें पापी रचा है। राजन्। यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे परलोक में भी मुझे इस पाप से छुटकारा मिल सके।
मनीषी भीष्म जी भरतवंश भूषण युधिष्ठिर जी को यों कहते हैंः-
""महाभाग! तुम तो सदा परतन्त्र हो। तुम काल, भाग्य और ईश्वर के अधीन हो। फिर शुभाशुभ कर्मों का कारण अपने को क्यों समझते हो? यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियों के विषय से बाहर है। इस कर्म और कर्ता की समस्या को विस्पष्ट करने के लिये हम तुम्हें एक रुचिर संवाद सुनाते हैं।
     हे कुन्तीनन्दन! पूर्वकाल में गौतमी नाम वाली एक वृद्धा ब्रााहृणी थी। वह शान्ति के साधनों में लगी रहती। एक दिन उस ने देखा कि उसके इकलौते बेटे को साँप ने डस लिया और वह अचेत हो गया। इतने में अर्जुनक नाम का एक व्याध उधर आ निकला उसने साँप को ताँत के फांस में बाँध लिया। क्रोध में भरा हुआ वह शिकारी उसे गौतमी के पास लाया। व्याध ने कहाः-महाभागे! यह वही नीच सर्प है जिसने तुम्हारे पुत्र को मार डाला है। तुम मुझे जल्दी बताओ कि मैं इस सर्प को किस विधि से मार डालूँ? कहो तो मैं इसे आग में झोंक दूँ या इसके टुकड़े टुकड़े कर डालूं। बालक की हत्या करने वाला यह सर्प पापी है इसे अधिक समय तक जीवित नहीं रखना चाहिये।
     इस पर गौतमी बोलीः-ऐ अर्जुनक! इस सर्प को तू छोड़ दे। इसे मारना उचित नहीं है। देखो-होनहार को कोई नहीं टाल सकता। इस बात को जानकर कौन होगा जो साँप की हत्या का पाप अपने ऊपर ले। ऐ अर्जुनक! संसार में धर्म का आचरण कर के जो अपने को हलका रखते हैं अर्थात् अपने ऊपर पाप का बोझ नहीं लादते वे पानी के ऊपर चलने वाली नौका के समान भवसागर से पार हो जाते हैं। परन्तु जो पाप के बोझ से अपने आपको बोझिल बना लेते हैं, वे जल में फैंके हुये हथियार की भाँति नरक-समुद्र में डूब जाते हैं। इस साँप को मार डालने से मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता। इस सर्प के जीवित रहने पर भी तुम्हारी कोई हानि नहीं होती। ऐसी स्थिति में इस जीवित प्राणी के प्राणों का नाश करके कौन यमराज के अनन्त लोक में जाने की इच्छा करेगा?
   इतनी बात सुनते ही शिकारी के खून में उबाल आ गया और वह बोला कि जिन्हें हर अवस्था में शान्त रहने का स्वभाव होता है वे ही सारा दोष काल के माथे मढ़ देते हैं कि काल ही उसका आ गया था इसलिये वह मर गया। परन्तु जिन्हें अपने शत्रु से बिना बदला लिये जीना नहीं अच्छा लगता वे शत्रु का नाश करके सुख का सांस लेते हैं। इसलिये ऐ ब्रााहृणि! तू मुझे एक बार संकेत कर दे-मैं इस तेरे पुत्र के घातक को अभी कुचले देता हूँ।
    गौतमी ने कहाः-ऐ व्याध! हर एक के अपने अपने विचार और संस्कार होते हैं। हमें भगवान ने ब्रााहृण
कुल में जन्म दिया है। इसलिये जिस दृष्टिकोण से तू इस संसार को देखता है उससे हम कहीं कोसों दूर हैं। हमारे स्वभाव में दया कूट कूट कर भरी है। तेरा व्यवसाय ही हिंसा करना है। किसी के प्राणों को छीन लेने में तुम्हें ज़रा भी संकोच नहीं होता। परन्तु हम जैसे लोगों को कभी किसी तरह की हानि से दुःख नहीं होता। हमें तो सबके अन्दर अपने आत्मा को ही देखने का अभ्यास है। सभी का कल्याण हमको अभीष्ट रहता है। धर्म प्रिय सज्जन धर्म में ही तत्पर रहते हैं। मेरा यह बालक सब प्रकार से काल का ग्रास बनने ही वाला था सर्प का तो एक बहाना बन गया है। साँप न डसता तो और कोई कारण इसकी मृत्यु का हो जाता। मुझे उस अपने भगवान के कार्य में कभी कोई दोष नहीं दिखाई दे सकता। अतः मैं तुम्हें कभी भी इस साँप को मारने का इशारा नहीं कर सकती हूँ। प्रभु भक्तों को क्रोध नहीं होता। वे फिर कैसे क्रोध के वश में होकर किसी दूसरे को पीड़ा दे सकते हैं। ऐ सज्जन! तू भी इस नाग पर दया कर, इसके अपराध को क्षमा कर दे और इसे बन्धन से मुक्त कर।
     व्याध बोलाः-देवि! यदि मैं इस सर्प को न मारुँ तो न जाने यह कितने अन्य जीवों को काट खायेगा और वे मौत का शिकार हो जाएंगे। इसके जीवित रहने से तुम्हारा कौन सा हित हो जाएगा? गौतमी ने कहा- मेरी बड़ाई इसी बात में है कि मैं शत्रु को अपने हाथ में पाकर भी इसको स्वाधीनता से जीवन बिताने का अवसर दे दूँ। इससे मेरी अन्तरात्मा को जो अपार हर्ष होगा उसका वर्णन मैं नहीं कर सकती। भीष्म जी ने महाराजा युधिष्ठिर जी को कथा आगे बढ़ाते हुए कहा-गौतमी ने किसी प्रकार से भी नाग का वध करने की आज्ञा न दी। व्याध ने भी उसे बन्धन से न छोड़ा। बन्धन में बँधा हुआ ही वह साँप मनुष्य वाणी में उस अर्जुनक नामक व्याध से इस प्रकार बोला¬ः-
     ऐ नादान अर्जुनक! तू तो मनुष्य है। तेरे पास विचार करने वाली बुद्धि भी है। मैं तो रींगने वाला एक जन्तु हूँ। मुझमें समझ भी नहीं- फिर भी इतना जानता हूँ कि बालक को डस लेने में मेरा कोई दोष नहीं। उसका अन्तकाल आ गया था मृत्यु के देवता ने मुझे कहा कि ऐ सर्प! तुम जाओ और उस विप्र बालक को डस लो। मेरी अपनी कोई भी कामना ऐसा करने की न थी। न मेरी उस लड़के  से न जान-पहचान, न कोई मैत्री या शत्रुता। इसलिये मैं निर्दोष हूँ क्यों मुझे व्यर्थ सताता है?
अर्जुनक ने कहाः- ओ सर्प! घड़ा अपने आप नहीं बन जाया करता। मिट्टी, पानी और चाक सब सामग्री हो यदि वहाँ कुम्हार न हो तो कलश कैसे बन कर तैयार हो जायेगा? कुम्हार उसमें निमित्त कारण बनता है तभी वह घड़ा एक सुन्दर रुप धारण करके बाहर आता है। तू भी उस बालक को मारने में एक प्रबल निमित्त तो बन गया था? तू अपराधी है बाल हत्या तेरे कारण से ही हुई है इसलिये मैं तुझे दण्ड दूँगा।
     सर्प ने अन्तिम युक्ति देते हुए उस अर्जुनक से प्रार्थना की कि देखो सबसे बलशाली यह मृत्यु है। परमात्मा जिसके भी शरीर को लेना चाहते हैं मृत्यु को आदेश हो जाता है और वह सीधा तो किसी को मारती नहीं किसी को बीच में निमित्त बना देती है। गौतमी के पुत्र के कर्म भोग जो इस काया में उसने भोगने थे वे समाप्त हो चुके थे अतः उसे निष्प्राण कर लिया। इसमें मेरा तनिक भी दोष नहीं है। सारा विधान उस महाकाल भगवान का है मेरा नहीं।
     राजर्षि भीष्म जी ने कहा-ऐ युधिष्ठिर! अब तो सारा भांडा मृत्यु के सिर पर आ फूटा। वह बड़ी घबड़ाई-मृत्यु लपक कर सामने आई और लगी अपनी सफाई पेश करने। मृत्यु बोली- मैं तो समय के अधीन हूँ। उस कालदेव की प्रेरणा से ही मैं सारी सेवा करती हूँ। इसलिये मुझे प्रेरणा दी काल ने और तू बन गया मेरा निमित्त-सो न तू दोषी है और न मैं अपराधी हूँ। ऐ सर्प! जैसे हवा बादलों को इधर उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलों की भाँति मैं भी काल के वश में हूँ, ऐ सर्प! पृथ्वी अथवा स्वर्गलोक में जितने भी जड़-चेतन पदार्थ हैं
वे सबके सब काल के अधीन हैं। यह सारा जगत ही काल के अधीन है। इसलिये तू मुझे दोषी न ठहरा।
     सर्प ने कहा-ऐ मृत्यु की देवि! मैं तुम्हें न तो निर्दोष कह सकता हूँ और न दोषी। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि इस बालक को डसने के लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था।
     सर्प ने जब इस प्रकार मृत्यु पर दोषारोपण किया और मृत्यु ने अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये काल की ओट ली तब काल देवता बीच में आ कूदे। और उन्होने सर्प, अर्जुनक और मृत्यु को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार गर्जन किया-ऐ व्याध! इस बालक की मृत्यु में न मैं, न यह मृत्यु और न यह सर्प अपराधी हैं। इस बालक ने जो कर्म किया वही इसकी मृत्यु में प्रेरक अर्थात् प्रेरणा करने वाला बना है। दूसरा कोई भी इसके विनाश का कारण नहीं है। यह जीव अपने कर्म से ही मरता है। इस बालक ने जो कर्म किया है, उसी से यह मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसका कर्म ही इसके विनाश का कारण है। हम सब लोग कर्म के अधीन हैं। संसार में मनुष्य के पीछे पीछे उसका कर्म ही जाता है-दुःख और सुखों के मिलने में कर्म ही प्रधान कारण होता है।
     जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु वह फल प्राप्ति के क्षेत्र में अपने आप नहीं पाँव रख सकता वहाँ परमात्मा के अधीन रहता है। कुम्हार के हाथ में मिट्टी का लौंदा होता है वह उससे जो जो बर्तन चाहता है बना लेता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही सब कुछ पाता है। कत्र्ता अर्थात् कर्म करने वाले का कर्म के साथ ऐसा निकट का सम्बन्ध है जैसे धूप और छाया का। वे दोनों एक दूसरे से विलग नहीं रह सकतीं। इस सम्पूर्ण वाद-विवाद का निष्कर्ष यह निकला कि इस बालक की मृत्यु में न मैं, न मृत्यु न सर्प न तुम अर्थात् व्याध और न यह बूढ़ी ब्रााहृणी ही कारण है यह बालक अपने ही कर्म के अनुसार अपनी मृत्यु में कारण जा बना है।
