कथा भक्तिमति शबरी




     त्रेतायुग के समय की बात है। दण्डकारण्य की एक जीर्ण-शीर्ण कुटिया में भक्ति-प्रेम सम्पन्ना एक वृद्धा भीलनी रहती थी, जिसका नाम था शबरी। भगवान के सुमिरण-ध्यान में तन्मय रहकर मार्ग में आँखें बिछाये वह हर समय भगवान श्रीरामचन्द्र जी महाराज की बाट जोहती रहती थी कि कब वे दर्शन देकर उसे कृतार्थ करेंगे।
     भक्तिमति शबरी दण्डकारण्य में कैसे पहुँची, यह भी एक निराली कथा है। पूर्वजन्म के शुभ संस्कारों के फलस्वरुप शबरी में बाल्यकल से ही भक्ति-भजन के संस्कार विद्यमान थे, परन्तु रुप-रंग से वह अत्यन्त कुरुपा थी। शबरी के यौवनावस्था में पदार्पण करने पर उसके पिता ने दूरवर्ती गाँव के एक भील युवक के साथ उसका विवाह कर दिया। विवाह के उपरांत डोली लेकर जब बारात वापस अपने गाँव जा रही थी, तो उसी वन में से उसका गुज़रना हुआ। ग्रीष्मऋतु थी और दोपहर का समय, सभी को बड़े ज़ोरों की प्यास लग रही थी, अतः डोली रखकर सभी ने वहां पानी पिया। भील युवक जब शबरी को पानी देने लगा तो संयोगवश शबरी के मुख से घूँघट हट गया, जिससे युवक की दृष्टि उसके चेहरे पर जा पड़ी। शबरी के चेहरे को देखकर वह सन्न रह गया, क्योंकि ऐसा भद्दा और कुरुप चेहरा उसने जीवन में कभी न देखा था। युवक ने अपने पिता और अन्य सम्बन्धियों से इस विषय में बात की। कुछ देर तक तो बारातियों में कानाफूसी होती रही; फिर डोली वहीं छोड़कर सब वहां से चुपचाप चले गये।
     काफी देर तक जब डोली वहीं पड़ी रही, तो शबरी को कुछ सन्देह हुआ। उसने कुतूहलवश घूँघट हटाकर चारों ओर देखा, परन्तु बारातियों में से उसे कोई भी वहां नज़र न आया। वह समझ गई कि उसका पति उसके कुरुप चेहरे को देखकर उसे वन में अकेला छोड़ गया है। यदि उसके स्थान पर कोई और होता तो स्यात् रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लेता, परन्तु शबरी रोई नहीं,अपितु प्रसन्न होई। उसने भगवान को उनकी इस कृपा के लिये बार-बार धन्यवाद दिया कि उन्होने गृहस्थी के झंझटों में फंसने से उसे बचा लिया है। उसने उसी वन में रहने का निश्चय कर घासफूँस की एक कुटिया बनाई और भगवान के सुमिरण-भजन में अपना जीवन व्यतीत करने लगी। भूख लगने पर वह कन्द-मूल खा लेती और पुनः अपनी कुटिया में भजन-ध्यान करने लगती। इस प्रकार भजन-ध्यान में रातदिन लवलीन रहने से उस पर भक्ति का गहरा रंग चढ़ने लगा।
     शबरी की कुटिया से कुछ ही दूरी पर मतंग ऋषि का आश्रम था। एक बार जब वह कन्दमूल ढूँढ रही थी, उसे मतंग ऋषि के दर्शन हुये। उनके दर्शन कर शबरी बड़ी प्रसन्न हुई। किसी प्रकार जब उसको यह ज्ञात हुआ कि मतंग ऋषि अपने शिष्यों सहित निकट ही निवास करते हैं तो उसकी प्रसन्नता और भी अधिक बढ़ गई। उसने मन में विचार किया कि यदि ऐसे उच्चकोटि के सन्तों की सेवा का सौभाग्य मुझे प्राप्त हो जाये, तो फिर कल्याण होने में तनिक भी संशय नहीं है। किन्तु दूसरे ही क्षण यह सोचकर उसका चेहरा मुरझा गया कि मुझ नीच की सेवा ये उच्चकुल के ऋषि-मुनि क्यों स्वीकार करेंगे? वह बड़ी देर तक विचारों में खोई रही। अन्ततः उसे एक युक्ति सूझ ही गई। उसने गुप्तरुप से उनकी सेवा करने का निश्चय किया।
