भक्त कल्याण दास
भक्त कल्याण दास महाराष्ट्र के रहने वाले थे। उनके पिता रामदास बहुत बड़े ज़मींदार थे। उनके पास अपार धन-सम्पत्ति थी, परन्तु इस धन-सम्पत्ति में उनकी तनिक भी आसक्ति न थी। वे बड़े ही साधु-सेवी, भगवद्भक्त और सरल स्वभाव के थे। उनका ह्मदय अत्यन्त कोमल था। दूसरे को दुःखी देखकर उनका ह्मदय पसीज उठता; फलस्वरुप वे हर प्रकार से उसकी सहायता कर उसका दुःख दूर करने का प्रयत्न करते। उनकी पत्नी भी उन्हीं की तरह ही धार्मिक विचारों वाली और सरल ह्मदया थी। माता-पिता के वे इकलौते पुत्र थे, इसलिये उनके प्रति माता-पिता का स्वाभाविक ही अतुल स्नेह था। संसार में आमतौर पर यही देखने में आता है कि यदि घर में धन-पदार्थों की बहुलता हो और बच्चे के साथ माता-पिता का अत्यधिक स्नेह भी हो, तो इकलौती सन्तान प्रायः बिगड़ जाती है और बुरी संगति में पड़कर कुमार्ग पर लग जाती है। किन्तु कल्याणदास के विषय में ये बात न थी। माता-पिता के धार्मिक विचारों तथा धर्म-कर्म में उनकी रुचि का तो कल्याणदास पर प्रभाव पड़ा ही, बाल्यकाल से ही सत्संगति मिलने के कारण उनके ह्मदय में भक्ति का बीजारोपण छोटी आयु में ही हो गया। सौभाग्य से उन्हें पूर्ण महापुरुषों की शरण-संगति भी प्राप्त हो गई और उनसे सच्चे नाम की भी प्राप्ति हो गई। सद्गुरुदेव के शुभ आशीर्वाद तथा उनकी अनुकम्पा से भक्ति का यह बीज शनैः शनैः प्रगति करने लगा। सत्रह वर्ष की आयु होने पर अन्नपूर्णा नामक कन्या से उनका विवाह कर दिया गया। अन्नपूर्णा धार्मिक विचारों की और बड़ी ही सुशीला थी। उसके पिता मायादास यद्यपि अत्यन्त धनाढ¬ थे, परन्तु थे बड़े ही कंजूस और सांसारिक विचारों के व्यक्ति।
एक बार निरन्तर कई वर्षों तक वर्षा न होने से उस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा, जिससे लोग दाने-दाने को तरसने लगे। कल्याणदास के पिता रामदास अपनी उदारता के लिये उस क्षेत्र में प्रसिद्ध तो थे ही, फलस्वरुप भूख से व्याकुल जनता सहायता के लिये उनका द्वार खटखटाने लगी। उन्होंने किसानों का लगान तो माफ किया ही, सबके लिये अन्न का भण्डार भी खोल दिया। किन्तु यह भण्डार कब तक चलता, क्योंकि रामदास के द्वार पर आने वाले याचकों की संख्या कोई कम तो थी नहीं, परिणाम यह हुआ कि अन्न-भण्डार शीघ्र ही खाली हो गया। रामदास धन खर्च कर बाहर से अन्न मँगवाने लगे। धन समाप्त होने पर उन्होंने घर के आभूषण आदि बेच डाले और जब वे भी समाप्त हो गये, तो फिर उधार अन्न मंगवाना आरम्भ कर दिया। चूँकि वे धनी-मानी और प्रसिद्ध व्यक्ति थे, इसलिये पहले तो व्यापारी उन्हें उधार देते रहे, परन्तु धीरे-धीरे जब उन्हें वास्तविक स्थिति का पता चला, तो उन्होंने उधार देना बन्द कर दिया, उधार चुकता करने के लिये भी बार-बार आग्रह करने लगे। कुछ लोग तो न्यायालय में जाने की धमकी भी देने लगे। एक तो ऋण चुकाने की चिंता, दूसरे बदनामी का भय; परिणाम यह हुआ कि वे हर समय चिंतित रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनका स्वास्थ्य इतना अधिक गिर गया कि बचने की कोई आशा ही न रही। अन्तिम समय निकट आया जानकर रामदास ने कल्याण को बुलाकर कहा-बेटा! मेरा अन्तिम समय आ पहुँचा है। मैं तो अब जा रहा हूँ। मैंने तुम्हे एक विशेष कार्य के लिये बुलाया था, परन्तु अब सोचता हूँ कि तुमसे कहूँ या न कहूँ।
