Tuesday, February 9, 2016

भक्त कल्याण जी

भक्त कल्याण दास

     भक्त कल्याण दास महाराष्ट्र के रहने वाले थे। उनके पिता रामदास बहुत बड़े ज़मींदार थे। उनके पास अपार धन-सम्पत्ति थी, परन्तु इस धन-सम्पत्ति में उनकी तनिक भी आसक्ति न थी। वे बड़े ही साधु-सेवी, भगवद्भक्त और सरल स्वभाव के थे। उनका ह्मदय अत्यन्त कोमल था। दूसरे को दुःखी देखकर उनका ह्मदय पसीज उठता; फलस्वरुप वे हर प्रकार से उसकी सहायता कर उसका दुःख दूर करने का प्रयत्न करते। उनकी पत्नी भी उन्हीं की तरह ही धार्मिक विचारों वाली और सरल ह्मदया थी। माता-पिता के वे इकलौते पुत्र थे, इसलिये उनके प्रति माता-पिता का स्वाभाविक ही अतुल स्नेह था। संसार में आमतौर पर यही देखने में आता है कि यदि घर में धन-पदार्थों की बहुलता हो और बच्चे के साथ माता-पिता का अत्यधिक स्नेह भी हो, तो इकलौती सन्तान प्रायः बिगड़ जाती है और बुरी संगति में पड़कर कुमार्ग पर लग जाती है। किन्तु कल्याणदास के विषय में ये बात न थी। माता-पिता के धार्मिक विचारों तथा धर्म-कर्म में उनकी रुचि का तो कल्याणदास पर प्रभाव पड़ा ही, बाल्यकाल से ही सत्संगति मिलने के कारण उनके ह्मदय में भक्ति का बीजारोपण छोटी आयु में ही हो गया। सौभाग्य से उन्हें पूर्ण महापुरुषों की शरण-संगति भी प्राप्त हो गई और उनसे सच्चे नाम की भी प्राप्ति हो गई। सद्गुरुदेव के शुभ आशीर्वाद तथा उनकी अनुकम्पा से भक्ति का यह बीज शनैः शनैः प्रगति करने लगा। सत्रह वर्ष की आयु होने पर अन्नपूर्णा नामक कन्या से उनका विवाह कर दिया गया। अन्नपूर्णा धार्मिक विचारों की और बड़ी ही सुशीला थी। उसके पिता मायादास यद्यपि अत्यन्त धनाढ¬ थे, परन्तु थे बड़े ही कंजूस और सांसारिक विचारों के व्यक्ति।
     एक बार निरन्तर कई वर्षों तक वर्षा न होने से उस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा, जिससे लोग दाने-दाने को तरसने लगे। कल्याणदास के पिता रामदास अपनी उदारता के लिये उस क्षेत्र में प्रसिद्ध तो थे ही, फलस्वरुप भूख से व्याकुल जनता सहायता के लिये उनका द्वार खटखटाने लगी। उन्होंने किसानों का लगान तो माफ किया ही, सबके लिये अन्न का भण्डार भी खोल दिया। किन्तु यह भण्डार कब तक चलता, क्योंकि रामदास के द्वार पर आने वाले याचकों की संख्या कोई कम तो थी नहीं, परिणाम यह हुआ कि अन्न-भण्डार शीघ्र ही खाली हो गया। रामदास धन खर्च कर बाहर से अन्न मँगवाने लगे। धन समाप्त होने पर उन्होंने घर के आभूषण आदि बेच डाले और जब वे भी समाप्त हो गये, तो फिर उधार अन्न मंगवाना आरम्भ कर दिया। चूँकि वे धनी-मानी और प्रसिद्ध व्यक्ति थे, इसलिये पहले तो व्यापारी उन्हें उधार देते रहे, परन्तु धीरे-धीरे जब उन्हें वास्तविक स्थिति का पता चला, तो उन्होंने उधार देना बन्द कर दिया, उधार चुकता करने के लिये भी बार-बार आग्रह करने लगे। कुछ लोग तो न्यायालय में जाने की धमकी भी देने लगे। एक तो ऋण चुकाने की चिंता, दूसरे बदनामी का भय; परिणाम यह हुआ कि वे हर समय चिंतित रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनका स्वास्थ्य इतना अधिक गिर गया कि बचने की कोई आशा ही न रही। अन्तिम समय निकट आया जानकर रामदास ने कल्याण को बुलाकर कहा-बेटा! मेरा अन्तिम समय आ पहुँचा है। मैं तो अब जा रहा हूँ। मैंने तुम्हे एक विशेष कार्य के लिये बुलाया था, परन्तु अब सोचता हूँ कि तुमसे कहूँ या न कहूँ।
     कल्याण ने कहा-आप निःसंकोच ह्मदय की बात मुझसे कहें, हिचकिचायें नहीं। मैं वचन देता हूँ कि आपकी इच्छा प्राणपण से पूरी करूँगा। रामदास ने शान्ति की सांस ली मानो उनके सीने पर रखा कोई बोझ उतर गया हो, तत्पश्चात् बोले-मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। कल्याण! तुम्हें पता ही है कि भूख से व्याकुल लोगों की सहायता करने में मेरे ऊपर काफी ऋण चढ़ गया है। जैसे भी हो, यह ऋण चुका देना, यही मेरी
अन्तिम इच्छा है। भगवान तुम्हारा कल्याण करेंगे। ये शब्द कहकर रामदास ने कल्याणदास के सिर पर हाथ
रखकर उसे आशीर्वाद दिया और सदा के लिये आँखें मूँद लीं।
      कल्याणदास अभी पिता की तेरहीं से निपटे ही थे कि उनकी माता जी भी परलोक सिधार गई। उन्होंने प्रभु की इस इच्छा को भी शिरोधार्य किया। तेरहीं में सम्मिलित होने के लिये अन्नपूर्णा का ज्येष्ठ भ्राता आया। सब कार्य सम्पूर्ण हो जाने के उपरान्त उसने कल्याणदास से कहा-यदि आप आज्ञा दें, तो कुछ दिन अन्नपूर्णा घर हो आये। कल्याणदास ने इसमें कोई आपत्ति न की और अन्नपूर्णा दूसरे दिन भाई के साथ मायके चली गई। सब सम्बन्धियों के चले जाने के बाद कल्याणदास ने सोचा कि अब सर्वप्रथम मुझे पिता जी की अन्तिम इच्छा पूरी करने का प्रयत्न करना चाहिये। धन और आभूषण तो अन्न क्रय करने में पहले ही भेंट हो चुके थे, अतः उन्होंने अपनी सम्पत्ति बेचकर ऋण चुकाने का निर्णय किया।
     पहले लिखा जा चुका है कि कल्याणदास के श्वसुर मायादास यद्यपि काफी धनाढ¬ थे, परन्तु थे पूरे कंजूस। उनके पुत्र तो कंजूसी में उनसे भी एक पग आगे थे। अतएव उन्होंने इस संकट के समय में सहायता करना तो एक ओर रहा, कल्याणदास को सांत्वना तक न दी। कल्याणदास भी उनके पास सहायता मांगने नहीं गये और जाते भी क्यों? सच्चे गुरुमुख संसार की ओर नहीं ताकते, वे तो केवल इष्टदेव सद्गुरु का ही आश्रय ग्रहण करते और उन्हीं के चरणों में दृढ़ विश्वास रखते हैं, जैसा कि सन्तों का कथन हैः-
एक भरोसा एक बल, एक आस विस्वास।
स्वांति सलिल सतगुरु चरण, चात्रिक तुलसीदास।।
सच्चे गुरुमुख इष्टदेव सद्गुरु के अतिरिक्त न तो किसी अन्य की आस रखते हैं और न ही कष्टों के आने पर घबराते हैं। वे तो जीवन में आने वाले प्रत्येक सुख-दुःख तथा उतार-चढ़ाव को इष्टदेव का प्रसाद समझकर प्रसन्नतापूर्वक झोली में डालते हैं। वे विचारवानों के इस कथन को सदैव स्मरण रखते हैं किः-
न खुशी अच्छी है न मलाल अच्छा है।
जिस हाल में तू रखे वह हाल अच्छा है।।
     कल्याणदास ने सम्पत्ति बेचनी शुरु कर दी। ऋण चूंकि बहुत अधिक था, अतः उनकी सारी सम्पत्ति ऋण की भेंट हो गई। कल्याणदस के पास बचे केवल वे कपड़े, जो उन्होंने शरीर पर धारण कर रखे थे। कल का राजकुमार आज कंगाल बनकर गांव से बाहर निकला, परन्तु कल्याणदास के मन में तनिक-सी भी खिन्नता नहीं थी। गांव वालों तथा सम्बन्धियों ने कोरी सहानुभूति प्रदर्शित कर अपना कत्र्तव्य पूरा कर दिया; किसी ने भी उसकी सहायता न की। सत्पुरुषों ने सत्य ही फरमाया हैः-
इह जगि मीतु न देखियो कोई।।
सगल जगतु अपनै सुख लागिओ दुख मै संगि न होई।।
(गुरुवाणी)
गांव के बाहर आकर मन ही मन विचार करने लगे कि इस असत् संसार और उसकी झूठी मोह-ममता से गुरुदेव ने उसका पल्ला छुड़ा कर कितना महान उपकार किया है। अब पुनः मोह-ममता की दलदल में क्यों फंसा जाये? अब क्यों न शेष जीवन गुरु-दरबार की सेवा में लगाकर अपना समय सफल किया जाये?