     मतंग ऋषि का यह नियम था कि वे ब्राहृमुहूर्त में ही अपने शिष्यों सहित स्नान तथा अन्य नित्यकर्म करने के लिये पम्पासरोवर की ओर चले जाते थे। जिस मार्ग से वे पम्पासरोवर की ओर जाते थे, उनके जाने के पूर्व ही शबरी उस मार्ग को झाड़ बुहार कर साफ कर देती जिससे कि वहां कोई कांटा अथवा कंकड़ न रहने पाये। इसके अतिरिक्त वह आश्रम के निकट सूखे र्इंधन के भी ढेर लगा देती। इस प्रकार वह कई दिनों तक छिप कर सेवा करती रही।
     प्रतिदिन मार्ग को साफ-सुथरा तथा कांटों एवं कंकड़ों से रहित देखकर तथा आश्रम के बाहर समिधा का
संग्रह देखकर ऋषियों को इस बात पर बड़ा आश्चर्य होता कि गुप्तरुप से ऐसा कौन कर जाता है! मतंग ऋषि पहले तो यह सोचकर मौन रहे कि कोई प्रेमी अपनी मनोकामना-पूर्ति के लिए ऐसा कर जाता होगा, परन्तु जब बहुत दिनों तक कोई सामने न आया, तो मतंग ऋषि ने उस व्यक्ति का पता लगाने का निश्चय किया। उन्होने अपने शिष्यों से कहा-रात को बारी-बारी पहरा देकर पता लगाओ कि यह कार्य कौन कर जाता है? आज्ञानुसार शिष्य रात को पहरा देने लगे और उसी रात पिछले पहर र्इंधन का गट्ठर रखती हुई शबरी पकड़ी गई। शबरी यह सोचकर अत्यन्त भयभीत हो गई कि अब मेरे साथ न जाने क्या बर्ताव हो? कहीं मतंग ऋषि ने रुष्ट होकर शाप दे दिया तो मैं कहीं की नहीं रहूँगी। ऐसा लगता है कि विधाता आज मेरे विरुद्ध हो गया है।
     शिष्य उसे पकड़कर मतंग ऋषि के पास ले गये और बोले, गुरुदेव! प्रतिदिन मार्ग साफ करने और र्इंधन रख जाने वाले चोर को आज हमने पकड़ लिया है। यह भीलनी ही प्रतिदिन ऐसा किया करती है। शिष्यों की बात सुनकर मतंग ऋषि ने भय से थर्र-थर्र कांपती हुई शबरी पर कृपावृष्टि करते हुए पूछा-तुम कौन हो और किसलिये प्रतिदिन मार्ग साफ करती तथा र्इंधन रख जाती हो? फिर यह कार्य तुम छिपकर क्यों करती हो?
     भक्तिमति शबरी ने कांपते हुए अत्यन्त विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर विनय की-प्रभो! मेरा नाम शबरी है और मैं जाति की भीलनी हूँ। यहां से कुछ दूर इसी वन में मैं कुटिया बनाकर रहती हूँ। भगवान के अतिरिक्त संसार में मेरा कोई नहीं है, इसलिये मैं सदा उन्हीं का सुमिरण किया करती हूँ। आप जैसे तपोधन ऋषियों के दर्शन तथा सेवा से मुझे असीम सुख मिलता है। नीच कुल में जन्म लेने के कारण अन्य किसी प्रकार की सेवा करने का तो मुझे अधिकार नहीं है, इसलिये यही सेवा करके स्वयं को कृतार्थ करती हूँ। अछूत होने के कारण चूँकि मैं आपकी सेवा की अधिकारिणी नहीं हूँ, इसलिये छिपकर यह सेवा करती रही जिससे कि आप रुष्ट न हों। प्रभो! मैं अपराधिनि हूँ; मेरे अपराध क्षमा करें।
     शबरी के ऐसे विनम्र वचन सुनकर तथा उसकी सेवा और श्रद्धाभावना देखकर ऋषि मतंग गद्गद हो उठे और बोले,"" कौन कहता है कि तू अछूत है? जिसका मन भक्ति, प्रेम और सेवा के रंग में रंगा हुआ हो, उसे अछूत समझना तो एक ओर रहा, अछूत कहना भी महापाप है।'' तत्पश्चात् उन्होने अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा, शबरी अत्यन्त सौभाग्यशालिनी तथा श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम की साकार प्रतिमा है। इसे आश्रम के बाहर एक कुटिया में रहने दो तथा इसके लिये अन्नादि का भी उचित प्रबन्ध कर दो। आज से यह यहीं रह कर आश्रम की हर प्रकार की सेवा किया करेगी।