     गौतमी ने कहाः-ऐ अर्जुनक! जैसे मेरा पुत्र अपने कर्मों से ही प्रेरित हो कर काल के द्वारा विनाश को प्राप्त हुआ है, मैंने वैसा ही कोई कर्म किया था जिससे यह मेरा सुख मुझसे छिन गया। इसलिये तुम काल और मृत्यु आप दोनों भी अपने अपने घर पधारो। इस प्रकार सभी ने अपनी अपनी राह ली।
     ऐ युधिष्ठिर! तुम्हें भी इसी विधि-विधान को लक्ष्य में रखते हुये शान्त हो जाना चाहिये। सब मनुष्य अपने अपने किये हुये कर्मों के अनुसार अपने लोकों में जाते हैं। तुमने या दुर्योधन ने कुछ नहीं किया है। काल ही की यह सारी करतूत समझो जिस कारण से ये सारे भूपाल मारे गये हैं।
     इस समस्त उपाख्यान का तात्पर्य समझ कर धर्मात्मा युधिष्ठिर जी को परम शान्ति मिली। उनके ह्मदय में जो सम्बन्धियों के समर भूमि में मर जाने का दावानल धधक रहा था वह शान्त हो गया। राजा ने निश्चय कर लिया कि सब कुछ कर्म-चक्र के प्रभाव से ही हो रहा है। प्रत्येक जीव कर्म श्रृंखला में बँधा हुआ जीवन-यात्रा करने में तत्पर है। कोई किसी को सुख-दुःख नहीं दिया करता। यह मिथ्या भ्रान्ति हुआ करती है कि मुझे उस मित्र ने धोखा क्यों दे दिया? मैंने किसी का कार्य सिद्ध करके कितने बड़े भारी अमंगल से उसे बचा लिया है। व्यवहार में ऐसी चर्चाएँ सत्य प्रतीत होती हैं। वस्तुतः यह संसार का कर्मचक्र तभी तक यथार्थ भासता है जब तक अन्तर्दृष्टि नहीं खुलती।

भक्त शंकर पण्डित



भक्त शंकर पण्डित अत्यन्त भक्तिभावसम्पन्न ब्रााहृण थे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिन सद्गुणों का वर्णन किया है वे सभी उनमें विद्यमान थे, तथापि यहाँ हम उस गुण का वर्णन करना चाहेंगे जिसको अपनाना जीवन में सबसे कठिन होता है और वह है-"रिपु सों बैर बिहाउ' अर्थात् शत्रु के साथ भी वैर-विरोध न करना। परन्तु शंकर पण्डित में यह गुण भी कूट-कूट कर भरा हुआ था जैसा कि उनके जीवन-चरित्र से प्रकट होता है।
     भक्त शंकरपण्डित गण्डकी नदी के तट पर स्थित एक गाँव में रहते थे। वे सुबह मुंह-अन्धेरे ही उठकर नदी-तट पर चले जाते और स्नानादि से निवृत्त होकर गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में जाकर भगवान की पूजा तथा स्मरण-ध्यान करते। भगवान का यह भजन-पूजन लगभग नौ बजे तक चलता। तत्पश्चात् वे घर आकर भोजन करते और फिर गाँव की संस्कृत पाठशाला में बच्चों को पढ़ाने पहुँच जाते। उस गाँव के ज़मींदार ठाकुर जगपाल बड़े ही धार्मिक विचारों के थे और इस पाठशाला की स्थापना उन्होंने ही की थी, जहाँ विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा के साथ-साथ दोपहर का भोजन भी मिलता था। गाँव की पाठशाला थी, इसलिए थोड़े से ही विद्यार्थी थे। भक्त शंकर पण्डित को वेतन ठाकुर जगपाल की ओर से ही मिलता था। वेतन यद्यपि बहुत अधिक नहीं था, परन्तु शंकर पण्डित की तरह चूंकि उनकी धर्मपत्नी भी भक्तिभावसम्पन्न  एवं सन्तोषी थी, इसलिए जीवन-निर्वाह सुगमता से हो जाता था।
     ठाकुर जगपाल को एक रात्रि स्वप्न में अज्ञात निर्देश हुआ कि अमुक स्थान पर पन्द्रह लाख स्वर्ण-मुद्राएं गड़ी पड़ी हैं, वह निकलवा लो। ठाकुर जगपाल ने उस जगह खुदाई करवाई तो सचमुच ही उसे पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुर्इं। उसने निश्चय किया कि इनमें से दस लाख स्वर्ण मुद्रायें खर्च करके भगवान का एक भव्य मन्दिर बनवाऊँगा और शेष पाँच लाख मुद्रायें अपने चारों पुत्रों को दे दूँगा। उसने अपना यह निश्चय अपने चारों लड़कों को बतलाते हुए कहा कि यह मन्दिर शंकर पंडित की देख-रेख में बनेगा, क्योंकि वे भगवान के सच्चे भक्त हैं और कर्तव्य-परायण, सन्तोषी, निर्लोभी तथा ईमानदार हैं। मैने इस विषय में उनसे परामर्श कर लिया है।
    परन्तु भगवान को कुछ और ही अभीष्ट था। मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ करवाने से पूर्व ही ठाकुर जगपाल का देहान्त हो गया और उसके स्थान पर उसका बड़ा लड़का कुशलपाल ठाकुर बना। वह स्वभाव से बड़ा दुराचारी, विलासी और अधार्मिक था। शंकर पंडित से तो उसे बहुत ही चिढ़ थी। जब ठाकुर जगपाल बड़े आदर और विनम्रता से झुककर उन्हें प्रणाम करता था, तो यह देखकर कुशलपाल को आग लग जाती थी कि एक निर्धन ब्रााहृण के आगे उसका पिता इतना झुक रहा है। ठाकुर बनने के बाद उसने एक-दो बार पाठशाला बन्द कर देने का विचार किया, परन्तु कुछ तो लोक-लाज के कारण तथा कुछ माता के भय से पिता द्वारा स्थापित पाठशाला बन्द करने की उसकी हिम्मत न हुई। यद्यपि ठाकुर जगपाल की पत्नी और तीनों छोटे लड़के शंकर पंडित का बड़ा आदर करते थे, परन्तु कुशलपाल जब भी उन्हें देखता उसकी भृकुटि चढ़ जाती, अतएव शंकर पंडित ने ठाकुर की हवेली में जाना छोड़ दिया। वैसे भी उनकी संसार के प्रति कोई रुचि नहीं थी, वे तो भगवान के भजन-पूजन में ही आनन्द मानते थे और इसी को जीवन का सच्चा लाभ समझते थे। अब उन्होंने यह नियम बना लिया कि पाठशाला से छुट्टी मिलते ही वे सीधे घर चले जाते और थोड़ा-सा भोजन करके फिर गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में जाकर भजन-पूजन में लीन हो जाते और सूर्यास्त के बाद ही घर वापस आते।
      कुछ दिन के पश्चात् कुशलपाल की माता का भी देहान्त हो गया। अब तो कुशलपाल पूर्णतः निरंकुश
हो गया। अब तो रात-दिन हवेली में महफिलें जमने लगीं और वह विलासिता में गहरा डूबता चला गया और पानी की तरह पैसा बहाने लगा। कुछ ही दिनों में उसने पिता से प्राप्त अपने हिस्से का सारा धन फूँक डाला। तब उसकी नज़र पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राओं के भण्डार पर गई और उसने उस धन को हड़पने का विचार किया। अपने भाइयों को वह अच्छी तरह जानता था और उसे मालूम था कि वे उसका विरोध करेंगे, अतएव कुशलपाल ने एक जाली दस्तावेज़ तैयार किया और उस पर अपने पिता के हस्ताक्षर की हूबहू नकल कर दी। उस दस्तावेज़ में यह लिखा हुआ था कि उन पन्द्रह लाख स्वर्ण मुद्राओं में से एक-एक लाख मुद्रा तीनों छोटे लड़कों को दे दी जाए और बाकी सब अर्थात् बाहर लाख मुद्राएं बड़े लड़के कुशलपाल को मिलें। वह जिस प्रकार चाहे इनको उपयोग में लाये। दस्तावेज़ तैयार हो जाने पर उसने अपने भाइयों को बुलाया और दस्तावेज़ दिखाते हुए बोला- पिता जी का विचार यद्यपि पहले मन्दिर बनवाने का था, परन्तु मरते समय उनका यह विचार बदल गया था और तभी यह दस्तावेज़ लिखा गया था।
     यह कहकर उसने भाइयों की ओर देखा जिनके चेहरे से अविश्वास स्पष्ट झलक रहा था। यह देखकर कुशलपाल घबरा गया और घबराहट में प्रभु-प्रेरणा से उसके मुख से निकल गया कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पण्डित की उपस्थिति में किये थे। तीनों भाई कुशलपाल के स्वभाव से भी और शंकर पंडित के स्वभाव से भी भलीभाँति परिचित थे। शंकर पंडित पर उनकी श्रद्धा भी थी। जब कुशलपाल ने ये शब्द कहे कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पंडित की उपस्थिति में किये हैं, तो वे बोले-यदि पंडित जी कह देंगे कि पिता जी ने उनके सामने इस पर हस्ताक्षर किये हैं, तो हम लोग इस दस्तावेज़ को मान लेंगे। यह कहकर तीनों भाई वहाँ से चले गये। कुशलपाल ने उनके सम्मुख कह तो दिया कि यह हस्ताक्षर पिता जी ने शंकर पंडित की उपस्थिति में किये थे, परन्तु अब उसको यह सोचकर भय लगने लगा कि शंकर पंडित ने यदि यह बात न मानी तो क्या होगा? परन्तु फिर उसने सोचा-""मानेगा कैसे नहीं। मुझे मिलने वाले धन में से मैं आधा उसको दे दूँगा। धन तो बड़ों-बड़ों को झुका देता है, फिर वह तो कंगाल है। इतना धन देखकर तो वह कुछ भी कहने को तैयार हो जायेगा।'' परन्तु थोड़ी देर बाद ही उसके मन में पुनः यह विचार उठ खड़ा हुआ-""इस क्षेत्र के सभी लोगों का यह कहना है कि वह बड़ा निर्लोभी, ईमानदार और सत्यवादी है। यदि वह प्रलोभन में न आया और उसने मेरी बात मानने से इनकार कर दिया तो?''
     ""तो फिर मैं उसे जीवित नहीं छोड़ूँगा।'' यह सोचकर उसका मुख कठोर हो गया।
दूसरे दिन कुशलपाल उस समय भक्त शंकर पंडित के घर जा पहुँचा, जब वे भोजन करके पाठशाला जाने के लिये तैयार थे। कुशलपाल ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रणाम किया। यह देखकर शंकर पंडित को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कुशलपाल को एक चारपाई पर बैठने के लिए कहा, तत्पश्चात् पूछा-ठाकुर साहिब! सब कुशलमंगल है?