कल्याण ने कहा-आप निःसंकोच ह्मदय की बात मुझसे कहें, हिचकिचायें नहीं। मैं वचन देता हूँ कि आपकी इच्छा प्राणपण से पूरी करूँगा। रामदास ने शान्ति की सांस ली मानो उनके सीने पर रखा कोई बोझ उतर गया हो, तत्पश्चात् बोले-मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। कल्याण! तुम्हें पता ही है कि भूख से व्याकुल लोगों की सहायता करने में मेरे ऊपर काफी ऋण चढ़ गया है। जैसे भी हो, यह ऋण चुका देना, यही मेरी
अन्तिम इच्छा है। भगवान तुम्हारा कल्याण करेंगे। ये शब्द कहकर रामदास ने कल्याणदास के सिर पर हाथ
रखकर उसे आशीर्वाद दिया और सदा के लिये आँखें मूँद लीं।
कल्याणदास अभी पिता की तेरहीं से निपटे ही थे कि उनकी माता जी भी परलोक सिधार गई। उन्होंने प्रभु की इस इच्छा को भी शिरोधार्य किया। तेरहीं में सम्मिलित होने के लिये अन्नपूर्णा का ज्येष्ठ भ्राता आया। सब कार्य सम्पूर्ण हो जाने के उपरान्त उसने कल्याणदास से कहा-यदि आप आज्ञा दें, तो कुछ दिन अन्नपूर्णा घर हो आये। कल्याणदास ने इसमें कोई आपत्ति न की और अन्नपूर्णा दूसरे दिन भाई के साथ मायके चली गई। सब सम्बन्धियों के चले जाने के बाद कल्याणदास ने सोचा कि अब सर्वप्रथम मुझे पिता जी की अन्तिम इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करना चाहिये। धन और आभूषण तो अन्न क्रय करने में पहले ही भेंट हो चुके थे, अतः उन्होंने अपनी सम्पत्ति बेचकर ऋण चुकाने का निर्णय किया।
पहले लिखा जा चुका है कि कल्याणदास के श्वसुर मायादास यद्यपि काफी धनाढ¬ थे, परन्तु थे पूरे कंजूस। उनके पुत्र तो कंजूसी में उनसे भी एक पग आगे थे। अतएव उन्होंने इस संकट के समय में सहायता करना तो एक ओर रहा, कल्याणदास को सांत्वना तक न दी। कल्याणदास भी उनके पास सहायता मांगने नहीं गये और जाते भी क्यों? सच्चे गुरुमुख संसार की ओर नहीं ताकते, वे तो केवल इष्टदेव सद्गुरु का ही आश्रय ग्रहण करते और उन्हीं के चरणों में दृढ़ विश्वास रखते हैं, जैसा कि सन्तों का कथन हैः-
एक भरोसा एक बल, एक आस विस्वास।
स्वांति सलिल सतगुरु चरण, चात्रिक तुलसीदास।।
सच्चे गुरुमुख इष्टदेव सद्गुरु के अतिरिक्त न तो किसी अन्य की आस रखते हैं और न ही कष्टों के आने पर घबराते हैं। वे तो जीवन में आने वाले प्रत्येक सुख-दुःख तथा उतार-चढ़ाव को इष्टदेव का प्रसाद समझकर प्रसन्नतापूर्वक झोली में डालते हैं। वे विचारवानों के इस कथन को सदैव स्मरण रखते हैं किः-
न खुशी अच्छी है न मलाल अच्छा है।
जिस हाल में तू रखे वह हाल अच्छा है।।
कल्याणदास ने सम्पत्ति बेचनी शुरु कर दी। ऋण चूंकि बहुत अधिक था, अतः उनकी सारी सम्पत्ति ऋण की भेंट हो गई। कल्याणदस के पास बचे केवल वे कपड़े, जो उन्होंने शरीर पर धारण कर रखे थे। कल का राजकुमार आज कंगाल बनकर गांव से बाहर निकला, परन्तु कल्याणदास के मन में तनिक-सी भी खिन्नता नहीं थी। गांव वालों तथा सम्बन्धियों ने कोरी सहानुभूति प्रदर्शित कर अपना कत्र्तव्य पूरा कर दिया; किसी ने भी उसकी सहायता न की। सत्पुरुषों ने सत्य ही फरमाया हैः-
इह जगि मीतु न देखियो कोई।।
सगल जगतु अपनै सुख लागिओ दुख मै संगि न होई।।
(गुरुवाणी)
गांव के बाहर आकर मन ही मन विचार करने लगे कि इस असत् संसार और उसकी झूठी मोह-ममता से गुरुदेव ने उसका पल्ला छुड़ा कर कितना महान उपकार किया है। अब पुनः मोह-ममता की दलदल में क्यों फंसा जाये? अब क्यों न शेष जीवन गुरु-दरबार की सेवा में लगाकर अपना समय सफल किया जाये?