     ऋषि मतंग के ऐसे दयापूर्ण वचन सुनकर शबरी का सारा भय दूर हो गया। वह उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली, कृपासिन्धु! मैं तो कन्द-मूल आदि से ही अपना निर्वाह कर लिया करती हूँ। रहने के लिये भी मैने निकट ही एक कुटिया बना रखी है। मुझे तो आप केवल यह आशीर्वाद दें कि भगवान के चरणकमलों में मेरी दृढ़ प्रीति बनी रहे और मैं आप जैसे ऋषियों की इसी प्रकार सेवा करती रहूँ।
     ऋषि मतंग समझ गये कि यह कोई साधारण स्त्री नहीं, अपितु कोई उच्च संस्कारी आत्मा है। उन्होने अत्यन्त प्रेमपूर्वक उससे कहा, तू निर्भय होकर आश्रम में रह और भगवान के नाम का सुमिरण कर। भगवान तेरा कल्याण करेंगे। ऋषि मतंग ने शबरी को आश्रम में रहने की आज्ञा ही नहीं दी, उसे नामोपदेश भी दिया। उस दिन से शबरी आश्रम में ही रहकर नाम-सुमिरण और भजन-ध्यान करने लगी।
     जब ऋषि मतंग ने शबरी को आश्रम में रहने की आज्ञा प्रदान की, तो शिष्यों को यह बात अच्छी न लगी कि एक नीच जाति की स्त्री आश्रम में ठहरे। उन्होने कुछ रोष भी प्रकट किया, परन्तु भक्तितत्त्व के मर्मज्ञ ऋषि मतंग ने शिष्यों की बातों पर तनिक भी ध्यान न दिया, अपितु शबरी को उच्च संस्कारी आत्मा और अधिकारिणी जानकर वे अपने उपदेशों से उसका मार्गदर्शन करने के साथ-साथ भक्ति-मार्ग पर अग्रसर होने के लिये उसे प्रोत्साहित भी करते रहे।
     इस प्रकार भगवान का चिंतन-ध्यान तथा नाम-सुमिरण करते करते बहुत समय  बीत गया। एक दिन ऋषि मतंग ने सब शिष्यों को एकत्र कर कहा, हमने आप लोगों को यह बताने के लिये बुलाया है कि हमारा इस असार संसार को छोड़कर जाने का समय आ गया है। यह सुनकर शिष्यों को बड़ा दुःख हुआ,परन्तु शबरी तो गुरुदेव के परमधाम सिधारने की बात सुनते ही करुण क्रन्दन करने लगी। गुरुदेव का वियोग उसे असहनीय था। रोते हुये उसने गुरुदेव के चरणों में प्रार्थना की, प्रभो! आपके बिना मैं इस संसार में कैसे जीऊंगी? आपके बाद कौन मेरी संभाल करेगा? भक्ति-पथ पर कौन मेरा मार्गदर्शन करेगा? गुरुदेव! आपके बिना इस संसार मे मैं एक क्षण भी नहीं रहना चाहती। आप आज्ञा प्रदान करें, यह दासी भी आपके साथ जाने को तैयार है।
     ऋषि मतंग ने शबरी को अपने निकट बुलाया और उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, शबरी! तू शोक न कर और न ही अभी इस शरीर को त्यागने की बात कर। भगवान श्री रामचन्द्र जी इस समय चित्रकूट में हैं, क्योंकि तू अपने चर्म-चक्षुओं से उनके साक्षात् दर्शन कर सकने में समर्थ होगी। उनके दर्शन करके तेरा जीवन धन्य हो जायेगा। भक्त वत्सल भगवान जब तेरी कुटिया में  पधारें, तब उनका भलीभांति स्वागत सत्कार करके अपने जीवन को  सफल करना। मेरे इस वचन को सत्य और अटल समझकर तू प्रभु-नाम का स्मरण करते
हुये भगवान की प्रतीक्षा कर।