     कुशलपाल ने उत्तर दिया-जी हाँ! सब कुशल है। मैं आपके पास एक खास काम से आया हूँ। तत्पश्चात् उसने दस्तावेज़ के विषय में सारी बात बतलाकर दस्तावेज़ उनके हाथों में थमा दिया। शंकर पंडित ने ध्यानपूर्वक दस्तावेज़ पढ़ा और बड़े ही ध्यान से हस्ताक्षर देखे, फिर बोले-ठाकुर जगपाल जी के हस्ताक्षरों जैसे हस्ताक्षर बनाने की पूरी कोशिश की गई है, परन्तु ये हस्ताक्षर उनके कदापि नहीं है। मैं उनकी लिखावट अच्छी तरह पहचानता हूँ। यह दस्तावेज़ जाली है।
     कुशलपाल ने कहा-पंडित जी! यह आप कैसी बातें कर रहे हैं? दस्तावेज़ मेरे पक्ष में है, यदि आपकी दृष्टि में यह जाली है तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैने जानबूझ कर यह जाली दस्तावेज़ तैयार करवाया है। शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! दस्तावेज़ किसी ने भी तैयार किया हो, परन्तु यह बात मैं निश्चित रुप से कह सकता हूँ कि हस्ताक्षर जाली है। यह सुनकर कुशलपाल का चेहरा उतर गया। शंकर पंडित ने उसे समझाते हुए कहा-ठाकुर साहिब! पाप से प्राप्त धन अनर्थ का मूल है। इससे मनुष्य में काम,क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार तो ज़ोर पकड़ ही जाते हैं, असत्य भाषण, हिंसा, वैर, लम्पटता, इन्द्रिय-लोलुपता, जुआ खेलना तथा मदिरा-पान आदि अनेकों दुर्गुण भी मनुष्य के अन्दर प्रविष्ट हो जाते हैं और मनुष्य पूरी तरह अधर्म में प्रवृत्त हो जाता है जिससे जीवन में उसे कभी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं होती। इन पाप कर्मों के फलस्वरुप वह संसार में अपयश का भागी तो बनता ही है, परलोक में भी नरकों की यातनाएँ झेलता है। इसलिए आप इस पाप से बचिये और पिता जी की इच्छा को पूरा कीजिए ताकि संसार में आपका यश हो।
     कुशलपाल की बुद्धि तो लोभ ने हर ली थी, अतः उसे शंकर पंडित का यह उपदेश तनिक न भाया। तब उसने दूसरा पासा फेंका और कहने लगा-पंडित जी! मैं आपका बहुत आदर करता हूँ और आपको निर्धन देखकर मुझे बहुत कष्ट होता है। यदि आप केवल एक बार सबके सामने कह दें कि यह हस्ताक्षर पिता जी के हैं तो मैं अपने हिस्से में से आधा धन आपको दे दूँगा। तब आपको जीवन में कोई अभाव नहीं रहेगा और आप निश्चिन्त होकर भगवान की सेवा पूजा और भजन-ध्यान कर सकेंगे।
     भक्त शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! अब आप यहाँ से पधारने की कृपा करें। धन का लोभ देकर आप मुझसे झूठ बुलवाना चाहते हैं। ऐसा कदापि नहीं हो सकता। मैं निर्धन अवश्य हूं, परन्तु लोभी नहीं हूँ। मेरे भगवान पाप का धन खाने वाले का भजन-पूजन और सेवा स्वीकार नहीं करते, न ही पाप का यह धन बच्चों को खिलाकर मैं उन्हें अधर्मी एवं दुराचारी बनाना चाहता हूँ। मेहनत और ईमानदारी से कमाई हुई रुखी-सूखी खाकर ही हम प्रसन्न हैं। हमें पाप का धन नहीं चाहिए। अब आप जा सकते हैं। शंकर पंडित के ये वचन सुनकर कुशलपाल जल उठा और क्रोध पूर्वक बोला-कंगाल को इतना अभिमान? आपको पिता जी ने बहुत सिर चढ़ा रखा था, इसीलिए आपने ऐसी धृष्टता करने का साहस किया है। किन्तु याद रखियेगा, मेरा नाम कुशलपाल है। मेरे आदेश का पालन करने में ही आपकी कुशल है। मेरी अवज्ञा करके आप जीवित नहीं रह सकते। शंकर पंडित बोले-ठाकुर साहिब! मैं निर्धन अवश्य हूँ, परन्तु आपकी तरह धन के बदले धर्म का त्याग करने वाला नहीं हूँ। शेष रही आपकी धमकी की बात तो जीवित रखना और मारना भगवान के हाथ में है।
         जाको राखे साइयां मार सके न कोय।   बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय।
भगवान की इच्छा के विरुद्ध आप मेरा कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकते। हाँ! यदि भगवान ने आपके हाथों ही मेरी मृत्यु लिखी है, तो फिर भगवान की इच्छा पूरी होनी ही चाहिए। परन्तु मैं अब भी आपको यही सत्परामर्श दूँगा कि आप इस पापमय विचार को अपने मन से निकाल दें। भगवान आपको सद्बुद्धि दें और आपका कल्याण करें। कुशलपाल क्रोध में बोला-आपके आशीर्वाद की मुझे आवश्यकता नहीं है। आप मेरे लिए नहीं, अपने लिये भगवान से प्रार्थना करें। यह कहकर वह पैर पटकता हुआ वहाँ से चला गया। उसने शंकर पंडित का वध करने का मन ही मन निश्चय कर लिया।
     पहले लिखा जा चुका है कि शंकर पंडित पाठशाला में छुट्टी होने पर सीधे घर आते थे और हल्का-सा भोजन करके गाँव के बाहर स्थित मन्दिर में चले जाते थे, जहां वे भगवान का भजन-पूजन तथा सुमिरण-ध्यान करते थे। सूर्यास्त होने के लगभग एक-डेढ़ घंटे बाद ही वे घर लौटते थे। मन्दिर और गाँव के बीच में बिल्कुल सुनसान जगह थी। सायंकाल होते ही कुशलपाल छिपते-छिपाते वहां जा पहुंचा और एक वृक्ष की आड़ में खड़ा हो गया। उसने हाथ में एक तेज़ धार वाला छुरा पकड़ रखा था। सूर्यास्त हुआ और धीरे-धीरे अन्धकार ने धरती पर अपना अधिकार जमा लिया। उस अन्धकार में भक्त शंकर पंडित भगवान्नाम का जाप करते हुये गाँव की ओर चले आ रहे थे। जैसे ही वे उस वृक्ष के निकट पहुँचे, कुशलपाल ने छुरे से उनकी छाती पर वार किया और वहाँ से भाग खड़ा हुआ। छुरा लगते ही शंकर पंडित बड़ा ज़ोर से चिल्लाये और फिर मूर्छित हो गये।
     शंकर पंडित ने मूÐच्छत होने पर एक अनोखा ही दृश्य देखा। क्या देखते हैं कि एक बड़ा ही सुन्दर स्थान है जहाँ भगवान हीरे-मोती जड़ित स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान हैं और मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसे आशीर्वाद प्रदान कर रहे हैं। कुछ देर तक तो वे भगवान के दर्शन करते रहे, फिर भगवान अलोप हो गये। भगवान के अलोप होते ही शंकर पंडित छटपटाने लगे और उनकी मूचर््छा टूट गई। होश आने पर उन्होंने देखा कि उनके हाथ पर छुरे का जख्म है। हुआ वास्तव में यह कि कुशलपाल ने तो अपनी तरफ से छुरा शंकर पंडित की छाती में भोंका था, परन्तु जैसे ही उसने छुरे का वार करने के लिए हाथ ऊपर उठाया, उसकी चमक शंकर पंडित की आँखों में कौन्ध गई और उन्होने वार से बचने के लिए हाथ आगे कर लिए थे। इसलिए छुरा छाती में न लगकर हाथ में लगा था। शंकर पंडित घर आये और कपड़ा गीला करके हाथ पर बाँध लिया। प्रातः लोगों के पूछने पर उन्होने कहा-रात को गिर गया था, थोड़ा घाव हो गया है, ठीक हो जायेगा। परन्तु ग्रामवासी उनका बड़ा आदर करते थे। वे उन्हें वैद्य के पास ले गये। वैद्य ने ज़ख़्म साफ करके पट्टी कर दी और सबको तसल्ली देते हुए कहा। घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुछ ही दिनों में घाव ठीक हो जायेगा।
     उधर कुशलपाल के साथ क्या हुआ? छुरा घोंप कर जब वह भागा तो कुछ दूर जाकर ठोकर लगने से गिर पड़ा और मूÐच्छत हो गया। उस अवस्था में उसने क्या देखा कि कुछ भयानक आकृति वाले व्यक्तियों ने उसे पकड़ लिया है और यह कहते हुए डंडों से मार रहे हैं कि तूने भगवान के भक्त को जान से मारने की जो कोशिश की है, यह उस पाप का दण्ड है। वे बड़ी देर तक उसे मारते रहे और वह चिल्लाता रहा। अन्ततः उसे अधमरा करके वे चले गये। तभी वह होश में आ गया। उसका सारा शरीर एक-एक अंग सचमुच ही दुःख रहा था और उसमें उठने की भी शक्ति न थी। वह सारी रात दर्द से कराहता रहा। सूर्य उदय से पहले जैसे-तैसे वह उठा और हवेली में पहुँचा। उसके पूरे शरीर पर मार के नीले-नीले निशान थे। रह-रहकर उसे वे भयानक आकृतियाँ दिखाई पड़ती और वह भय से कांप उठता। वैद्य के कई दिन तक उपचार करने पर वह चलने और फिरने के योग्य हुआ।
     शंकर पंडित के विषय में कुशलपाल को ज्ञात हो गया था कि छुरा उनकी छाती में न लगकर उनके हाथ पर लगा था और यह भी कि उन्होने यह बात किसी पर प्रकट नहीं की कि उन पर किसी ने छुरे से हमला किया था। यह सब सुनकर कुशलपाल को अपने किये पर बड़ी ग्लानि हुई और वह शंकर पंडित के घर जा पहुँचा और सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर पश्चाताप करता हुआ उनके चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला-पंडित जी! मैं बड़ा अधम हूँ, बड़ा पापी हूँ जो मैने आप जैसे भगवान के सच्चे भक्त को दुःख दिया है। मैं आपसे बार-बार क्षमा मांगता हूँ। पंडित जी ने उसे उठाकर गले से लगाते हुए कहा-ठाकुर साहिब! आपने तो मेरा भला ही किया है, क्योंकि आपके इस कृत्य के कारण ही मुझे भगवान के दर्शन पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। भगवान आपका कल्याण करें। कुशलपाल का चित्त अब शुद्ध हो गया था और उसके स्वभाव में आमूल परिवर्तन हो गया था। अतएव भक्त शंकर पंडित के मार्गदर्शन में उसने भगवान का भव्य मन्दिर तो बनवाया ही, पूर्ण महापुरुषों की शरण ग्रहण कर उसने सच्चे नाम का उपदेश भी ले लिया। इस प्रकार भक्ति के मार्ग पर चलकर उसने लोगों से आदर-सम्मान तो पाया ही, अपना परलोक भी संवार लिया।
      कथा का अभिप्राय यह है कि एक सच्चा भक्त अपने  वैरी के साथ भी कभी वैर नहीं करता, अपितु सदा उसके कल्याण एवं हित की ही कामना करता है। इस प्रकार वह अपना  कल्याण तो करता ही है, उसके
संसर्ग में आने वालों का जीवन भी सुधर एव सवंर जाता है।