इस प्रकार अपना शेष जीवन गुरु-दरबार की सेवा में लगाने का दृढ़ निश्चय करके वे पैठण (महाराष्ट्र का एक नगर) की ओर चल दिये, जहां गोदावरी नदी के तट पर उनके गरुदेव का आश्रम था। कई दिन की यात्रा के उपरान्त वे आश्रम पर जा पहुँचे। गुरुदेव के श्री दर्शन करके वे प्रेम-विह्वल हो उठे। नेत्रों से प्रेमाश्रु
बहाते हुये वे गाने लगेः-
प्रभो मोहि कीजै अपना दास।।टेक।।
द्वार पे आया हूँ मैं तुम्हरे, जग से होय निरास।।
दीजिये मोहि शरण प्रभु अपनी, काटिये जग की फांस।।1।।
राखूँ मन में आस तुम्हारी, तज करि दूजी आस।
किरपा करि प्रभु मोहि दीजै, श्री चरणन में वास।।2।।
विनती करुँ दोऊ कर जोरि के, मान लीजै अरदास।
सेवा भक्ति मो को दीजै, जान के 'दासनदास'।।3।।
गुरुदेव के पूछने पर कल्याणदास ने सब वृत्तान्त श्री चरणों में सुनाकर निवेदन किया-प्रभो! मैं तो अब कंगाल हो चुका हूँ; इसलिये अब मुझे अपनी शरण में ठौर दीजिए। गुरुदेव ने फरमाया-कल्याण! तुम्हारे पास तो नाम-भक्ति का अमुल्य एवं अक्षय खज़ाना है, फिर तुम अपने को कंगाल क्यों कहते हो? क्या तुम सत्पुरुषों के ये वचन भूल गये कि-
कबीर सब जग निर्धना, धनवन्ता नहिं कोय।
धनवंता सोइ जानिये, जाके सत्तनाम धन होय।।
कल्याण! तुम्हें तो प्रभु का कोटि-कोटि धन्यवाद करना चाहिये और उनका आभार मानना चाहिये कि उन्होंने तुम्हें जग जंजाल से छुटकारा दिला दिया है। अब तुम समय का पूरा-पूरा लाभ उठाओ और अपना एक-एक स्वांस सेवा, भक्ति और नाम में लगाकर अपने जन्म को सकारथ करो। जो घड़ियां मालिक की याद में, मालिक के सुमिरण-ध्यान में बीतें, वे घड़ियाँ ही सफल हैं।
कबीर संगत साध की, सार्इं आवै याद।
लेखे में सोई घड़ी, बाकी दिन बरबाद।।
कल्याणदास आश्रम में रहकर प्राणपण से सेवा-भक्ति में जुट गये और अपना एक-एक पल लेखे लगाने लगे। इसी प्रकार काफी दिन व्यतीत हो गये। कल्याणदास के श्वसुर मायादास को जब बहुत दिन तक उनके बारे में कोई समाचार न मिला, तो वह चिन्तित हो उठा। अभी तक तो वह यह सोच रहा था कि कल्याणदास दूसरी जगह कोई कामकाज करके अन्नपूर्णा को ले जायेगा, परन्तु जब उनकी ओर से इतने दिन बीत जाने पर भी कोई सन्देश न मिला, तो उसने एक दिन अपनी पत्नी और पुत्रों को बुलाकर कहा-कौन जाने कल्याणदास जीवित भी है या नहीं। यदि वह जीवित भी हो, तो उस कंगाल के साथ अन्नपूर्णा का रहना अब उचित नहीं। हमें अब उसका कहीं दूसरी जगह विवाह कर देना चाहिये। मायादास की पत्नी बोली-ठीक ही तो है। उस भिखारी के साथ अब हमें सम्बन्ध तोड़ लेना चाहिये। उसके साथ सम्बन्ध रखना तो मानो अपनी मान-मर्यादा में बट्टा लगाना है। फिर उसके साथ रहने से तो अन्नपूर्णा का सारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। इसलिये उसका पुनर्विवाह कर देना ही उचित है।
सबने अन्नपूर्णा के पुनर्विवाह की बात स्वीकार कर ली। अन्नपूर्णा के बड़े भाई ने कहा-पिता जी! आप पण्डित जी से कहकर उसके लिये वर की खोज करायें। मायादास बोला-वह मैं पहले ही कर चुका हूँ। मधुकर ज़मींदार के साथ मैं इस विषय में बात भी कर आया हूँ। उन्होंने अपने पुत्र केशव के लिये अन्नपूर्णा का रिश्ता स्वीकार कर लिया है। पुत्र ने विरोध किया-वह तो लम्पट और शराबी है तथा पूरे क्षेत्र में बदनाम है। उसके साथ अन्नपूर्णा का विवाह करके क्या आप उसे नरक में ढकेलना चाहतेे हैं? मायादास ने कहा-यौवन में कुछ न कुछ अवगुण तो सभी में होते ही हैं। हो सकता है कि वह थोड़ी-बहुत शराब पीता हो। किन्तु अन्नपूर्णा बड़ी समझदार है, मुझे विश्वास है कि वह उसे सीधी राह पर ले आयेगी। फिर ऐसा धनी-मानी परिवार मिलना क्या
आसान बात है?