     इस प्रकार शबरी को आश्वासन देकर ऋषि मतंग पांचभौतिक शरीर को त्यागकर दिव्यधाम को चले गये। शिष्यगण शबरी को नीच समझकर उसे घृणा की दृष्टि से तो देखते ही थे, क्योंकि उन्हें अपनी उच्च् जाति का अभिमान था, परन्तु गुरुदेव की उस पर विशेष कृपा देखकर उनका उससे कुछ कहने का साहस न होता था। गुरुदेव के परमधाम पधारने के पश्चात् उन अज्ञानियों ने भक्तिमती शबरी की महिमा से अपरिचित होने के कारण धक्के मारकर उसे आश्रम से बाहर निकाल दिया। अहंकार से भरे होने के कारण भक्तिभाव तो उनमें था नहीं, क्योंकि अहंकार तथा भक्ति का आपस में मेल ही नहीं है। और यह तो सुनिश्चित ही है कि जब तक मनुष्य के ह्मदय में भक्ति एवं प्रेम का निवास नहीं होता, तब तक वहां ज्ञान का सूर्य भी प्रकट नहीं होता और जब तक ह्मदय में ज्ञान का प्रकाश न हो, अज्ञान का अंधकार क्योंकर दूर हो सकता है? ऋषि मतंग के उन अभिमानी शिष्यों की भी यही दशा थी। जाति के अभिमान में डूबकर वे भी अज्ञान-अंधकार में ठोकरें खा रहे थे। सन्तों का कथन हैः-
नीच नीच सब तरि गये, संत चन लौलीन।
जाति के अभिमान से, डूबे बहुत कुलीन।।
     ऋषि मतंग के शिष्यों ने जब अभिमान के वशीभूत होकर शबरी को आश्रम से बाहर कर दिया, तो वह बेचारी वहां से कुछ दूर एक कुटिया बनाकर रहने लगी और गुरुदेव के अन्तिम वचनों को स्मरण कर प्रभु-नाम का चिंतन करती हुई भगवान श्री रामचन्द्र जी के शुभागमन की प्रतीक्षा करने लगी। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये, उसके ह्मदय में प्रभु-दर्शन की लालसा तीव्रतर होती गर्इं। उसकी दशा यह हो गई कि तनिक-सा भी शब्द होता तो वह यह समझकर कि भगवान आ गये हैं, शीघ्रता से उठ कर कुटिया के द्वार पर आ जाती, परन्तु जब उन्हें न पाती तो फिर विरह-व्याकुल होकर कभी वृक्षों से तो कभी लताओं से, कभी फूलों से तो कभी फलों से तथा कभी पशु-पक्षियों से पूछने लगती कि बताओ! अब भगवान यहां से कितनी दूर हैं? यहां कब कृपा करेंगे, परन्तु जब सायंकाल तक प्रतीक्षा करने के उपरांत भी भगवान के उसे दर्शन न होते, तो फिर यह कहकर मन को सांत्वना देती कि कल सवेरे तो वे अवश्य ही कृपा करेंगे। कभी कुटिया के बाहर जाती, कभी भीतर आती। कभी यह सोचकर कि भगवान के कोमल श्री चरणकमलों में कांटा अथवा कंकड़ न लग जाये, बार-बार मार्ग साफ करती। भगवान के भोग के लिये चख-चखकर मीठे और सुस्वादु फल लाती। इस प्रकार न उसे दिन को चैन था न रात को आराम। विरह-व्याकुल होकर वह हर समय प्रभु-दर्शनों की लालसा में बिन पानी की मछली की तरह तड़पती रहती। एक पल भी उसे कल न पड़ती। उसकी दशा कुछ इस प्रकार की हो गई थीः-                     बिरह  ज्वाल उपजी हिये , राम सनेही आव।
मनमोहन सोहन सरस, तुम देखन का चाव।।
बिरह बिथा सूँ हूँ बिकल, दरसन कारन पीव।
"दया' दया की लहर कर, क्यों तलफाओ जीव।
जनम जनम के बीछुरे, हरि अब रह्रो न जाय।
क्यों मन कूं दुख देत हो, बिरह तपाय तपाय।।
बौरी  ह्वै चितवत फिरूँ, हरि आवैं केहि और।
छिन उठूँ छिन गिर परूँ, राम दुखी मन मोर।।
सोवत  जागत  एक पल, नाहिन बिसरुँ तोहि।
करुणासागर दयानिधि, हरि लीजै सुधि मोहि।।
अर्थ¬¬ः- ""मेरे ह्मदय में विरह की ज्वाला भड़क उठी है, हे मेरे परम स्नेही राम जी! अब तो आ जाओ। हे मन को मोहने वाले सुन्दर सह्मदय प्रभु जी! मुझे तुम्हारे दर्शन की तड़प है।''
     ""हे प्रियतम! दर्शन की लालसा में मैं विरह-व्यथा से विकल हूँ। सन्त दया बाई जी कहती हैं कि हे प्रभो! अब मेरे ऊपर दया करो; मेरा ह्मदय क्यों तड़पाते हो?''