अमानत में ख्यानत



     बहुत समय पहले की बात है, मालवा के राजसिंहासन पर राजा शक्तिसिंह का शासन था। अपने नाम के ही अनुरुप वह अत्यन्त शक्तिशाली था और आसपास के सभी राजा उसकी शक्ति का लोहा मानते थे। शक्तिशाली होने के कारण उसमें अहंकार का आ जाना एक स्वाभाविक बात थी। एक दिन राजा शक्तिसिंह के मन में शिकार खेलने की इच्छा हुई। इच्छा उठने की देर थी कि सारथि को आदेश हुआ कि रथ तैयार करो, राजा साहिब शिकार पर जायेंगे। सारथि ने तत्काल शिकार के लिए आवश्यक सामान रथ में रखकर घोड़े जोते। राजा शक्तिसिंह ने रथ में बैठकर वन की ओर प्रस्थान किया। जैसे ही उसने वन में प्रवेश किया, एक अति सुन्दर हरिण छलांगें मारता हुआ रथ के आगे से निकला। राजा ने तुरन्त सारथि से कहा-""कितना सुन्दर हरिण है। इसको जीवित पकड़ना है, रथ इसके पीछे लगा दो।''
     सारथि ने रथ हरिण के पीछे लगा दिया। यह देखकर हरिण तेज़ी से भागा। राजा ने सारथि से कहा-""रथ तेज़ करो, शिकार हाथ से जाने न पाये।'' सारथि ने घोड़ों को सरपट दौड़ाया, परन्तु हरिण तो अपने प्राण बचाने के लिए उस समय घोड़ों से भी तेज़ दौड़ रहा था। यह देखकर राजा ने पुनः कहा-""घोड़े और तेज़ करो।'' सारथि ने घोड़े और तेज़ किये, परन्तु हरिण अब भी बहुत आगे था। शक्तिसिंह सारथि पर नाराज़ होने लगा। तब सारथि बोला-""राजन्! घोड़े तो अपनी शक्ति के अनुसार पूरे वेग से भाग रहे हैं, अब इससे तेज़ भागने की इनमें सामथ्र्य नहीं है। हाँ! यदि इस समय वामी घोड़े होते तो फिर शिकार निश्चय ही आपके हाथ में था।''
     सारथि से वामी घोड़ों का नाम सुनकर शक्तिसिंह हैरान हुआ। उसकी अश्वशाला में एक से बढ़कर एक घोड़े मौजूद थे, परन्तु वामी घोड़ों का नाम तो उसने आज तक न सुना था। यह नाम उसके लिए बिल्कुल नया था। उसने सारथि को रथ रोक देने का आदेश दिया। जब रथ रुक गया तो राजा ने सारथि से पूछा-"" वामी घोड़ों से तुम्हारा क्या अभिप्राय है? हमने तो आज तक इन घोड़ों के बारे में नहीं सुना।'' सारथि ने उत्तर दिया-""राजन्! इसी वन के दूसरे छोर पर महर्षि वामदेव जी का आश्रम है। उनके पास दो ऐसे घोड़े हैं जो हवा से बातें करते हैं। चूँकि वे घोड़े महर्षि वामदेव जी के पास हैं, इसलिये लोग उन्हें वामी घोड़े कहते हैं।''
     राजा ने कहा-""तो फिर अपना रथ महर्षि जी के आश्रम की ओर मोड़ दो। हम वे घोड़े देखना चाहते हैं।'' सारथि ने रथ का रुख मोड़ दिया। कुछ ही देर बाद रथ महर्षि जी के आश्रम पर पहुँच गया। महर्षि वामदेव जी ने राजा का स्वागत-सत्कार कर कुशल-क्षेम पूछा और फिर आश्रम पर आने का कारण। राजा ने हाथ जोड़कर कहा-""आपकी कृपा से सब कुशल-मंगल है। आज हम इधर शिकार के लिए आए थे कि एक हरिण हमारे रथ के आगे से निकला। हरिण बहुत सुन्दर था। हम उसे जीवित पकड़ना चाहते थे, परन्तु उसकी गति के समक्ष हमारे घोड़े पिछड़ गए। उस समय सारथि से हमें ज्ञात हुआ कि आपके पास हवा से बातें करने वाले दो घोड़े हैं। आप वे घोड़े हमें कुछ समय के लिए दे दें। शाम को वे घोड़े हम आपको वापस कर देंगे।''
     महर्षि वामदेव जी बोले-""राजन्! मेरे पास जो घोड़े हैं, वे वरुण देवता के हैं। आप चूँकि स्वयं चलकर यहाँ आए हैं, इसलिए हम आपको इनकार नहीं करते, परन्तु ये घोड़े शाम को हर हालत में यहाँ पहुँच जाने ज़रूरी हैं।'' राजा ने शाम को घोड़े पहुँचा देने का वादा किया और महर्षि जी से घोड़े लेकर शिकार के लिए चला गया। शाम हुई, परन्तु तब तक राजा का मन बेईमान हो चुका था, अतः उसने सारथि से कहा-""घोड़े महल की ओर ले चलो।''
     सारथि ने घूमकर राजा की ओर देखा, परन्तु कुछ बोला नहीं। उसने रथ महल की ओर मोड़ दिया। जब
शाम को घोड़े वापस न आये तो महर्षि वामदेव जी समझ गये कि राजा घोड़ों को अपने साथ ले गए होंगे। उन्होंने अपने एक शिष्य को राजा के पास भेजा, परन्तु राजा ने टालमटोल कर उसे वापस भेज दिया। तब महर्षि जी स्वयं राजा के पास गये। पहले तो राजा ने टालमटोल की कि घोड़े थके हुये हैं, आपको बाद में पहुँचा दिये जायेंगे, परन्तु जब महर्षि जी ने घोड़े तत्काल उनके हवाले कर देने के लिए ज़ोर दिया तो राजा शक्तिसिंह ने घोड़े वापस देने से साफ साफ इनकार करते हुए कहा-""ये घोड़े राजाओं के रखने योग्य हैं, आप ऋषियों का इनसे क्या काम?''
     महर्षि वामदेव जी ने कहा-""राजन्! यह तो अमानत में ख़्यानत है। यह ठीक नहीं है।''
     राजा ने अहंकार से कहा-""तो फिर आपसे जो हो सकता है कर लीजिये, ये घोड़े आपको किसी तरह भी नहीं मिलेंगे।''
     राजा का यह कोरा उत्तर सुनकर महर्षि वामदेव जी धरती की ओर देखने लगे। तत्काल ही एक कृत्या धरती फोड़कर बाहर आई। कृत्या उस शक्ति को कहते हैं जो मन्त्र के अनुष्ठान द्वारा उत्पन्न की जाती है। उस कृत्या ने पलक झपकते ही शक्तिसिंह का सिर धड़ से अलग किया और फिर धरती में समा गई। महर्षि जी घोड़े लेकर वापस अपने आश्रम चले गए। घोड़े भी हाथ से गए और अमानत में ख़्यानत करने का फल भी शक्तिसिंह ने पाया मृत्यु के रुप में।
     यह कथा है तो छोटी-सी, पर है बड़ी शिक्षाप्रद। यदि हम संसार की रचना को देखें तो संसार की सारी रचना काल की रचना है और संसार के सब पदार्थ काल की सम्पत्ति हैं जो जीव को थोड़े समय के लिए इस्तेमाल करने को मिले हैं। किन्तु काल की इस सम्पत्ति पर जब मनुष्य अपना अधिकार जमा बैठता है और उसे अपना समझने और कहने लगता है तो वह अमानत में ख़्यानत करने का भारी अपराध कर बैठता है। इसका फल यह होता है कि ये सब सामान तोे अन्ततः काल उससे छीन ही लेता है, काल के दण्ड का भागी भी मनुष्य बन जाता है। इन पदार्थों को अपना समझ बैठने और इनमें सुरति फँसाने के फलस्वरुप काल उसे चौरासी के चक्र में घसीट ले जाता है, जहाँ उसे बार-बार काल का ग्रास बनना पड़ता है।
     इसलिये महापुरुषों का उपदेश है कि संसार के इन सामानों को आवश्यकता के अनुसार बेशक उपयोग में लाओ, रिश्तेदारों और सम्बन्धियों से जीवन-निर्वाह करते हुए उचित व्यवहार भी करो परन्तु इन्हें अपना समझने और बनाने का यत्न कभी न करो। न ये सामान तुम्हारे हैं, न कभी तुम्हारे बन सकते हैं। तुम्हारी अपनी वस्तु तो केवल-केवल प्रभु का सच्चा नाम है जो पूर्ण सतगुरु से प्राप्त होता है। सत्पुरुषों के वचन हैं किः-
आपन  तनु नहीं जाको गरबा। राज मिलख नहीं आपन दरबा।।
आपन नहीं का कउ लपटाइओ। आपन नामु सतिगुर ते पाइओ।।
सुत  बनिता  आपन नहीं भाई।  इसट मीत आप  बापु न माई।।
सुइना  रुपा  फुनि  नहीं दाम।  हैवर  गैवर  आपन नहीं काम।।
(गुरुवाणी)
सत्पुरुष श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज फरमाते हैं कि ऐ मनुष्य! जिस शरीर का तुझे अभिमान है, वह तेरा अपना नहीं है। राज्य, भूमि और धन भी तेरा अपना नहीं है। पुत्र,स्त्री, भाई, मित्र, पिता और माता इनमें से भी सदा के लिए तेरा कोई अपना नहीं है। सोना, चांदी, दौलत, हाथी और घोड़े-ये भी तेरे अपने नहीं हैं और अन्त समय तेरे काम नहीं आ सकते। फिर तू इनसे क्यों लिपटा हुआ है अर्थात् इन्हें क्यों अपना समझ रहा और इमें सुरत फँसाये हुए हैं। तेरा अपना तो केवल "नाम' ही है जिसकी प्राप्त सद्गुरु से होती है। इसलिए नाम से अपनी सुरति जोड़ो और काल के फंदे से सदा के लिए आज़ाद हो जाओ।

एक पिता के विपुल कुमारा



श्री रामायण के उत्तरकाण्ड में भगवान् श्री रामचन्द्र जी महाराज काकभुशुँडि जी को सम्बोधित करते हुए फरमाते हैं किः-
एक पिता के विपुल कुमारा।होहिं पृथक गुन सील  अचारा।।
कोउ पंडित कोउ तापस ज्ञाता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता।।
कोउ  सर्वग्य  धर्मरत कोई । सब पर पितहि प्रीति सम होई।।
कोउ पितु भगत वचन मन कर्मा।सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा।।
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।यद्यपि सो सब भांति अयाना।।
अर्थः-""एक पिता के कई पुत्र पृथक-पृथक् गुण, स्वभाव तथा आचरण वाले होते हैं। कोई विद्वान होता है, कोई तपस्वी, कोई ज्ञानवान, कोई धनवान्,कोई शूरवीर,कोई दानी,कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का उन सभी पर प्रेम होता है। किन्तु उनमें से यदि कोई मन, वचन और कर्म से पिता का आज्ञाकारी और सेवक होता है, स्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता तो वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्यारा होता है चाहे वह सब प्रकार से अंजान ही हो।'' इसी पर एक कथा हैः-
     एक सेठ बड़ा ही भक्तिमान, सत्संगी और विचारवान था। उसके चार पुत्र थे। सबसे बड़े लड़के को पुस्तकें पढ़ने का बड़ा शौक था, इसलिए वह सदैव नई से नई पुस्तकें खरीदता रहता और उन्हें पढ़कर अलमारी में रख देता। इस प्रकार उसके पास पुस्तकों की अनेकों अलमारियां भरी पड़ी थीं। नई-नई पुस्तकों की खोज में वह प्रायः पुस्तकों की दुकानों के चक्कर काटता रहता और जैसे ही कोई दुकानदार उसे किसी नई पुस्तक के आने की सूचना देता, तो पुस्तक चाहे कितनी ही कीमत की क्यों न हो, वह तुरन्त खरीदकर उसे घर ले आता और तब तक पुस्तक को न छोड़ता जब तक उसे समाप्त न कर लेता। सेठ जब कभी उससे कहता कि बेटा! थोड़ा भजन-पूजन किया करो और काम-धन्धे की ओर भी ध्यान दिया करो और कामकाज में मेरा हाथ बँटाया करो तो वह पिता के वचनों को बिल्कुल ही अनसुना कर देता। पुस्तकों पर चूंकि वह अनाप-शनाप पैसे खर्च करता था, अतः सेठ ने जब दो-तीन बार उसको ऐसा करने से मना किया, तब भी उसने पिता की बात की ओर ध्यान न दिया।