     इस प्रकार अपना शेष जीवन गुरु-दरबार की सेवा में लगाने का दृढ़ निश्चय करके वे पैठण (महाराष्ट्र का एक नगर) की ओर चल दिये, जहां गोदावरी नदी के तट पर उनके गरुदेव का आश्रम था। कई दिन की यात्रा के उपरान्त वे आश्रम पर जा पहुँचे। गुरुदेव के श्री दर्शन करके वे प्रेम-विह्वल हो उठे। नेत्रों से प्रेमाश्रु
बहाते हुये वे गाने लगेः-

प्रभो मोहि कीजै अपना दास।।टेक।।
द्वार पे आया हूँ मैं तुम्हरे, जग से होय निरास।।
दीजिये मोहि शरण प्रभु अपनी, काटिये जग की फांस।।1।।
राखूँ मन में आस तुम्हारी, तज करि दूजी आस।
किरपा करि प्रभु मोहि दीजै, श्री चरणन में वास।।2।।
विनती करुँ दोऊ कर जोरि के, मान लीजै अरदास।
सेवा भक्ति मो को दीजै, जान के 'दासनदास'।।3।।
गुरुदेव के पूछने पर कल्याणदास ने सब वृत्तान्त श्री चरणों में सुनाकर निवेदन किया-प्रभो! मैं तो अब कंगाल हो चुका हूँ; इसलिये अब मुझे अपनी शरण में ठौर दीजिए। गुरुदेव ने फरमाया-कल्याण! तुम्हारे पास तो नाम-भक्ति का अमुल्य एवं अक्षय खज़ाना है, फिर तुम अपने को कंगाल क्यों कहते हो? क्या तुम सत्पुरुषों के ये वचन भूल गये कि-
कबीर सब जग निर्धना, धनवन्ता नहिं कोय।
धनवंता सोइ जानिये, जाके सत्तनाम धन होय।।
कल्याण! तुम्हें तो प्रभु का कोटि-कोटि धन्यवाद करना चाहिये और उनका आभार मानना चाहिये कि उन्होंने तुम्हें जग जंजाल से छुटकारा दिला दिया है। अब तुम समय का पूरा-पूरा लाभ उठाओ और अपना एक-एक स्वांस सेवा, भक्ति और नाम में लगाकर अपने जन्म को सकारथ करो। जो घड़ियां मालिक की याद में, मालिक के सुमिरण-ध्यान में बीतें, वे घड़ियाँ ही सफल हैं।
कबीर संगत साध की, सार्इं आवै याद।
लेखे में सोई घड़ी, बाकी दिन बरबाद।।
कल्याणदास आश्रम में रहकर प्राणपण से सेवा-भक्ति में जुट गये और अपना एक-एक पल लेखे लगाने लगे। इसी प्रकार काफी दिन व्यतीत हो गये। कल्याणदास के श्वसुर मायादास को जब बहुत दिन तक उनके बारे में कोई समाचार न मिला, तो वह चिन्तित हो उठा। अभी तक तो वह यह सोच रहा था कि कल्याणदास दूसरी जगह कोई कामकाज करके अन्नपूर्णा को ले जायेगा, परन्तु जब उनकी ओर से इतने दिन बीत जाने पर भी कोई सन्देश न मिला, तो उसने एक दिन अपनी पत्नी और पुत्रों को बुलाकर कहा-कौन जाने कल्याणदास जीवित भी है या नहीं। यदि वह जीवित भी हो, तो उस कंगाल के साथ अन्नपूर्णा का रहना अब उचित नहीं। हमें अब उसका कहीं दूसरी जगह विवाह कर देना चाहिये। मायादास की पत्नी बोली-ठीक ही तो है। उस भिखारी के साथ अब हमें सम्बन्ध तोड़ लेना चाहिये। उसके साथ सम्बन्ध रखना तो मानो अपनी मान-मर्यादा में बट्टा लगाना है। फिर उसके साथ रहने से तो अन्नपूर्णा का सारा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। इसलिये उसका पुनर्विवाह कर देना ही उचित है।
     सबने अन्नपूर्णा के पुनर्विवाह की बात स्वीकार कर ली। अन्नपूर्णा के बड़े भाई ने कहा-पिता जी! आप पण्डित जी से कहकर उसके लिये वर की खोज करायें। मायादास बोला-वह मैं पहले ही कर चुका हूँ। मधुकर ज़मींदार के साथ मैं इस विषय में बात भी कर आया हूँ। उन्होंने अपने पुत्र केशव के लिये अन्नपूर्णा का रिश्ता स्वीकार कर लिया है। पुत्र ने विरोध किया-वह तो लम्पट और शराबी है तथा पूरे क्षेत्र में बदनाम है। उसके साथ अन्नपूर्णा का विवाह करके क्या आप उसे नरक में ढकेलना चाहतेे हैं? मायादास ने कहा-यौवन में कुछ न कुछ अवगुण तो सभी में होते ही हैं। हो सकता है कि वह थोड़ी-बहुत शराब पीता हो। किन्तु अन्नपूर्णा बड़ी समझदार है, मुझे विश्वास है कि वह उसे सीधी राह पर ले आयेगी। फिर ऐसा धनी-मानी परिवार मिलना क्या
आसान बात है?
     लड़कों ने कुछ देर तक विवाद किया, परन्तु अन्ततः उन्हें पिता की बात माननी ही पड़ी। मायादास ने केशव के साथ अन्नपूर्णा के विवाह की बात पक्की कर दी। गांव वालों ने जब यह सुना,तो सभी को यह बात बुरी तो बहुत लगी, परन्तु मायादास और मधुकर-दोनों ही चूँकि धनाढ¬ व्यक्ति थे और उस क्षेत्र में उनका दबदबा था, अतः विरोध करने का किसी का भी साहस न हुआ। कुछ सम्माननीय व्यक्तियों ने जब मायादास को समझाने का प्रयत्न किया कि कल्याणदास के जीवित रहते अन्नपूर्णा का दूसरे के साथ विवाह करना लोकमर्यादा के विरुद्ध है, तो उसने यह कहकर उनका मुंह बन्द कर दिया कि कल्याण के जीवित होने का क्या प्रमाण है? यदि वह जीवित है, तो अब तक अन्नपूर्णा की खोज-खबर लेने क्यों नहीं आया? क्या हम उसकी प्रतीक्षा में अन्नपूर्णा को जीवनपर्यन्त घर बैठाये रखें? चूँकि इन प्रश्नों का उनके पास कोई उत्तर नहीं था, इसलिये वे चुपचाप वापस लौट गये।
     अन्नपूर्णा पति के वियोग में दुःखी तो पहले ही थी,विवाह के समाचार ने उसकी दुःखाग्नि में घृत का काम किया। उसने मन ही मन यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह किसी भी स्थिति में दूसरा विवाह नहीं करेगी। विवाह के एक दिन पूर्व तक वह अपने पति की प्रतीक्षा करेगी। यदि कल्याणदास आ गये तो ठीक, अन्यथा वह विष खाकर अपने प्राण त्याग देगी।
     उन्ही दिनों अन्नपूर्णा के गाँव के कुछ लोग तीर्थ-यात्रा से वापिस आये। यात्रा के मध्य पैठण जाना हुआ, जहां उनकी कल्याणदास से अकस्मात् मुलाकात हो गई। गांव वापस आकर उन्होंने कयाणदास से मिलने का समाचार मायादास को सुनाया। यह समाचार सुनते ही मायादास, उनकी पत्नी तथा लड़कों के चेहरे उतर गये। अन्नपूर्णा ने भी यह समाचार सुना। उन लोगों के चले जाने के बाद उसने घर वालों के समक्ष स्पष्ट रुप से कह दिया-मेरे पति जीवित हैं और आप लोग मेरे पुनर्विवाह की सोच रहे हैं। किन्तु आप सब यह बात निश्चित रुप से जान लें कि मैं इस शरीर के रहते किसी अन्य पुरुष से विवाह कदापि नहीं करुँगी।
     यह सुनकर सभी भड़क उठे। अन्नपूर्णा को एक कमरे में बन्द कर दिया गया। उसके घर से बाहर निकलने और अड़ोस-पड़ोस में जाने पर पूरी पाबन्दी लगी दी गई। अन्नपूर्णा के पास अब इसके अतिरिक्त और चारा ही क्या था कि वह प्रभु के चरणों में सहायता के लिये प्रार्थना करे। वह अपने कमरे में बैठी रात-दिन अश्रु बहाने और प्रभु-चरणों में प्रार्थना करने लगी। कोई प्रभु चरणों में आत्र्त पुकार करे और उसकी पुकार सुनी न जाये, यह तो हो ही नहीं सकता। अन्नपूर्णा की एक सहेली पड़ोस में ही रहती थी, जिसका नाम था सुशीला। दोनों का आपस में अत्यधिक स्नेह था। अन्नपूर्णा पर जो कुछ बीत रहा था, उससे सुशीला भी बहुत दुःखी थी। वह हर समय उसके विषय में ही सोचती रहती। अन्ततः उसे एक युक्ति सूझी। उसने अपने भाई अनिरुद्ध को एकान्त में बुलाकर कहा-भैया तुम जानते ही हो कि अन्नपूर्णा मेरी बचपन की सहेली है। उसके साथ जो अन्याय हो रहा है, वह तुमसे छिपा हुआ नहीं है। मुझसे उसकी यह दशा देखी नही जाती। अनिरुद्ध ने उत्तर दिया-सो तो ठीक है, परन्तु इस विषय में हम लोग क्या कर सकते हैं? जब उसके पिता ने गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की बात नहीं मानी, तो फिर वह हमारी तुम्हारी क्या सुनेगा?