     ""जन्म-जन्मान्तर से तुमसे बिछुड़ कर दुःखी हो रही हूँ। हे प्रभो! अब यह वियोग सहा नहीं जाता। विरह-अग्नि में तपा तपा कर अब क्यों मन दुःखी करते हो?''
     "" मैं तो पागल होकर यह देखती-फिरती हूँ कि मेरे प्रभु किस मार्ग से आयेंगे। मार्ग में ठोकर खाकर गिर पड़ती हूँ। फिर उठती हूँ फिर गिर पड़ती हूँ। हे राम! तुम्हारे वियोग में मन अत्यन्त दुःखी है।''
     ""मैं सोते-जागते एक पल भी तुम्हें नहीं भूलती। हे करुणासागर, हे दयानिधे प्रभो! अब तो आकर मेरी सुधि लो।''
     सत्पुरुषों का कथन है कि मनुष्य की किसी भी वस्तु को प्राप्त करने की लगन जब तड़प और व्याकुलता का रुप धारण कर लेती है, तो फिर उसकी तड़प और व्याकुलता की शक्ति से प्रभावित होकर वह वस्तु भी उस मनुष्य तक पहुँचने के लिये व्याकुल हो उठती है। महापुरुषों के वचन हैंः-
तिशना चू नालद कि कू आबे गवार।
आब  हम  नालद कि कू आं ख़्वार।।
अर्थः-जब प्यासा मनुष्य प्यास से व्याकुल होकर यह पुकार करता है कि हाय! ठंडा पानी कहां है, तो उधर पानी भी उसी की तरह व्याकुल होकर पुकारने लगता है कि पानी का वह आकांक्षी मनुष्य कहां है?
     इसी नियम के अनुसार जब प्रियतम के दर्शनों के लिये प्रेमी की सच्ची लगन, व्याकुलता और तड़प का रुप धारण कर लेती है, तो फिर प्रियतम के ह्मदय में भी अपने प्रेमी से मिलने की तड़प जाग उठती है। शबरी की व्याकुलता भी जब सीमा पार कर गई, तो उसके प्रियतम भगवान श्री रामचन्द्र जी भी उससे शीघ्रातिशीघ्र मिलने के लिये व्याकुल हो उठे।
     एक दिन शबरी ने सुना, मुनिबालक उसे सम्बोधित कर कह रहे थे, शबरी! जिनकी प्रतीक्षा में तुम रात-
दिन व्याकुल रहती हो, तुम्हारे वे भगवान श्रीराम इधर ही आ रहे हैं। मुनि बालकों के मुख से भगवान श्री रामचन्द्र जी के शुभ आगमन का समाचार सुनते ही शबरी का रोम-रोम पुलकित हो क्रठा। इतने में ही उसने भगवान को यह कहते सुना-शबरी कहाँ है?
     उस वन में रहने वाले ऋषि-मुनियों को यह पहले से ही ज्ञात हो चुका था कि भगवान श्री रामचन्द्र जी अपने अनुज लक्ष्मण जी सहित इधर ही पधार रहे हैं, अतः उन्होने उनके स्वागत-सत्कार की पूरी तैयारी कर रखी थी, क्योंकि उन्हें यह पूर्ण विश्वास था कि वे सर्वप्रथम उनके आश्रम पर ही कृपा करेंगे। किन्तु जब भक्तवत्सल भगवान उनके आश्रम की ओर जाने की बजाय शबरी के भक्ति-प्रेम के आकर्षण से खिंचे हुये उसके विरह-व्याकुल ह्मदय को शान्त-शीतल करने तथा उसकी नयनों की प्यास बुझाने के लिये भक्तिमति शबरी की कुटिया की ओर मुड़ गये तब उन तपोबल एवं जाति के अभिमानी ऋषियों-मुनियों को भक्ति की महिमा का बोध हुआ।
     भगवान श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण जी सहित शबरी की कुटिया पर जा पहुँचे, जहां वह पहले से नयन बिछाये उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। इष्टदेव को सम्मुख देखकर उसके नेत्रों से आनन्द अश्रु भर आये। भगवान के दर्शन कर वह ऐसा  प्रेम-विभोर  हो गई कि मुख से वचन नहीं निकलता।  उस समय का चित्र खींचते हुये
गोस्वामी तुलसीदास जी कथन करते हैंः-
सबरी देखि राम गृह आए। मुनि के वचन समुझि जिय भाय।।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम  गौर  सुन्दर  दोउ  भाई । सबरी  परी  चरन लपटाई।।
प्रेम मगन मुख वचन न आवा। पुनिपुनि पद सरोज सिर नावा।।