लड़कों ने कुछ देर तक विवाद किया, परन्तु अन्ततः उन्हें पिता की बात माननी ही पड़ी। मायादास ने केशव के साथ अन्नपूर्णा के विवाह की बात पक्की कर दी। गांव वालों ने जब यह सुना,तो सभी को यह बात बुरी तो बहुत लगी, परन्तु मायादास और मधुकर-दोनों ही चूँकि धनाढ¬ व्यक्ति थे और उस क्षेत्र में उनका दबदबा था, अतः विरोध करने का किसी का भी साहस न हुआ। कुछ सम्माननीय व्यक्तियों ने जब मायादास को समझाने का प्रयत्न किया कि कल्याणदास के जीवित रहते अन्नपूर्णा का दूसरे के साथ विवाह करना लोकमर्यादा के विरुद्ध है, तो उसने यह कहकर उनका मुंह बन्द कर दिया कि कल्याण के जीवित होने का क्या प्रमाण है? यदि वह जीवित है, तो अब तक अन्नपूर्णा की खोज-खबर लेने क्यों नहीं आया? क्या हम उसकी प्रतीक्षा में अन्नपूर्णा को जीवनपर्यन्त घर बैठाये रखें? चूँकि इन प्रश्नों का उनके पास कोई उत्तर नहीं था, इसलिये वे चुपचाप वापस लौट गये।
अन्नपूर्णा पति के वियोग में दुःखी तो पहले ही थी,विवाह के समाचार ने उसकी दुःखाग्नि में घृत का काम किया। उसने मन ही मन यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह किसी भी स्थिति में दूसरा विवाह नहीं करेगी। विवाह के एक दिन पूर्व तक वह अपने पति की प्रतीक्षा करेगी। यदि कल्याणदास आ गये तो ठीक, अन्यथा वह विष खाकर अपने प्राण त्याग देगी।
उन्ही दिनों अन्नपूर्णा के गाँव के कुछ लोग तीर्थ-यात्रा से वापिस आये। यात्रा के मध्य पैठण जाना हुआ, जहां उनकी कल्याणदास से अकस्मात् मुलाकात हो गई। गांव वापस आकर उन्होंने कयाणदास से मिलने का समाचार मायादास को सुनाया। यह समाचार सुनते ही मायादास, उनकी पत्नी तथा लड़कों के चेहरे उतर गये। अन्नपूर्णा ने भी यह समाचार सुना। उन लोगों के चले जाने के बाद उसने घर वालों के समक्ष स्पष्ट रुप से कह दिया-मेरे पति जीवित हैं और आप लोग मेरे पुनर्विवाह की सोच रहे हैं। किन्तु आप सब यह बात निश्चित रुप से जान लें कि मैं इस शरीर के रहते किसी अन्य पुरुष से विवाह कदापि नहीं करुँगी।
यह सुनकर सभी भड़क उठे। अन्नपूर्णा को एक कमरे में बन्द कर दिया गया। उसके घर से बाहर निकलने और अड़ोस-पड़ोस में जाने पर पूरी पाबन्दी लगी दी गई। अन्नपूर्णा के पास अब इसके अतिरिक्त और चारा ही क्या था कि वह प्रभु के चरणों में सहायता के लिये प्रार्थना करे। वह अपने कमरे में बैठी रात-दिन अश्रु बहाने और प्रभु-चरणों में प्रार्थना करने लगी। कोई प्रभु चरणों में आत्र्त पुकार करे और उसकी पुकार सुनी न जाये, यह तो हो ही नहीं सकता। अन्नपूर्णा की एक सहेली पड़ोस में ही रहती थी, जिसका नाम था सुशीला। दोनों का आपस में अत्यधिक स्नेह था। अन्नपूर्णा पर जो कुछ बीत रहा था, उससे सुशीला भी बहुत दुःखी थी। वह हर समय उसके विषय में ही सोचती रहती। अन्ततः उसे एक युक्ति सूझी। उसने अपने भाई अनिरुद्ध को एकान्त में बुलाकर कहा-भैया तुम जानते ही हो कि अन्नपूर्णा मेरी बचपन की सहेली है। उसके साथ जो अन्याय हो रहा है, वह तुमसे छिपा हुआ नहीं है। मुझसे उसकी यह दशा देखी नही जाती। अनिरुद्ध ने उत्तर दिया-सो तो ठीक है, परन्तु इस विषय में हम लोग क्या कर सकते हैं? जब उसके पिता ने गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की बात नहीं मानी, तो फिर वह हमारी तुम्हारी क्या सुनेगा?
