भाई मञ्झ



श्री रामचरित मानस में भगवान श्री रामचन्द्र जी काकभुशुण्डि जी के प्रति कथन करते हैं किः-
पुनि पुनि सत्य कहौं तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं।।
कथन करते हैं कि मैं तुमसे बार-बार सत्य कहता हूँ कि मुझे अपने सेवक के समान कोई भी प्रिय नहीं है।
     सच्चे सेवक को भगवान ने कितना ऊँचा दर्ज़ा दिया है कि सेवक के समान अन्य कोई भी उन्हें प्रिय नहीं है। अतएव सेवक का भी यह धर्म हो जाता है कि अपने इष्टदेव की प्रसन्नता एवं कृपा प्राप्त करने के लिए वह सिर-धड़ की बाज़ी लगा दे।
     भाई मञ्झ ने सेवक-धर्म की एक ऐसी मिसाल संसार के आगे रखी जो भक्ति-पथ पर चलने वाले जिज्ञासुओं को सदा प्रेरणा देती रहेगी। यह उस समय की बात है जब पंचम पादशाह श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज अपने सदुपदेशों से जीवों को सत्पथ दरसा रहे थे। पंजाब के दोआबा क्षेत्र में एक गाँव था मंजकी, जहाँ अधिकतर मंज नाम के राजपूत रहते थे। उनके मुखिया का नाम था-तीरथ। वह सखी सरवर, जो एक मुसलमान फकीर हो गुज़रे हैं और जिनकी मज़ार "नगाहे' में है, को मानता था और उसकी पूजा करता था। सखी सरवर की उस क्षेत्र में बड़ी मान्यता थी और मुसलमान तथा हिन्दु-दोनों ही बड़ी संख्या में उसके अनुयायी थे। तीरथ ने पीर सखी सरवर की याद में अपने घर में ही स्थान बनवा रखा था और प्रतिदिन वहाँ पूजा किया करता था। वह हर साल नगाहे भी जाता, यहाँ पीर सखी सरवर की मज़ार थी। यह रास्ता वह पैदल ही तय करता। संवत् 1642 वि. की बात है, हरवर्ष की तरह वह अपने साथियों के साथ नगाहे जा रहा था कि मार्ग में रामदासपुर आ गया, जहाँ किसी ने तीरथ से कहा कि रामदासपुरमें पूर्ण सद्गुरु विराजमान हैं जो जीवों को सच्चा ज्ञान बख़्श कर जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति दिला रहे हैं। तुम उनकी शरण क्यों नहीं ग्रहण करते?''
      उसके वचन सुनकर तीरथ के पुण्य कर्म जाग उठे और उसने सत्पुरुष श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज ने दर्शन करने का मन ही मन विचार किया। शाम का समय था, सतगुरु जी का दरबार लगा हुआ था और वे सत्संग-उपदेश कर रहे थे। तीरथ अपने साथियों सहित दरबार में पहुँचा और एक तरफ बैठकर बड़ी श्रद्धासहित सत्संग श्रवण करने लगा। सतगुरु जी के नूरानी स्वरुप के दर्शन करके तथा सत्संग श्रवण करके तीरथ के मन की अवस्था ऐसी हो गई जैसी कि सन्त सहजो बाई जी ने फरमाया हैः-
सहजो सतगुरु के मिले, भये और सूं और।
काग पलट गति हंस ह्वै, पाई भूली ठौर।।
जब सतगुरु जी ने अपने वचन समाप्त किये तो तीरथ तुरन्त अपने स्थान से उठा और सतगुरु जी के चरणों में गिर कर विनय की,""सच्चे पादशाह! मेहर करो। मुझे अपने चरणों में निवास दो। मैं भूला-भटका जीव आपकी शरण में हूँ।'' सतगुरु जी ने देख लिया था कि तीरथ और उसके साथियों के हाथों में वे झंडे हैं और गले में वे मालाएँ हैं जो सखी सरवर के अनुयायी इस्तेमाल करते हैं। अतएव उन्होंने फरमाया-""पुरुषा! हमारी शरण ग्रहण करोगे तो ये रिश्तेदार और जात-बिरादरी के लोग, जो तुम्हारे साथ हैं, सब नाराज़ हो जायेंगे।''
    तीरथ ने विनय की-""सच्चे पादशाह! मैं धन दौलत, इज़्ज़त-मान, रिश्तेदार-सम्बन्धी सब कुछ आप पर कुरबान करता हूँ। आप जो आज्ञा करेंगे, मैं वही करुँगा, परन्तु मुझे अपने चरणों से विलग मत कीजिये।'' सतगुरु जी ने पुनः फरमाया-""तुम तो सखी सरवर के चेले हो। क्या तुमने उसका स्थान अपने घर में बनवा रखा है?''