     सेठ का जो दूसरा लड़का था, उसको व्यायाम करने का और शरीर को ह्मष्ट-पुष्ट बनाने का बड़ा शौक था। सुबह उठकर वह अखाड़े में चला जाता, वहाँ सैंकड़ों डंड-बैठक लगाता और फिर कुश्ती लड़ता। वहां से घर वापस आता तो खूब डटकर खाता-पीता और सो रहता। घर में जो भोजन बनता, उस भोजन के अतिरिक्त ढेर सारे सूखे मेवे और मौसम के ताज़ाफल वह डकार जाता। बाज़ार जाता तो वहाँ भी हलवाई की दुकान पर जाकर जलेबी, समोसे, कचौड़ी आदि खूब डटकर खाता। सायंकाल फिर अखाड़े में जाकर कुश्ती का अभ्यास करता और फिर घर वापस आकर खूब डटकर खाना खाता और सो रहता। बस! यही उसकी दिनचर्या थी। काम-धन्धे की ओर वह तनिक भी ध्यान नहीं देता था। जब कभी सेठ उसको कामकाज की ओर ध्यान देने के लिए तथा भगवान के  भजन-पूजन के लिए कहता तो वह अपने बड़े भाई की तरह पिता के वचनों को अनसुना कर देता था।
     तीसरे लड़के को अपने शरीर के बनाव-ऋंगार का सदा ख्याल रहता था। नये-नये फैशन के कपड़े सिलवाकर पहनना, नये से नये फैशन के जूते बनवाना और पाउडर, क्रीम तथा सुगन्धित तेलों का इस्तेमाल करना-यह उसका शौक था। इन पर वह महीने में हज़ारों रुपये खर्च कर देता था। कितनी कितनी देर वह आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर अपने को सजाता-संवारता रहता। माता-पिता के साथ उसका व्यवहार भी बिल्कुल इसी तरह का था जैसा उसके दोनों बड़े भाईयों का।
     किन्तु सेठ का चौथा और सबसे छोटा लड़का माता-पिता का बड़ा ही आज्ञाकारी और सेवाकारी था। माता-पिता जो कुछ भी उसको कहते, वह प्राणपण से उसका पालन करता। कामकाज में वह पिता का पूरा-पूरा हाथ तो बँटाता ही था, भगवान के भजन-पूजन में भी माता-पिता का कहना मानकर समय देता। इस तरह वह माता-पिता को अत्यन्त ही प्रिय था।
     इस संसार में सदैव तो कोई रहने नहीं पाता। जो भी इस संसार में आया है, उसने एक दिन अवश्य ही यहाँ से जाना है, यह प्रकृति का एक अटल विधान है। प्रकृति के इस नियम के अनुसार पहले सेठ की पत्नी का और फिर कुछ दिनों के उपरांत स्वयं सेठ का परलोक-गमन हो गया। सेठ के शरीरान्त के पश्चात् जब क्रियाकर्म से सब निवृत्त हुए तो सेठ के तीनों बड़े लड़कों ने सम्पत्ति के बँटवारे के लिए आवाज़ उठाई। उनका एक सम्बन्धी वकील था। उसने उन्हें समझाने-बुझाने का बहुत प्रयत्न किया कि सम्पत्ति का बँटवारा मत करो, बल्कि मिलजुल कर रहो और मिलजुल कर ही व्यापार भी संभालो, इसी में तुम लोगों का भला है, परन्तु तीनों बड़े लड़कों के कान पर जूँ तक न रेंगी। वे तो उलटा लड़-झगड़कर सम्पत्ति बाँटने पर उतारु हो गये। वह देखकर उस वकील ने कहा-""तुम लोग झगड़ा मत करो। तुम्हारे पिता इस संसार से जाने के पूर्व एक वसीयत लिखवा गए हैं जो मेरे पास रखी है। तुम लोग कोई दिन निश्चित कर लो, उस दिन अपने सभी रिश्तेदार-सम्बन्धियों को, जो नगर में रहते हैं, यहाँ तुम लोगों की कोठी पर बुलवा लिया जायेगा। उनके सामने यह वसीयत तुम सबको दिखा भी दी जायेगी, पढ़कर सुना भी दी जायेगी। और आप चारों भाइयों में सम्पत्ति का बँटवारा भी कर दिया जायेगा।'' निश्चित दिन में सभी लोग एकत्र हो गए। वकील भी कुछ मज़दूरों को साथ लेकर आ गया जिनके कन्धों पर फावड़े, गैंती, तसले आदि रखे हुए थे। सेठ के बड़े लड़के ने वकील से पूछा-""इन मज़दूरों को आप किसलिए लाये हैं?''
वकील महोदय ने कहा-""जब वसीयत पढ़ी जायेगी तो आप सबको विदित हो जायेगा कि इन मज़दूरों को मैं क्यों लाया हूँ। इनकी अभी आवश्यकता पड़ेगी।'' तदुपरान्त सभी लोग एक कमरे में बैठ गए। तब वकील महोदय ने सबको सम्बोधित करते हुए कहा-""आप सभी को आज इसलिए यहाँ बुलाया गया है कि सेठ जी के तीनों बड़े लड़के सम्पत्ति का बंटवारा करना चाहते हैं। मैने इन्हें ऐसा न करने के लिए बहुत समझाया, परन्तु ये किसी तरह भी मानने को तैयार नहीं हुए। इस बारे में छोटे भाई की प्रार्थना को भी इन्होंने अस्वीकार कर दिया। सेठ जो इन तीनों के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे, अतः उन्होंने पहले से ही वसीयत लिखवाकर मेरे पास रख दी थी। आप सब लोग वसीयत पर सेठ जी के हस्ताक्षर देखकर तसल्ली कर लें, तब मैं वसीयत सबके सामने पढ़कर सुनाऊँगा।''
     यह कहकर उसने फाईल में से वसीयतनामा निकाला और सेठ जी के बड़े लड़के के हाथ में देते हुए कहा-""इस वसीयत के अन्त में तथा प्रत्येक पृष्ठ पर तुम्हारे पिता जी के हस्ताक्षर हैं। देखकर तसल्ली करो और फिर बताओ कि हस्ताक्षर तुम्हारे पिता जी के ही हैं ना?'' बड़े लड़के ने वसीयतनामा ले लिया और उसके प्रत्येक पृष्ठ पर पिता जी के हस्ताक्षर बड़े गौर से देखे, फिर वसीयतनामा वकील महोदय को लौटाते हुए कहा-"'ठीक है, मुझे तसल्ली है। ये हस्ताक्षर पिता जी के ही हैं।''
     वकील महोदय ने तब वसीयतनामा बारी-बारी से दूसरे और तीसरे लड़के को भी दिया। उन्होने भी हस्ताक्षर अच्छी तरह देखकर जब अपनी तसल्ली कर ली तो फिर वकील महोदय सबसे छोटे लड़के की ओर घूमे। छोटे लड़के ने कहा-""वकील साहिब! वसीयत देखकर मैं क्या करुँगा? पिता जी वसीयत लिखवा गए हैं, तभी तो वह आपके पास मौजूद है। फिर भाइयों ने तसल्ली कर ही ली है। यदि पिता जी वसीयत नहीं भी कर जाते तो आप लोग बड़े-बुज़ुर्ग हैं, आप सब जो भी फैसला करते, मैं खुशी-खुशी उसे स्वीकार करता। मैं तो सम्पत्ति के बंटवारे के लिए झगड़ा करना भी कोई बुद्धिमत्ता की बात नहीं समझता।'' उस लड़के के ऐसे विचार सुनकर वहाँ उपस्थित सभी लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए। वकील महोदय भी उसकी बात सुनकर मुसकरा दिये। तब वहाँ उपस्थित सभी लोगों को भी वकील महोदय ने वह वसीयतनामा दिखाया, जिन्होंने इस बात की पुष्टि कर दी कि हस्ताक्षर सेठ जी के ही हैं।
     तदुपरान्त वकील महोदय ने वसीयतनामा पढ़ना शुरु किया। सबसे पहले उसमें काम धन्धे के विषय में लिखा हुआ था कि व्यापार के लेन-देन और स्टाक के चार भाग कर दिये जायें और उनकी पर्चियाँ बनाकर डाल दी जायें और किसी बालक के द्वारा, जो चारों भाइयों को स्वीकार्य हो, पर्चियाँ उठवाई जायें। जिस कोठी में इस समय व्यापार का सारा कामकाज हो रहा है, वह कोठी छोटे लड़के पास रहेगी, क्योंकि वह पहले से ही वहाँ सारा कामकाज संभाल रहा है।
     वसीयत का इतना भाग पढ़कर वकील महोदय ने सेठ जी के तीनों बड़े लड़कों की ओर देखा, व्यापार वाली कोठी के विषय में सुनकर जिनके चेहरों पर क्रोध के भाव प्रकट हो गए थे। कुछ पल तो वकील महोदय उनकी ओर बड़े ध्यानपूर्वक देखते रहे, फिर बोलेे-"'अब मैं वसीयत का दूसरा हिस्सा पढ़ता हूँ, जो इस रहने वाली कोठी के बारे में है।''
     वकील ने पढ़ना शुरु किया-जो कोठी निवास के लिये बनवाई गई है, वह पहले से ही इस प्रकार की बनवाई गई है कि उसमें भगवान का मन्दिर कोठी के एक तरफ है। चारदीवारी बनाकर जिसकी सीमा पहले से ही निर्धारित कर दी गई है। बाकी कोठी के चार पोरशन हैं। पर्ची डालकर एक-एक पोरशन चारों लड़कों को दे दिया जाए। सभी रिश्तेदार आपस में परामर्श करके मन्दिर किसी धार्मिक ट्रस्ट को सौंप दिया जाए। किन्तु मन्दिर ट्रस्ट को सौंपने से पहले उसके प्रांगण में जो बकसे ज़मीन में मैने गड़वा रखे हैं, वे नीचे लिखे अनुसार दे दिए जायें, परन्तु देने से पहले सब सम्बन्धियों के सामने खोलकर उसमें रखा सामान सबको दिखा दिया जाए। मन्दिर के आगे जो प्रांगण है, उसमें चारों कोनों पर और प्रांगण के बीचों बीच फर्श पर पाँच फूल बने हुए हैं। उन फूलों की जगह को एक-एक करके खोदा जाए। सबसे पहले पूर्व दिशा के कोने में खोदा जाए और वहां से जो बकसा निकले, वह सब से बड़े लड़के को दे दिया जाए। पश्चिम दिशा के कोने से जो बकसा निकले वह दूसरे लड़के को, उत्तर दिशा वाला बकसा तीसरे लड़के को, दक्षिण दिशा वाला सबसे छोटे लड़के को और बीचों बीच वाले फूल के नीचे से जो बकसा निकले, वह मन्दिर की देखभाल और विस्तार के लिए धार्मिक ट्रस्ट को दे दिया जाये। इतना पढ़कर वकील महोदय ने सेठ के बड़े लड़के से कहा-""तुमने मुझसे पूछा था कि मज़दूरों को लाने की क्या आवश्यकता थी? सो मज़दूर फर्श खोदने के लिए ही मैं साथ लाया था।''
     तदुपरान्त वकील ने वहाँ उपस्थित सभी लोगों से मन्दिर के प्रांगण में चलने का अनुरोध किया। सभी लोग बड़ी उत्सुकता से मन्दिर की ओर चल दिए कि देखें! किस भाई के हिस्से में क्या आता है। सभी लोग मन्दिर के प्रांगण में पहुँचे। वहां वसीयत के लिखे अनुसार फर्श पर पाँच फूल बने हुए थे। वकील महोदय ने पूर्व दिशा के फूल की ओर संकेत करते हुए मज़दूरों से कह‏ा-""यहाँ खोदो!''