     सुशीला ने कहा-भैया! मैं उसके पिता के पास जाने की बात नहीं कर रही। मुझे एक युक्ति सूझी है। यदि तुम थोड़ी सी सहायता कर दो, तो कदाचित् उस बेचारी के कष्ट दूर हो जायें। अनिरुद्ध ने कहा-दीदी! अन्नपूर्णा दीदी का भी मैं उतना ही आदर करता हूँ जितना तुम्हारा। तुम जो कहोगी, मैं करने को तैयार हूँ। यदि मेरी सहायता से उसका कष्ट दूर हो सकता है, तो फिर मैं इस काम से पीछे नहीं हटूँगा। बताओ, मुझे क्या करना है? सुशीला ने कहा-कल्याणदास पैठण में है, यह तो तुम्हें पता लग ही चुका होगा। तुम्हें पैठण जाना होगा। मैं अभी अन्नपूर्णा के पास जाती हूँ और कल्याणदास के नाम पत्र लिखवा कर लाती हूँ। तब तक तुम घोड़े पर ज़ीन कस लो। पैठण पहुंच कर वह पत्र तुम्हें कल्याणदास के गुरुदेव के चरणों में पहुँचाना है। किन्तु पत्र के विषय में यहां किसी के कानों में तनिक सी भी भनक नहीं पड़नी चाहिये। कोई पूछे भी तो कह देना कि काम से शहर जा रहा हूँ।
     यह कहकर सुशीला अन्नपूर्णा के घर चली गई। वहां जाकर उसने अन्नपूर्णा की माता को प्रणाम किया, कुछ देर उससे मीठी-मीठी बातें की, फिर अन्नपूर्णा के कमरे में चली गई। कमरे में पहुँचकर उसने अन्दर से कुण्डी बन्द कर ली। तत्पश्चात् अन्नपूर्णा को बहुत ही धीमे शब्दों में अपनी योजना बताई और कल्याणदास के नाम एक पत्र लिखकर देने को कहा। अन्नपूर्णा ने पत्र में अपनी सारी करुण कहानी लिखकर अन्त में लिखा-मेरा पत्र मिलने पर भी आप आयें या न आयें, यह तो आपकी इच्छा पर निर्भर है, परन्तु मैं एक-एक पल आपकी प्रतीक्षा में व्यतीत करुंगी। यदि आप न आये, तो फिर मैं विष खाकर प्राण त्याग दूँगी, परन्तु जीते जी किसी अन्य पुरुष का वरण नहीं करुँगी।
     पत्र लेकर सुशीला अपने घर आई। अनिरुद्ध जाने के लिये बिल्कुल तैयार था। उसने माता-पिता से यह कहकर आज्ञा ले ली थी कि वह एक दो दिन के लिये नगर में अपने मित्र के पास जा रहा है। उसने सुशीला से पत्र लिया और घोड़े पर सवार होकर पैठण की ओर चल दिया। तीसरे दिन सायंकाल वह पैठण पहुँचा और पता लगाकर आश्रम पर गया। गुरुदेव के चरणों में उपस्थित होकर उसने अपना परिचय दिया और अन्नपूर्णा के विषय में सब कुछ निवेदन कर पत्र उनके चरणों में रख दिया। गुरुदेव ने तत्काल कल्याणदास को बुलाया और उसे पत्र देते हुये फरमाया-यह पत्र पढ़ लो।
     कल्याणदास ने पत्र पढ़कर श्री चरणों में रख दिया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। गुरुदेव ने फरमाया-तुम्हारे कारण किसी के प्राण जायें, यह ठीक नहीं है। इसलिये कल प्रातः ही अनिरुद्ध के साथ तुम्हें जाना है। दो दिन की यात्रा तुम दोनों इकट्ठे तय करोगे, उसके बाद अनिरुद्ध तुम्हें छोड़ देगा ताकि ग्रामवासियों को यह न पता चले कि अनिरुद्ध यहां आया था। शेष मार्ग तुम पैदल तय करोगे। तुम्हें अन्नपूर्णा को साथ लेकर यहां आना है जिससे कि वह भी सेवा-भक्ति करके अपने समय का सदुपयोग कर सके और अपना जन्म सफल कर सके।
     दूसरे दिन प्रातःकाल कल्याणदास पैठण से चले और गुरुदेव की आज्ञानुसार दो दिन अनिरुद्ध के साथ तथा उसके बाद तीन दिन पैदल चल कर लगभग प्रातः चार बजे अपने श्वसुर मायादास के घर जा पहुँचे। घर का द्वार अभी बन्द था, इसलिए वे बाहर चबूतरे पर ही बैठ गए। द्वार खटखटाना उन्होंने उचित न समझा। अन्नपूर्णा को सुशीला द्वारा यह पहले ही ज्ञात हो चुका था कि कल्याणदास एक-दो दिन के अन्दर ही वहां पहुँचने वाले हैं, इसलिये वह बड़ी व्याकुलता से पति की प्रतीक्षा कर रही थी। थोड़ी देर बाद जब मायादास के पुत्र ने द्वार खोला, तो उसकी दृष्टि चबूतरे पर बैठे कल्याणदास पर पड़ी। उसने अन्दर जाकर सबको यह समाचार दिया। सुनकर सब एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये। फिर कुछ सोचकर लोक-लाज के भय से मायादास जमाता को अन्दर ले गये। ऊपर से सबने यही प्रकट किया मानो उन्हें कल्याणदास के आने से अत्यन्त हर्ष हुआ हो।
     जलपान के उपरांत अन्नपूर्णा के भाई कल्याणदास के साथ वात्र्तालाप करते रहे। दोपहर के भोजन केबाद एक कमरे में उनके विश्राम का प्रबन्ध कर दिया गया। अन्नपूर्णा आकर उनके पाँव दबाने लगी। आज उसके हर्ष का पारावार न था। थोड़ी देर बाद जब वे सो गये, तो अन्नपूर्णा उठकर अपने कमरे में चली गई। इधर मायादास ने अपनी पत्नी तथा पुत्रों को एकत्र करके आपस में परामर्श किया-गाँव वालों को कल्याणदास के आने का अभी तक पता नहीं, इसलिए आज रात ही भोजन में विष देकर इसकी छुट्टी कर देनी चहिये तकि रातों-रात ही लाश को ठिकाने लगाया जा सके। कल्याणदास को कैसे और कहां ठिकाने लगाना है, इस विषय में उन लोगों में दिन भर कानाफूसी होती रही। उनकी फुसफुसाहट में अन्नपूर्णा के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। सायंकाल जब मायादास की पत्नी भोजन बनाने लगी, तो अन्नपूर्णा भी मां की सहायता करने लगी। माँ ने दो-तीन बार उसे मना भी किया, परन्तु मना करने पर भी वह वहाँ से न टली। उस दिन भोजन में अनेक प्रकार के व्यंजन बनाये गये।
     जब भोजन का समय हुआ, तो अन्नपूर्णा की मां ने अन्नपूर्णा से कहा-जा दौड़कर चाँदी की थाली तो निकाल ला। जमाता को पीतल की थाली में भोजन परोसा जाये, यह अच्छा थोड़ा ही लगेगा? अन्नपूर्णा जब थाली लेकर वापस लौटी, तो रसोईघर में फुसफुसाहट की आवाज़ सुनकर वह खिड़की में से झांकने लगी। उसने मायादास को व्यंजनों में कोई पाउडर मिलाते हुये देखा। उसका ह्मदय कांप उठा। अब सब कुछ उसकी समझ में आ चुका था। विष के बारे में पति को सावधान करने के लिये जब वह कल्याणदास के कमरे में गई, तो वहाँ कल्याणदास मौजूद न था। न जाने उसके भाई उन्हें कहां ले गये थे। वह चिंतित हो उठी। अब वह करे तो क्या करे? मां को थाली पकड़ा कर वह भागती हुई अपने कमरे में गई और एक छोटे-से कागज़ पर ये शब्द लिखकर कि ""भोजन में विष मिला है'', तुरन्त वापस लौट आई।
     पापिष्ठा सास ने कल्याणदास के लिये चांदी की थाली में भोजन परोस कर उसे एक सुन्दर रेशमी रुमाल से ढककर पुत्र को आवाज़ दी। किन्तु भाई के आने के पूर्व ही अन्नपूर्णा ने थाली उठा ली। उसने आँख बचाकर वह परचा थाली में रख दिया। रसोईघर से बाहर निकलते ही अन्नपूर्णा के भाई ने थाली उससे ले ली। जिस कमरे में कल्याणदास के भोजन का प्रबन्ध किया गया था, वह उसके साथ वाले कमरे में चली गई और परदे की आड़ से झांकने लगी। उसका ह्मदय बड़ी जोरों से धड़क रहा था।
     कल्याणदास ने गुरुदेव को भोग लगवाया। तत्पश्चात् जैसे ही वे भोजन आरम्भ करने लगे कि उनकी दृष्टि कागज़ पर पड़ी। पढ़ते ही उनके नेत्र अश्रूपूर्ण हो गये और व्याकुलता की स्थिति में वे मन ही मन कहने लगे-गुरुदेव! मुझ अधम ने आज आपको विषाक्त भोजन का भोग लगवाया। प्रभो! अनजाने में मुझसे जो यह घोर अपराध हुआ है, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। हे मेरे प्राणाधार! जिस भोजन का आपको भोग लग चुका है, वह तो मेरे लिये प्रसाद रुप है, इसलिए चाहे अब प्राण रहें अथवा न रहें, प्रसाद तो मुझे ग्रहण करना ही है।