सुशीला ने कहा-भैया! मैं उसके पिता के पास जाने की बात नहीं कर रही। मुझे एक युक्ति सूझी है। यदि तुम थोड़ी सी सहायता कर दो, तो कदाचित् उस बेचारी के कष्ट दूर हो जायें। अनिरुद्ध ने कहा-दीदी! अन्नपूर्णा दीदी का भी मैं उतना ही आदर करता हूँ जितना तुम्हारा। तुम जो कहोगी, मैं करने को तैयार हूँ। यदि मेरी सहायता से उसका कष्ट दूर हो सकता है, तो फिर मैं इस काम से पीछे नहीं हटूँगा। बताओ, मुझे क्या करना है? सुशीला ने कहा-कल्याणदास पैठण में है, यह तो तुम्हें पता लग ही चुका होगा। तुम्हें पैठण जाना होगा। मैं अभी अन्नपूर्णा के पास जाती हूँ और कल्याणदास के नाम पत्र लिखवा कर लाती हूँ। तब तक तुम घोड़े पर ज़ीन कस लो। पैठण पहुंच कर वह पत्र तुम्हें कल्याणदास के गुरुदेव के चरणों में पहुँचाना है। किन्तु पत्र के विषय में यहां किसी के कानों में तनिक सी भी भनक नहीं पड़नी चाहिये। कोई पूछे भी तो कह देना कि काम से शहर जा रहा हूँ।
यह कहकर सुशीला अन्नपूर्णा के घर चली गई। वहां जाकर उसने अन्नपूर्णा की माता को प्रणाम किया, कुछ देर उससे मीठी-मीठी बातें की, फिर अन्नपूर्णा के कमरे में चली गई। कमरे में पहुँचकर उसने अन्दर से कुण्डी बन्द कर ली। तत्पश्चात् अन्नपूर्णा को बहुत ही धीमे शब्दों में अपनी योजना बताई और कल्याणदास के नाम एक पत्र लिखकर देने को कहा। अन्नपूर्णा ने पत्र में अपनी सारी करुण कहानी लिखकर अन्त में लिखा-मेरा पत्र मिलने पर भी आप आयें या न आयें, यह तो आपकी इच्छा पर निर्भर है, परन्तु मैं एक-एक पल आपकी प्रतीक्षा में व्यतीत करुंगी। यदि आप न आये, तो फिर मैं विष खाकर प्राण त्याग दूँगी, परन्तु जीते जी किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं करुँगी।
पत्र लेकर सुशीला अपने घर आई। अनिरुद्ध जाने के लिये बिल्कुल तैयार था। उसने माता-पिता से यह कहकर आज्ञा ले ली थी कि वह एक दो दिन के लिये नगर में अपने मित्र के पास जा रहा है। उसने सुशीला से पत्र लिया और घोड़े पर सवार होकर पैठण की ओर चल दिया। तीसरे दिन सायंकाल वह पैठण पहुँचा और पता लगाकर आश्रम पर गया। गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होकर उसने अपना परिचय दिया और अन्नपूर्णा के विषय में सब कुछ निवेदन कर पत्र उनके चरणों में रख दिया। गुरुदेव ने तत्काल कल्याणदास को बुलाया और उसे पत्र देते हुये फरमाया-यह पत्र पढ़ लो।
कल्याणदास ने पत्र पढ़कर श्री चरणों में रख दिया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। गुरुदेव ने फरमाया-तुम्हारे कारण किसी के प्राण जायें, यह ठीक नहीं है। इसलिये कल प्रातः ही अनिरुद्ध के साथ तुम्हें जाना है। दो दिन की यात्रा तुम दोनों इकट्ठे तय करोगे, उसके बाद अनिरुद्ध तुम्हें छोड़ देगा ताकि ग्रामवासियों को यह न पता चले कि अनिरुद्ध यहां आया था। शेष मार्ग तुम पैदल तय करोगे। तुम्हें अन्नपूर्णा को साथ लेकर यहां आना है जिससे कि वह भी सेवा-भक्ति करके अपने समय का सदुपयोग कर सके और अपना जन्म सफल कर सके।
दूसरे दिन प्रातःकाल कल्याणदास पैठण से चले और गुरुदेव की आज्ञानुसार दो दिन अनिरुद्ध के साथ तथा उसके बाद तीन दिन पैदल चल कर लगभग प्रातः चार बजे अपने श्वसुर मायादास के घर जा पहुँचे। घर का द्वार अभी बन्द था, इसलिए वे बाहर चबूतरे पर ही बैठ गए। द्वार खटखटाना उन्होंने उचित न समझा। अन्नपूर्णा को सुशीला द्वारा यह पहले ही ज्ञात हो चुका था कि कल्याणदास एक-दो दिन के अन्दर ही वहां पहुँचने वाले हैं, इसलिये वह बड़ी व्याकुलता से पति की प्रतीक्षा कर रही थी। थोड़ी देर बाद जब मायादास के पुत्र ने द्वार खोला, तो उसकी दृष्टि चबूतरे पर बैठे कल्याणदास पर पड़ी। उसने अन्दर जाकर सबको यह समाचार दिया। सुनकर सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये। फिर कुछ सोचकर लोक-लाज के भय से मायादास जमाता को अन्दर ले गये। ऊपर से सबने यही प्रकट किया मानो उन्हें कल्याणदास के आने से अत्यन्त हर्ष हुआ हो।