     ""हाँ दाता! पीर सरवर का स्थान तो अपने घर में अवश्य बनवा रखा है।''तीरथ ने विनय की।
     ""तो पहले उसको तोड़ना होगा।'' सतगुरु जी ने फरमाया।
     तीरथ ने विनय की-""सच्चे पादशाह! मैं अभी घर जाता हूँ और आपकी आज्ञा का पालन करके अपने परिवार को भी साथ लेकर आता हूँ ताकि भक्ति की सच्ची दात से वे भी वंचित न रह जाएँ।'' यह कहकर तीरथ ने श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज के चरणों में प्रणाम किया और घर की ओर चल दिया। उसके साथी उसे बुलाते रहे, परन्तु उसने किसी की एक न सुनी। अपने गाँव मंजकी पहुँचकर वह सीधा अपने घर गया और गैंती उठाकर सखी सरवर के स्थान को तोड़ना शुरु कर दिया। सारे गाँव में शोर मच गया और लोग उसके मकान पर इकट्ठे हो गए। वे आपस में एक-दूसरे से कहने लगे कि यह तो नगाहे जा रहा था, बीच में ही साथ छोड़कर वापस आ गया है और अब पीर के स्थान को तोड़ रहा है, कहीं यह पागल तो नहीं हो गया। कुछ लोगों ने उसे चितावनी दी-""तीरथ! यह क्या कर रहे हो? पीर का स्थान गिरा रहे हो? ऐसा मत करो, वरना अन्धे हो जाओगे। पीर का क्रोध तुम्हारे सारे कुल का नाश कर देगा।''
     तीरथ ने कहा-"'मुझे अब इससे भी बड़ा पीर मिल गया है, जो सच्चे ज्ञान को बख्शने वाला और मुक्ति का दाता है। अब मैं उसी की शरण में जाऊँगा।'' लोगों ने जब देखा कि तीरथ बात सुनने को ही तैयार नहीं तो उन लोगों ने यह सोचकर अपनी राह ली कि वह अवश्य ही पागल हो गया है। तीरथ ने सरवर के स्थान को तोड़कर ही दम लिया। फिर थोड़ा सुस्ताकर और हाथ-मुँह धोकर उसने अपनी पत्नी से रोटी देने के लिए कहा तो वह उससे लड़ पड़ी और बोली-""जिसने तुम्हें यह उल्टी पट्टी पढ़ाई है, उसके घर जाकर ही रोटी खा। पीर के दुश्मन को रोटी खिलाकर क्या मैने अपने कुल का नाश करना है?''