     कल्याणदास भोजन करने लगे। देखते ही अन्नपूर्णा मूÐच्छत होकर गिर पड़ी। आवाज़ सुनकर अन्नपूर्णा के भाई चौंक उठे। उन्होंने उसे उठाया और तहखाने में ले जाकर बन्द कर दिया। मूच्र्छा टूटने पर जब उसने स्वयं को तहखाने में बन्द पाया, तो वह लगी ज़ोर-ज़ोर से रोने और गुरुदेव के चरणों में पुकार करने। विषाक्त भोजन करते-करते कल्याणदास एकाएक छटपटाने लगे। कुछ ही पल में उनके शरीर पर नीलापन स्पष्ट झलकने लगा। शरीर अकड़ गया और वे अचेत होकर वहीं गिर पड़े। मायादास और उसके पुत्र यह समझकर कि काम पूरा हो चुका है, लाश को ठिकाने लगाने के विषय में मंत्रणा करने लगे। अन्त में यह तय हुआ कि मकान के पिछवाड़े के आँगन में गड्ढा खोद कर लाश वहीं दबा दी जाये। वे लोग यह बात पूरी तरह भूल गये कि जिसको मालिक जीवित रखना चाहे, उसे संसार में कौन मार सकता है? सन्तों का कथन हैः-
जाको राखे साइयाँ, मार सकै न कोय।
बाल न बाँका कर सकै, जो जग वैरी होय।।
गुरुवाणी में भी फरमान हैः-
जिसका सासु न काढत आपि।। ता कउ राखत दे करि हाथ।।
परामर्श अनुसार वे सब तो गड्ढा खोदने लगे। इधर कल्याणदास को मूच्र्छा की स्थिति में ऐसा अनुभव हुआ जैसे वे स्वप्न देख रहे हों। उन्होंने देखा कि उसके प्राणधन गुरुदेव सुन्दर सिंहासन पर विराजमान हैं और उन्हें आशीर्वाद देते हुये अमृतमय वचन फरमा रहे हैं-कल्याण उठो! तुम इस प्रकार अचेत क्यों पड़े हो? तुम्हें तो कुछ भी नहीं हुआ। तुम तो बिल्कुल ठीक हो। इन वचनों के साथ ही कल्याणदास को ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी ने उनके कन्धे झंझोड़ कर उन्हें गहरी निद्रा से जगा दिया हो। वे कुछ देर तक आँखें बन्द किये लेटे रहे। चारों ओर ऐसा सन्नाटा छाया था कि अपने स्वांसों की ध्वनि उन्हें स्पष्टरुप से सुनाई दे रही थी। कुछ देर के उपरांत उन्होंने आँखें खोली। कमरे में दीपक का हल्का-हल्का प्रकाश फैला हुआ था। उन्होंने चारों ओर दृष्टि डाली। धीरे-धीरे सभी घटनायें सजीव होकर चलचित्र की भांति उनके मनःपटल पर घूमने लगीं। गुरुदेव के उपकार को स्मरण कर वे भाव-विह्वल हो गये और आनन्द अश्रु बहाते हुये उच्च स्वर से गाने लगेः-
सतगुरु मैं तुम्हरी बलिहारी।।
तुम्हरे पावन चरणकमल पर, तन मन सब ही वारी।।1।।
हैं अनन्त उपकार प्रभु तुम्हरे, तुम हो परम हितकारी।
अपने सेवकजन की प्रभु जी, कबहूँ सुधि न बिसारी।2।।
पार न पावैं शेष शारदा, महिमा अमित तुम्हारी।
मैं गाऊँ फिर किस विधि स्वामी, हूँ मतिमन्द अनारी।।3।।
कर्ता धर्ता हो तुम जग के, सब दुःख कष्ट निवारी।
राखी पैज सदा भक्तन की, अपनो बिरद संभारी।।4।।
"दासनदास' दोऊ कर जोरि कै, विनती करत चरणारी।
मम हिरदै में सदा बिराजै, सुन्दर छवि तुम्हारी।।5।।
मायादास उसकी पत्नी तथा पुत्रों ने जो पाप कर्म किया था, उसके कारण घबराये हुये तो वे पहले ही थे, कहीं पत्ता भी खड़कता तो वे भय से कांपने लगते थे, भजन की आवाज़ कानों में पड़ते ही उन सबके ह्मदय किसी अज्ञात आशंका से ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगे। वे भागे-भागे उस कमरे की ओर गये, जहां वे अपनी समझ से कल्याणदास को मृत छोड़ आये थे। वहां का दृश्य देखते ही उनके होश उड़ गये, काटों तो खून नहीं। उनकी समझ में न आया कि वे जो कुछ देख रहे हैं, सत्य है अथवा स्वप्न, क्योंकि जिनको उन्होंने भोजन में अत्यन्त घातक विष मिलाकर दिया था, भोजन करते-करते ही जो विष के प्रभाव से अचेत होकर गिर पड़े थे और जिन्हें वे मृत समझ चुके थे, वही कल्याणदास भाव-विभोर होकर भजन गाने में तल्लीन थे। उनके शरीर पर नीलाहट का चिन्ह तक न था, उनका शरीर तो पहले से भी अधिक सुन्दर दिखाई दे रहा था। यह चमत्कार देखकर सभी भय के मारे थर-थर कांपने लगे और उनके चरणों में गिर कर अपने कुकृत्य के लिये क्षमा याचना करने लगे।
     कल्याणदास ने उन्हें क्षमा करते हुये कहा-इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं है। ये कोई मेरे पूर्व कृत कर्म का फल था, जिसके परिणामस्वरुप मुझे विष खाकर कष्ट भोगना था, परन्तु कृपालु गुरुदेव ने मुझे तनिक-सा भी कष्ट नहीं होने दिया। अपनी दया से उन्होंने मेरा सारा कष्ट हर लिया। वे गुरुदेव के उपकारों का मुक्त कण्ठ से गायन करने लगे। महिमा करते-करते वे गुरुदेव के ध्यान में इस कदर लीन हो गये कि उन्हें अपने शरीर की तनिक भी सुधि न रही। मायादास आधी रात भर भयभीत से वहां बैठे रहे।
     प्रातःकाल कल्याणदास ने मायादास से कहा-रात जो कुछ हुआ, उसे भूल जाइये। अब मैं यहां से जाना चाहता हूँ। आप अन्नपूर्णा से पूछ लें कि वह मेरे साथ जाना चाहती है अथवा आप लोगों के साथ रहना चाहती है। उसकी जैसी इच्छा हो, आप वैसा ही कीजिये। मायादास ने अन्नपूर्णा के पास जाकर पूछा-हमारी बात मानकर तथा केशव के साथ विवाह करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहती हो अथवा राह के भिखारी कल्याणदास के साथ जाना चाहती हो। अन्नपूर्णा ने दृढ़ता से कहा-आपके लिये वे मार्ग के भिखारी होंगे, परन्तु मेरे लिये तो वे देवतुल्य हैं। मायादास ने पुनः कहा-भलीभाँति सोच-विचार लो। यदि तुम हमारी बात न मानकर कल्याणदास के साथ जाओगी, तो फिर समझ लो कि आज के बाद हमारा-तुम्हारा नाता सदा के लिये समाप्त हो चुका। अन्नपूर्णा ने उत्तर दिया-पिताजी! मैने भलिभाँति सोच-विचार लिया है। यदि आपने मुझे उनके साथ नहीं जाने दिया, तो फिर निश्चित जानिये कि मैं आत्महत्या कर लूंगी। मेरी हत्या का दोष फिर आप लोगों के सिर होगा।
     मायादास भयभीत हो गया। उसने पत्नी और पुत्रों के साथ परामर्श कर अन्ततः अन्नपूर्णा को कल्याणदास के साथ विदा कर दिया। कल्याणदास अन्नपूर्णा के साथ पैठण की ओर चल दिये। जाने से पूर्व अन्नपूर्णा ने सुशीला तथा उसके भाई अनिरुद्ध का बहुत-बहुत धन्यवाद करते हुये कहा-आप दोनों ने मुझ पर जो उपकार किया है, उससे मैं कभी भी उऋण नहीं हो सकती। मैं सदा तुम्हारे लिए मंगलकामना करती रहूंगी। सुशीला और अनिरुद्ध की आँखों में खुशी के आँसू छलछला आए। उन्होंने उसे प्रेमसहित विदाई दी।
     मायादास ने अन्नपूर्णा को कल्याणदास के साथ विदा तो कर दिया, परन्तु कुकर्म से बाज़ फिर भी न आया। उसने अपने पुत्र द्वारा केशव के पास सन्देश भिजवाया कि अन्नपूर्णा का पति कल्याण दास उसे अपने साथ पैठण ले जा रहा है। यदि साहस हो तो कल्याणदास की हत्या कर अन्नपूर्णा को वापस ले आओ। सन्देश मिलते ही केशव क्रोध से तिलमिला उठा। उसने अपने कुछ विश्वस्त घुड़सवार सैनिकों को साथ लिया और पैठण की ओर जाने वाले मार्ग पर अपना घोड़ा दौड़ा दिया। कुछ ही समय बाद केशव ने कल्याणदास तथा अन्नपूर्णा को जा घेरा।
     केशव तलवार निकाल कर कल्याणदास पर वार करना ही चाहता था कि एक ओर से पच्चीस-तीस घुड़सवार सैनिक वहां आ पहुँचे। उन्होंने केशव और उसके साथियों को ललकारा उन्हें देखते ही केशव और उसके साथी भय से कांपने लगे; जिसको जिधर मार्ग मिला भाग खड़ा हुआ। उन लोगों के भाग जाने पर घुड़सवार भी जिधर से आये थे, उधर ही वापस लौट गये। कल्णादास समझ गये कि यह सब श्री गुरुदेव की ही एक लीला है।
     पैठण पहुँचकर दोनों गुरुदेव के श्री चरणों में उपस्थित हुये। गुरुदेव के पावन दर्शन कर वे गद्गद हो गये। दोनों आश्रम में ही रहने लगे। इस प्रकार गुरुदेव की छत्रच्छाया में रहकर तथा सेवा-भक्ति की कमाई कर उन्होंने अपना जन्म सफल किया और अपना नाम सदा-सर्वदा के लिए अमर कर गये।