जलपान के उपरांत अन्नपूर्णा के भाई कल्याणदास के साथ वात्र्तालाप करते रहे। दोपहर के भोजन केबाद एक कमरे में उनके विश्राम का प्रबन्ध कर दिया गया। अन्नपूर्णा आकर उनके पाँव दबाने लगी। आज उसके हर्ष का पारावार न था। थोड़ी देर बाद जब वे सो गये, तो अन्नपूर्णा उठकर अपने कमरे में चली गई। इधर मायादास ने अपनी पत्नी तथा पुत्रों को एकत्र करके आपस में परामर्श किया-गाँव वालों को कल्याणदास के आने का अभी तक पता नहीं, इसलिए आज रात ही भोजन में विष देकर इसकी छुट्टी कर देनी चहिये तकि रातों-रात ही लाश को ठिकाने लगाया जा सके। कल्याणदास को कैसे और कहां ठिकाने लगाना है, इस विषय में उन लोगों में दिन भर कानाफूसी होती रही। उनकी फुसफुसाहट में अन्नपूर्णा के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। सायंकाल जब मायादास की पत्नी भोजन बनाने लगी, तो अन्नपूर्णा भी मां की सहायता करने लगी। माँ ने दो-तीन बार उसे मना भी किया, परन्तु मना करने पर भी वह वहाँ से न टली। उस दिन भोजन में अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये गये।
जब भोजन का समय हुआ, तो अन्नपूर्णा की मां ने अन्नपूर्णा से कहा-जा दौड़कर चाँदी की थाली तो निकाल ला। जमाता को पीतल की थाली में भोजन परोसा जाये, यह अच्छा थोड़ा ही लगेगा? अन्नपूर्णा जब थाली लेकर वापस लौटी, तो रसोईघर में फुसफुसाहट की आवाज़ सुनकर वह खिड़की में से झांकने लगी। उसने मायादास को व्यंजनों में कोई पाउडर मिलाते हुये देखा। उसका ह्मदय कांप उठा। अब सब कुछ उसकी समझ में आ चुका था। विष के बारे में पति को सावधान करने के लिये जब वह कल्याणदास के कमरे में गई, तो वहाँ कल्याणदास मौजूद न था। न जाने उसके भाई उन्हें कहां ले गये थे। वह चिंतित हो उठी। अब वह करे तो क्या करे? मां को थाली पकड़ा कर वह भागती हुई अपने कमरे में गई और एक छोटे-से कागज़ पर ये शब्द लिखकर कि ""भोजन में विष मिला है'', तुरन्त वापस लौट आई।
पापिष्ठा सास ने कल्याणदास के लिये चांदी की थाली में भोजन परोस कर उसे एक सुन्दर रेशमी रुमाल से ढककर पुत्र को आवाज़ दी। किन्तु भाई के आने के पूर्व ही अन्नपूर्णा ने थाली उठा ली। उसने आँख बचाकर वह परचा थाली में रख दिया। रसोईघर से बाहर निकलते ही अन्नपूर्णा के भाई ने थाली उससे ले ली। जिस कमरे में कल्याणदास के भोजन का प्रबन्ध किया गया था, वह उसके साथ वाले कमरे में चली गई और परदे की आड़ से झांकने लगी। उसका ह्मदय बड़ी जोरों से धड़क रहा था।
कल्याणदास ने गुरुदेव को भोग लगवाया। तत्पश्चात् जैसे ही वे भोजन आरम्भ करने लगे कि उनकी दृष्टि कागज़ पर पड़ी। पढ़ते ही उनके नेत्र अश्रूपूर्ण हो गये और व्याकुलता की स्थिति में वे मन ही मन कहने लगे-गुरुदेव! मुझ अधम ने आज आपको विषाक्त भोजन का भोग लगवाया। प्रभो! अनजाने में मुझसे जो यह घोर अपराध हुआ है, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। हे मेरे प्राणाधार! जिस भोजन का आपको भोग लग चुका है, वह तो मेरे लिये प्रसाद रुप है, इसलिए चाहे अब प्राण रहें अथवा न रहें, प्रसाद तो मुझे ग्रहण करना ही है।