अर्थः-शबरी ने जब भगवान श्री रामचन्द्र जी को अपने घर में कृपा करते देखा, तब मुनि मतंग जी के वचनों को स्मरण कर उसका ह्मदय प्रसन्नता से भर गया। कमल के सदृश नेत्रों तथा विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और ह्मदय पर वनमाला धारण किये हुये श्याम तथा गौरवर्ण के दोनों सुन्दर भाइयों को देखकर शबरी उनके चरणों से लिपट गई। वह प्रेम में ऐसी मग्न हो गई कि मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरणकमलों में सिर नवा रही है। शबरी इतनी आनन्दमग्न हुई कि सुध-बुध भूलकर दर्शनामृत का पान करने में तल्लीन हो गई। उसका ऐसा उत्कट प्रेम तथा भक्तिभाव देखकर भगवान श्री रामचन्द्र जी अति प्रसन्न हुए और लक्ष्मण जी की ओर देखकर मुस्कराए। तब लक्ष्मण जी ने शबरी को झिंझोड़ते हुये कहा, शबरी! क्या भगवान को बैठने के लिये आसन नहीं देगी? देख! भगवान कितनी देर से खड़े हैं? लक्ष्मण जी के चिताने पर शबरी को चेत हुआ और तबः-
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे।।
दोहाः-कंद मूल सुरस अति, दिए राम कहुँ आनि।
प्रेमसहित प्रभु खाए, बारंबार बखानि।।
अर्थः-उसने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण पखारे और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया। उसने अत्यन्त रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर भगवान श्री रामचन्द्र जी को दिये। भगवान ने बार-बार उनकी प्रशंसा करते हुये प्रेमसहित उनका भोग लगाया। पद्मपुराण में वर्णन है किः-
        फलानि च सुपक्वानि मूलानि मुधराणि च। स्वयमास्वाद्य माधुर्य परीक्ष्य परिभक्ष्य च।।
अर्थात् शबरी वन के पके हुये मधुर कन्दमूल और फलों को स्वयं चख-चखकर उनके माधुर्य की परीक्षा करके भगवान श्रीरामचन्द्र जी को देने लगी।और भगवान भी शबरी की प्रेमस्वरुपा भक्ति की सराहना करते हुये तथा उसके प्रेमसहित दिये गये फलों की मधुरता की प्रशंसा करते हुये बड़े चाव से उनका भोग लगाने लगे। भक्त रसिक बिहारी जी उस समय के दृश्य का वर्णन सुन्दर शब्दों में करते हैंः-
बेर बेर बेर लै सराहैं बेर बेर बहु, "रसिकबिहारी' देत बंधु कहं फेर फेर।
चाखि चाखि भाखैं यह वाहू ते महान मीठो, लेहु ते लखन यों बखानत हैं हेर फेर।।
बेर बेर देवे को सबरी सुबेर बेर, तोऊ रघुवीर बेर बेर ताहि टेर टेर।
बेर जनि लाओ बेर जनि लाओ लाओ बेर, बेर जनि लाओ बेर लाओ कहें बेर बेर।।
   अर्थः-यहां "बेर' शब्द के तीन अर्थ हैं, बेर, देर और बार। रसिक बिहारी जी कहते हैं कि भगवान श्री रामचन्द्र जी बार-बार शबरी से बेर लेते हैं,  बार-बार उनकी अत्यधिक सराहना करते हैं और फिर बार-बार अपने भाई लक्ष्मण जी को भी देते हैं। चख-चख कर कहते हैं कि ये तो उनसे (अर्थात् पहले वालों से) भी अधिक मीठे हैं और फिर उनकी सराहना करते हुये लक्ष्मण जी की ओर देखकर कहते हैं कि हे लखन! ये बेर लो तो! यद्यपि शबरी बार-बार भगवान को सरस एवं मधुर बेर दे रही है, फिर भी भगवान उसे बेर देने के लिये बार-बार पुकारते हैं और कहते हैं कि देर मत करो, देर मत करो, बेर लाओ; देर मत करो, बेर लाओ।
     भगवान को शबरी ने जो प्रेम-श्रद्धायुक्त फल अर्पित किये, उन्हें उस समय तो भगवान ने चाव से खाया ही, उन फलों में जो अनोखा स्वाद था, उसे वे जीवन प्रयन्त नहीं भूले। जहां कहीं भी उनका स्वागत-सत्कार होता और नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन उनके सम्मुख परोसे जाते, वे सदा ही वहां शबरी के भक्ति-प्रेम सुधा से युक्त फलों की सराहना करते हुये कहते कि शबरी के बेरों में जो स्वाद और माधुर्य था, वैसा कहीं नहीं मिला। जब भगवान शबरी द्वारा अर्पित फलों का भोग लगा चुके तबः-
चौपाई--          पानि जोरि आगे  भइ  ठाढ़ी। प्रभुहि विलोकि प्रीति अति बाढ़ी।।
 केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी।।