भक्त अंगद सिंह जी

भक्त अंगदसिंह जी

परमसंत श्री कबीर साहिब जी के वचन हैंः-
भक्ति प्राण ते होत है, मन दै कीजै भाव।
     परमारथ परतीत में, यह तन जाव तो जाव।।
प्राचीन समय की बात है, भारतवर्ष के मध्यभारत के क्षेत्र में एक छोटा सा राज्य था जिसका नाम था-सैनगढ़। जिस समय की हम यह कथा लिखने जा रहे हैं, उन दिनों उस राज्य पर राजा दीनसलाह सिंह का शासन था। अंगदसिंह उन्हीं राजा दीनसलाह सिंह के भतीजे थे, जिन्होंने अभी यौवन अवस्था में पग रखा था। अंगदसिंह शारीरिक-रुप से बलिष्ठ तो थे ही, बुद्धिमान्, निर्भीक, साहसी और देशभक्त भी थे। इन गुणों के कारण राजा दीनसलाहसिंह अपने भतीजे को बहुत चाहते थे। अंगदसिंह भी अपने चाचा का बहुत आदर करते थे और उनके हर आदेश का पालन करने को सदा तत्पर रहते थे। विचारवानों का कथन है किः-
है गुण अवगुण सब विषे, इन बिन जंतु न कोई।
                           (सारुक्तावलि)
अंगदसिंह में भी जहाँ इतने सारे गुण विद्यमान थे, वहाँ कुछ अवगुण भी मौजूद थे। राज-परिवार से सम्बन्धित होने के कारण धन-धान्य की तो कोई कमी थी नहीं, फिर यौवनावस्था भी थी, इस पर सुसंगति की बजाय मिल गई कुसंगति, फल यह हुआ कि वे अत्यन्त विलास-प्रिय और ऐय्याश बन गये थे तथा खेल-तमाशे, आमोद-प्रमोद और नाच-गाने आदि में ही अपना अधिकतर समय व्यतीत करने लग गये थे। अर्थात् कुसंगति का रंग उनपर पूरी तरह चढ़ गया था। अपनी इस कुमित्र-मण्डली के साथ सारा दिन बिताकर वे रात देर गए घर वापस आते, परन्तु दशा यह होती कि नशे में पूरी तरह चूर होते।
     अंगदसिंह के माता-पिता परलोक सिधार चुके थे। राजा दीनसलाहसिंह के कोई सन्तान नहीं थी, इसलिए अंगदसिंह ही उनके राज्य के उत्तराधिकारी थे। राजा को अंगदसिंह की यह कुमित्र मण्डली और उनकी ये आदतें बिल्कुल अच्छी न लगती थीं। अतः उन्होंने यह सोचकर अंगदसिंह का विवाह कर दिया कि जब वह पत्नी की ओर आकर्षित हो जायेंगे तो कुमित्र-मण्डली का आकर्षण स्वयमेव ही कम हो जायेगा और वे अपने आप ही सुधर जायेंगे।
     अंगदसिंह की पत्नी बड़ी ही भक्तिभावसम्पन्न, सन्त-सेवा, सुशील स्वभाव की, मृदुभाषी तथा पतिव्रता थी। उसके माता-पिता बड़े ही भक्तिभाव वाले और साधु प्रकृति के थे तथा पूर्ण सद्गुरु से उन्हें नाम की दात भी मिली हुई थी। उनके घर प्रायः सत्संग होता रहता था। इस प्रकार अंगदसिंह की धर्म-पत्नी को बाल्यकाल से ही सत्संगति का सुअवसर मिलता रहा था जिससे उसके अन्दर भक्ति के विचार काफी सुदृढ़ हो गये थे। प्रभु-भक्त और प्रभु-प्रेम का उस पर गहरा रंग चढ़ा हुआ था।
     अंगदसिंह की दिनचर्या देखकर पहले तो उनकी धर्मपत्नी को बड़ा आघात लगा, परन्तु वह शीघ्र ही संभल गई। उसने अपने व्यवहार से यह बात बिल्कुल भी न प्रकट होने दी कि उसे पति की आदतें पसन्द नहीं हैं, न ही उसने कभी अपने पति से उनके आचरण के लिए शिकायत की। वह चुपचाप अपने पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए दिन व्यतीत करने लगी। जब तक अंगदसिंह घर पर रहते, वह उनकी हर तरह से सेवा करती और मधुर शब्दों में संभाषण करती। उसके इस प्रकार के व्यवहार का परिणाम यह हुआ कि अंगदसिंह के ह्मदय में उसने अपना स्थान बना लिया। अंगदसिंह उसकी प्रत्येक बात को पूरा करने और उसे हर तरह से प्रसन्न रखने का प्रयास करते। उनके मन में कई बार यह विचार उठता कि आमोद-प्रमोद और रंग-रलियों की महफिलों में
आना-जाना छोड़ दें, परन्तु कुमित्रों के आते ही वह विचार पूरी तरह दब जाता और वे उनके साथ चल पड़ते।
     यह देखकर उनकी धर्मपत्नी मन ही मन अत्यन्त दुःखी होती और भगवान के चरणों में घंटों इस बात के लिए प्रार्थना करती कि भगवान उसके पति पर अपनी कृपादृष्टि डालें और उन्हें कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगायें। भगवान उन्हें ऐसी सुमति दें कि कुसंगति के गंदले तालाब में विषयों की मछलियाँ पकड़ने की अपेक्षा वे सुसंगति के मान-सरोवर में मज्जन करें और नाम भक्ति के मुक्ता चुग-चुगकर खायें। अन्ततः उसकी सच्चे मन से की गई पुकार रंग लाई और भगवान ने अंगदसिंह के जीवन में परिवर्तन लाने का सब प्रबन्ध कर दिया। किसी भी कार्य के लिये यदि ह्मदय की गहराइयों से भगवान के चरणों में प्रार्थना की जाए तो वह प्रार्थना कभी निष्फल नहीं जाती। अंगदसिंह के जीवन सुधार के लिए उसकी धर्मपत्नी द्वारा की गई प्रार्थनाओं के फलीभूत होने का भी समय आ गया।
     हुआ यह कि एक दिन अंगदसिंह की धर्मपत्नी के गुरुदेव अकस्मात् उसके घर आ गए। गुरुदेव के दर्शन करके उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसने तुरन्त आंगन में उनके लिए पलंग तैयार किया और गरुदेव उस पर विराजमान हो गए। आज्ञा पाकर वह भी धरती पर बैठ गई। नौकर-चाकर भी एकत्र हो गए और उसका संकेत पाकर वहीं धरती पर बैठ गए।
     उस दिन अंगदसिंह भी सायंकाल होते ही घर लौट आए। घर में प्रवेश करते ही उन्होंने क्या देखा कि आंगन में एक तेजस्वी सन्त पलंग पर विराजमान हैं और उनकी धर्मपत्नी उनके सम्मुख दोनों हाथ जोड़े धरती पर बैठी है। सारे नौकर-चाकर भी वहीं बैठे हैं। सन्त कुछ कह रहे हैं और सभी उसे सुनने में मग्न हैं। अंगदसिंह तो विलासप्रिय व्यक्ति थे, उन्हें भला इन कार्यों से क्या रुचि हो सकती थी। दूसरे, अपनी पत्नी का जोकि भविष्य में उस राज्य की होनेवाली रानी थी, इस प्रकार किसी साधु-सन्त के सामने हाथ जोड़कर बैठना बिल्कुल अच्छा न लगा। वे यह सब देखकर झल्ला उठे। किन्तु जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि अंगदसिंह की धर्मपत्नी ने अपने व्यवहार से उनके दिल में काफी जगह बना ली थी और अंगदसिंह उसे बहुत चाहने लगे थे; फलस्वरुप वे हर समय इसी प्रयास में रहते थे कि उनकी पत्नी सदा प्रसन्न रहे और कभी कोई ऐसी बात न हो जिससे कि दोनों में एक-दूसरे के प्रति कटुता उत्पन्न हो। उस समय भी वहां सन्तों को बैठे देखकर पहले तो वे क्रोध से तिलमिला उठे, फिर न जाने क्या सोचकर वे बड़बड़ाते हुए अपने कमरे में चले गए। न ही निकट आए और न ही सन्तों को प्रणाम किया।
     अंगदसिंह की पत्नी अब तक सब कुछ सहन करती आई थी, परन्तु अंगदसिंह के आज के इस अविनययुक्त और अनीति पूर्ण व्यवहार से उसे गहरा आघात पहुँचा। उसके गुरुदेव तो पूर्ण महापुरुष थे जो मान-अपमान, स्तुति-निंदा तथा हर्ष-शोक आदि से बहुत ऊपर उठ चुके थे। ऐसे संत महापुरुषों के लिए ही गुरुवाणी में फरमान हैकिः-
सुखु दुखु जिह परसै नहीं लोभ मोह अभिमानु।
कहु नानक सुन रे मना सो मूरति भगवान।।
उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि।
कहु नानक सुनु रे मना मुकति ताहि तै जानि।
हरख सोग जा कै नहीं वैरी मीत समान।
कहु नानक सुनि रे मना मुक्ति ताहि तै जानि।।
अस्तु, मान-सम्मान और हर्ष-शोक आदि को समान समझनेवाले गुरुदेव अंगदसिंह के व्यवहार से तनिक भी उद्विग्न न हुए, हाँ! उन्होंने यह अवश्य जान लिया कि घर के स्वामी के ह्मदय में साधु-सन्तों के लिए तनिक भी