     मज़दूर खुदाई में लग गए। लगभग दो फीट खोदने पर उसमें एक बकसा निकला। बकसे को देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने यही समझा कि इसमें खूब माल भरा होगा, परन्तु जब बकसा खोला गया तो उसमें केवल पुरानी पुस्तकें भरी हुई थीं, जिनमें बुरी तरह से दीमक लगी हुई थी। यह देखकर चारों ओर शोर मच गया। वकील महोदय ने हाथ के संकेत से सबको चुप करने के लिए कहा। जब सब चुप हो गए तो वकील ने कहा-""बकसे में से जो कुछ निकला, उसे देखकर आप सभी अत्यन्त चकित हो रहे होंगे। सेठ जी ने अपनी वसीयत में इसका कारण यूँ लिखा है कि यह लड़का सदैव पुस्तकों का कीड़ा बना रहा और पुस्तकों पर हर महीने हज़ारों रुपये खर्च करता रहा। मेरे कई बार कहने पर भी इसने न तो कभी कामकाज की ओर ही ध्यान दिया, न ही कभी भजन-पूजन किया। इसके अतिरिक्त जीवन में इसने न तो कभी माता-पिता की आज्ञा मानी ओर न ही कभी सेवा की। मैं यह नही कहता कि जीवन में पढ़ना-लिखना बुरा है, परन्तु हर समय पुस्तकों का कीड़ा बने रहना और माता-पिता की प्रत्येक बात अनसुनी करते रहना, यह तो किसी तरह भी ठीक नहीं। चूंकि माता पिता की आज्ञा से अधिक यह सदा पुस्तकों को ही महत्त्व देता रहा है, इसलिए मैने इस बकसे में पुरानी पुस्तकें रखवायीं जिससे कि मेरे बाद इसको मेरी तरफ से पुस्तकों का यह तोहफा मिले।''
     यह कहकर वकील महोदय जैसे ही चुप हुए, वहां उपस्थित सभी लोगों में कानाफूसी होने लगी। बड़े लड़के ने लज्जा से सिर झुका लिया। तत्पश्चात वकील महोदय ने प्रांगण के पश्चिमी कोने की ओर खोदने के लिए मज़दूरों को संकेत किया। खोदने पर वहाँ से भी एक बकसा निकला जो सभी के सामने खोला गया। उस बकसे में जो कुछ रखा हुआ था, उसे  देखकर एक बार फिर शोर मच गया। उसमें क्या था? काजू, बादाम, अखरोट आदि के छिलके, जिनकी गिरियाँ कीड़े खा चुके थे और पशुओं की कुछ हड्डियाँ और सुखा हुआ चमड़ा। वकील ने पुनः वसीयतनामा पढ़ना शुरु किया जिसमें सेठ की ओर से लिखा था कि मेरा दूसरा लड़का अपने शरीर को ही ह्मष्ट-पुष्ट करने में सदा लगा रहता है। कुश्ती लड़ना, डंड-बैठक पेलना, डटकर खाना-पीना और सो रहना-बस! यही इसकी दिनचर्या है। यह भी महीने में हज़ारों रुपये खाने-पीने में उड़ा देता है। मैने जब भी इसे भगवान का भजन-पूजन करने के लिये अथवा अपने कामकाज में हाथ बंटाने के लिये कहा, इसने मेरी बात हमेशा अनसुनी कर दी। अगर एक दो बार इसने मेरी बात का उत्तर दिया भी तो यही कि घर में इतना पैसा है, यदि मैं काम-धन्धा नहीं करुँगा तो कौन सा फर्क पड़ जायेगा। शेष रही भजन-पूजन की बात, तो यह तो बुड्ढों का काम है। इसने न तो कभी माता-पिता की आज्ञा मानी, न ही कभी सेवा की। माता-पिता की आज्ञा से भी अधिक महत्त्वपूर्ण इसकी दृष्टि मे था-खाना पीना और शरीर को ह्मष्ट-पुष्ट बनाना। इस बात को यह बिल्कुल भूल गया कि शरीर को चाहे जितना ह्मष्ट-पुष्ट कर लो, एक दिन तो यह खाक में मिल जाना है। पशुओं की हड्डियां और चमड़ा इसलिये बकसे में रखवाये गये हैं ताकि इसको यह समझ आ जाये कि पशुओं की हड्डियां और चमड़ा तो उनके मरने का बाद भी काम आ जाता है, जब कि मनुष्य के मरने के बाद उसके शरीर की कोई भी चीज़ काम नहीं आती चाहे उसका शरीर कितना ही ह्मष्ट-पुष्ट क्यों न हो।
     यह कहकर वकील महोदय चुप हो गये। वहां उपस्थित सभी लोग, जो अभी तक वकील महोदय की बात बड़े ध्यान से सुन रहे थे, अब सेठ के दूसरे लड़के की ओर देखने लगे जिसने शर्म से अपनी नज़रें नीची कर रखी थीं। तदुपरान्त वकील महोदय ने मज़दूरों को उत्तर के कोने की ओर संकेत कर वहाँ खोदने के लिए कहा। वहाँ से भी एक बकसा निकला जो सबके सामने खोला गया। उसमें फटे-पुराने  रेशमी, कपड़े, पुराने घिसे-पिटे जूते, क्रीम, सैंट, तेल आदि की कुछ खाली शीशियाँ भरी पड़ी थीं। सभी लोग वकील की तरफ देखने लगे। उसने फिर वसीयत पढ़नी आरम्भ की जिसमें सेठ की तरफ से लिखा हुआ था कि मेरा तीसरा लड़का बड़ा ही फैशनेबल है और महीने में हज़ारों रुपये नये-नये फैशन के कपड़े, नये-नये फैशन के जूते तथा सुगिन्धत तेलों, क्रीमों, पाउडरों आदि पर खर्च कर देता है और अपने बनाव-सिंगार में सारा समय नष्ट करता रहता है। इसने भी मेरी आज्ञा कभी नहीं मानी। मेरी हर बात को अनसुना कर दिया। अपने शरीर के बनाव-सिंगार को सदैव अधिक महत्त्व दिया। इसको जिन वस्तुओं का बहुत शौेक है और इसकी दृष्टि में जो माता-पिता की आज्ञा से भी अधिक  महत्त्वपूर्ण हैं, इसके द्वारा इस्तेमाल की हुई पुरानी वस्तुओं में कुछेक इस बकसे
में मैने रखवा दीं ताकि मेरे बाद मेरी तरफ से इसे तोहफे के तौर पर मिल सके।
     यह सुनकर तीसरे लड़के ने भी शर्म से गर्दन झुका ली। तब वकील ने मज़दूरों से प्रांगण के दक्षिण दिशा वाले कोने में खोदने के लिए कहा। वहाँ से भी एक बकसा निकला जो पहले तीनों बकसों की तुलना में काफी छोटा था। सबके सामने जैसे ही उसे खोला गया, सभी की आँखें खुली की खुली रह गर्इं, क्योंकि वह बकसा हीरे-जवाहरात से भरा हुआ था। वकील महोदय ने पुनः वसीयत को पढ़ना शुरु किया जिसमें इस प्रकार लिखा था-""मेरा छोटा लड़का सदा ही मेरा प्रिय रहा है, इसने माता-पिता की आज्ञा को हमेशा महत्त्वपूर्ण समझा और उसको जीवन में प्रमुखता दी। यह ठीक है मेरे सबसे बड़े लड़के की तरह यह विद्वान नहीं, दूसरे लड़के की तरह ह्मष्ट-पुष्ट नहीं और तीसरे लड़के की तरह यह सुन्दर भी नहीं, परन्तु मैने इसको जो कुछ भी करने के लिए कहा, उसने बिना किसी मीन-मेख के उसका प्राणपण से पालन किया। मेरे कहे अनुसार यह सत्संग में, भगवान के भजन-पूजन में और काम-धन्धे में अपना पूरा-पूरा समय देता रहा। उसके इस गुण से मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ और ये हीरे-जवाहरात मैं इस छोटे लड़के को दे रहा हूँ, क्योंकि मुझे विश्वास है कि यह धन का सही उपयोग करेगा और अपना लोक-परलोक दोनों सुधारेगा।
     यह कहकर वकील महोदय चुप हो गये। सभी लोग सेठ के छोटे लड़के की प्रशंसा करने लगे। अब सभी की आँखें प्राँगण के बीचों-बीच वाले फूल पर लगीं थीं। वकील महोदय का संकेत पाकर वह जगह भी खोदी गई तो वहाँ से भी एक छोटा बकसा निकला जिसमें सोने की मोहरें भरी हुई थीं, जो लाखों के मूल्य की थीं। इसके लिये वसीयत में निर्देश था कि जिस धार्मिक ट्रस्ट को यह मन्दिर सौंपा जाए, उसी को यह धन दिया जाए। वह ट्रस्ट इस धन का मन्दिर की देखभाल और इसके विस्तार में सदुपयोग करे। सब कार्य पूरा हो चुका था। सब लोग वहाँ से उठकर सेठ की कोठी में आए जहां उनके भोजनादि का प्रबन्ध था। भोजन उपरान्त सभी लोग अपने अपने घरों को चले गये।
     उपरोक्त कथा से श्री रामचरितमानस की चौपाइयों पर, जो लेख के प्रारम्भ में दी गई है, बहुत अच्छी तरह प्रकाश पड़ता है कि माता-पिता को वही पुत्र अत्यन्त प्रिय होता है जो उनका आज्ञाकारी और सेवाकारी होता है। ठीक इसी प्रकार गुरुदेव को भी यद्यपि सब सेवक-शिष्य प्यारे होते हैं और वे सभी सेवकों का समानरुप से हित एवं कल्याण चाहते हैं, परन्तु जो सेवक मन,वचन और कर्म से गुरु-आज्ञा का पालन करने में तत्पर रहता है, वह तो स्वाभाविक ही गुरुदेव का अत्यन्त प्रियपात्र होता है और उनकी पूर्ण प्रसन्नता का अधिकारी होता है। अन्य शब्दों में गुरुदेव की कृपा एवं प्रसन्नता का पात्र बनने के लिए अन्य गुणों की अपेक्षा आज्ञा-पालन के गुण का सबसे अधिक महत्त्व है। जो शिष्य गुरुदेव की प्रत्येक आज्ञा को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य कर प्राणपण से उसका पालन करता है, गुरुदेव की कृपा से वह तो भक्ति-धन से मालामाल एवं निहाल हो जाता है जैसा कि कथन हैः-
गुरु अज्ञा दृढ़ करि गहै, गुरु मत सहजो चाल।
रोम रोम गुरु को रटै, सो सिष होय निहाल।।
भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज ने अयोध्यावासियों के प्रति कितने साफ साफ शब्दों में फरमाया है किः-
सोई सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुशासन मानै जोई।।
अर्थः-""वही मेरा सेवक है और वही मेरा अति प्रिय है जो मेरी आज्ञा मानता है।''
     सभी सद्ग्रन्थ तथा सन्तजन इस बात पर एकमत हैं कि ज्ञान,भक्ति तथा मुक्ति के प्रदाता समय के पूर्ण सद्गुरुदेव ही होते हैं। अतएव शिष्य-सेवक को चाहिये कि सद्गुरु को प्रसन्न करने तथा उनकी कृपा का पात्र बनने का प्रयत्न करे और इसका एकमात्र उपाय है-सद्गुरु की प्रत्येक आज्ञा को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य कर उसका तन-प्राण से पालन करना। जिसने इस गुण को अपना लिया, वह निहाल हो गया, कृतार्थ हो गया, उसने जीवन्मुक्त पदवी को प्राप्त कर लिया। धन्य हैं वे भाग्यशाली जीव, अपने इष्टदेव की आज्ञा-मौज को श्रद्धापूर्वक ह्मदयंगम कर जो उसके अनुसार अपना जीवन ढाल लेते हैं और प्राणपण से आज्ञा-पालन में तत्पर रहते हैं। ऐसे सौभाग्यशाली गुरुमुख प्रेमी ही इष्टदेव की प्रसन्नता एवं कृपा के पात्र बनते हैं। उनका जीवन ही सराहनीय एवं अनुकरणीय है।