     तीरथ ने उसे बहुत समझाया और सतगुरु जी की बड़ी महिमा वर्णन की, परन्तु उसकी पत्नी कोई बात सुनने को तैयार न थी। अतः चौथे दिन तीरथ ने घर-बार का त्याग कर दिया और रामदास पुर वापस पहुँच गया। वहाँ पहुँचकर वह सतगुरु जी के चरणों में उपस्थित हुआ और चरणों में शीश निवाकर हाथ जोड़कर विनय की-""सच्चे पादशाह! आपकी आज्ञा का पालन करके और सब रिश्तेदार सम्बन्धियों को छोड़कर मैं आपकी शरण में आ गया हूँ। मेरे ऊपर मेहर करो।''
     श्री गुरु अर्जुनदेव जी महाराज ने वचन फरमाये-""अच्छा किया। अब हित्तचित्त  से सेवा किया करो। सवेरे घोड़े के लिए घास और शाम को लंगर के लिए लकड़ियों का गट्ठा जंगल से ले आया करो तथा परमेश्वर का हर समय सुमिरण किया करो।'' "सत्य वचन' कहकर तीरथ सेवा में संलग्न हो गया। माता-पिता ने तो उसका नाम तीरथ रखा था और अब तक सब लोग उसे तीरथ के नाम से ही पुकारते थे, परन्तु  जब वह गुरु-दरबार में रहकर सेवा करने लगा तो वहाँ सभी उसे भाई मञ्झ के नाम से बुलाने लगे, शायद इसलिए कि वह मंजकी गाँव की राजपूत जाति "मंज' से सम्बन्ध रखता था। हम भी अब उसे भाई मंञ्झ ही लिखेंगे।
     भाई मञ्झ श्रद्धाभावना से दिनरात एक करके सेवा करने लगा। उन दिनों वहाँ सरोवर की कार सेवा भी चल रही थी इसलिए भाई मञ्झ को अपनी सेवा के बाद जो समय मिलता, उसमें वह सरोवर की सेवा करता। उसकी सेवाभावना धीरे-धीरे रंगलाई और सतगुरु जी की कृपा उस पर उतरने लगी। उसकी सेवाभावना से प्रभावित होकर उसके गाँव के बहुत सारे लोग सतगुरु जी के शिष्य बन गए। भाई मञ्झ की पत्नी भी सतगुरु जी की महिमा श्रवण कर उनके चरणों में शरणागत हो गई। इसी तरह बहुत दिन बीत गए। एक दिन की बात है भाई मञ्झ जंगल से लकड़ियों का गट्ठा सिर पर रखकर वापस आ रहा था कि काली आँधी आ गई। हवा इतनी तेज़ थी कि सिर पर लकड़ियों का गट्ठा उठाकर चलना अति कठिन हो गया। धूल के कारण मार्ग भी नहीं सूझ रहा था। लेकिन वह रुका नहीं, चलता रहा। आगे एक कुआँ था जिसमें नाममात्र ही पानी था। भाई मञ्झ उसमें गिर पड़ा, परन्तु गिरने पर भी उसने लकड़ियों का गट्ठा सिर पर से नहीं गिरने दिया। यद्यपि गिरने से चोटें लगीं, परन्तु फिर भी गट्ठा सिर पर उठाकर खड़ा रहा, लकड़ियों को पानी में भीगने नहीं दिया। कुएँ में खड़ा-खड़ा वह परमेश्वर का सुमिरण करने लगा।
    कुछ देर के बाद आँधी समाप्त हो गई और आसमान साफ हो गया। संयोग से अथवा प्रभु-प्रेरणा से उसी समय एक गुरु का प्यारा उसी कुएँ के पास से निकला। कुएँ में से प्रभु-नाम के सुमिरण की ध्वनि सुनकर वह रुक गया, फिर आवाज़ दी-""कुएँ में कौन है?'' भाई मंञ्झ ने कहा-""भाई! मैं गुरु दरबार का एक तुच्छ सेवक मञ्झ हूँ। मुझे बाहर निकालने की कोई युक्ति करो।''
     उस व्यक्ति ने कहा-""घबराओ नहीं; मैं अभी जाकर सतगुरु जी को यह समाचार देता हूँ ताकि रस्सी वगैरह लाकर तुम्हें निकाला जा सके।'' यह कहकर वह व्यक्ति तुरन्त सतगुरु जी के चरणों में उपस्थित हुआ और भाई मञ्झ के कुएँ में गिरने का समाचार निवेदन किया। सुनते ही सतगुरु जी उठ खड़े हुए और सेवकों को रस्से लाने के लिये कहा। सेवक रस्से लेकर उपस्थित हो गए। सतगुरु जी उस कुएँ की ओर चल पड़े। सेवकों ने विनय की-""सच्चे पादशाह! आप कष्ट न करो, हम लोग भाई मञ्झ को निकाल कर ले आते हैं।''