आदरभाव नहीं है। ऐसा जानकर उन्होंने वहाँ अब अधिक देर रुकना उचित न समझा। वे तुरन्त उठ खड़े हुए और चलने को तैयार हो गए। अंगदसिंह की पत्नी ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया, रुकने के लिये बार-बार प्रार्थना की, परन्तु गुरुदेव यह कहते हुए वहाँ से चले गए कि इस समय हम जल्दी में हैं, फिर कभी आयेंगे।
     गुरुदेव के प्रति अंगदसिंह के अनुचित एवं अविनययुक्त व्यवहार से उसकी पत्नी को गहरा आघात तो लगा ही था, परन्तु अब गुरुदेव के वहां से चले जाने पर तो मानो उस पर पहाड़ टूट पड़ा। वह मूÐच्छत होकर वहीं गिर पड़ी। सेवक और सेविकायें तो वहां उपस्थित ही थे, कुछ ने दौड़कर अंगदसिंह को सूचना दी। सेविकायें उसे उठाकर उसके कमरे में ले गर्इं और उसे होश में लाने का प्रयास करने लगीं। काफी देर बाद जब उसे होश आया और उसने आँखें खोलीं तो सामने अंगदसिंह को देखकर उसने पुनः आँखें मूँद लीं और करवट लेकर पड़ गई। अंगदसिंह ने एक-दो बार उसे आवाज़ दी, परन्तु जब उसकी ओर से कोई उत्तर न मिला तो उसने सोचा-चलो! इसे होश तो आ ही गया है, कुछ देर आराम कर लेगी तो स्वस्थ हो जायेगी। यह सोचकर उन्होंने सबको उसका पूरा-पूरा ध्यान रखने का आदेश दिया और स्वयं अपने कमरे में चले गये।
      कुछ समय के पश्चात् दासियाँ जब अंगदसिंह की पत्नी के लिए भोजन लेकर गई तो उसने भोजन करने से इनकार कर दिया और उन सबसे कह दिया कि न कोई मेरे निकट आये और न ही कोई मुझे बुलाने का प्रयत्न करे। दासियों ने अंगदसिंह को सब समाचार दिया। अंगदसिंह अपनी पत्नी के कमरे में गए। वह द्वार की ओर पीठ करके लेटी हुई थी और उसकी आँखों से आँसूं बह रहे थे। अंगदसिंह ने तीन चार बार उसे आवाज़ दी, परन्तु उसकी ओर से कोई उत्तर न मिलने पर वे यह बड़बड़ाते हुए अपने कमरे में वापस चले गये कि भोजन करती है तो करे, नहीं तो पड़ी रहे मरने के लिये।
     इसी प्रकार चार दिन बीत गये। अंगदसिंह की पत्नी ने भोजन करना तो दूर रहा, इन चार दिनों में जल की एक बूंद तक ग्रहण न की। रोते-रोते उसकी आँखें सूज गर्इं। उसकी हालत बिगड़नी शुरु हो गई। राजा दीनसलाहसिंह को पता चला तो उसने आकर समझाया, रिश्तेदारों और सम्बन्धियों ने आकर समझाया, परन्तु वह आँखे बन्द किये चुपचाप उसी प्रकार लेटी रही। धीरे-धीरे यह बात पूरे नगर में फैल गई कि अंगदसिंह की पत्नी ने इसलिये अन्न-जल का त्याग किया है क्योंकि उसके गुरुदेव का अंगदसिंह ने अपमान किया है। सारा नगर अंगदसिंह को दोष देने लगा।
अन्ततः अंगदसिंह पाँचवे दिन दोपहर को एकान्त होने पर अपनी पत्नी के कमरे में गए। वह उसी तरह गुम-सुम पलंग पर लेटी हुई थी। अंगदसिंह ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोले-मैने तुम्हारे दिल को बहुत ठेस पहुँचाई है। मैं अपने किये पर बहुत लज्जित हूँ। अब तुम जैसा कहोगी, मैं वैसा ही करूँगा। उठो, और कुछ खा-पी लो। अंगदसिंह की पत्नी ने जब ये शब्द सुने, तो पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ, फिर सोचने लगी-क्या भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली है? क्या इनके सुधरने का समय आ गया है? लगता है कि भगवान ने सचमुच ही मेरी पुकार सुन ली है। अन्यथा ये इस प्रकार के शब्द क्यों कहने लगे? यह सोचकर वह भगवान के प्रति कृतज्ञता से भर गई। उसकी आँखों से पुनः अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। रोते-रोते वह बोली-आपने जो उस दिन मेरे गुरुदेव का अपमान किया, उसी से मेरे ह्मदय को ठेस पहुँची है, क्योंकि गुरुदेव तो परब्राहृ परमेश्वर का अवतार होते हैं। आपने उनका अनादर नहीं किया, अपितु सर्वेश्वर परमात्मा का अनादर किया है। इससे जघन्य पाप संसार में भला और क्या हो सकता है? आप कुसंगति में पड़कर जो कुछ भी अनुचित कर्म करते रहे, मैने उस पर कभी अंगुली नहीं उठायी; चुपचाप उन्हें सहन करती रही। किन्तु गुरुदेव का अपमान मेरी आँखों के सामने हो, यह मेरी आत्मा कभी सहन नहीं कर सकती। इसलिए अच्छा
यही है इस अपराध के प्रायश्चितस्वरुप मैं अपने प्राण त्याग दूँ।
     यह सुनकर अंगदसिंह व्याकुल हो उठे और बोले-ऐसा मत कहो। मैं अभी तुम्हारे गुरुदेव के पास जाता हूँ और उनसे अपने अपराध के लिए क्षमा माँगता हूँ।अब उठो और कुछ खाओ -पीओ ताकि मुझे कुछ तसल्ली हो। अंगदसिंह की पत्नी ने कहा-जब तक गुरुदेव से क्षमा याचना करके और उन्हें मनाकर आप घर नहीं लायेंगे और साथ ही यह प्रतिज्ञा नहीं करेंगे कि भविष्य में आप किसी भी साधु-सन्त का न तो अनादर करेंगे और न ही उन्हें घृणा की दृष्टि से देखेंगे तब तक मैं जल भी ग्रहण नहीं करुँगी,यह मेरा प्रण है।
     अंगदसिंह ने उसके सामने प्रतिज्ञा करते हुए कहा-जो कुछ हुआ सो हुआ। अब भविष्य में मुझसे कभी ऐसा अपराध नहीं होगा। मैं अभी जाकर गुरुदेव से क्षमा की भिक्षा मांगता हूँ और उन्हें मनाकर आदर-सहित यहां लाता हूँ। साथ ही मैं यह प्रतीज्ञा करता हूँ कि आज से कुसंगति का पूरी तरह परित्याग करके मैं जीवन का शेष समय सत्संगति और प्रभु के सुमिरण-भजन में व्यतीत करूंगा। अंगदसिंह के ये शब्द सुनकर उनकी पत्नी को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और भगवान की इस असीम अनुकम्पा के लिए उन्हें बार बार मन ही मन धन्यवाद देने लगी और अपनी कृतज्ञता प्रकट करने लगी। यही तो वह मन से चाहती थी कि अंगदसिंह दुष्टमण्डली को छोड़कर सत्संगति और भजन-सुमिरण में अपना समय व्यतीत करें। आज उसकी यह इच्छा पूरी हो रही थी, इसलिए भगवान की कृपा का अनुभव कर आज वह बहुत प्रसन्न थी।
     अंगदसिंह उसी समय गुरुदेव के आश्रम पर पहुँचे और जाते ही उनके चरणों में गिर पड़े और अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने लगे। सन्त महापुरुष किसी से रुष्ट ही कब होते हैं? वे तो करुणा, दया और क्षमा के अवतार होते हैं और जीवों के कल्याण के लिए सब कुछ सहन करते हैं। गुरुदेव ने अंगदसिंह को क्षमा कर दिया और उनकी प्रार्थना पर उनके घर चले गए। वहीं पर अंगदसिंह ने गुरुदेव से नाम-दीक्षा ले ली और उस दिन से अपना अधिकतर समय नाम-सुमिरण,भजन-ध्यान और सन्तों की सेवा में व्यतीत करने लगे। वे भगवान श्रीकृष्ण के उपासक थे। कुछ ही दिनों में उनकी दशा यह हो गई कि वे भगवान के श्री दर्शन के लिए उसी प्रकार छटपटाने लगे जिस प्रकार ग्रीष्मऋतु में मरुस्थल की तपती रेत में प्यास से व्याकुल हिरण एक घूँट जल के लिए छटपटाने लगता है। किन्तु दर्शन देने से पूर्व भगवान अपने भक्त की भक्ति में दृढ़ता देखते हैं। यह देखते हैं कि भक्त ने दृढ़ता से उनका ओट-आसरा पकड़ा है या नहीं। अगंदसिंह जी की परीक्षा का समय भी आ गया। उस समय के बादशाह को जब इस बात का पता चला कि सैनगढ़ पर एक वृद्ध राजा शासन कर रहा है तो उसने राज्य को अपने अधीन करने का विचार कर अपने सूबेदार को बुलाया और उसे सैनगढ़ पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। राजा दीनसलाहसिंह एक तो वृद्ध था, दूसरे उसके पास इतनी अधिक सेना भी नहीं थी, इसलिए यह समाचार सुनते ही उसके होश उड़ गए। उसने तुरन्त अपने भतीजे अंगदसिंह को बुलाया और कहा-अंगद! शत्रु हमारे ऊपर एक बड़ी सेना लेकर चढ़ आया है। मेरे हाथ-पाँव तो अब शिथिल हो चुके हैं, इसलिए युद्ध कर सकना अब मेरी सामथ्र्य से बाहर है। सैनगढ़ की रक्षा और सम्मान का भार अब तुम्हारे ही हाथों में है। मै जानता हूँ कि बादशाह की सेना की तुलना में हमारी सेना बहुत ही कम है, फिर भी मुझे तुम्हारी वीरता और साहस पर पूरा-पूरा विश्वास है।