भक्तिमती रबिया



     भक्तिमती रबिया का जन्म आज से लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व तुर्किस्तान के बसरा नामक नगर में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। रबिया की तीन बहनें और थीं। चारों बहनों में रबिया सबसे छोटी थी। रबिया अभी बच्ची ही थी कि उसकी माता का देहावसान हो गया। उसके पिता प्रातः होते ही काम पर निकल जाते और जब वापस आते तो चारों ओर अन्धकार फैल चुका होता। दिन भर के थके-मांदे तो होते ही, अतः खा-पी कर चारपाई पर ढेर हो जाते। उन्हें अपने कामकाज से इतना अवकाश ही कहां था कि वे बच्चों का ख्याल करते। फलस्वरुप रबिया का बचपन माता पिता के प्यार से वंचित ही रहा। माता पिता का प्यार न मिलने से रबिया सदा उदास रहती। उसके घर के निकट ही एक उच्चकोटि के सन्त रहते थे। लोगों की उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा थी, अतः काफी संख्या में लोग उनकी संगति का लाभ उठाने के लिये उनकी कुटिया पर आया करते थे। कभी कभी वहां सत्संग भी होता था। अपनी उदासी दूर करने के लिये रबिया भी कभी कभी वहां चली जाया करती थी। वहां जाने पर उसके मन को बड़ी शान्ति मिलती थी। ईश्वर की महिमा करते हुये वे सन्त प्रायः ये शब्द कहा करते थे कि ईश्वर अत्यन्त कृपालु हैं।
     एक दिन लोगों के चले जाने के बाद भी रबिया वहीं बैठी रही। उसकी आँखों से अश्रु बह रहे थे। सन्त जी ने उसे अपने निकट बुलाकर उससे रोने का कारण पूछा। रबिया ने कहा-आप तो सदा यही कहते हैं कि ईश्वर अत्यन्त कृपालु हैं, फिर वे मेरे ऊपर कृपा क्यों नहीं करते? सन्त जी रबिया के घर की परिस्थिति से भलीभाँति परिचित थे। उन्होने उसके सिर पर प्यार भरा हाथ फेरते हुए कहा-वे तुम्हारे ऊपर भी अवश्य कृपा करेंगे। जब वे सभी पर कृपा करते हैं, तो फिर तुम्हारे ऊपर कृपा क्यों नहीं करेंगे? किन्तु इसके लिये तुम्हे एक काम करना होगा। रबिया ने पूछा-मुझे क्या करना होगा? ईश्वर की कृपा प्राप्त करने के लिये मैं सब खुछ करने को तैयार हूँ।
     सन्त जी ने फरमाया-तुम हर समय उन्हें याद किया करो और ह्मदय में यह समझा करो कि ईश्वर के प्रत्येक कार्य में कृपा ही कृपा भरी हुई है। यदि तुम ऐसा समझोगी तो फिर तुम ईश्वर की कृपा प्राप्त करने में अवश्य ही सफल होगी। वे अपने भक्तों पर सदा ही कृपा करते हैं। उनके वचनों की गहनता तो वह बच्ची भला क्या समझती, परन्तु उन वचनों पर विश्वास कर रबिया हर समय ईश्वर को याद करने लगी। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, उसकी सुरति संसार की कामनाओं से हटती गई और ईश्वर के सुमिरण भजन में अधिकाधिक लगती गई। ईश्वर के सुमिरण भजन से न केवल उसके व्याकुल मन को शान्ति ही मिलती, प्रत्युत उसे अपने अंदर एक अनोखेआनन्द का अनुभव होता।
     जब रबिया की आयु लगभग बारह वर्ष की हुई, उसके पिता का भी देहान्त हो गया। रबिया तथा उसकी बहनों के सम्मुख अब जीवन-निर्वाह का प्रश्न उठ खड़ा हुआ, अतः सभी कोई न कोई काम करने लगीं। रबिया भी एक धनवान के घर कामकाज करने लगी। वहां से जो कुछ मिलता, उससे निर्वाह करती और शेष समय ईश्वर की याद में बिताती। इसी प्रकार दिन बीतते गए और इसके साथ ही रबिया के सुमिरण ध्यान और ईश्वर प्रेम में भी दृढ़ता आती गई। एक बार देश में भयानक अकाल पड़ा और लोग दाने-दाने को तरसने लगे। अकाल के फलस्वरुप रबिया और उसकी बहनों की नौकरी भी छूट गई। जहां अपने ही भोजन के लाले पड़े हों, वहांं दूसरे को कोई नौकरी क्या दे? लोग घर बार छोड़कर दूसरी जगह भागने लगे। चारों बहनें भी अन्यत्र जाने का निश्चय कर घर से निकल पड़ीं। मार्ग में पता नहीं किस तरह रबिया अपनी बहनों से विलग हो गई। उसने उन्हें खोजने का बहुत प्रयत्न किया। वे तो नहीं मिलीं, उलटा रबिया एक दुष्ट व्यक्ति के चक्र में फँस गई। वह व्यक्ति उससे यह वादा कर कि वह उसकी बहनों को ढूँढने में सहायता देगा, रबिया को फुसला कर दूसरी जगह ले गया और उसे एक धनी के हाथ गुलाम की तरह बेच दिया। वह धनी व्यक्ति अत्यन्त क्रोधी और निष्ठुर स्वभाव का था, अतएव रबिया के दुःखों कष्टों में और भी अधिक वृद्धि हो गई। उसे और भी अधिक कष्टों का सामना करना पड़ा। वह व्यक्ति गालियां तो बकता ही था, साधारण सी बात पर लातें और घूँसे भी बरसाने लगता। उस घर में रबिया को रात दिन कोल्हू के बैल की तरह जुतना पड़ता। वह बेचारी अबला भला कर भी क्या सकती थी? सब कुछ सहन करती हुई ईश्वर को याद करती और उसकी कृपा की याचना करती रही।
     मालिक का अत्याचार दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। रबिया उसके अत्याचार से तंग आकर उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये युक्ति सोचने लगी। एक रात अवसर पाकर वह मालिक की हवेली से भाग निकली। किन्तु ईश्वर की तो मौज कुछ और ही थी! हुआ यह कि वह अभी कुछ ही दूर गई थी कि अन्धकार में भागते हुए उसे ठोकर लगी जिससे वह गिर पड़ी और उसके दाहिने हाथ में सख्त चोट लगी। रबिया दर्द से व्याकुल होकर वहीं बैठ गई और ईश्वर के चरणों में प्रार्थना करने लगी- हे प्रभो! क्या तुम मेरी सुधि नहीं लोगे? क्या तुम मुझ पर कृपा नहीं करोगे? क्या मेरा जीवन यूंही कष्टों में ही व्यतीत होगा?
     आग में तपाने पर ही सोने की सब खोट निकलती है और फिर वह कुन्दन बनकर  चमकता है। ठीक इसी प्रकार दुःखों-कष्टों की अग्नि में से निकलने के उपरान्त भक्तिमान् पुरुष भी विशुद्ध कंचन की तरह चमक उठता है। प्रार्थना करते हुये एकाएक रबिया के मन में विचार उठा-रबिया! क्या तुम्हें प्रभु की कृपा पर विश्वास नहीं? यदि नहीं, तो फिर क्यों उसके सामने आशा से दामन फैलाती है? और यदि तुम्हें उसकी कृपा पर पूर्ण विश्वास है और यह मानती है कि वह कृपालु हैं, तो फिर इन कष्टों से घबरा कर दुःखी क्यों होती है? क्या ये कष्ट भी उसी की दात नहीं हैं? यदि हैं तो फिर इनसे घबराना कैसा? प्रभु की दात समझ कर क्यों नहीं इन्हें सहर्ष स्वीकार करती? तू स्वार्थ से भरी है। तूने आज तक केवल दुःखों-कष्टों की निवृत्ति के लिये ही भगवान को स्मरण किया है, उसके प्यार के लिये कभी उसे स्मरण नहीं किया। रबिया! तू अत्यन्त स्वार्थी है।
     मन में ये विचार उठते ही वह अपने को इस बात के लिये धिक्कारने लगी कि वह सन्तों के इस कथन को क्यों भूल गई कि ""ईश्वर कृपालु हैं और अपने भक्तों पर सदा कृपा करते हैं। ईश्वर की प्रत्येक कार्यवाही में कृपा ही कृपा भरी हुई है।'' क्या यह ईश्वर की कृपा नहीं कि उन्होंने उसे संसार की विषय-विलासिता से निकालकर अपनी भक्ति में लगाया है। रबिया के विचारों में ईश्वर-कृपा से पूर्ण परिवर्तन हो गया। वह ईश्वर के चरणों में पुनः प्रार्थना करने लगी, परन्तु पहली प्रार्थनाओं और इस प्रार्थना में धरती-आकाश का अन्तर था। यह प्रार्थना कष्टों की निवृत्ति के लिये नहीं, अपितु ईश्वर की कृपाओं का गुणानुवाद गाने के लिये थी। वह प्रार्थना करने लगी-हे मेरे कृपालु प्रभो! मुझ पर यह तेरी महान कृपा है कि तुमने मुझे संसार की विषय-वासनाओं की ज्वाला से निकाल कर अपनी पावन भक्ति में लगाया। मेरा रोम-रोम तुम्हारा कृतज्ञ है।
     तभी उसके कानों में ये शब्द पड़े-रबिया! चिंता न कर। तेरे सब कष्ट शीघ्र ही दूर हो जायेंगे और तेरा यश चहुँ ओर फैल जायेगा। सब लोग तुझे आदर की दृष्टि से देखेंगे और तेरा सम्मान करेंगे। मैं तुम पर अति प्रसन्न हूँ। रबिया ने आँखें खोलकर चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, परन्तु उसे आस पास कोई दिखाई न दिया। इन शब्दों को प्रभु की कृपा समझकर वह वापस लौट पड़ी। उसने सोचा कि जब प्रभु मुझ पर प्रसन्न हैं, तो फिर कष्टों को सहन करना कौन-सा कठिन कार्य है? मेरे लिये तो वे कष्ट भी प्रभु का प्रसाद होने के कारण फूलों के सदृश हैं। रबिया मालिक के घर वापस लौट आई। उसके जीवन में आमूल परिवर्तन हो चुका था। वह हित्तचित्त से मालिक के घर का काम करने लगी, परन्तु कामकाज करते हुये भी उसकी वृत्ति हर समय ईश्वर के सुमिरण-ध्यान में ही लगी रहती थी। उस दिन से उसके मालिक के व्यवहार में भी बहुत परिवर्तन हो गया। रबिया के मुख पर उसे एक अनोखा तेज़ दिखाई देता था, अतएव मारना तो दूर उसका रबिया को कुछ कहने का भी साहस न होता था। इसी प्रकार कुछ दिन बीत गये। एक रोज़ आधी रात के समय जबकि चारों ओर नीरवता छाई थी, रबिया अपनी कोठरी में घुटनों के बल बैठी हुई ईश्वर के चरणों में प्रार्थना कर रही थी। ईश्वर की प्रेरणा से उसी समय रबिया के मालिक की नींद टूटी और रबिया की प्रार्थना के शब्द उसके कानों में पड़े। वह तुरन्त चारपाई से उठ खड़ा हुआ। कमरे के बाहर आकर वह आवाज़ सुनने लगा। आवाज़ रबिया की कोठरी की ओर से आ रही थी। वह आहिस्ता-आहिस्ता कदम रखता हुआ वहां गया। कोठरी का द्वार खुला हुआ था। परदा हटाकर वह ज्यों ही कोठरी के अन्दर घुसने लगा कि अन्दर का दृश्य देखकर वहीं ठिठक गया। कोठरी एक अलौकिक प्रकाश से आलोकित थी और रबिया घुटनों के बल बैठी हाथ उठाये प्रार्थना कर रही थी। उसने रबिया के ये शब्द सुने-हे मेरे कृपालु प्रभो! मैं चाहती तो यह हूँ कि अपने जीवन का एक-एक पल तेरी याद में, तेरे सुमिरण-भजन में बिताऊँ, परन्तु क्या करूँ? जितना मैं चाहती हूँ उतना हो नहीं पाता, क्योंकि मैं किसी की गुलाम हूँ।अच्छा! जैसी तेरी मौज।