     अर्थः- वह हाथ जोेड़कर सम्मुख खड़ी हो गई। प्रभु के दर्शन कर उसका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। वह बोली-प्रभो! मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करुँ? मैं नीच जाति की और अत्यन्त मूढ़बुद्धि हूँ। जो अधम से भी अधम हैं, मैं उनमें भी अत्यन्त अधम नारी हूँ और हे पापनाशन्! उनमें मैं बहुत ही मन्दबुद्धि हूँ। शबरी के ऐसे दीनता एवं नम्रतापूर्ण शब्द सुनकर ही भगवान ने ये वचन कहे थे किः-
चौपाईः-            कह रघुपति सुनु भामिनी बाता। मानुँ एक भगति कर नाता।।
जाति पाँति  कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
 भकति हीन नर सोहई कैसा। बिनु जल वारिद देखिय जैसा।।
           भगवान श्री रामचन्द्र जी भक्तिमति शबरी के प्रति कथन करते हैं कि हे भामिनि, मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति का ही नाता मानता हूँ। भक्तिमान ही मुझे प्रिय है। भक्ति से रहित मनुष्य जाति-पाँति,कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण तथा चतुराई-इन सबके होने पर भी कैसा लगता है? जैसे जलहीन बादल शोभाहीन दिखाई देते हैं। तत्पश्चात् भगवान ने भक्तिमति शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हुये कहाः-
चौपाईः-              नवधा भगति कहुँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
    प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
दोहाः-                       गुरुपद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान।
        चौथी भक्ति मम गुन गन, करइ कपट तजि गान।।
चौपाईः-            मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो वेद प्रकासा।।
छठ दम सील विरती बहुकरमा। निरत निरंतर सज्जन धर्मा।।
       सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक कर लेखा।।
आठवँ जथा लाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
नवम सरल सब सम छलहीना। मम भरोस हिय हरष न दीना।।
                  नव महँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।।
        सोई अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।।
    जोगि वृंद दुरलभ गति जोई। तो कहँ आज सुलभ भइ सोई।।
अर्थः- मैं तुमसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है सन्तों का सत्संग, दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम, तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरणकमलों की सेवा और चौथी भक्ति है-कपट छोड़कर मेरे गुणानुवाद गायन करना। मेरे मंत्र का (अर्थात् प्रभु-नाम का) जाप और मुझ में दृढ़ विश्वास, यह पाँचवीं भक्ति है जो वेदों मे वर्णित है। छटी भक्ति है, इन्द्रियों का निग्रह, शील, बहुत से कर्मों से विरक्त होना तथा निरन्तर संतों के धर्म में लगे रहना। सातवीं भक्ति है, सम्पूर्ण संसार को स्वभाव से मुझ में ओत प्रोत (अर्थात् प्रभुमय) देखना और सन्तों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है कि जो कुछ भी मिल जाये उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना। नवीं भक्ति है-सरलता और सबके साथ कपटरहित व्यवहार करना, ह्मदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था मेंं हर्ष और विषाद का न होना।
     ये वचन फरमाकर भगवान ने पुनः कहा कि इन नौ प्रकार की भक्तियों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष अथवा जड़-चेतन कोई भी हो, हे भामिनी! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। इसलिये जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिये सुलभ हो गई है।