     अपने चाचा दीनसलाहसिंह के ये शब्द सुनते ही अंगदसिंह की भुजायें फड़कने लगीं और हाथ बार-बार तलवार पर जाने लगा। उन्होंने कहा-चाचा जी! आप ज़रा भी न घबरायें। शत्रु-सेना चाहे हम से संख्या में कितनी ही अधिक है, परन्तु हम उस टिड्डीदल को यह दिखा देंगे कि युद्ध किसे कहते हैं? हमारी तलवारें जब बिजली की तरह युद्भूमि में कड़केंगीं तो आप इस टिड्डीदल को सिर पर पाँव रखकर भागते देखेंगे।
     इस प्रकार अपने चाचा राजा दीनसलाहसिंह को तसल्ली देकर अंगदसिंह महल से बाहर आए और
सेनापति को सेना एकत्र करने का आदेश दिया। युद्ध का डंका बजा और कुछ ही देर बाद अपनी थोड़ी-सी सेना के साथ अंगदसिंह ने शत्रुसेना पर हल्ला बोल दिया। सूबेदार को ऐसी आशा बिल्कुल नहीं थी। वह तो यह सोच रहा था कि इतनी बड़ी सेना को देखकर राजा दीनसलाहसिंह आत्म समर्पण कर देगा। इसलिए वह बिल्कुल निÏश्चत था। इस अप्रत्याशित आक्रमण से पहले तो वह घबरा गया और उसकी सेना में भी खलबली मच गई परन्तु वह शीघ्र ही संभल गया और अपनी सेना में उत्साह भर कर उसने अंगदसिंह की सेना पर जवाबी हमला बोल दिया। दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के सैंकड़ों सैनिक हताहत हुए। अंगदसिंह और उसके सैनिकों ने वीरता के वे जौहर दिखाये कि शत्रु-सेना के पैर उखड़ गए और वह मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई, किन्तु सूबेदार न बच सका। अंगदसिंह ने सूबेदार का सिर काट लिया। उस समय सूबेदार ने एक मुकुट पहन रखा था जिसमें अनेकों हीरे जड़े हुए थे। उन सबके बीचों-बीच एक बहुत ही मूल्यवान हीरा भी था। उसे देखते ही अंगदसिंह के मन में विचार उठा कि यह बहुमूल्य हीरा तो भगवान के मकुट में शोभा पाने के योग्य है। यह विचार उठते ही अंगदसिंह ने वह हीरा मुकुट में से निकाल लिया। तत्पश्चात् वे अपनी बहादुर सेना केसाथ विजय का डंका बजाते हुए नगर लौटे और राजा के सामने सूबेदार का सिर और वह मुकुट रखते हुए कहा-यह सूबेदार का सिर और उसका मुकुट है। आपके आशीर्वाद से हमारी सेना विजयी हुई है। दीनसलाहसिंह बड़े प्रसन्न हुए और अंगदसिंह को गले लगा लिया। राज्य में इस विजय के उपलक्ष्य में खूब खुशियाँ मनाई गर्इं।
     कुछ दिनों के बाद किसी ने राजा दीनसलाहसिंह को इस बात की शिकायत कर दी कि सूबेदार के मुकुट में एक हीरा ऐसा था जो बहुत ही मूल्यवान था, आपको मुकुट देने से पूर्व अंगदसिंह ने वह हीरा मुकुट में से निकाल लिया था। ""इतना बहुमुल्य हीरा अंगदसिंह ने मुकुट में से निकाल लिया और मेरे को बताया तक नहीं।'' यह सोचकर राजा दीनसलाहसिंह का पारा चढ़ गया। अंगदसिंह की यह बात उसे बिल्कुल पसन्द न आई। लोभ ने उसकी बुद्धि का हरण कर लिया। वह इस बात को पूरी तरह भूल गया कि अंगदसिंह के कारण ही वह आज सैनगढ़ के सिंहासन पर बैठा हुआ है। अन्यथा आज वह बादशाह के कारागृह में पड़ा होता। उसने उसी समय अंगदसिंह को बुलाया और बोला-अंगद! हमने सुना है कि सूबेदार के मुकुट में एक अत्यन्त मूल्यवान हीरा था, जिसे तुमने निकाल लिया है।
     अंगदसिंह ने उत्तर दिया-आपने सही सुना है। वह हीरा भगवान के मुकुट में शोभा पाने योग्य है। मैंने यह सोचकर ही उसे निकाला है कि भगवान जगन्नाथ जी के सुन्दर मुकुट में उसे जुड़वाऊँगा। राजा दीनसलाहसिंह ने क्रोध में भरकर कहा-वह हीरा हमारे हवाले कर दो, वह हमारे मुकुट की शोभा बढ़ायेगा। अंगदसिंह ने उत्तर दिया-चाचा जी! वह हीरा तो भगवान जगन्नाथ जी के समर्पित करने का मैं निश्चय कर चुका हूँ, इसलिए वह हीरा आप मुझसे न मांगिये।
     राजा दीनसलाहसिंह ने कहा-तो इसका अर्थ यह हुआ कि वह हीरा तुम हमें नहीं दोगे। अंगदसिंह ने कहा-ऐसा ही समझ लीजिए। वह भगवान का हो चुका है, इसलिए वह हीरा मैं आपको नहीं दे सकता।
     राजा क्रोध से तिलमिला उठा और कड़क कर बोला-तुम्हारा यह साहस! तुम्हें हीरा हमारे हवाले करना ही होगा। यदि तुमने ऐसा न किया और अपने इस धृष्टतापूर्ण व्यवहार के लिए हमसे क्षमा न मांगी तो फिर तुम्हें ऐसा कड़ा दण्ड दिया जायेगा, जो तुम सोच भी नहीं सकते। अंगदसिंह ने बड़े ही धीरज से उत्तर दिया-आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए, परन्तु वह हीरा तो मैं भगवान को समर्पित कर चुका हूँ। इसलिए अपने प्राण रहते किसी और को वह हीरा मैं नहीं दे सकता।
     यह कहकर अंगदसिंह वहाँ से चले गए। राजा खून का घूंट पीकर रह गया। रात भर उसे नींद न आई।
वह इसी ऊहापोह में पड़ा रहा कि हीरा कैसे प्राप्त किया जाए। वह जानता था कि अंगदसिंह के सशक्त हाथों से वह हीरा प्राप्त करना असम्भव है। इसलिए उसने छल-कपट का सहारा लेने का निश्चय किया। अंगदसिंह के लिए भोजन का थाल अंगदसिंह की धर्मपत्नी स्वयं तैयार करती थी और फिर एक नौकर वह थाल अंगदसिंह के पास ले जाता था। यह नौकर बहुत समय से उनके घर काम करता था और अंगदसिंह को उसने गोद में खिलाया था। अंगदसिंह को वह बहुत चाहता था। अंगदसिंह उसका बड़ा आदर करते थे, इसलिए उनकी पत्नी भी उसका आदर-सम्मान करती थी। राजा दीनसलाहसिंह ने अंगदसिंह के उस नौकर को कुछ डरा-धमका कर और कुछ धन का लोभ देकर उनके भोजन में विष मिलाने पर राज़ी कर लिया। उसने बहकावे और लोभ में आकर वैसा ही किया और रात्रि को विष मिलाकर भोजन अंगदसिंह को परोस दिया।
     अंगदसिंह का यह नियम था कि वे पहले अपने इष्टदेव को भोग लगवाते थे, तत्पश्चात् ही भोजन करते थे। उस समय भी जब थाल उनके सामने परोसा गया तो उन्होंने अपने नियम के अनुसार इष्टदेव को भोग लगवाया। यह देखकर नौकर की बुद्धि पलट गई कि देखो! एक यह है कि भक्ति-प्रेम-श्रद्ध के उच्च भावों से भरपूर हैं और एक मैं ऐसा नीच हूँ कि जिसे गोदी में खिलाया, जिसका इतने दिन नमक खाया और जो पिता की तरह मेरा आदर करता है, थोड़े से धन के लोभ में पड़कर उसी की हत्या करने पर तुला हुआ हूँ। यह तो साथ जाएगा नहीं, परन्तु इस पाप का फल तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।
     ह्मदय परिवर्तन होते ही उसने अंगदसिंह के पैर पकड़ लिए और बोला-मालिक! यह भोजन न करें, इसमें विष मिला हुआ है। मैं राजा के बहकावे में आ गया था, इसलिये मुझसे यह घोर अपराध हो गया। मुझे क्षमा कर दें। अंगदसिंह ने सुना तो हक्के-बक्के रह गए, फिर कुछ संभलकर बोले-मैने तुम्हें क्षमा कर दिया। भगवान ने तुम्हें सद्बुद्धि दी, यह उनकी तुम्हारे ऊपर अत्यन्त कृपा है अन्यथा तुम हत्या के दोषी हो जाते। उनकी इस कृपा को याद करके उनका भजन-ध्यान किया करो। रही भोजन की बात, सो इस भोजन को तो भगवान का भोग लग चुका है, इसलिए मेरे लिए तो यह अब विषमय भोजन नहीं, अमृतरुप प्रसाद है। भगवान का यह प्रसाद तो मैं अब अवश्य ही ग्रहण करुँगा।
     यह कहकर उन्होंने नौकर के बार-बार मना करने पर भी भोजन करना शुरु कर दिया। यह देखकर नौकर दौड़ा हुआ अंगदसिंह की पत्नी के पास गया और उससे बोला-आप अंगद सिंह जी को भोजन करने से तुरन्त रोकें। उसमें विष मिला हुआ है। अंगदसिंह की पत्नी ने कहा-उनके भोजन में विष कहाँ से आया?