’""राजी हैं हम उसी में जिसमें तेरी रज़ा है।''
रबिया के मालिक को तो वैसे ही कई दिनों से उसके आचार-व्यवहार में परिवर्तन दिखाई दे रहा था, आज का दृश्य देखकर तो उसे पूरा विश्वास हो गया कि रबिया कोई साधारण स्त्री नहीं अपितु कोई परम पुनीत आत्मा है जिस पर ईश्वर की विशेष कृपा है। रबिया के मुखमंडल पर एक अनोखी आभा देखकर उसके ह्मदय में श्रद्धा भी उत्पन्न हुई और भय भी। वह मन ही मन विचार करने लगा कि ऐसी पवित्र आत्मा को दासता में रखकर मैने बड़ा भारी पाप किया है। चाहिये तो यह था कि मैं इसकी सेवा करता, उलटा मैं इससे सेवा कराता रहा। केवल सेवा ही नहीं कराई, इस पर अत्याचार भी किया, इसे मारा पीटा भी। वह पश्चात्ताप करता हुआ रोने लगा। उसकी आवाज़ सुनकर रबिया का ध्यान टूटा। तब वह अत्यन्त विनीत भाव से बोला-देवी! मेरे अपराधों को क्षमा कर। मैने अब तक तुम्हें पहचाना नहीं था। आज ईश्वर की कृपा से मैने तेरा वास्तविक रुप देख लिया। आज से तुम्हें मेरी सेवा नहीं करनी पड़ेगी। तुम सुखपूर्वक इस घर में रहकर ईश्वर की भक्ति करो। आज से मैं तुम्हारी सेवा करुँगा।
     रबिया ने कहा-आपने इतने दिनों तक मुझे अपने घर में रखकर खाने-पहनने को दिया, यह आपका मुझ पर उपकार है। एक उपकार आप मुझ पर और कर दें, मुझे दूसरी जगह जाने की स्वतंत्रता दे दें। ताकि मैं अपना सारा समय ईश्वर की याद में बिता सकूँ। मालिक ने कहा- जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो। मेरी ओर से तुम पूरी तरह स्वतन्त्र हो। रबिया ने बसरा नगर से कुछ दूर एक एकान्त स्थान पर अपनी कुटिया बनाई और अपना शेष जीवन भगवान का सुमिरण भजन करते हुये व्यतीत किया। यहाँ हम उनके कुछ विचार और वचन दे रहे हैं जिससे कि उनके जीवन के विषय में पाठकों को और अधिक जानकारी हो कि उनका जीवन कितना उच्च और आदर्शमय था।
     एक बार रबिया उदास बैठी थी। उसी समय उनका एक श्रद्धालु उनके दर्शन के लिये आया। उन्हें उदास देखकर उसने पूछा-आज आप उदास क्यों हैं? रबिया ने उत्तर दिया-आज सवेरे मेरा पाजी मन ईश्वर का सुमिरण छोड़कर स्वर्ग की ओर चला गया था। मैं यही सोच कर उदास हूँ कि ईश्वर का सुमिरण-भजन छोड़कर मेरा मन स्वर्ग के सुखों की ओर क्यों गया?
     एक बार रबिया बहुत बीमार थी। सूफियान नाम का एक साधक उसकी बीमारी के विषय में सुनकर उससे मिलने गया। रबिया की हालत देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने कुछ कहना चाहा, परन्तु कुछ सोचकर वह चुप हो गया। रबिया ने कहा-तुम कुछ कहते-कहते रुक क्यों गये? जो कुछ कहना चाहते हो निःसंकोच कहो। सूफियान ने कहा-देवी! आप ईश्वर से प्रार्थना क्यों नहीं करतीं? वे सर्वसमर्थ हैं; वे आपका रोग एक पल में मिटा सकते हैं। रबिया ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-सूफियान! क्या तुम इस बात से परिचित नहीं हो कि रोग किसकी इच्छा और संकेत से होता है? क्या इस रोग में भी मेरे ईश्वर का हाथ नहीं है? सूफि यान ने कहा-जो कुछ होता है उसकी इच्छा से ही होता है। उसकी इच्छा के बिना क्या होता है? रबिया बोली-जब सब कुछ उसकी इच्छा से ही होता है, तब तुम मुझसे यह कैसे आशा करते हो कि मैं उसकी इच्छा के विरुद्ध इस रोग से छुटकारा प्राप्त करने के लिये उससे प्रार्थना करूँ? ईश्वर का हर काम कृपा से भरा होता है, इसलिये उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करना क्या प्रेमी-भक्त के लिये उचित है? प्रेमी को तो उसकी इच्छा के सम्मुख नतमस्तक हो जाना चाहिये। और उसकी हर मौज को (सुख मिले या दुःख) उसका प्रसाद समझ कर अपनी झोली में डालना चाहियेे।
     रबिया ने अपना सब कुछ ईश्वर को अर्पण कर दिया था। एक प्रभु के सिवा उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जिसे वह अपनी समझती हो। एक बार बसरा के प्रसिद्ध सन्त हसन बसरी ने उससे पूछा-आपने ऐसी ऊँची स्थिति किस प्रकार प्राप्त की? रबिया ने उत्तर दिया-सब कुछ खोकर ही मैंने उसे पाया है। बिना खोए उसे पाना असम्भव है। किसी विचारवान ने सच ही कहा है-
उसी के वास्ते जग को भुलाया है मैंने।
सब कुछ खो कर ही उसे पाया है मैंने।।
रबिया सबके साथ प्रेम का व्यवहार करती थी, चाहे वह कोई पुण्यात्मा हो अथवा पापी। सबके साथ उसका दया का बर्ताव रहता था। एक दिन एक व्यक्ति ने रबिया से पूछा-पाप रुपी राक्षस को तो आप अपना शत्रु ही समझती हैं न? उससे तो आप घृणा करती हैं न? रबिया ने उत्तर दिया-
करुँ मैं दुश्मनी किससे अगर दुश्मन भी हो अपना।
मुहब्बत ने नहीं दिल में जगह छोड़ी अदावत की।।
ईश्वर के प्रेम में छकी रहने के कारण ह्मदय में किसी के प्रति घृणा रही ही नहीं, फिर भला कोई मेरा शत्रु कैसे हो सकता है?
     एक बार जब कुछ श्रद्धालु रबिया के दर्शन के लिये गये, तो रबिया ने एक व्यक्ति से पूछा-भाई! तुम किस प्रयोजन से ईश्वर का सुमिरण-भजन करते हो? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया-नरक की भयानक यातनाओं से बचने के लिये। तब रबिया ने एक अन्य व्यक्ति से पूछा-और तुम किसलिये ईश्वर को याद करते हो? उसने कहा-मैने सुना है कि स्वर्ग अत्यन्त ही रमणीय स्थान है, वहां भाँति-भाँति के भोग और असीम सुख हैं। उसी स्वर्ग को पाने के लिये ही मैं भगवान की भक्ति करता हूँ।
     रबिया ने कहा-बेसमझ लोग ही भय अथवा लोभ के कारण भगवान की भक्ति किया करते हैं। भक्ति न करने से तो यह अच्छा ही है, परन्तु मान लो कि स्वर्ग या नरक-दोनों का ही अस्तित्व न होता, तो क्या फिर तुम लोग भगवान की भक्ति न करते? सच्चा भक्त ईश्वर की भक्ति लोक-परलोक की किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिये नहीं करता, अपितु ईश्वर को पाने के लिये ही करता है।
     रबिया इसीलिये प्रभु से प्रार्थना करती थी-हे मेरे प्रभो! तू ही मेरा सब कुछ है। मैं तेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहती। हे प्रभो! यदि मैं नरक के भय से तेरी पूजा करती हूँ, तो मुझे नरकाग्नि में भस्म कर दे, यदि मैं स्वर्ग के लोभ से तेरी भक्ति करती हूं, तो स्वर्ग का द्वार सदा-सर्वदा के लिये मेरे लिये बन्द कर दे और यदि मैं तेरे लिये  तेरा सुमिरण भजन करती हूँ, तो फिर अपना  प्रकाशमय सुन्दर रुप दिखलाकर मुझे कृतार्थ कर।
     एक बार एक धनी मनुष्य ने रबिया को फटे-पुराने कपड़े पहने देखकर कहा-यदि आपका आदेश हो तो आपकी इस दरिद्रता को दूर करने के लिये कुछ धन आपकी सेवा में भेंट करना चाहता हूँ। रबिया ने उत्तर दिया-सांसारिक दरिद्रता के लिये किसी से कुछ भी लेने में मुझे बड़ी लज्जा आती है। जब यह सम्पूर्ण जगत मेरे प्रभु का ही राज्य है, तब उसे छोड़कर मैं अन्य किसी से क्यों लूँ? मुझे आवश्यकता होगी तो मैं उससे ही माँग लूँगी।
     रबिया कभी-कभी प्रेमावेश में बड़े ज़ोर से चिल्ला उठती। एक बार लोगों ने उससे पूछा-आपको कोई रोग अथवा दुःख तो है नहीं, फिर आप किसलिये चिल्ला उठती हैं? रबिया ने उत्तर दिया-मुझे कोई बाहरी अथवा शारीरिक बीमारी नहीं है, जिसको संसार के लोग समझ सकें। मुझेे तो अन्तर का रोग है, जो किसी भी वैद्य अथवा हकीम के वश का नहीं है। मेरा यह रोग तो उसके दर्शन से ही जा सकता है।
     सच है-जिसे अन्तर का रोग हो, जिसके ह्मदय में प्रभु प्रेम की कसक हो, उसके रोग को भला वैद्य क्योंकर समझ सकता है? गुरुवाणी का वाक हैः-
बैदु बुलाइआ बैदगी पकड़ि  ढंढोले बांह।
भोला बैदु न जाणई करक कलेजे माहिं।।
अर्थः-वैद्य को उपचार के लिये बुलाया गया, तो वह बाँह पकड़ कर नब्ज़ देखता है। किन्तु भोला वैद्य क्या जाने कि यह रोग ह्मदय का है, कलेजे में कसक उठती है।
     एक बार पूर्णिमा की रात्रि को, जबकि चन्द्रमा की ज्योत्स्ना से सारा वातावरण आलोकित था, रबिया अपनी कुटिया के अन्दर बैठी किसी दूसरी ही सृष्टि की ज्योत्स्ना का आनन्द लूट रही थी। तभी एक परिचित स्त्री ने आकर ध्यानमग्न रबिया को झिंझोड़ते हुये कहा-रबिया! बाहर चलकर देख, कैसी सुन्दर रात है। रबिया ने उत्तर दिया-तुम एक बार मेरे ह्मदय के अन्दर झाँक कर देखो, संसार के परे की कैसी अनोखी सुन्दरता है।
     ऐसा था भक्तिमति रबिया का जीवन। हमें भी चाहिये कि उसके जीवन से प्रेरणा लें और अपना पल-पल प्रभु के सुमिरण-भजन में लगाते हुये अपना जीवन सकारथ करें।