कल्याणदास भोजन करने लगे। देखते ही अन्नपूर्णा मूÐच्छत होकर गिर पड़ी। आवाज़ सुनकर अन्नपूर्णा के भाई चौंक उठे। उन्होंने उसे उठाया और तहखाने में ले जाकर बन्द कर दिया। मूच्र्छा टूटने पर जब उसने स्वयं को तहखाने में बन्द पाया, तो वह लगी ज़ोर-ज़ोर से रोने और गुरुदेव के चरणों में पुकार करने। विषाक्त भोजन करते-करते कल्याणदास एकाएक छटपटाने लगे। कुछ ही पल में उनके शरीर पर नीलापन स्पष्ट झलकने लगा। शरीर अकड़ गया और वे अचेत होकर वहीं गिर पड़े। मायादास और उसके पुत्र यह समझकर कि काम पूरा हो चुका है, लाश को ठिकाने लगाने के विषय में मंत्रणा करने लगे। अन्त में यह तय हुआ कि मकान के पिछवाड़े के आँगन में गड्ढा खोद कर लाश वहीं दबा दी जाये। वे लोग यह बात पूरी तरह भूल गये कि जिसको मालिक जीवित रखना चाहे, उसे संसार में कौन मार सकता है? सन्तों का कथन हैः-
जाको राखे साइयाँ, मार सकै न कोय।
बाल न बाँका कर सकै, जो जग वैरी होय।।
गुरुवाणी में भी फरमान हैः-
जिसका सासु न काढत आपि।। ता कउ राखत दे करि हाथ।।
परामर्श अनुसार वे सब तो गड्ढा खोदने लगे। इधर कल्याणदास को मूच्र्छा की स्थिति में ऐसा अनुभव हुआ जैसे वे स्वप्न देख रहे हों। उन्होंने देखा कि उसके प्राणधन गुरुदेव सुन्दर सिंहासन पर विराजमान हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हुये अमृतमय वचन फरमा रहे हैं-कल्याण उठो! तुम इस प्रकार अचेत क्यों पड़े हो? तुम्हें तो कुछ भी नहीं हुआ। तुम तो बिल्कुल ठीक हो। इन वचनों के साथ ही कल्याणदास को ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी ने उनके कन्धे झंझोड़ कर उन्हें गहरी निद्रा से जगा दिया हो। वे कुछ देर तक आँखें बन्द किये लेटे रहे। चारों ओर ऐसा सन्नाटा छाया था कि अपने स्वांसों की ध्वनि उन्हें स्पष्टरुप से सुनाई दे रही थी। कुछ देर के उपरांत उन्होंने आँखें खोली। कमरे में दीपक का हल्का-हल्का प्रकाश फैला हुआ था। उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली। धीरे-धीरे सभी घटनायें सजीव होकर चलचित्र की भांति उनके मनःपटल पर घूमने लगीं। गुरुदेव के उपकार को स्मरण कर वे भाव-विह्वल हो गये और आनन्द अश्रु बहाते हुये उच्च स्वर से गाने लगेः-
सतगुरु मैं तुम्हरी बलिहारी।।
तुम्हरे पावन चरणकमल पर, तन मन सब ही वारी।।1।।
हैं अनन्त उपकार प्रभु तुम्हरे, तुम हो परम हितकारी।
अपने सेवकजन की प्रभु जी, कबहूँ सुधि न बिसारी।2।।
पार न पावैं शेष शारदा, महिमा अमित तुम्हारी।
मैं गाऊँ फिर किस विधि स्वामी, हूँ मतिमन्द अनारी।।3।।
कर्ता धर्ता हो तुम जग के, सब दुःख कष्ट निवारी।
राखी पैज सदा भक्तन की, अपनो बिरद संभारी।।4।।
"दासनदास' दोऊ कर जोरि कै, विनती करत चरणारी।
मम हिरदै में सदा बिराजै, सुन्दर छवि तुम्हारी।।5।।
मायादास उसकी पत्नी तथा पुत्रों ने जो पाप कर्म किया था, उसके कारण घबराये हुये तो वे पहले ही थे, कहीं पत्ता भी खड़कता तो वे भय से कांपने लगते थे, भजन की आवाज़ कानों में पड़ते ही उन सबके ह्मदय किसी अज्ञात आशंका से ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगे। वे भागे-भागे उस कमरे की ओर गये, जहां वे अपनी समझ से कल्याणदास को मृत छोड़ आये थे। वहां का दृश्य देखते ही उनके होश उड़ गये, काटों तो खून नहीं। उनकी समझ में न आया कि वे जो कुछ देख रहे हैं, सत्य है अथवा स्वप्न, क्योंकि जिनको उन्होंने भोजन में अत्यन्त घातक विष मिलाकर दिया था, भोजन करते-करते ही जो विष के प्रभाव से अचेत होकर गिर पड़े थे और जिन्हें वे मृत समझ चुके थे, वही कल्याणदास भाव-विभोर होकर भजन गाने में तल्लीन थे। उनके शरीर पर नीलाहट का चिन्ह तक न था, उनका शरीर तो पहले से भी अधिक सुन्दर दिखाई दे रहा था। यह चमत्कार देखकर सभी भय के मारे थर-थर कांपने लगे और उनके चरणों में गिर कर अपने कुकृत्य के लिये क्षमा याचना करने लगे।