     नौकर ने उसे सारी बात बतला दी। सुनते ही अंगदसिंह की पत्नी के पैरों तले से ज़मीन निकल गई। वह भागी हुई उस कमरे में गई जहाँ अंगदसिंह भोजन कर रहे थे, परन्तु उस के वहँा पहुँचने से पूर्व अंगदसिंह जल्दी-जल्दी भोजन कर चुके थे; उन्होंने थाल में एक कण भी न छोड़ा था। यह देखकर वह और भी घबरा गई। उसने तुरन्त राजवैद्य को बुलवाया और भोजन के विषय में सारी बात बताकर कहा-आप इन्हें कोई ऐसी औषधि दें जिससे इन पर विष का प्रभाव न हो।
     राजवैद्य ने औषधि तैयार की, परन्तु अंगदसिंह ने यह कह कर औषधि लेने से इन्कार कर दिया कि जिस भोजन का भगवान को भोग लग गया, वह तो अमृतरुप हो गया, फिर औषधि किसलिये ली जाए? यह कहकर वे मन्दिर में चले गए और भगवान के ध्यान में बैठ गए। उनकी धर्मपत्नी, राजवैद्य और वह नौकर भी उनके निकट बैठ गए। इस प्रकार सारी रात बीत गई, परन्तु अंगदसिंह पर विष का रत्ती भर भी प्रभाव न हुआ। तब राजवैद्य ने कहा-विष का किंचित्मात्र भी कोई लक्षण इनमें प्रकट नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि आप लोगों को धोखा हुआ है।
     यह कहकर राजवैद्य वहाँ से चला गया और राजा दीनसलाहसिंह को सारी घटना से अवगत कराया। यह
सुनकर कि अंगदसिंह पर विष का ज़रा भी प्रभाव नहीं हुआ, उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि नौकर ने धोखा दिया हो और भोजन में विष मिलाया ही न हो। यह सोचकर उसे बड़ा क्रोध आया।
     उधर अंगदसिंह की पत्नी इसे भगवान की कृपा समझ रही थी और भगवान की इस कृपा पर उसकी आँखों से प्रेम और कृतज्ञता के अश्रुकण गिर रहे थे। प्रातः होने पर अंगदसिंह ध्यान से उठे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा-हमारा सैनगढ़ में रहना अब बिल्कुल ठीक नहीं है। जिस देश का राजा भगवान का भक्त होना तो दूर, भक्तों का ऐसा विरोधी हो और फिर साथ ही ऐसा लोभी भी हो कि दूसरे की हत्या करने को भी तत्पर हो जाए, वहाँ रहना कदापि उचित नहीं। इसलिए मैं तो अब भगवान जगन्नाथ जी की पुरी में रहूँगा, तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। उसकी पत्नी ने कहा-मैं भी आपके साथ पुरी चलूँगी।
     दिन बीत, रात आई। अंगदसिंह आधी रात तक कमरे में लेटे रहे। आधी रात होने पर वे उठे। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। उन्होंने धीरे-से अपनी पत्नी को जगाया और तब दोनों उस सन्नाटे में घर से बाहर निकले और पुरी की राह ली। प्रातः होने पर जब नौकरों ने अंगदसिंह और उनकी पत्नी को घर में न पाया, तो कोहराम मच गया। समाचार राजा दीनसलाहसिंह तक भी पहुंचा। राजा ने तुरन्त अपने कुछ विशेष सैनिकों को बुलाकर आदेश दिया-अंगदसिंह घर से भाग गया है। उसकी पत्नी भी उसके साथ है। अंगदसिंह वह मूल्यवान हीरा अवश्य ही अपने साथ ले गया होगा। तुम लोग अलग-अलग दिशा में जाओ और उसका पीछा करो। अधिकतर संभावना उसकी पुरी की ओर जाने की है, क्योंकि वह हीरा अंगदसिंह जगन्नाथ जी को समर्पित करना चाहता था। चाहे जैसे भी हो, उससे वह हीरा प्राप्त करके ले आओ, चाहे इसके लिए तुम्हें अंगदसिंह और उसकी स्त्री की हत्या ही क्यों न करनी पड़े।
     सैनिक घोड़ें पर सवार होकर अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। उधर प्रातःकाल होने पर एक सरोवर देखकर अंगद सिंह ने वहाँ स्नानादि किया और भगवान के ध्यान में बैठ गए। उन्हें यह आशा कदापि नहीं थी कि सैनिक उनका पीछा करेंगे। अभी ध्यान में बैठे हुए उन्हें थोड़ी देर ही हुई थी कि सैनिक वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने अंगदसिंह को ध्यान से उठाया और बोले-राजा के आदेश से हम हीरा प्राप्त करने के लिए आये हैं। वह हीरा आप हमें दे दें, हम चुपचाप वापस लौट जायेंगे।
     अंगदसिंह ने कहा-वह हीरा तो भगवान की अमानत है वह मैं किसी सूरत में भी तुम लोगों को नहीं दे सकता। सैनिकों के सरदार ने कहा-आप चुपचाप हीरा हमारे हवाले कर दें, इसी में आपकी बुद्धिमत्ता और जीवन की कुशलता है, अन्यथा हम उसे बलपूर्वक आपसे ले जायेंगे, चाहे हमें आपका वध ही क्यों न करना पड़े।
     अंगदसिंह उस समय खाली हाथ थे। सोचने लगे-यदि इस समय खड़ग मेरे पास होता तो इनका इस प्रकार की बातें करने का साहस ही न होता। अब जैसी भगवान की इच्छा। तत्पश्चात् उन्होंने हीरा निकाला और यह कहते हुए कि ""प्रभो! दास की यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये'' वह हीरा उस सरोवर में फेंक दिया। यह देखकर सैनिक अवाक् रह गये। उनके ऐसे त्याग को देखकर वे बड़े प्रभावित हुए और उन्हें भगवान का सच्चा भक्त समझने लगे तत्पश्चात् वापस लौटकर उन्होंने सारा वृत्तान्त राजा को सुनाया। सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। किन्तु इतने पर भी वह प्रभु-भक्तों की महिमा को न समझा, क्योंकि उस पर तो लोभ का भूत सवार था। गोताखोरों और उन सैनिकों को साथ लेकर वह उस सरोवर पर स्वयं गया और गोताखोरों को हीरा खोजने का आदेश दिया। गोताखोरों ने सरोवर का चप्पा-चप्पा छान मारा, हीरा न मिलना था, न मिला। वह तो वहँा पहुँच चुका था, जहां की वह अमानत था। विवश होकर राजा राजधानी वापस लौट गया।
     उधर सैनिकों के जाने के बाद अंगदसिंह अपनी पत्नी के साथ पुरी के लिये पुनः चल पड़े थे। उसी रात भगवान ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा-अंगद! हमने तुम्हारी भेंट स्वीकार कर ली है। वह हीरा हमारे पास पहुंच चुका है और तुम्हारी इच्छानुसार हमारे मुकुट में सुशोभित हो रहा है। तुम शीघ्र पुरी पहुंचो। भगवान के इन वचनों के साथ ही अंगदसिंह की नींद टूट गई। उन्होंने अपनी पत्नी को जगाकर स्वप्न के विषय में बतलाया, फिर कहा-हमारी तुच्छ भेंट भगवान ने कृपा करके स्वीकार कर ली, मानो आज हमारे भाग्योदय हो गये। भगवान के आदेशानुसार अब हमें शीघ्रातिशीघ्र पुरी पहुँच जाना चाहिए। बिना मार्ग में विश्राम किये दोनों शीघ्र ही पुरी पहुंच गए। उन्होने सर्वप्रथम मन्दिर में पहुँचकर भगवान के दर्शन किये। उन्होंने देखा कि वह अनमोल हीरा भगवान के मुकुट में शोभा पा रहा है। यह देखकर अंगदसिंह की आँखों से प्रेमाश्रु प्रवाहित होने लगे। उन्होंने अब पुरी में ही रहकर भजन-सुमिरण करने का निश्चय किया।
     कुछ दिनों के उपरान्त राजा दीनसलाहसिंह को अंगदसिंह और उनकी पत्नी के विषय में समाचार मिला कि वे दोनों पुरी में रहकर साधु सन्तों की सेवा और भगवान का भजन-सुमिरण करते हुए जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तो वह अपनी करनी पर अत्यन्त लज्जित हुआ। उसके विचारों ने पलटा खाया और उन्हें वापस लौटा लाने के लिए वह स्वयं पुरी पहुँचा। अंगदसिंह का पता लगाया और अपने अपराधों के लिए उनसे क्षमा मांगी, तत्पश्चात् सैनगढ़ चलकर राजकाज संभालने के लिए उनसे प्रार्थना की। अंगदसिंह ने कहा-मेरा मन तो यहँा रम गया है, इसलिए मैं अब वापस नहीं जाऊँगा। शेष रही राजकाज की बात, सो उसकी अब कोई इच्छा मेरे मन में नहीं रही। जो सुख और आनन्द यहाँ रूखी-सूखी खाकर भगवान का भजन-सुमिरण करने और साधु-सन्तों की सेवा करने में मिलता है, वह ऐश्वर्य भोगों और भाँति-भाँति के व्यंजनों में कहाँ? इसलिए सैनगढ़ वापस चलने के लिए आप मुझसे मत कहिए।
     किन्तु राजा नहीं माना और बार-बार जिद्द करने लगा। उस रात भगवान ने अंगदसिंह को स्वप्न में दर्शन देकर राजा की बात स्वीकार कर लेने का आदेश दिया। भगवान का आदेश भला भक्त कैसे टाल सकता था? अंगदसिंह राजा के साथ सैनगढ़ लौटे। आते ही राजा ने उनका राज्याभिषेक कर राज्य की बागडोर उनके सुपुर्द की। तत्पश्चात् अंगदसिंह को साथ लेकर राजा दीनसलाहसिंह गुरुदेव के आश्रम पर पहुँचा, उनसे नाम-दीक्षा ली और फिर आश्रम पर ही रहकर शेष जीवन भक्ति-भजन और सेवा में व्यतीत किया।
     अंगदसिंह और उनकी पत्नी तो अब नियमितरुप से गुरुदेव के आश्रम पर जाकर सत्संग का लाभ प्राप्त करने लगे। कभी-कभी अंगदसिंह के अऩुरोध पर गुरुदेव महल में भी कृपा करते जहां सत्सग का प्रवाह चलता। इस प्रकार अंगदसिंह और उनकी पत्नी ने अपना जन्म तो सफल किया ही, उनके माध्यम से अन्य अनेकों जीवों का भी सुधार एवं उद्धार हुआ।