      इस प्रकार निश्छल प्रेम और अनन्य भक्ति के द्वारा भगवान को प्रसन्न कर भक्तिमती शबरी वह गति प्राप्त करने में सफल हुई जो योगियों के लिये भी दुर्लभ है। उसी समय दण्डकारण्य में रहने वाले ऋषि मुनि जो शबरी को हीन भावना से देखते थे, वहां आये। भगवान श्री रामचन्द्र जी तथा लक्ष्मण जी ने खड़े होकर उनका स्वागत किया और उनसे कुशल-क्षेम पूछा। सबने कहा-प्रभो! आपके दर्शन करके हम सब धन्य हो गये हैं। तत्पश्चात् वे हाथ जोड़कर बोले-योगियों के लिये जो परम दुर्लभ हैं, ऐसे आप साक्षात् परब्राहृ जिसके घर पधारे हैं, वह भक्तिमती शबरी सर्वथा धन्य है। हम बड़े अपराधी हैं कि हमने भक्ति की महिमा को न जानकर सदा शबरी का तिरस्कार किया है। प्रभो! हमारे अपराध क्षमा करें।
     ऋषि-मुनियों को पश्चात्ताप करते देखकर भगवान ने उन्हें हर प्रकार से सांत्वना दी, तत्पश्चात् शबरी से बोले-हम तेरी भक्तिभावना पर अति प्रसन्न हैं, कुछ वर मांग। तब शबरी ने कहा, नीच कुल में जन्म लेने पर भी मुझे आपके साक्षात् दर्शन हो रहे हैं,मुझ पर यह आपकी अत्यन्त कृपा है। मैं बस यही चाहती हूँ कि हर जन्म में मेरी आपके चरणों में दृढ़ प्रीति बनी रहे। इसके सिवा मैं कुछ नहीं चाहती।
     भगवान श्री रामचन्द्र जी महाराज ने शबरी की इच्छानुसार उसे अचल भक्ति का वरदान दिया। यह है प्रेमस्वरुपा भक्ति का प्रताप।
       श्रृषि मुनि उसे नीच जाति की समझ कर उससे घृणा करते थे परन्तु शबरी के अन्दर हार्दिक भक्ति के संस्कार थे। वह रात के समय छिपकर श्रषि-मुनियों के आश्रमों पर झाड़ू लगा आती, दातुन काट कर रख आती और स्नान के लिये उनका जल भर आती थी। कहते हैं जिस वन में ऋषि-मुनि रहते थेे-वहीं एक तालाब था जिस का उपयोग स्नानदि के लिये वे लोग किया करते थे। उस सरोवर में कीड़े पड़ गये। मुनियों ने सोचा कि भगवान राम का अवतार हुआ है, वह यदि तालाब में चरण छुवावें तो पानी शुद्ध हो जाएगा। वास्तव में तालाब के अन्दर कीड़े पड़ने का कारण यह था कि जब ऋषियों को यह ज्ञात हुआ कि हम भीलनी के हाथ का जल पीते हैं उन्हें बहुत बुरा लगा और उन्होने उस शबरी को एक दिन बहुत मारा। उसी दिन से सरोवर का जल दूषित हो गया।
      भगवान राम जब भीलनी के घर आये। ऋषियों ने प्रार्थना की कि महाराज! तालाब में चरण छुआवो जिससे जल शुद्ध हो। ऋषियों ने भगवान के चरण मल-मल कर धोए किन्तु पानी निर्मल न हुआ। अन्त में भगवान ने कहा कि जब तक आप भीलनी के चरणों का नीर इस में न डारोगे वह शुद्ध न होगा। मुनियों ने वैसा भी करके देखा, किन्तु पानी फिर भी स्वच्छ न हुआ क्योंकि उनके मन में भीलनी के प्रति घृणा का भाव था भगवान ने फिर कहा कि जब तक तुम श्रद्धापूर्वक भीलनी के चरण नहीं धोवोगे तब तक जल विमल न होगा। कहा जाता है कि उन्होने भगवान के आदेशानुसार शबरी के चरण श्रद्धा से धोये और जल निर्मल हो गया। यह है श्रद्धा सहित कर्म करने का फल।
      इससे स्पष्ट है कि भगवान केवल भक्ति से ही रीझते हैं और केवल भक्ति का ही नाता मानते हैं। जाति-पाँति आदि को वे नहीं देखते। कथन भी हैः-
जाति पाँति पूछे नहीं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।

2 comments:

  1. Satguruji too much kindness has been done by you by Shri App.... Yes a lot prabhuji

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  2. Satguruji too much kindness has been done by you by Shri App.... Yes a lot prabhuji

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