कल्याणदास ने उन्हें क्षमा करते हुये कहा-इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं है। ये कोई मेरे पूर्व कृत कर्म का फल था, जिसके परिणामस्वरुप मुझे विष खाकर कष्ट भोगना था, परन्तु कृपालु गुरुदेव ने मुझे तनिक-सा भी कष्ट नहीं होने दिया। अपनी दया से उन्होंने मेरा सारा कष्ट हर लिया। वे गुरुदेव के उपकारों का मुक्त कण्ठ से गायन करने लगे। महिमा करते-करते वे गुरुदेव के ध्यान में इस कदर लीन हो गये कि उन्हें अपने शरीर की तनिक भी सुधि न रही। मायादास आधी रात भर भयभीत से वहां बैठे रहे।
प्रातःकाल कल्याणदास ने मायादास से कहा-रात जो कुछ हुआ, उसे भूल जाइये। अब मैं यहां से जाना चाहता हूँ। आप अन्नपूर्णा से पूछ लें कि वह मेरे साथ जाना चाहती है अथवा आप लोगों के साथ रहना चाहती है। उसकी जैसी इच्छा हो, आप वैसा ही कीजिये। मायादास ने अन्नपूर्णा के पास जाकर पूछा-हमारी बात मानकर तथा केशव के साथ विवाह करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहती हो अथवा राह के भिखारी कल्याणदास के साथ जाना चाहती हो। अन्नपूर्णा ने दृढ़ता से कहा-आपके लिये वे मार्ग के भिखारी होंगे, परन्तु मेरे लिये तो वे देवतुल्य हैं। मायादास ने पुनः कहा-भलीभाँति सोच-विचार लो। यदि तुम हमारी बात न मानकर कल्याणदास के साथ जाओगी, तो फिर समझ लो कि आज के बाद हमारा-तुम्हारा नाता सदा के लिये समाप्त हो चुका। अन्नपूर्णा ने उत्तर दिया-पिताजी! मैने भलिभाँति सोच-विचार लिया है। यदि आपने मुझे उनके साथ नहीं जाने दिया, तो फिर निश्चित जानिये कि मैं आत्महत्या कर लूंगी। मेरी हत्या का दोष फिर आप लोगों के सिर होगा।
मायादास भयभीत हो गया। उसने पत्नी और पुत्रों के साथ परामर्श कर अन्ततः अन्नपूर्णा को कल्याणदास के साथ विदा कर दिया। कल्याणदास अन्नपूर्णा के साथ पैठण की ओर चल दिये। जाने से पूर्व अन्नपूर्णा ने सुशीला तथा उसके भाई अनिरुद्ध का बहुत-बहुत धन्यवाद करते हुये कहा-आप दोनों ने मुझ पर जो उपकार किया है, उससे मैं कभी भी उऋण नहीं हो सकती। मैं सदा तुम्हारे लिए मंगलकामना करती रहूंगी। सुशीला और अनिरुद्ध की आँखों में खुशी के आँसू छलछला आए। उन्होंने उसे प्रेमसहित विदाई दी।
मायादास ने अन्नपूर्णा को कल्याणदास के साथ विदा तो कर दिया, परन्तु कुकर्म से बाज़ फिर भी न आया। उसने अपने पुत्र द्वारा केशव के पास सन्देश भिजवाया कि अन्नपूर्णा का पति कल्याण दास उसे अपने साथ पैठण ले जा रहा है। यदि साहस हो तो कल्याणदास की हत्या कर अन्नपूर्णा को वापस ले आओ। सन्देश मिलते ही केशव क्रोध से तिलमिला उठा। उसने अपने कुछ विश्वस्त घुड़सवार सैनिकों को साथ लिया और पैठण की ओर जाने वाले मार्ग पर अपना घोड़ा दौड़ा दिया। कुछ ही समय बाद केशव ने कल्याणदास तथा अन्नपूर्णा को जा घेरा।
केशव तलवार निकाल कर कल्याणदास पर वार करना ही चाहता था कि एक ओर से पच्चीस-तीस घुड़सवार सैनिक वहां आ पहुँचे। उन्होंने केशव और उसके साथियों को ललकारा उन्हें देखते ही केशव और उसके साथी भय से कांपने लगे; जिसको जिधर मार्ग मिला भाग खड़ा हुआ। उन लोगों के भाग जाने पर घुड़सवार भी जिधर से आये थे, उधर ही वापस लौट गये। कल्णादास समझ गये कि यह सब श्री गुरुदेव की ही एक लीला है।
पैठण पहुँचकर दोनों गुरुदेव के श्री चरणों में उपस्थित हुये। गुरुदेव के पावन दर्शन कर वे गद्गद हो गये। दोनों आश्रम में ही रहने लगे। इस प्रकार गुरुदेव की छत्रच्छाया में रहकर तथा सेवा-भक्ति की कमाई कर उन्होंने अपना जन्म सफल किया और अपना नाम सदा-सर्वदा के लिए अमर कर गये।