     परन्तु सतगुरु जी अपने सच्चे सेवक के प्रेम की डोर में बँधे हुए पैदल ही कुएँ पर पहुँच गए और जाते ही आवाज़ दी-""भाई मञ्झ! कहाँ हो?'' सतगुरु जी की आवाज़ पहचान कर भाई मञ्झ सारा कष्ट भूल गया। उसने कहा-""सच्चे पादशाह! मैं इस कुएँ में हूँ।'' सतगुरु जी ने फरमाया-""चोट तो नहीं लगी?'' भाई मञ्झ ने निवेदन किया-""आपकी कृपा से सब कुशल है। आप रस्सा फिंकवा दो ताकि मैं लकड़ियां उसके साथ बाँध दूँ। लकड़ियाँ अभी सूखी हैं और मैने सिर पर उठा रखी हैं।''
     सेवकों ने रस्सा नीचे फेंका। भाई मञ्झ ने लकड़ियों का गट्ठा उसके साथ बाँध दिया। फिर दोबारा रस्सा नीचे फेंका गया जिसको पकड़ कर भाई मञ्झ बाहर आ गया। वह जैसे ही सतगुरु जी के चरणों में मत्था टेकने लगा कि सतगुरु जी ने उसे पकड़कर अपने सीने से लगा लिया और उसकी इतनी उच्चकोटि की सेवाभावना से प्रसन्न होकर उसे भक्ति की सम्पदा से मालामाल करते हुए फरमायाः-
 मंज प्यारा  गुरु  नूँ  गुरु मंज प्यारा।
 मंज गुरु है बोहिथा जग लंघणहारा।।
भाई मंज की निष्काम सेवाभावना के कारण ही उन्हें भवपोत का दर्ज़ा प्राप्त हुआ। वह स्वयं तो संसार-सागर से पार हो ही गए, औरों को तराने वाले भी बन गए।
     ऐसे सच्चे सेवकों के इतिहास पढ़ने-सुनने से जिज्ञासु सेवकों के ह्मदय में अपने इष्टदेव के प्रति श्रद्धा एवं प्रेम बढ़ता है और वे भी उन सेवकों की तरह ही बनने की कामना करते हैं। ऐसे सेवक हर समय इष्टदेव के
चरणों में यही प्रार्थना करते हैं किः-
                              मैं बंदा बैखरीदु सचु साहिबु मेरा। गुरुवाणी
    जब ऐसी भावना सेवक के मन में आ जाती है तो फिर वह इष्टदेव सन्त सद्गुरु की आज्ञा मौज को शिरोधार्य कर तन प्राण से सेवा के पवित्र कार्य में जुट जाता है। वस्तुतः सेवक कहलाने का अधिकारी भी वही है जो अपने सेवक-धर्म को निभाये और इष्टदेव की प्रसन्नता प्राप्त करे। सद्गुरु की कृपा तो हर क्षण सेवक पर उतरने के लिए उद्यत है, देर केवल सेवक की ओर से है।
  सत्पुरुषों के वचन हैं-        सतगुरु के दरबार में कमी काहू की नाहिं।
बंदा  मौज न पावहि, चूक चाकरी माहिं।।
अतएव मनुष्य यदि अपना कल्याण चाहता है तो उसे समय के पूर्ण सद्गुरु की शरण-संगति ग्रहण कर सेवा में पूरी तरह मन-चित्त लगाकर संलग्न हो जाना चाहिये। उसे सत्पुरुषों के इन वचनों को हर समय दोहराते रहना चाहिए किः-
भुक्ति  मुक्ति माँगौं नहीं , भक्ति दान गुरुदेव।
और नहीं कुछ चाहिये, निसदिन तुम्हरी सेव।।

2 comments:

  1. Really a learning story.....too much appreciable for sevaks who r working hard day n nite


    ReplyDelete
  2. Really a learning story.....too much appreciable for sevaks who r working hard day n nite


    ReplyDelete